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चरणानुयोग-प्रवेशिका सोलह हैं-उद्दिष्ट, साधिक, पूति, मिश्र, प्राभृतक, वलि, न्यस्त, प्रादुष्कार, क्रीत, प्रामित्य, परिवर्तित, निषिद्ध, अभिहत, उद्भिन्न, अछेद्य और मालारोहण । .. २३९. प्र०-उद्दिष्टदोष किसे कहते हैं ?
उ०-देवता, दोन-मनुष्य और कुलिंगियों वगैरहके उद्देशसे बनाया गया भोजन उद्दिष्ट दोषसे दूषित है।
२४०. प्र०-साधिकदोष किसे कहते हैं ?
उ०-साधुको देखकर अपने लिये पकते हुए भोजनमें साधुके उद्देशसे और अन्न मिला देना साधिक दोष है।
२४१. प्र०-पूतिदोष किसे कहते हैं ? उ०-प्रासुकद्रव्यमें अप्रासुकद्रव्य मिला देना पूतिदोष है। २४२. प्र०-मिश्रदोष किसे कहते हैं ?
उ०-पाखण्डियों और गहस्थोंके साथ-साथ मुनियोंको देनेकी कल्पनासे तैयार किया गया प्रासुक भोजन भी मिश्रदोषसे दूषित है।
२४३. प्र०-प्राभृतकदोष किसे कहते हैं ?
उ.-जो भोजन जिस समयके लिए नियत है उसे उस समय न देकर पहले या पश्चात् देना प्राभृतकदोष है।
२४४. प्र०-वलिदोष किसे कहते हैं ?
उ०-देवता या पितरोंके लिए बनाये गये भोजनमेंसे शेष बचा भोजन साधुको देना वलिदोष है । अथवा साधके लिये सावध पूजाका आरम्भ करना वलिदोष है।
२४५. प्र०-न्यस्त अथवा स्थापितदोष किसे कहते हैं ?
उ.-जिस बरतनमें भोजन पकाया गया हो उसमें से बरतनमें निकाल कर अपने या दूसरेके घरमें रखा हुआ भोजन न्यस्तदोषसे दूषित है। क्योंकि ऐसे भोजनको रखनेवालेके सिवाय यदि कोई दूसरा दे-दे तो झगड़ा उत्पन्न हो सकता है।
२४६. प्र०-प्रादुष्कारदोष किसे कहते हैं ?
उ.-भिक्षाके लिए साधुके घर आनेपर भोजनके पात्र वगैरहको एक स्थानसे दूसरे स्थानपर ले जाना संक्रम नामका प्रादुष्कारदोष है और साधुके घर आनेपर बरतनोंको मांजकर चमकाना अथवा दीपक वगैरह जलाना प्रकाशन नामका प्रादुष्कारदोष है।
२४७. प्र०-क्रीतदोष किसे कहते हैं ?
उ०-भिक्षाके लिए साधुके आनेपर अपने अथवा दूसरोंके गौ बैल आदिको देकर खरीदा गया भोजन क्रोतदोषसे दूषित है।
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