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________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका उ०-कषायरूपी मलका क्षय अथवा उपशम होनेसे वह शुक्लध्यान होता है इसलिए आत्माके शुचि गुणके सम्बन्धसे इसे शुक्लध्यान कहते हैं। ५०५. प्र०-शुक्लध्यानके कितने भेद हैं ? उ०-शुक्लध्यानके चार भेद हैं-पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति । ५०६. प्र०-शुक्लध्यान किसके होते हैं ? उ०-आदिके दो शक्लध्यान तो सकल श्रतके धारक श्रतकेवलीके होते हैं और अन्तके दो शुक्लध्यान सयोगकेवली और अयोगकेवलीके होते हैं। दूसरे रूपसे पहला शुक्लध्यान तीनों योगवाले मुनियोंके होता है; क्योंकि इसमें योग बदलता रहता है। दूसरा शुक्लध्यान किसी एक योगवालेके हो होता है क्योंकि इसमें योग बदलता नहीं है। तीसरा शक्लध्यान काययोग वालेके ही होता है क्योंकि केवल काययोगकी सूक्ष्म क्रिया ही होती है और चौथा शुक्लध्यान अयोगकेवलोके ही होता है क्योंकि इसमें योगोंकी क्रियाका सर्वथा अभाव हो जाता है। ५०७. प्र०-पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान किसे कहते हैं ? उ०-जिस ध्यानमें पृथक्-पृथक् रूपसे वितर्क और वीचार होता है उसको पृथक्त्ववितर्क वोचार शुक्लध्यान कहते हैं। ५०८. प्र०-वितर्क किसे कहते हैं ? । उ.-विशेष रूपसे तर्क अर्थात् विचार करनेको वितर्क कहते हैं । वितर्क नाम श्रुतज्ञानका है। ५०९. प्र०-वीचार किसे कहते हैं ? उ०-ध्यान करते समय ध्यानके विषयका बदलना, वचनका बदलना और योगका बदलना वीचार है। ५१०. प्र०-एकत्ववितर्क शुक्लध्यान किसे कहते हैं ? उ०-जिस ध्यानमें योगो एक द्रव्य, एक अणु अथवा एक पर्यायको एक योगसे चिन्तन करता है अर्थात् जिसमें ध्येय, वचन और योग नहीं बदलता उस पृथक्त्व रहित, वोचार रहित किन्तु वितर्क सहित ध्यानको एकत्ववितर्क शुक्ल. ध्यान कहते हैं। यह शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान पूर्वक ही होता है तथा इसके होनेपर घातियाकर्म क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते हैं। ५११. प्र०-सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यान किसे कहते हैं ? उ.-जब केवली भगवान्को आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है तब वे बादरकाय योगमें स्थिर होकर बादर वचनयोग और बादर मनोयोगको सूक्ष्म करते हैं। फिर वचनयोग और मनोयोगमें स्थित होकर बादर काययोगको सूक्ष्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003834
Book TitleCharnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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