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अनुसंधान
मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमy (ठाणंग सूत्र, ५२९) मुखरता सत्यवचननी बिधातक छे
प्राकृत भाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
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संकलनकार : मुनि शीलचन्द्रविजय. हरिवल्लभ भायाणी
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શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृतिसंस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद १९९६
Jaf Education international
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादको : विजयशीलचन्द्रसूरि
हरिवल्लभ भायाणी
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद १९९६
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अनुसंधान : ७
संपर्क :
हरिवल्लभ भायाणी २५/२, विमानगर, सेटेलाईट रोड, अहमदाबाद - ३८० ०१५
प्रकाशक :
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद, १९९६
किंमत :
रू. २५-००
प्राप्तिस्थान : . सरस्वती पुस्तक भंडार
११२, हाथीखाना, रतनपोळ, अहमदाबाद - ३८० ००१
मुद्रक :
क्रिष्ना प्रिन्टरी हरजीभाई एन. पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अहमदाबाद - ३८० ०१३ फोन : ७४८४३९३
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सम्पादकीय आपणो युग संशोधननो युग छे. घणुं बधुं साहित्य, क्या क्या दटायेखें पड्युं छे । तेने शोधी काढीने तेमांथी मळता ज्ञानने प्रगट करवानी, जगत समक्ष धरवानी पण एक जुदी ज मजा छे. तो नीर-क्षीर-विवेचननी दृष्टि केळवीने, परंपरास्वीकृत के मान्य गणातां तथ्योमा ज्यां जे कांई मिश्रण के उमेरण के परिवर्तन थयेलुं मालूम पडे, त्यां तेना खरा/यथार्थ तत्त्व-तथ्य सुधी पहोंचवानी दिशामां यथामति उद्यम करवो, ए पण एक अनेरो बौद्धिक विहार बनी रहे तेम
'अनुसन्धान' पत्रिका ए आवा बौद्धिक विहारनी अने ए विहारमा सहयात्री बनवाने शक्तिमान होय तेवा सहुनी पत्रिका छे । धीमी गतिए चालती तेनी यात्रा आजे सातमा मुकामे पहोंचे छे, ते पण एक आश्चर्यजनक संशोधनघटना छे । आ पत्रिकामां विविध क्षेत्रना अग्रणी गणाता थोडाघणा शोधको अने साहित्यिकोनो रस धीमे धीमे वधी रह्यो छे, तेनो आनंद ओछो नथी । आम छतां, अमे इच्छीए के आ पत्रिकामा संशोधनक्षेत्रे नीवडेल व्यक्तिओनी जेम ज संशोधनक्षेत्रना नवोदितो पण रस लेता थाय अने आ क्षेत्रने पुनः समृद्ध बनाववामां सहयोगी बने ।
संशोधनविद्याना जूना जोगी अने मान्य एवा विद्वानोनी पेढी हवे अस्त थती जाय छे । ताजेतरमां ज डॉ: अर्नेस्ट बेन्डर (अमेरिका), डॉ. चन्द्रभाल त्रिपाठी (भारतीय, जर्मनी) जेवा मूर्धन्य संशोधक विद्वानो स्वर्गवासी थया छ । आवा विद्वानोना अस्तथी संशोधनक्षेत्रे सर्जाता शून्यावकाशने पूरवो हशे तो नवा नवा संशोधकोने तैयार करवा ज पडशे । 'अनुसन्धान' जो आ माटेर्नु माध्यम बनी शकशे तो तेनो अमने घणो आनंद हशे ।
मुद्रणकार्यमा सहायरूप बनवा माटे अमे डॉ. नारायण कंसाराना आभारी छीए ।
-संपादको .
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पढमाणुओग (अनु. सं. 6 ) गतविशेषनाम्नां सूचि : संस्कृत स्तवन अनुमानमातृका सावचूरि उर्दू भाषाबद्ध त्रण कृतिओ 10. श्रीहीरविजयसूरिनी सज्झाय 11. प्राकृत प्रयोगोनी पगदंडी पर 12 ट्रंकनोध :
9.
