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५.
चरणानुयोग-प्रवेशिका उ०–अपराधी साधुके दीक्षाके समयमें कमी कर देना, जैसे-वीस वर्षसे दीक्षित साधुको दस वर्षसे दीक्षित मानना छेद प्रायश्चित्त है ।
३९८.३०-मूल प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ?
उ०-पुरानी दीक्षाको छेदकर फिरसे दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त है। तत्त्वार्थ सूत्र में इसका नाम उपस्थापना है।
३९९. प्र०-परिहार प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ?
उ०-कुछ समयके लिये अपराधो साधुको संघसे बाहर कर देना परिहार प्रायश्चित्त है।
४००. प्र०-श्रद्धान प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ?
उ०-जो साधु मिथ्यादृष्टि हो गया हो, उसे पुनः दोक्षा देकर देव, शास्त्र और गुरुका श्रद्धानी बना लेना श्रद्धान प्रायश्चित्त है ?
४०१. प्र०-विनयतप किसे कहते हैं ?
उ०-रत्नत्रय और रत्नत्रयके धारी पुरुषों और स्त्रियोंका यथायोग्य आदर करना विनयतप है। ___४०२. प्र०-विनयतपके कितने भेद हैं ?
उ०-तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार विनयतपके चार भेद हैं-दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय और औपचारिकविनय तथा आचारशास्त्रके मतसे विनयके पाँच भेद हैं--पूर्वोक्त चार और एक तपविनय ।
४०३ प्र०-दर्शन विनय किसे कहते हैं ?
उ०-तत्त्वार्थका शंका आदि दोषोंसे रहित और उपगूहन आदि गुणोंसे सहित निर्मल श्रद्धान करना तथा अर्हन्त आदिके गुणोंमें अनुराग होना दर्शन विनय है।
४०४. प्र०-दर्शनविनय और दर्शनाचार में क्या भेद हैं ? ।
उ०-सम्यग्दर्शन आदिको निर्मल करने का प्रयत्न करना तो दर्शन विनय है और निर्मल हो जानेपर तत्त्वार्थश्रद्धान में प्रयत्न करना दर्शनाचार है।
४०५. प्र०-ज्ञानविनय किसे कहते हैं ?
उ०-आठ प्रकारोंके द्वारा कल्याणकारी शास्त्रोंका अध्ययन करना ज्ञानविनय है।
४०६. प्र०-ज्ञानविनयके आठ प्रकार कौन से हैं ?
उ०-कालशुद्धि, विनयशुद्धि, उपधानशुद्धि, बहुमानशुद्धि, अनिह्नवशुद्धि, व्यंजनशुद्धि, अर्थशुद्धि और तदुभयशुद्धि ये ज्ञान विनयके आठ प्रकार हैं। स्वाध्यायके समयपर ही शास्त्राध्ययन करना कालशुद्धि है । हाथ-पैर धोकर पर्यङ्कासन लगाकर अध्ययन करना अथवा श्रुत और श्रुतधरोंकी भक्ति करना
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