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चरणानुयोग-प्रवेशिका ५५. प्र.-परिग्रह-परिमाण अणुव्रत किसे कहते हैं ?
उ०-अपने जीवन निर्वाहके लिए आवश्यक धन-धान्य वगैरहका परिमाण करके उससे अधिककी चाह नहीं करना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है। यह व्रत मनुष्यकी इच्छापर नियंत्रण लगाता है इससे इसे इच्छा परिमाण भी कहते हैं।
५६. प्र०-शील किन्हें कहते हैं ?
उ०—जैसे परकोटेसे नगरकी रक्षा होती है वैसे ही जिनसे अणुव्रतोंकी रक्षा आदि हो उन्हें शील कहते हैं।
५७. प्र०-शीलके कितने भेद हैं ? उ०-दो भेद हैं-गुणव्रत और शिक्षाक्त । ५८. प्र०-गुणवत किसे कहते हैं ? उ०-जो अणुव्रतोंका उपकार करें उनमें वृद्धि करें उन्हें गुणव्रत कहते हैं। ५९. प्र०-गुणवतके कितने भेद हैं ? उ०-तीन भेद हैं, दिग्वत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणवत । ६०. प्र०-दिग्वत किसे कहते हैं ?
उ०- दसों दिशाओंको मर्यादा करके मैं जोवन पर्यन्त इससे आगे नहीं जाऊँगा इस प्रकारके संकल्पको दिग्वत कहते हैं।
६१. प्र०-दिग्वतसे क्या लाभ है ?
उ०-दिग्वत से अणुव्रतीके गमनागमनका क्षेत्र सीमित हो जाता है । अतः वह जो कुछ भी प्रवृत्ति करता है वह सीमित क्षेत्र में हो करता है, सोमा के बाहर वह किसी भी तरहका पापाचरण नहीं करता। इसलिए गृहस्थ होते हुए भी वह सोमाके बाहरके क्षेत्रकी दष्टिसे मुनिके तुल्य हो जाता है। बाहरके देशोंसे व्यापार न कर सकनेसे लोभमें भी कमी होती है, स्वदेशी कारबारको प्रोत्साहन मिलता है।
६२. प्र०-अनर्थदण्डवत किसे कहते हैं ? ।
उ०-अनर्थ अर्थात् बिना प्रयोजन 'दण्ड' अर्थात् मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति करनेको अनर्थदण्ड कहते हैं और उसके त्यागको अनर्थदण्डवत कहते हैं। सारांश यह है कि दिशाओंकी मर्यादाके अन्दर भी व्यर्थके पापकार्य न करना अनर्थदण्डवत है।
६३. प्र०-अनर्थदण्ड के कितने भेद हैं ?
उ०-पाँच भेद हैं-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमाद चर्या।
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