उपाध्याय श्रीउदयविजय- रचित
पट्टावली विसुद्धी नृसिंहविरचिता बन्धकौमुदी महोपाध्याय श्री यशोविजयजीगणिकृत 101 बोलसंग्रह
श्री धर्ममंगल शिष्य - विरचित श्री अजपुर (अजार) नगरमंडनपार्श्वनाथस्तोत्र ( भाषा) श्री शांतिदास - विरचित श्री गौतमस्वामी रास (चौपाई)
अनुक्रमणिका
1. उपाध्याय श्रीयशोविजयजीना अंतिम समय तथा समाधिस्थळ विषे
2. श्री हेमचन्द्राचार्यनी शिष्य परंपरा विशे. 3. अजारा तीर्थना चैत्यनी प्राचीनता
4. मुनि प्रेमविजयजीनी टीपना गुजराती शब्दो 5. 'प्रबन्धचिन्तामणि' गत एक
एक दृष्टांतकथा
8. Pk. alia- 'tied
13. चर्चापत्र
14. जिनविजयजीनो एक स्मरणीय भावोद्गार 15. Short Notes
16. अवसान - नोंध
सं. प्रद्युम्नसूर
1
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 12
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय
सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय 85
संपा. मुनि भुवनचन्द्र सं. मुनि महाबोधिविजय
ह. भायाणी
विजयशीलचन्द्रसूरि
अनुप्रासनी युक्तिवाळु पद्य
ह. भायाणी
6. 'शत्रुंजयमंडन - ऋषभदेव - स्तुति' : थोडी पूर्ति जयंत कोठारी 7. हरिभद्रसूरिकृत 'यंदप्पहचरिय 'नी
"
मुनि भुवनचन्द्र
सलोनी जोषी
H. C. Bhayani
ह. भायाणी
ह. भायाणी
21
43
51
168808
59
89
97 99
102
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उपाध्याय श्रीउदयविजय-रचित पट्टावली विसुद्धी
संपादक - प्रद्युम्नसूरि पट्टावलीविशुद्धि ए नानो प्रकरण ग्रन्थ छे. 'विशुद्धि' पद अंते आवे तेवा ग्रन्थो रचवानी पण एक परंपरा मळे छे. आ पहेलां वि.सं. १४६६मां सहस्रावधानी आचार्य श्री मुनिसुन्दरसूरिजी महाराजे गुर्वावलि नामनो एक ग्रन्थ रच्यो तेमना समकालीनोए तेमां खामीओ जोई. ए त्रुटिओनी चर्चा थवा लागी एटले आश्रीमुनिसुन्दरसूरिजी परिवारना कोई विद्वान शिष्ये ए बधी चर्चानो रदियो आपवा संस्कृतमां गुर्वावलिविशुद्धिः नामनो ग्रन्थ रच्यो जे हमणां मल्यो छे.
ए ज परंपराने अनुसरीने आचार्य श्री सिंहसूरिजीनी परंपराना उपाध्याय श्रीउदयविजयजीए प्राकृतभाषामां १०८ + ४ = ११२ पद्यबद्ध आ ग्रंथनी रचना करी छे. रचना प्रासादिक अने प्रवाही छे. रजूआत तर्कबद्ध अने संगत छे. ग्रन्थ रचवा पाछळनी पृष्ठभूमिनो संदर्भ बराबर समजायो नथी. आनी सामे कयो पूर्वपक्ष छे ते पक्षनी शी मान्यता छे ? ते जाणी शकाय तेवा साधनो मळ्या नथी पण आ ११३ गाथामांथी पसार थतां एटलं जाणी शकाय छे के ते समयमा तपागच्छमां जगद्गुरु श्री हीरसूरीश्वरजीना पट्टे विजयसेनसूरिजी आव्या तेमनी पाटे विजयदेवसूरिजी आव्या अने विजयदेवसूरिनी पाटे विजयसिंहसूरिजीने पोते पोतानी हयातीमां स्थाप्या.
आ जे घटना बनी के "पोते सक्रिय हता छतां पट्टधर तरीके आ सिंहसूरिजीने स्थाप्या" तो शुं आम स्थापी शकाय खरा? एटले आ घटनाने मुद्दो बनावी जे केटलाक प्रश्नो ए वखते चर्चाता हशे ते बधाना उत्तरो आपवानो अहीं उपक्रम छे.
. उपाध्याय श्री उदयविजयजीना परिचय माटे पण विशेष कांई जाणी शकायुं नथी. तेमनो सत्ता समय, गुरुपरंपरा, अन्य ग्रन्थ रचना वगेरे माटे हाल कांई मळ्युं नथी. आनी एकमात्र पोथी मळी छे. आवा ग्रन्थनी झाझी नकलो मळती नथी - विद्वानो स्वयं आ वांचीने तेना हार्दने समजे..
