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चरणानुयोग-प्रवेशिका ऊँट, गधे वगैरहपर चढ़ा देखे तो स्वप्न अशुभ सूचक है। ऐसे स्वप्नोंका फल बतलाना स्वप्ननिमित्तज्ञान है।
४४८. प्र०-प्रज्ञाश्रमणत्वऋद्धि किसे कहते हैं ?
उ०-किसोके द्वारा ऐसे सूक्ष्म अर्थका प्रश्न उपस्थित किये जानेपर, जिसे चौदहपूर्वका धारी ही कह सकता है, सन्देह रहित निरूपण करना प्रज्ञाश्रमणत्व ऋद्धि है।
४४९ प्र०-प्रत्येकबुद्धताऋद्धि किसे कहते हैं ?
उ०-परके उपदेशके बिना अपनी शक्तिविशेषसे ही ज्ञान और संयमके विधानमें निपुण होना प्रत्येकबुद्धताऋद्धि है।
४५०. प्र०-क्रियाऋद्धिके कितने भेद हैं ? उ०-क्रिया विषयक ऋद्धिके दो भेद हैं-आकाशगामित्व और चारण । ४५१. प्र०-आकाशगामित्वऋद्धि किसे कहते हैं ?
उ०—पर्यंकासनसे बैठकर अथवा कायोत्सर्गपूर्वक खड़े होकर, बिना पाद निक्षेप किये, आकाशमें गमन करने में कुशल होना आकाशगामित्वऋद्धि है।
४५२. प्र०-चारणऋद्धि किसे कहते हैं ?
उ०-चारणऋद्धिके अनेक भेद हैं-जलके ऊपर पृथ्वोकी तरह चलना जलचारणऋद्धि है। भूमिसे चार अंगुल ऊपर आकाशमें पैर उठाते रखते हुए सैकड़ों योजन गमन करना जंघाचारणऋद्धि है। इसी तरह तन्तुचारण, पुष्पचारण आदि चारण ऋद्धियाँ होतो हैं ।
४५३. प्र०-विक्रियाऋद्धि किसे कहते हैं ?
उ०—विक्रियाऋद्धिके भी अनेक प्रकार हैं- शरीरको छोटा-बड़ा, हल्काभारो, एक-अनेक आदि करना, पृथ्वीपर बैठकर अपनी अंगुलिसे सूर्य, चन्द्रमाको छ लेना, पर्वतमेंसे बिना किसी प्रकारकी रोकके चले जाना, अदश्य हो जाना आदिको सामर्थ्यको विक्रियाऋद्धि कहते हैं ।
४५४. प्र०-तपऋद्धि किसे कहते हैं ?
उ०-ऋद्धिके सात भेद हैं। वेला तेला आदि योगको आरम्भ करके मरण पर्यन्त उससे विरत नहीं होना उग्रतपऋद्धि है। महोपवास आदि करने पर भो शक्तिका बढ़ते ही जाना, मुख मेंसे दुर्गन्ध न आना और शरीरकी कान्तिका बढ़ना दोप्ततपऋद्धि है। आहार करते हुए भी नीहार नहीं होना, तप्ततपऋद्धि है। सिंह निकोडित आदि महान् तप करने में तत्पर होना, महातपऋद्धि है। अनेक रोगोंसे पीड़ित होनेपर भी अनशन आदि तपोंको नहीं छोड़ना और भयंकर स्थानोंमें भी निर्भय वास करना घोरतपऋद्धि है। रोगोंसे ग्रस्त होते हुए और अत्यन्त भयंकर स्थानमें रहते हुए भी तपस्याको बढ़ानेमें ही तत्पर
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