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चरणानुयोग-प्रवेशिका २३१. प्र०- शिरोनतिका क्या स्वरूप है ?
उ०-सामायिक और स्तवके आदि और अन्तमें तीन आवर्त करनेके पश्चात् भक्तिपूर्वक सिरको नमाना चाहिये। अतः चार शिरोनति करना चाहिये।
२३२. प्र०—केशलोंचसे क्या अभिप्राय है ?
उ०-जैन श्रमणके पास एक कौड़ी भी नहीं होती जिसे देकर वह नाईसे क्षौरकर्म करा सके। न वह छुरा वगैरह ही रख सकता है । जटा बढ़ानेपर जुएँ वगैरह पड़नेका भय है। अतः वैराग्यको वृद्धिके लिये साधु अपने हाथसे सिर मंछ और दाढ़ीके बालोंको उखाड़कर फेंक देता है।
२३३. प्र. केशलोंच कितने समय बाद करना चाहिये ?
उ०-उत्कृष्ट केशलोंचका काल दो माह है, मध्यम केशलोंचका काल तीन माह है और जघन्य केशलोंचका काल चार माह है। लघसिद्ध और योगभक्तिपूर्वक केशलोंच प्रारम्भ करना चाहिये और लघुसिद्धभक्तिपूर्वक समाप्त करना चाहिये तथा उस दिन उपवास और प्रतिक्रमण करना चाहिये।
२३४. प्र०-जनश्रमण स्नान क्यों नहीं करते?
उ.-ब्रह्मचारियोंको और विशेष करके आत्मदर्शी महापुरुषोंको जलशुद्धिसे प्रयोजन नहीं रहता। हां, दोष होनेपर स्नान करना आवश्यक है।
२३५. प्र०-जनश्रमणको कैसे सोना चाहिये ?
उ०-नग्न भूमिपर अथवा सूखे तृणोंसे ढकी हई भूमिपर या तण काष्ठ अथवा पत्थरकी शाखापर पैरोंको फैलाकर एक करवटसे सोना चाहिये, चित्त या पट लेटकर नहीं सोना चाहिये ।
२३६. प्र०-साधुके भोजनको क्या विधि है ?
उ०-दिनके आदि और अन्तकी तीन-तीन घड़ी छोड़कर दिनके मध्य में, बिना किसो सहारेके खड़े होकर तथा छियालोस दोष बचाकर विधिपूर्वक दिये हुए नौ कोटिसे शुद्ध आहारको एकबार अपने हाथरूपी पात्रमें ग्रहण करना चाहिये।
२३७ प्र०-भोजनके छियालीस दोष कौनसे हैं ?
उ०-१६ उद्गम दोष हैं, १६ उत्पादन दोष हैं, १० अशन अथवा एषणा दोष हैं और चार अंगार आदि दोष हैं। इन दोषोंको बचाकर ही साधुको भोजन करना चाहिये।
२३८. प्र०-उद्गम दोष कौनसे हैं ? उ.--जो दोष दाताकी ओरसे होते हैं वे उदगम दोष कहे जाते हैं। वे
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