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॥ पट्टावली विसुद्धि ॥ पणमिअ पासजिणिंदं संखेसरपुरपइट्ठिअं धीरं । पट्टावलीविसुद्धि, सम्मं सुअणाण दंसेमि ॥१॥ पट्टधरो पइ गच्छं एगोणेगेव जेसि गणणुण्णु[ ०ण्णा] । गुरुणेव कया विहिणा, णउणं सा वीससावि भवे ॥२॥ गणणुण्णाइ कयाए, पट्टो दिण्णो हविज्ज णियमेणं । आयरिआ हीणंता पट्टधरतं णउ सयंभु ॥३।। भट्टारगो णिमित्तं, पट्टधरत्तस्स तं च तक्कज्जं । एवं च कज्जकारणभावो उभयट्ठिओ णियमा ॥४॥ संतंमि कारणंमी कज्जुप्पत्तीइ सो हवइ सिद्धो । तेण निमित्ताभावे, कज्जं होइत्ति दुव्वयणं ॥५॥ जह जण्णजणगभावो पितिपुत्ताणं धुवं सपियरंमि । संतंमिव नासंते पुत्तुप्पत्तीइं संभवइ ॥६॥ होऊण पुणो तंमिअ, ठिअंभि भावंमि तेसिमण्णयरो । पितिपुत्तमाइयाणं संतो संतो वि वा हुज्जा ॥७॥ णउणं सो संबंधो उभयलिओ सव्वलोअसुपसिद्धो । केणवि पडिसेहेउं सक्को सक्कोवमेणावि ॥८॥ इयरं विणण्णहासो संबंधेणं हवंत वत्तव्वा । संबंधो वट्विअओ कहंचि अणवट्ठिआ अण्णे ॥९॥ एवं कज्जं कारणनिययं ण हु कारणं विणा होइ । उप्पाविऊण कज्जं विरमइ पुण कारणं सव्वं ॥१०॥ तत्तो अकज्जजायं कारणजायं निमित्तमाईयं । अण्णुण्णं निरविक्खं हवेइ णियमेण कयकिच्चं ॥११॥ कज्जं व कारणं वा अन्ना तेण कारणाईणं । सब्भावाभावाणं, कयावि न मुहं पलोएइ ॥१२॥
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जइ पुण किंचि विकज्जं, परिणामिअकारणा पिदब्भूयं । तो तस्सय सब्भावं वंछइ णउणं असब्भावं ॥ १३॥
जं कारणेण दिण्णं णियकज्जत्तं तु कज्जमित्तंमि । तं तंमिहु कज्जतं ववइस्सर णागयद्धाए ॥१४॥
एवं पुत्तपपुत्ताइयं व बुहवायगाइयं सव्वं । उप्पत्ती समणंतरमवि भण्णइ सव्वकालंमि ॥ १५ ॥
एएणं पितिपमुहे संतंमि असंत पुत्तमाईयं । न लहइ तप्पुत्तत्ता इय ववएसंति णिक्खित्तं ॥ १६ ॥
अण्णह पिया वि तस्सुअ, पियत्तणेणं ण होइ वत्तव्वो । पितिविरहेव नवच्चो पुत्तो तप्पुत्तभावेणं ||१७||
तेणं भांति केई गुरुंमि संतंमि तस्स पट्टधरो । जो सुरसुहपत्तो सो न पट्टधारि ति तं मिच्छा ॥१८॥ अहिसित्तो जह राया पिउणो नियमेण होइ पट्टध । तहणुण्णायगणो विअ, सूरी सगुरुस्स पट्टमि ॥१९॥
जेणं दिण्णो पट्टो नादिण्णो होइ दिक्खमाइव्व । जुग्गाणं, दायव्वत्तणेण दिण्णत्तणं सिद्धं ॥ २० ॥
अह दिक्खमाइ गुरुणा सक्खं चिअ दिज्जए जहा जुग्गं । पट्टधरत्तं गुरुणो परुक्खभावे सयं होइ ||२१||
तं मिच्छा, एवं चिअ कयावि णहु होइ तं समुप्पण्णं । भावाणं नाभावो कारणमिय जेण लोगठिई ||२२||
नाकारणं च कज्जं णों पुण विवरीअकारणं ण सयं । एवं खु मुणिज्जंतं, सत्तमदव्वाउ तं होइ ||२३||
अह तं विहलं भण्णिइ गुण्णाजणियं पि गुरुजणे संते । ता दंडस्स विणासे घडस्स कज्जत्तणं सहलं ॥२४॥
