SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चरणानुयोग-प्रवेशिका ४८१. प्र०-अनिष्टसंयोग आर्तध्यान किसे कहते हैं ? उ०-अप्रिय वस्तुओंका समागम होनेपर उनसे अपना पीछा छुड़ानेके लिए बार-बार चिन्तन करना अनिष्ट संयोग नामका आर्तध्यान है। ४८२. प्र०-इष्टवियोग आर्तध्यान किसे कहते हैं ? उ.-स्त्री पुत्र आदि प्रिय वस्तुओंका वियोग हो जानेपर उनसे मिलन होनेका बार-बार विचार करना इष्टवियोग आर्तध्यान है । ४८३ प्र०-वेदना आर्तध्यान किसे कहते हैं ? उ०-वात आदिके विकारसे शरीरमें पीड़ा होनेपर रात-दिन उसोको चिन्ता करना वेदना नामक आर्तध्यान है। ४८४. प्र०-निदान आर्तध्यान किसे कहते हैं ? उ.-भोगोंकी तृष्णासे पीड़ित होकर रात-दिन आगामो भोगोंको प्राप्त करनेकी ही चिन्ता करते रहना निदान आर्तध्यान है । ४८५. प्र०-आर्तध्यान किसके होता है ? उ०-आर्तध्यान पहले गुणस्थानसे लेकर छठे गुणस्थान तक हो होता है। किन्तु छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके निदान नामका आर्तध्यान नहीं होता । बाकीके तीन आर्तध्यान प्रमादके उदयसे जब कभी हो जाते हैं । ४८६ प्र०-रौद्रध्यान किसे कहते हैं ? उ०-हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने और परिग्रहका संचय करने में ही मग्न रहनेसे रौद्रध्यान होता है। ४८७. प्र०-रौद्रध्यान किसके होता है ? उ०-मुनिको रौद्रध्यान नहीं होता। यदि कदाचित् मुनिको भी रौद्रध्यान हो जाये तो उन्हें मुनिपदसे भ्रष्ट समझना चाहिये। ४८८.प्र०-धर्मध्यान किसे कहते हैं ? उ.-धर्मयुक्त ध्यानको धर्मध्यान कहते हैं। उसके चार भेद हैं-आज्ञा विचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । ४८९. प्र० -आज्ञाविचय धर्म्यध्यान किसे कहते हैं ? उ०-अच्छे उपदेष्टाके न होनेसे, अपनी बुद्धिके मन्द होनेसे और पदार्थके सूक्ष्म होनेसे जब युक्ति और उदाहरणको गति न हो तो ऐसी अवस्थाओंमें सर्वज्ञके द्वारा कहे हुए आगमको प्रमाण मानकर गहन पदार्थका श्रद्धानकर लेना कि यह ऐसा ही है, आज्ञाविचय है अथवा स्वयं तत्त्वोंका जानकार होते हुए भी दूसरोंको समझाने के लिए युक्ति दृष्टान्त आदिका विचार करते रहना आज्ञाविचय है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003834
Book TitleCharnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy