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चरणानुयोग-प्रवेशिका
- अपने शरीर में लगे हुए मलकी ओर लक्ष्य न देकर आत्मभावना में ही लीन रहना मल परीषहजय है ।
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३४६. प्र० – सत्कारपुरस्कार परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०--सम्मान और अपमान में समभाव रखना और आदर सत्कार न होने पर भी खेद खिन्न न होना सत्कार - पुरस्कार परीषहजय है । ३४७. प्र० - प्रज्ञा परीषहजय किसे कहते हैं ? उ०—अपने पांडित्यका गर्व न होना प्रज्ञा परीषहजय है । ३४८. प्र० - अज्ञान परीषहजय किसे कहते हैं ?
उ०- यदि कोई तिरस्कार करे, तू अज्ञानी है, कुछ जानता नहीं है, तो उससे खिन्न न होकर ज्ञानकी प्राप्तिका ही बराबर प्रयत्न करते रहना अज्ञान परीषहजय है ।
३४९. प्र०- - अदर्शन परीषहजय किसे कहते हैं ?
उ० – श्रद्धानसे डिगने के निमित्त उपस्थित होनेपर भी मुनि मार्ग में बराबर आस्था बनाये रखना अदर्शन परोषहजय है ।
३५०. प्र० - किस कर्मके उदयसे कौन-कौन परीषह होती है ?
उ०- ज्ञानावरण कर्मके उदय में प्रज्ञा और अज्ञान परोह होती है । दर्शन मोहनीयके उदयमें अदर्शन परीषह होती है । अन्तराय कर्मके उदयमें अलाभ परीषह होती है | चारित्र मोहनीयके उदय में नाग्न्य, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार-पुरस्कार, अरति, स्त्री ये आठ परीषह होती हैं और वेदनीय कर्मके उदय में क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ग्यारह परीषह होती हैं ।
३५१. प्र० - एक जीव में एक समय में एक साथ कितनी परोषह हो सकती हैं ?
उ०- एक जीवमें एक समय में एक साथ एकसे लेकर उन्नीस परीषह तक हो सकती हैं ? क्योंकि शीत और उष्ण परोषहमेंसे एक ही हो सकती है और शय्या, चर्या, निषद्या मेंसे एक हो हो सकती है ।
३५२. प्र० - प्रज्ञा और अज्ञान परीषह एक साथ कैसे हो सकती है ? उ०- श्रुतज्ञान की अपेक्षा प्रज्ञा परोषह और अवधिज्ञानके अभाव में अज्ञान परीषह हो सकती है |
३५३. प्र० - किस गुणस्थानमें कितनी परीषह होती हैं ?
उ०- पहले के सात गुणस्थानों में सब परीषह होती हैं । आठवें गुणस्थान में अदर्शन परोष के बिना शेष इक्कीस परीषह होती हैं । नौवें गुणस्थानके सवेद भाग में अरति परोष के बिना बीस परीषह होती हैं और अवेद भागमें स्त्री
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