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अण्णं च नाणमाइय, गुणेहिं पव्वज्जमाइयं व इमं । संतेहिं होइ संतं तेहिमसंतेहिं तमसंतं ॥२५॥ ता आउअस्स थोवा थोवत्तेणं किमित्थ संपण्णं । अण्णह थोवठिईणं विहलं पव्वज्जमाई वि ॥२६॥ अह जह नाणाइ गुणा तहेव दीहाउयमाइया वि गुणा । एगस्सावि अभावे ता पट्टधरत्तणमज्जुत्तं ॥२७॥ एवं जुत्तं वुत्तं गणहरभावो खओवसमिओ त्ति । तं पइ दूसगभूसगभावाभावाउ आउस्स ॥२८॥ जेण पुण नाणदंसणचरणगुणा दूसिआ हवंति फुडं। दूसिज्जए गणित्तं तेणं मिच्छत्तदारेणं ॥२९॥ जह अग्गीओ वावण्ण दिट्ठिओ अमुणिऊण ठविओ वा । केवल नामेण गणी मिच्छद्दिठी स परिवज्जो ॥३०॥
यतः --
जं जयइ अगीयत्थो जं च अगीयत्थणीसिओ जयइ । वट्टावेइ य गच्छं अणंतसंसारिओ होइ ॥३१॥
१. अह गणणुण्णा एगा, बीयं दीहाउयत्तणं जं च । तद्गमवि जत्थ भवे पट्टधरो सो हवइ णण्णो ॥१॥ तंमिच्छा जं जुगवं दुन्निवि ते हुति णेय कस्सावि । विसरिससमये हि पुणो भावेहि न होइ सामग्गी ॥२॥ मिउ पिंड दंडमाइय भावेहिं जगमेव मिलिएहिं । होइ जहा सामग्गी कलसुप्पत्ताइ समयंमि ॥३॥
किंच --
दीहाउयस्स न जहा पट्टो नियगेण गोयमाइव्व । तहणुण्णायगणस्सवि इमस्स नस्थित्ति कत्थवि णो ॥४॥ वेवीसमी गाथा पछी उमेरवा माटेना चिह्न साथे आ चार गाथा स्वतंत्र अङ्कपूर्वक बीजा पत्रनी बीजी पूंठीना मथाळे लखी छे. तेथी ते मूळ ग्रंथमा सामेल न करतां पादनोंधमां मूकी छे.
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णेवं कत्थ वि सत्थे दिलु इटुं व गणहरत्तस्स । अप्पाउअत्तणं तुह पकप्पिअं दूसगत्तेणं ॥३२॥ जं पि अ कत्थवि गुरुणो अप्पडिरूवाइ दूसणं भणियं । तं पि न जायमजायं करेइ गणहारिभावं से ॥३३।। अण्णह ठवणाणंतर मंगावयवंमि दुट्ठजइ किंचि । दूसणपंतिनिविठु दूसिज्ज गणित्तणं तंतो ।।३४।। तम्हा अप्पडिरूवो न य ठविअव्वो त्ति होइ संसिद्धं । ठविओ पुण गणहारी अप्पडिरूवो वि संभवइ ॥३५।। जह कण्णा परिणिज्जइ रूवाइसयड्डिसंजुया सम्म । केण वि मिसेण पुण सा परिणीया अपडिरूवावि ॥३६।। परिणीय अपरिणीआ जह सा कण्णा ण होइ कइया वि । अप्पडिरूवो वि तहा ठविओ णो अठविओ सूरी ॥३७|| अणाणा रूवाई णियया णियया हवंति ता दोसा । अप्पाउअत्तणं पुण दोसु वि एएसु णो भणियं ॥३८॥ आणेइ कहवि जइ ता अप्पडिरूवाइयंमि नन्नत्थ । अणियत्तणेण तं पि हु समाहिअं पुव्वमिह सम्मं ॥३९।। वत्थुठिईए पुण तं, भाविज्जंतं न दूसणं कह वि । ता तत्थ समाहाणं सुहाइकडुअत्तणपमोसो ॥४०॥ वंसावुच्छेअट्ठा ठविज्जमाणा वि पुत्तु रज्जंमि । दीहाउच्चिअ हुज्जइ इय नियमो जं न लोएवि ॥४१।। अह कहमुसभजिणो, जाणतो विअ समाउए पुत्ते । सयमवि ठवेइ रज्जे पिहु पिहु वंसस्स रक्खट्ठा ॥४२॥ संतंमि सामिपाए ते रायाणो अ तेसि पुत्तावि । भरहनिवेणं ठविआ, छंदेण निवा पपुत्तावि ॥४३।।
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[6] सक्खं चि एवं खलु ताए संतंमि हुंति रायाणो । जह रामकेसवमुहा पुत्ता वसुदेवपमुहंमि ||४४||
