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चरणानुयोग-प्रवेशिका करते हैं । फिर सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर वचनयोग और मनयोगका निग्रह करते हैं। तब सूक्ष्म काययोगके द्वारा सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यान करते हैं। ५१२. प्र०-समुच्छिन्न अथवा व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान किसे
कहते हैं ? उ०-तीसरे शुक्लध्यानके पश्चात् समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामका चौथा शुक्लध्यान होता है। इसमें श्वासोच्छ्वासका संचार, समस्त मनोयोग, वचन योग, काययोग और समस्त प्रदेशोंका हलन चलन आदि क्रिया रुक जाती है। इसलिये इसे समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति कहते हैं। इसके होनेपर मोक्षके साक्षात् कारण चारित्र, दर्शन और ज्ञान पूर्ण हो जानेसे अयोगकेवलो भगवान् शुद्ध सुवर्णकी तरह निर्मल आत्मरूप होकर निर्वाणको प्राप्त करते हैं ।
५१३. प्र०-निर्ग्रन्थ किसे कहते हैं ?
उ०-सम्यग्दृष्टि होनेके साथ ही साथ जो बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहके त्यागो होते हैं उन्हें निर्ग्रन्य कहते हैं। इसोसे दिगम्बर जैन साधु निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं।
५१४. प्र०-निर्ग्रन्थके कितने भेद हैं ?
उ०-पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक इन पाँचोंको निर्ग्रन्थ कहते हैं।
५१५. प्र०-पुलाक मुनि किसे कहते हैं ?
उ०-जिन मुनियोंके उत्तर गुणको भावना भी नहीं होती और मूलगुणोंमें भी जो कभी-कभी दोष लगा लेते हैं उन मुनियोंको पुलाक कहते हैं।
५१६. प्र०-पुलाक मुनिको अन्य विशेषताएँ क्या हैं ?
उ०-पुलाक मुनिके सामायिक और छेदोपस्थाना चारित्र होता है, कम से कम आचारांगके और अधिकसे अधिक दसपूर्वके ज्ञाता होते हैं। उनके तीन शुभ लेश्याएँ होतो हैं और मरकरके वह अधिकसे अधिक बारहवें स्वर्ग तक जन्म लेते हैं।
५१७ प्र०–बकुश मुनि किसे कहते हैं ? ___ उ०-जिनके मूलगुण तो निर्दोष होते हैं किन्तु जिन्हें अपने शरीर तथा पीछी वगैरह उपकरणोंसे मोह होता है उन्हें बकुश मुनि कहते हैं ?
५१८. प्र०-बकुश मुनिको अन्य विशेषताएं क्या हैं ?
उ०-बकुश मुनिके सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र होता है। ये कमसे कम पांच समिति और तीन गुप्तियोंके तथा अधिकसे अधिक दसपूर्वके ज्ञाता होते हैं। उपकरणोंमें आसक्ति होनेसे इनके छहों लेश्याएँ होतो हैं । ये मरकर अधिकसे अधिक सोलहवें स्वर्गतक जन्म लेते हैं।
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