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चरणानुयोग-प्रवेशिका संघको अन्यत्र नहीं जाना चाहिये । यदि अनिवार्य कारणोंसे जाना ही पड़े तो प्रायश्चित्त लेना चाहिये।
५५७. प्र०-एक विहारी मुनि कैसे होने चाहिए ?
उ०-जो तपस्वी हों, शास्त्रज्ञ हों, धोरवोर हों, शुभ परिणाम वाले हों, भूख-प्यासकी बाधाको सह सकते हों, ऐसे चिरदीक्षित साधुको ही अकेले विहार करनेकी आज्ञा है। इसके विपरीत जो सोने, बैठने, लेने-देने और भिक्षाचरणमें स्वच्छन्दचारी होते हैं उन्हें एकाकी विहार करनेको आज्ञा नहीं है।
५५८. प्र०–साधुको कैसे गुरुकुलमें नहीं रहना चाहिए?
उ०-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पाँच संघके आधार होते हैं । जहाँ ये न हों वहां साधुको नहीं रहना चाहिये ।
५५९. प्र.-आचार्य वगैरहका क्या स्वरूप है ?
उ०-जो शिष्योंका अनुशासन करनेमें कुशल हो उसे आचार्य कहते हैं। जो धर्मका उपदेश करने में कुशल हो वह उपाध्याय है। चर्या वगैरहके द्वारा संघका जो उपकारक हो वह प्रवर्तक है। जो मर्यादाका रक्षक होता है वह स्थविर है और गणके रक्षकको गणधर कहते हैं । ये पांचों साधु संघके आधार होते हैं।
५६०. प्र०-साधुकी परीक्षाके स्थान कौनसे हैं ?
उ०-छै आवश्यक, प्रतिलेखन (पीछेसे किया जानेवाला कार्य), बातचीत, वस्तुका रखना और ग्रहण करना, स्वाध्याय, एकाकी विहार और भिक्षाग्रहण करते समय साधुकी परीक्षा हो जाती है कि साधुका आचार ठीक है या नहीं। ५६१. प्र०-परीक्षासे यदि साधु अयोग्य सिद्ध हो तो क्या करना
चाहिए ? उ०-ऐसे साधुको प्रायश्चित्त देकर सुधारना चाहिये। किन्तु यदि वह प्रायश्चित्त लेनेको तैयार न हो तो उसे संघबाह्य कर देना चाहिये । यदि कोई आचार्य ऐसे साधुको भो अपनाता है तो वह भी प्रायश्चित्तका भागी होता है। ५६२. प्र० - साधुको स्त्रियोंके विषयमें कैसी प्रवृत्ति रखनी चाहिए ? उ०-साधारण स्त्रियोंकी तो बात हो क्या, आर्यिकाके साथ भी साधुको
५५६. मूलाचार, सामा०, गा० १४६ । ५६०. मूलाचार, सामा०, गा० १५५ ।
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