वसुदेवो वि अ राया तहेव राया समुद्दविजओ वि । सव्वेवि वा दसारा तेसिं केसिंचि पुत्तावि ॥४५॥ एवं जादवव॑से जुगवं बहवो वि पुत्तपितिपमुहा । पइ सत्थं रायाणो भणिआ उसभस्स वंसे अ ॥४६॥
दहिवाहण - करकंडूपमुहा जयविजयधम्मभाईआ । पितिपुत्ता समकालं रायाणो जायअभिसेआ ||४७॥ किं बहु भणिएणं वा जइ सामंता वि हुंति रायाणो । ता ठविअ सपुत्ताणं निवत्तणे को णु संदेहो ॥४८॥ इमेवं विअ जुज्जइ अण्णह इह चक्कवट्टिमाईणं । संते जणगप्पमुहे न चक्किपयमाइयं होइ ॥ ४९ ॥ एएणमिमं सिद्धं बहुपुत्तो जो हवेइ महराया । सो छंदेण ठवेई पिहु पिहू रज्जंमि नियपुत्ते ॥५० णियणियदेसविसेसं पत्ता ते तत्थ तत्थ रायाणो । रज्जं कुणंति सव्वे पिउणो आणाइ वट्टंता ॥५१॥ जणगो वि तेसिमेवं सेवंताणं करेइ सुपसायं । समबुद्धी सव्वेसुवि जइणो गहियं वयं हुज्जा ॥५२॥
तेसिं पुण जइ एगो महब्बलो होइ होउ ता नूणं । सो अग्गजोणुजो वा नियमो पुण इत्थ ण हु कोवि ॥५३॥
ठविअत्तणाविसेसा वंसे सव्वेसि तेसि परिवाडी । अव्वच्छित्तिणिमित्तं हवेइ एगोवि जा वंसे ॥५४॥
समगं ठविआणं पुण गहित्तुकामो हवेइ जइ दिक्खं । अहवा सो अप्पाऊ रज्जमि ठवेइ तो पुतं ॥५५॥
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अहवा पिआगहाई पहाणपुरिसा व जं जहाजोग्गं । जाणंति तं ठवंति य दुण्ण वि एगो व पट्टध ॥५६
तम्हा हु उसभपहुणो सयसंखा आसि निवइणो पुत्ता । इक्किक्कस्स य तत्तो, सहस्ससो निवइणो ते वि ॥५७॥ जा कोडिलख्खसंखा, पिहु पिहु आसीय सुबहु वित्थारं । संते पियरंमि निवा, तहेव लोअंमि रघुवंसे ॥५८॥
एवं पिया पियामहमाइय सत्ताइ निवइणो आसि । तेणें चि सो वंसो वित्थरिओ सुट्ठ सयसाहं ॥ ५९॥
जइ जणगो एगं चिअ ठवेइ अण्णं तु तंमि अवसंते । तं चेव गणइ पट्टे इग तय हीणा व परिवाडी ॥६०॥
पियरंमि असंते वा पुत्त पुत्तं ठवेइ रज्जमि । णय वा बंधवपुत्तं पहाणपुरिसो वणो ठवइ ॥ ६१ ॥
ता उसभसामिवंसे जा वुड्ढी वण्णियासु बहुसत्थे । सा ण हु जुज्जइ जुज्जइ जइ ता तेहिं अणीइकया ॥६२॥
एवं च पुंडरीअप्पमुहाण वि गणहराण वंसंमि । विणयं सयसाहं तित्थं वित्थारमावण्णं ॥६३॥
तह वद्धमाणजिणवरतित्थं वडपायवुव्व एवं पि । वुट्टे (?) परमं पत्तं तं जुज्जइ णण्णहा कहवि ||६४|| तत्थ वि इगस्स गुरुणो, बहवे वि भवंति सूरिणो सीसा । केसिंचिअ पुण तेसिं णियणियणामेण गणमाइ ॥६५॥
जस्स गणो सो णियमा गणहारी कयगणणुण्णत्तणेण गणहारी । सो वि ठवेइ नियपए स गुरुंमि विरायमाणं मि ॥ ६६ ॥ ठविऊणं कयकिच्चो सो जइ, जिणकप्पमाइमहिलसइ । अप्पाउओ व होई, तठ्ठविओ तह वि तस्स पए ||६७॥
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[8]
