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चरणानुयोग-प्रवेशिका कायसे शोधन करनेको पाक्षिक प्रतिक्रमण कहते हैं। चार मासोंमें लगे हुए दोषोंका शोधन करनेको चातुर्मासिक प्रतिक्रमण कहते हैं और वर्षभरमें लगे हुए दोषोंका शोधन करनेको सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कहते हैं।
१९९. प्र०-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ?
उ० -जीवनपर्यन्तके लिये चारों प्रकारके आहारका त्याग करनेको उत्तमार्थ प्रतिक्रमण कहते हैं। दीक्षाग्रहणसे लेकर सामान्यग्रहणके कालतक किये गये दोषोंके प्रतिक्रमणका इसी प्रतिक्रमणमें अन्तर्भाव होता है।
२००. प्र०-प्रतिक्रमणके प्रयोगकी विधि क्या है ?
उ०-अपनो निन्दा-गर्दा और आलोचनामें लगा हुआ साधु स्थिरचित्तसे दोषोंकी विशुद्धिके लिये सभी प्रतिक्रमण दण्डकोंको पढ़े या सुने ।
२०१. प्र०-निन्दा किसे कहते हैं ?
उ० --किये हुए दोषोंके प्रति 'हाँ, मैंने बुरा किया' इस प्रकार स्वयं ही अपने चित्तमें विचारना निन्दा है।
२०२. प्र०-गर्दा किसे कहते हैं ?
उ०-किये गये दोषोंके प्रति गुरुकी साक्षीपूर्वक निन्दा करनेको गर्दा कहते हैं।
२०३. प्र०-आलोचना किसे कहते हैं ?
उ०-गुरुसे अपने दोषोंका निवेदन करनेको आलोचना कहते हैं। सभी प्रतिक्रमण आलोचनापूर्वक होते हैं इसलिये आलोचनाके भो प्रतिक्रमणकी तरह देवसिक रात्रिक आदि सात भेद हैं।
२०४. प्रा-देसिक आदि प्रतिक्रमणोंका विधान क्यों किया जाता है ?
उ०-प्रथम तीर्थङ्कर और अन्तिम तीर्थङ्करके तीर्थमें 'दोष लगे या न लगे' प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। क्योंकि इन तीर्थङ्करोंके शिष्य क्रमसे ऋजु जड़ और वक्र जड़ होते हैं। किन्तु मध्यके शेष बाईस तीर्थङ्करोंके तीर्थमें अपराध होनेपर हो प्रतिक्रमण करनेका विधान था क्योंकि उनके शिष्य अधिक दोष नहीं लगाते थे।
२०५. प्र०-प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ?
उ०-वर्तमान और भविष्यकालके दोषोंको दूर करनेके लिये जो उपवास तथा सावध आदिका त्याग किया जाता है उसे प्रत्याख्यान कहते हैं ।
२०६. प्र०-प्रत्याख्यानके कितने भेद हैं ?
उ०-प्रत्याख्यानके भी छै भेद हैं-नाम प्रत्याख्यान, स्थापना प्रत्याख्यान, द्रव्य प्रत्याख्यान, क्षेत्र प्रत्याख्यान, काल प्रत्याख्यान और भाव प्रत्याख्यान । २०४. मूलाचा० ७-१२६ गा० ।
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