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________________ चरणानुयोग- प्रवेशिका सिद्धान्तशास्त्र अर्थात् द्वादशांगका और रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्रका अध्ययन, ये कार्य देशविरती श्रावकों को करनेका अधिकार नहीं है । १५५. प्र० - संयत किसे कहते हैं ? उ० – जो पांच समिति और तीन गुप्तियोंका पालक है, पांचों इन्द्रियों को वशमें रखता है, कषायोंको जिसने जोत लिया है और जो दर्शन और ज्ञानसे पूर्ण है उस श्रमणको संयत या संयमी कहते हैं । ३२ १५६. प्र० - श्रमण किसे कहते हैं ? उ०- जो शत्रु और मित्रमें सुख और दुःखमें, निन्दा और प्रशंसा में, सुवर्ण और पाषाण में तथा जीवन और मरणमें समभाव रखता है वही श्रमण है । १५७. प्र० - जो श्रमण होना चाहता है उसे क्या करना चाहिये ? उ०- अपने कुटुम्बियोंसे पूछकर मां बाप और स्त्री पुत्र आदिसे मुक्त होकर गुणवान आचार्य के पास जाये और उन्हें नमस्कार करके प्रार्थना करे कि प्रभो ! मुझे शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्तिके लिये दीक्षा दो । यदि आचार्य उसपर अनुग्रह करें तो 'चूँकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं हो सकता यह वस्तुस्वभाव है, अतः न कोई परद्रव्य मेरा है और न मैं किसी परद्रव्यका हूं' ऐसा निश्चय करके जिनलिंग धारण कर ले | १५८. प्र० - जिनलिंगका क्या स्वरूप है ? उ०- लिंग कहते हैं चिह्नको जिनसे मुनिपदकी पहचान होती है । उसके दो भेद हैं - बाह्यलिंग और अभ्यन्तरलिंग । बाह्यलिंगको द्रव्यलिंग कहते हैं और अभ्यन्तरलिंगको भावलिंग कहते हैं। तुरंत के जन्मे हुए बच्चे की तरह निर्विकार नग्न रूप, शिर और दाढ़ीके बालोंको लोंच, हिंसा आदिसे रहित व्यवहार यह सब द्रव्य लिंग है । अन्तरंग में मोह, राग और द्वेषका अभाव भावलिंग है । ये दोनों लिंग ही मिलकर जिनलिंग कहे जाते हैं । १५९. प्र० - द्रव्यलिंग और भावलिंग मेंसे किसकी मुख्यता है ? - दोनों लिंगोंमेंसे भावलिंग ही मुख्य है, द्रव्यलिंग मुख्य नहीं है । क्योंकि भावोंकी विशुद्धि के लिये ही बाह्य परिग्रहका त्याग किया जाता है । अतः नग्न होकर भी जिसके मन में परिग्रहको चाह है उसका नग्न होना व्यर्थ है । क्योंकि जो आत्मस्वरूपको भावनासे रहित है वह नंगा होकर और दोनों हाथ लटकाकर करोड़ों वर्ष तपस्या करनेपर भी सिद्धिको प्राप्त नहीं कर सकता । १५६. भाव प्रा०, गा० २-५ । उ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003834
Book TitleCharnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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