ण उणं पियामहस्सा जं सो संतो विसिय न दिट्ठोवि । पोत्तेण कालगज्जो, अलक्खिऊणो जहा णमिओ ।।६८|| एएण गुरुअभावे ठवेइ पट्टमि णण्णहा कहवि । जं पट्टधरो पट्टे ठवेइ अण्णो व कइया वि ॥६९।। पट्टधरो पुण गुरुणो परुक्खभावं विणा न होइ त्ति । सवणाणरिहं वयणं, सुअणाणं दंसिअं सम्मं ॥७०॥ गुरूसीसपसीसाणं, जुगवं चिअ गणहरत्तणमिणं जं । ता सिद्धोपट्टधरो, ठविओ अप्पाउओ वि पए ॥७१।। णणु गुरुणा ते ठविआ, संतंमि गुरुमि नियपए सीसा । तस्सेव ते हु पट्टे संतस्स य वा असंतस्स ||७२।। जइ नो ठविआ हुंता पितामहो ता नियंमि पट्टमि । जुग्गं कंचिअ सीसं, ठावंतो ण उण सीसपए ॥७३॥ मज्झत्थाण जणाणं उप्पज्जइ कहवि णो इमं वयणं । रागद्दोसवसेणं अभिगहबुद्धीण पुण किं तु ।।७४।। जं सीसपसीसाणं जुगवं चिय गणहरत्तणं भणिअं । णो तंमि पसिणमिणमो लहेइ अवकासमवि किंचि ॥७५।। जम्हा ठवेइ जो जं सो तप्पट्टमि नत्थि नियमोत्ति ।
जस्सुद्देसेणं जो ठविओ सो तस्स पट्टमि ॥७६।। एवं च
इगवंसाण निवाणं पिहु पिहु रज्जंमि ठावणा जह य । निययेणण्णेणहवा कीरइ तह होइ इहयं पि ॥७७|| तम्हा एवं सिद्धं जस्स गणो, आसि सगुरुणा दिण्णो । कह सो अण्णस्स गणो दिण्णं णा दिण्ण मिय जम्हा ॥७८॥ ता तस्स चेव पट्टे, जुग्गो जो होइ सो उ ठवणिज्जो ।
एवं पियामहो जइ सक्खं ता सो ठवेइ तयं ॥७९।। १. सागरदत्तायरिएण ।
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19
जह वाइदेवसूरी पट्टे उमप गणाविई । तेणं पसन्नचंदो सूरी ठविओ निययपट्टे ॥ ८० ॥
सो अप्पाऊ सग्गं पत्तो ता तस्स चेव पट्टमि । जयसेहरसूरिवरो, पउमप्पहसूरिणा ठविओ ॥ ८१ ॥
जइ ता पिआमहो से कत्थ वि अण्णत्थ अहव नो होइ । तो बंधवेण गुरुणो, ठप्पो सो तस्स पट्टमि ॥८२॥
एवं जइ सो जुग्गो, बंधव सीसो न अप्पणो होइ । एगो दोपण वि पट्टे ठप्पो अणुजेण ता विहिणा ||८३ || संभूयविजय पट्टे, जह ठविओ भद्दबाहुणा गुरुणा । एगो वि थूलभद्दो, तओ स दुण्णं पि पट्टधरो ॥ १८४ ॥ गुरुबंधू वि विदूरे, जइ कत्थवि होइ अहव णो सूरी । ता समकुलो वि सूरी ठवेइ णियमेण तप्पट्टे ॥८५॥ देविंदरपट्टे स माणगुत्तेण सूरिणा ठविओ । जह धम्मघोषसूरी, दिण्णो पट्टो ण जं मिच्छा ॥८६॥
इत्थमभिसे अपत्ता, णियमेणं पट्टधारिणो जाया । बहुआओ साहाओ बहुआई कुलाई ता जुत्तं ॥८७॥
सुबहूणं गच्छाणं, एवं णाणाविहावि परिवाडी । सिविद्धमाण जिणवर तित्थंमि भविस्सई सुचिरं ॥८८॥ जह नंदीए भणिआ महगिरिसामिस्स पट्टपरिवाडी । बहुआओ भिण्णाओ एवं पट्टावलीओ त्ति ॥८९॥ चउरासीइ गणाहिववराणं तस्संखया गणा तम्हा । गणभेया पुण तेसिं इय जुत्ता भिण्णपरिवाडी ॥ ९० ॥
इय अप्पाऊ, पुरिसो पट्टरिहो नेत्ति दूरमुक्खित्तं । तं
सु
भाविअव्वं, थेरावलिआइ कप्पस्स ॥९१॥
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[10]
