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________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका स्वाभाविक है। अतः इस व्रतीको धनके लोभसे कोई क्रूर काम नहीं करना चाहिये । जिन वस्तुओंके सेवनसे त्रसजीवोंका घात होता हो, जैसे-चमड़ेसे बना सामान या बहुत जोवोंका घात हो या प्रमाद पैदा हो, उनका सेवन नहीं करना चाहिये। अनन्तकाय वालो वनस्पतिको नहीं खाना चाहिये। कच्चे दूध, कच्चे दूधसे बनी दही और मठाके साथ उड़द, मूंग, चना आदि दालको चीजोंको नहीं खाना चाहिये। वर्षा-ऋतुमें साबित उड़द, चना, मंग वगैरह तथा पत्तेको शाक नहीं खाना चाहिये । ७४. प्र०-शिक्षावत किसे कहते हैं ? उ०-जिनमें शिक्षाकी प्रधानता है उन व्रतोंको शिक्षावत कहते हैं। आशय यह है कि इनके पालन करनेसे मुनिधर्मका पालन करनेकी शिक्षा मिलती है। ७५. प्र०-शिक्षावत कितने हैं ? उ०-चार हैं-देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और अतिथि संविभाग या वैयावृत्य। ७६. प्र०-देशावकाशिकव्रत किसे कहते हैं ? उ.-दिग्व्रतमें परिणाम किये हुए क्षेत्रके किसी हिस्से में कुछ समय तक सन्तोषपूर्वक रहनेका नियम करना देशावकाशिक व्रत है । ७७. प्र०-सामायिकवत किसे कहते हैं ? उ०-एकान्त स्थानमें मुनिकी तरह अपनी आत्माका ध्यान करनेवाला गृहस्थ जो कुछ समयके लिये हिंसा आदि पापोंका पूरी तरहसे त्याग करता है उसे सामायिकव्रत कहते हैं। ७८. प्र०-सामायिक कब करना चाहिये ? उ०-यों तो आलस्य त्याग कर प्रतिदिन सामायिक करना चाहिये। किन्तु उपवास और एकाशनके दिन तो अवश्य ही करना चाहिये। ७९. प्र०—प्तामायिकसे क्या लाभ है ? उ०-सामायिकमें सब बाह्य व्यापारोंसे मन, वचन, कायको हटाकर अन्तरात्माकी ओर लगाया जाता है उस समय न किसी प्रकारका आरम्भ होता है और न परिग्रहकी भावना ही रहती है। इसलिये गृहस्थ ऐसा प्रतीत होता है, मानो किसी साधके ऊपर किसोने वस्त्र डाल दिये हैं। ८०. प्र०-सामायिकमें क्या विचारना चाहिये ? उ०-जिस संसारमें हम बसते हैं उसके साथ अपने सम्बन्धोंका विचार करते हुए अपने मनमें समायी हुई मोहको गांठको ही खोलनेका प्रयत्न करना चाहिये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003834
Book TitleCharnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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