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चरणानुयोग-प्रवेशिका ८१. प्र०—प्रोषधोपवासवत किसे कहते हैं ?
उ०-प्रत्येक अष्टमी और चतुदर्शीको स्वेच्छापूर्वक चारों प्रकारके आहारका त्याग करना प्रोषधोपवासवत है।
८२. प्र.-प्रोषधोपवासवतकी क्या विधि है ?
उ०—सप्तमी और तेरसके दिन मध्याह्नकालमें अतिथियोंको भोजन करानेके बाद स्वयं भोजन करके गृहस्थको उपवासकी प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये और एकान्त स्थानमें ठहरकर धर्मध्यान पूर्वक अपना समय बिताना चाहिये । अधिकतर स्वाध्याय करना चाहिये । यदि पूजन करना हो तो भावपूजा हो करना चाहिये। यदि द्रव्यपूजा करना चाहे तो प्रासुक-द्रव्यसे पूजा करनी चाहिये और रागके कारणोंसे बचना चाहिये। इस प्रकार सोलह पहर बिताकर नौमी या पन्द्रसके दिन मध्याह्नकालमें अतिथियोंको भोजन करानेके बाद अनासक्त होकर एकबार भोजन करना चाहिये।
८३. प्र०-प्रोषधोपवास शब्दका क्या अर्थ है ?
उ०-एकबार भोजन करनेको प्रोषध कहते हैं और चारों प्रकारके आहारका त्याग करनेको उपवास कहते हैं ? अतः प्रोषध पूर्वक उपवास करनेको प्रोषधोपवास कहते हैं।
८४. प्र०-उपवासके दिन क्या-क्या नहीं करना चाहिए?
उ०-उपवासके दिन पांच पापोंमेंसे किसी भी पापका विचार तक नहीं करना चाहिये। किसी तरहका कोई आरम्भ नहीं करना चाहिये । आभूषण, पुष्पमाला वगैरह नहीं पहनना चाहिये। अंजन नहीं लगाना चाहिये, नास नहीं लेनी चाहिये और हो सके तो स्नान भी नहीं करना चाहिये।
८५. प्र०-अतिथिसंविभागवत किसे कहते हैं ?
उ०-शरीरको धर्मका साधन मानकर उसको बनाये रखनेके उद्देश्यसे जो भिक्षाके लिये सावधानतापूर्वक बिना बुलाये हुए श्रावकके घर जाता है उस पात्रको अतिथि कहते हैं और प्रतिदिन श्रावक अपने लिये बनाये हुए भोजनमेंसे श्रद्धा, भक्ति और सन्तोषके साथ ऐसे अतिथिको विधिपूर्वक जो दान देता है उसे अतिथिसंविभागवत कहते हैं। आचार्य समन्तभद्रने इस व्रतको वैयावृत्य नाम दिया है।
८६. प्र०-वैयावृत्य किसे कहते हैं ? ।
उ०-गुणानुरागवश संयमो पुरुषोंके कष्टोंको दूर करना, उनकी सेवा करना, उन्हें दान देना, ये सब वैयावृत्य हैं ।
८७. प्र०-पात्र किसे कहते हैं ?
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