अण्णह जे जे सीसा, गुरवे खंते हवंति लहुअवया । वुड्डाणं पव्वज्जा, णो दायव्वा त्ति सिज्झइ तो ।।९२॥ अह सीसा वुड्डा अवि, पट्टधरो किंतु लहुवओ चेव । तं पिअ चिंतिअमित्तं वुड्डस्स वि पट्टदाणाउ ।।९३।। जह सिरि जंबूसामी पभवाओ चउदवरिसलहुओ वि । पभवं चिअ पट्टधरं कासी जुग्गत्तणं णाउं ॥९४॥ जंबुस्स असीवरिसा पभवस्साउं हवंति पंचासी । जंबुस्स तहवि पभवो, पट्टधरो आसि केवलिणो ॥१५॥ चउरासी गणवइणो, आसी तेर्सि गणावि चउरासी । णियणियसीसे ठविउं, के विअ उसभेण सह सिद्धा ॥९६।। एगस्स सुहम्मस्स, जह परिवाडी इमंमि तित्थंमि । अण्णंमि तहेव भवे, इय रागद्दोसजं वयणं ॥९७॥ तम्हा जह सेट्ठीणं जह व निवाणं जहा व अण्णेसिं । पट्टपरंपरणीई, तहेव इहयं पि नायव्वा ॥९८॥ ण य वत्तव्वं संपइ, रायाणं नत्थि पुविआ णीई । तेणेव रायपुत्तो संते पियरंमि नो राया ।।९९।। जम्हा न होइ राया सो अहिसित्तोहवा अणहिसित्तो । पढमंमि विरोहो सक्खं, बीए णो किं वि णुववत्रं ॥१००।। एएण गुरुपरुक्खे सिज्जइ पट्टोत्ति तंपि दुव्वयणं । ठविअव्वा विण भूओ जुत्तीइ ववठ्ठितं जम्हा ॥१०१।। अण्णं च वायगाइअपयं तु पयडं हविज्ज गुरुदिण्णं । पट्टधरत्तं पुण सो जीवंतो व दाहित्ति ॥१०२॥ ता वंदणाइ सव्वं किच्चं जं णिम्मिअं तयं कम्मा । एवं पुच्छिज्जतो पावो भूमिं पलोएइ ॥१०३।।
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[11]
ता वंदनाइ सव्वं गणहरपयवंजगं जगपसिद्धं । सम्मं विभाविऊणं सिद्धंते वण्णिअविहीए || १०४ || गुरुणागुण्णायगणो पट्टधरतेण सूरिवरसीहो । पवयणउदयगिरं (रिं) मी सहस्रकिरणोव्व दिप्तो ॥ १०५ ॥ चंदुव्व सोमलेसो तिहुअण जणहिययलोअणाणंदो । नाणकिरिओक्खेवो संविग्गपसंसिओ सम्मं ॥ १०६ ॥ सिरिविजयदेवसूरी पट्टे सिरिविजयसीहसूरिव्व । भावेणं थुणिअव्वो धिइसिक्खित्तीहिं संजुत्तो ॥ १०७॥
पट्टावलीविसुद्धी- सरूवमेयं सुयाणुसारेणं । उदयविजयवरवायग- भणिअं नंदउ दिसउ भद्दं ॥ १०८ ॥
श्रीः । इतिश्री पट्टावली विशुद्धि सुरूपं कल्याणप्रशस्तिमालाविभ्भवतु ॥ श्रीरस्तु | आरोग्यमस्तु । सौभाग्यमस्तु क्षेमं सुभिक्षं जयविजय ऋट्टिवृद्धिश्चास्तु ॥
1
वीरात् ५८४ वर्षे श्री वज्रस्वामी स्वर्गं गतः । श्री वज्रसेन सू. वीरात् ६२० वर्षे स्वर्गभाग् । एवं च सति षत्रिंशद्वर्षाणि युगप्रधानत्वं स्यात्पट्टावल्यां च वज्रसेनस्य त्रीणि वर्षाणि युगप्रधानत्वमुक्तं तत्कथमिति चेदुच्यते युगप्रधान - त्वं हि युगप्रधानत्वयोग्यगुणागमे सत्येव भवति तेन सत्यपि गुरौ तादृशगुणागमे भवत्येव । अन्यथा तु स्वर्गं गतेपि गुरौ स्यान्न वेति न कोपि नियमः ॥
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नृसिंहविरचिता बन्धकौमुदी
-सं. विजयशीलचन्द्रसूरि काव्यालंकार शास्त्रमा एक विभाग चित्रकाव्यो अथवा बन्धकाव्योनो छे, अने ते सहदय भावकोने घणो रस अने चमत्कृति पमाडे तेवो छे. आ विषयने निरूपतो एक नानकडो ग्रन्थ अत्रे प्रस्तुत छे : बन्धकौमुदी. आना प्रणेता नृसिंह नामे कवि छे, जेमना स्थळ समय जाणवा, कोई साधन अत्यारे मारा पासे हाथवर्गु नथी. प्रतिनो लेखन संवत १८ मो शतक होवानुं श्री पुण्यविजयजीए निर्देशेलुं छे.
