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________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका और सबको क्षमा कर दे। फिर स्वयं किये हुए, दूसरोंसे कराये हुए और अनुमोदनसे किये हुए सब पापोंको आलोचना करके जीवन पर्यन्तके लिये महाव्रत धारण कर ले और शोक, भय, खेद वगैरहको छोड़कर तथा अपने में उत्साह भरकर अमृतके तुल्य उपदेशोंमें अपने मनको लगावे। तथा धीरे-धीरे आहार छोड़कर दूध वगैरह ले। फिर दूध वगैरहको भी छोड़कर केवल शुद्ध जल ले और यदि शक्ति हो तो उपवास करे। अन्त समय पानी भी छोड़ दे और मनमें पञ्च नमस्कारका ध्यान करते हुए शरीर छोड़े। १०४. प्र०-अतिक्रम किसे कहते हैं ? उ०-लिये हुए व्रतके प्रति मानसिक शुद्धि में कमीका होना अर्थात् विषयकी इच्छाका होना अतिक्रम है। १०५. प्र०-व्यतिक्रम किसे कहते हैं ? उ०-व्रतकी मर्यादाका उल्लंघन करना अर्थात् विषयकी सहायक सामग्रीका लुटाना व्यतिक्रम है। १०६. प्र०-अतिचार किसे कहते हैं ? उ०-व्रतकी अपेक्षा रखते हुए भी विषयोंमें प्रवृत्ति होना अतिचार है । १०७. प्र०-अनाचार किसे कहते हैं ? उ०-स्वेच्छाचारी बनकर विषयोंमें अत्यन्त असक्त हो जाना अर्थात् व्रतको भंग कर देना अनाचार है। १०८. प्र०-अहिंसाणुव्रतके अतिचार कौनसे हैं ? । उ० -दुर्भावसे मनुष्य या पशुका छेदन ( कान नाक आदि अवयवोंको छेदना ), बन्धन ( बांधकर डाल देना), पीडन ( कष्ट देना), अतिभार आरोपण ( शक्ति से अधिक बोझ लादना या शक्तिसे अधिक काम लेना), आहारवारणा या अन्नपाननिरोध ( खाना पीना या उचित मजदूरी न देना ये पांच अतिचार अहिंसाणुव्रतके हैं। १०९. प्र०-सत्याणुव्रतके अतिचार कौनसे हैं ? उ.-मिथ्या उपदेश ( गलत सलाह देना ), रहोऽभ्याख्या (किसीके रहस्यको ( गुप्तबातको) दूसरोंपर प्रकट कर देना ), कूटलेखक्रिया ( झूठ बातके सूचक शब्द लिखना ), न्यासापहार (धरोहर रख जानेवाला भूलसे कम मांगे तो उसे उतनी ही दे देना ), साकारमन्त्रभेद ( संकेतोंसे दूसरेके अभिप्रायको जानकर बुरी भावनासे प्रकट कर देना ) ये पांच सत्याणुव्रतके अतिचार हैं। १०४-१०६. मूला० ११-११, अमित० द्वा० श्लो०६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003834
Book TitleCharnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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