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________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका हों, कीलें न उठी हों, छिद्र न हों, बैठनेसे चर्र-मर्र न करता हो, जिसका स्पर्श कष्टदायक न हो, ऐसा तण, काष्ठ या पाषाणका पीठ कृतिकर्मके योग्य है। २२३. प्र०-कृतिकर्मके योग्य आसन कौन-सा है ? उ०-कृतिकर्मके योग्य तीन आसन हैं-पद्मासन, पर्यंकासन और वीरासन । जिसमें दोनों चरण दोनों जंघाओंपर रखे हों वह पद्मासन है। जिसमें एक जंघाके ऊपर दूसरी जंघा रखी हो वह पर्यंकासन है और जिसमें दोनों चरण घुटनोंसे ऊपर दोनों सांथलोंपर रखे हों वह वीरासन है। कमजोर मनुष्य इस वोरासनको नहीं लगा सकते। २२४. प्र०-कृतिकर्मके योग्य मुद्रा कौन-सी है ? उ०-कृतिकर्मके योग्य चार मुद्राएँ हैं-जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दनामुद्रा और मुक्ताशुक्तिमुद्रा। २२५. प्र०-जिनमुद्रा किसे कहते हैं ? उ०-दोनों पैरोंके बीच में चार अंगुलका अन्तर रखते हुए दोनों हाथोंको नीचे लटकाकर खड़ा होना जिनमुद्रा है।। २२६. प्र०-योगमुद्रा किसे कहते हैं ? उ०-पद्मासन, पर्यंकासन या वीरासन लगाकर गोदमें बायीं हथेलोके ऊपर दायीं हथेली रखना योगमुद्रा है । २२७. प्र०-वन्दनामुद्रा किसे कहते हैं ? उ०-दोनों हाथोंको मुकुलित करके दोनों कोहनियोंको पेटपर रखकर खड़ा होना वन्दनामुद्रा है। २२८ प्र०-मक्ताशक्तिमदा किसे कहते हैं ? उ० - दोनों हाथोंको जोड़कर और दोनों कोहनियोंको पेटपर रखकर खड़े होना मुक्ताशुक्तिमुद्रा है। २२९. प्र०-किस कृतिकर्ममें कौन मुद्रा होनी चाहिये ? उ.- वन्दनामें वन्दनामुद्रा, सामायिक एवं स्तवमें मुक्ताशुक्तिमद्रा और यदि अशक्त होनेसे बैठकर कायोत्सर्ग करे तो योगमुद्रा तथा खड़ा होकर करे तो जिनमुद्रा होनी चाहिये। २३०. प्र०-आवर्तका क्या स्वरूप है ? ____ उ.-शुभयोगके परावर्तनका नाम आवर्त है। सामायिक और स्तवके आदि और अन्तमें बारह आवर्त होते हैं अर्थात् सामायिक आवश्यक करते समय दोनों हाथोंको मुकुलित करके तीन बार घुमावे, फिर ‘णमो अरहंन्ताणं' इत्यादि पढ़े। समाप्त होनेपर पुनः दोनों हाथोंको मुकुलित करके तीन बार घुमावे । ऐसा ही स्तवमें करना चाहिए। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003834
Book TitleCharnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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