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________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ९४. प्र०- - अन्वयदत्ति अथवा सकलदत्ति किसे कहते हैं ? उ०- अपने वंशको कायम रखनेके लिये अपने औरस या दत्तक पुत्रको धर्म और धनके साथ अपने कुटुम्बका सम्पूर्ण भार सौंपना अन्वयदत्ति अथवा सकलदत्ति है । १२ ९५. प्र० - दयादत्ति किसे कहते हैं ? - दीन-दुःखी प्राणियोंका दुःख दूर करनेकी भावनासे उनके लिए भोजन औषध आदिकी व्यवस्था करना दयादत्ति है । 2-02 ९६. प्र० - दान किसे कहते हैं ? उ०- कल्याणकी भावनासे अपने द्रव्यके देने को दान कहते हैं । ९७. प्र० – अतिथिदानसे क्या लाभ है ? उ० – जैसे पानी खूनके दागको धो देता है वैसे ही संसारसे विरक्त अतिथियोंको आदर पूर्वक दिया हुआ दान घरके कार्योंसे सञ्चित पापको भी धो देता है । ९८. प्र० - सल्लेखना किसे कहते है ? - सम्यक् प्रकार से शरीर और कषायोंके कृश करनेको सल्लेखना उ० कहते हैं । ९९. प्र० - सल्लेखना कब की जाती है ? उ०- जब कोई ऐसा उपसर्ग आ जाये, दुर्भिक्ष पड़ जाये, या रोग हो जाये जिसका कोई प्रतीकार न हो अथवा बुढ़ापा आ जाये तब धर्मको रक्षाके लिये शरीरका उत्सर्ग किया जाता है इसोका नाम सल्लेखना है । १००. प्र० --- सल्लेखना में और समाधिमरणमें क्या अन्तर है ? उ०- सल्लेखनापूर्वक मरणका नाम ही समाधिमरण है । १०१. प्र० - सल्लेखना करनेवाला आत्मघाती क्यों नहीं है ? उ०- धर्मनाशके कारण उपस्थित होनेपर शरीरकी परवाह न करनेवाला आत्मघाती नहीं हैं; क्योंकि क्रोध आदि कषायोंके आवेश में आकर जो विष आदिके द्वारा अपने प्राणोंका घात करता है वहो आत्मघाती कहा जाता है । १०२. प्र० - क्या शरीरकी रक्षा नहीं करना चाहिये ? - शरीर धर्मका साधन है इसलिये उसकी रक्षा करना जरूरी है । किन्तु धर्मं खोकर शरीरको बचाना ठीक नहीं है । १०३. प्र० - समाधिमरणको क्या विधि है ? उ०- राग, द्वेष, परिग्रह वगैरहको छोड़कर शुद्ध मनसे सबसे क्षमा माँगे 111 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003834
Book TitleCharnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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