SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका विनयशुद्धि है । एकाग्रचित्तसे अध्ययन करना अथवा जबतक यह ग्रन्थ अथवा इसका अमुक भाग समाप्त होगा तबतक मैं उपवास करूँगा इत्यादि संकल्पको उपधानशुद्धि कहते हैं। जिस शास्त्रका अध्ययन करे अथवा जिसके मुखसे शास्त्र सुने दोनोंका आदर करना बहमानशद्धि है। जिस शास्त्रको पढ़ता हो और जिससे पढ़ता हो उसका नाम न छिपाना अनिह्नवशुद्धि है। शास्त्र के वाक्योंका शुद्ध उच्चारण करना व्यंजनशुद्धि है। उनका ठोक-ठोक अर्थ करना अर्थशुद्धि है और व्यंजन तथा अर्थ दोनोंको शुद्धिको तदुभयशुद्धि कहते हैं । ४०७. प्र०-ज्ञानाचार और ज्ञानविनयमें क्या अन्तर है ? उ०-कालशुद्धि आदि में प्रलय करना ज्ञानविनय है और कालशुद्धि आदिके होनेपर श्रुतका अभ्यास करना ज्ञानाचार है। ४०८. प्र०-चारित्रविनय किसे कहते हैं ? । ___ उ०-इन्द्रियोंको वशमें करना, कषायोंका निग्रह करना और गुप्ति तथा समितियोंका पालन करना चारित्रविनय है। ४०९. प्र. -चारित्राचार और चारित्रविनयमें क्या भेद है ? उ०–समिति आदिमें यत्न करना चारित्र विनय है और समिति आदिके होनेपर व्रतोंमें यत्न करना चारित्राचार है। ४१०. प्र०-औपचारिकविनय किसे कहते हैं ? उ०-औपचारिक विनयके तीन प्रकार हैं-कायिक, वाचिक और मानसिक । इनमेंसे भी प्रत्येकके दो प्रकार हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । पूज्य पुरुषोंको आता हुआ देखकर आदरपूर्वक अपने आसनसे उठना, उनके अभिमुख जाना, हाथ जोड़ना, नमस्कार करना, उन्हें आसन देना, उनके पैर दबाना इत्यादि उपचार शरीरसे करना कायिकविनय है। आदरणीय शब्दोंसे उनका सत्कार करना वाचिकविनय है और अपने मनमें उनके प्रति अनुराग और श्रद्धाको भाव होना मानसिकविनय है। यह सब प्रत्यक्ष औपचारिकविनय है। गुरु वगैरहके अभावमें भी उनकी आज्ञाका पालन करना, उनके गुणोंका कीर्तन और स्मरण आदि करना परोक्ष औपचारिकविनय है। ४११.प्र०-तपोविनय किसे कहते हैं ? पहले कहे हुए छै आवश्यकोंको नियमपूर्वक करना, परीषहोंको सहना, उत्तरगुणोंमें उत्साहयुक्त होना, अपनेसे जो तपमें अधिक हों उनको विनय करना और जो तपमें लघु हों उनका भी निरादर न करना तपविनय है। ४१२. प्र०~-वैयावृत्यतप किसे कहते हैं ? उ० - आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इनको कोई रोग हो जाये, इनपर कोई उपसर्ग आ जाये या इनमेंसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003834
Book TitleCharnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy