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ફૂંક
चरणानुयोग-प्रवेशिका
उठा ले तो साधुके भोजनमें अन्तराय हो जाता है अर्थात् उक्त बत्तीस कारणोंमें से किसी एक के होनेपर भी साधुको भोजन नहीं करना चाहिये ।
२८५. प्र० - जैन साधुका सामान्य धर्म क्या है ?
उ०- जैन साधुका सामान्य धर्म दस प्रकारका है - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्यं ।
२८६. प्र० - क्षमा आदिके साथ उत्तम पद लगानेका क्या हेतु है ? उ०- अपनी ख्याति, प्रतिष्ठा आदिके लोभके बिना क्षमा आदि धर्मोका पालन करना ही उत्तमताका सूचक है ।
२८७. प्र० - क्षमा किसे कहते हैं ?
उ०- निर्दोष आहारको खोजमें दूसरोंके घर जाते हुए भिक्षुको देखकर यदि दुष्टजन चिल्लायें, हँसी उड़ायें, अपमान करें या मारे पोटें तो भिक्षुके मनमें कलुषताका न आना क्षमा है ।
२८८. प्र०- - मार्दव किसे कहते हैं ?
उ०—उत्तम जाति, उत्तम कुल, उत्तम रूप, उत्कृष्ट ज्ञान, उत्कृष्ट तप आदिसे युक्त होते हुए भी अपनी जाति वगैरहका मद न करना और दूसरों के द्वारा तिरस्कार किये जानेपर भी अहंकारका भाव उत्पन्न न होना मार्दव है ।
२८९. प्र० - - आर्जव किसे कहते हैं ?
उ०- मन, वचन और कायकी सरलताको आर्जव कहते हैं ।
२९० प्र० - शौच किसे कहते हैं ?
उ०- लोभके आत्यन्तिक त्यागको शौच कहते हैं ।
२९१. प्र० – सत्य धर्म किसे कहते हैं ?
उ०- सज्जन पुरुषोंके बीच में साधु वचन बोलना सत्य धर्म है । २९२. प्र० - भाषा समिति और सत्य धर्म में क्या अन्तर है ?
उ०- संयमी मनुष्य साधुजनोंसे या असाधुजनोंसे बातचीत करते समय हित और मित ही बोले यह भाषा समिति है । किन्तु सत्य धर्म में साधुओं और श्रावकोंको धर्मका उपदेश देनेके उद्देश्य से बहुत बोलना भी बुरा नहीं है । २९३. प्र० - संयम किसे कहते हैं ?
उ०- ईर्यासमिति वगैरह में वर्तमान मुनि या उसका परिपालन करने के लिए जो एकेन्द्रिय आदि प्राणियों को पीड़ा नहीं पहुँचाता और इन्द्रियोंके विषयों में राग-द्वेष नहीं करता, उसे संयम कहते हैं ।
२९४. प्र० - संयम के कितने भेद हैं ?
उ०- संयम के दो भेद हैं- एक उपेक्षा संयम और एक अपहृत संयम ।
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