आ ग्रंथनी हस्तप्रति अमदावाद कीका भटनी पोळना भंडारमा हती, जेनी फोटोस्टेट नकल आगमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी पासे हती. तेओए ते नकल, चित्र काव्य-विषयना समर्थ ज्ञाता अने मारा मित्र-कवि मुनिराज श्रीधुरंधरविजयजीने, वर्षों पूर्वे, संपादनार्थे आपी राखेली. तेमणे ताजेतरमां ते नकल मने संपादित करी प्रकाशनार्थे सोंपी, तेना आधारे आ ग्रंथ संपादन पूर्वक अत्रे रजू थाय छे.
प्रति ३ पत्रनी छे. लिपि जैन नागरी छे, अने वळी शुद्धप्राय छे. जे ते बन्धनी आकृति पण (कुल १६) आपेली छे. प्रान्ते लेखकनी पुष्पिका नथी, ते जोतां आ प्रति कर्तानो स्वहस्त होय तो ते असंभवित नथी.
__ मध्य कालमां आपणे त्यां खास करीने जैन मुनिगणमां - चित्र काव्योनी रचनाप्रवृत्ति खूब विकसित हती, तेनो ख्याल ते काळनां चित्रकाव्यो तथा तेनी आकृतिओनां पानां भंडारोमां जोईए त्यारे आवी शके छे. आ बधां काव्योनो मात्र संचय थाय तो पण एक-बे मोटा दलदार ग्रंथो थाय, तेटली सामग्री -- कोई उद्धारकनी प्रतीक्षामां - भंडारोमां सचवाई पडी छे. आजे तो आ विषय खेडाण अने अध्ययन आपणे त्यां नहिवत बन्युं छे, एटले आ विषय थोडो कठिन पण बन्यो जणाय छे. श्री धुरंधरविजयजी महाराज, उपर निर्देश्युं तेम, आना अधिकारी विशेषज्ञ छे, तेओ ध्यान आपे तो आ अढळक सामग्रीनो उद्धार थाय, अने अभ्यासीओने घणुं मार्गदर्शन पण मळी रहे. अस्तु.
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[13]
१६ आकृतिओ पण सुविधा खातर पाछण एकी साथे आपवामां आवी छे. तेमां क्यांक क्षति होय तेम लाग्युं छे, परंतु मूळ प्रतिमां जेम छे, तेमज लगभग रहेवा दीधुं छे.
नृसिंहविरचिता
बन्धकौमुदी नमस्तस्मै नृहरये, संसारार्णवसेतवे । भक्तिनम्रजनानन्दसन्दोहविधिहेतवे ।। केषाञ्चिदिह बन्धानां लक्ष्यदृष्टया(ष्टय)नुसारतः । लक्षणं श्लक्ष्णमस्माभिर्बालबोधविवृद्धये
यथामति नृसिंहेन, क्रियते बन्धकौमुदी ॥ ३ ॥ तत्राऽऽदौ पद्मबन्धे-सर्वपदाद्यो वर्णः स एवान्त्यः, तथा श्लोकप्रथमपादादौ अन्त्यवर्ण(:) पादान्ते च वर्णत्रयं अनुलोमप्रतिलोमात्मकम् । प्रथमपादान्ते द्वितीयपादादौ च वर्णत्रयं गतागतम् । तथा तृतीयपादान्ते च चतुर्थपादादौ च वर्णत्रयं गतागतम् । एवं चेत् पद्मबन्ध : ॥
वरतात महादेव वदेहान्ते तनो शिव । वशिनो लोकपालांव 'बलापाकृन्नुतारव ॥ १ ॥ प्रस्तारस्तु ॥
कलशबन्धे - यो द्वितीयो वर्णः स एव चतुर्थः, यः षष्ठ : स एव सप्तमः, यश्चैकादशः स एव श्लोकान्तश्च । द्वितीयपादान्ते यदक्षरद्वयं प्रतिलोमविलोमेन तृतीयपादादौ कर्त्तव्यम् । उत्तरार्द्ध यः षष्ठः स एव द्वादशः । एवं चेत् कलशबन्धः ।।
गौरी गिरीन्द्रजा जाततनुभा भात धीरसा । सा रराजेह विविधं या विद्युद्युतिसप्रभा ॥२॥
शङ्खबन्धे - यश्चाद्यो वर्ण : स एव द्वितीयः, यः पञ्चमः पूर्वार्दै स एवाष्टमः, यः षष्ठः स एव नवमः । त्रयोदशचतुर्दशपञ्चदशषोडश(शा)श्चत्वारो वर्णाः प्रतिलोमेन तृतीयपादादौ कर्तव्याः । तृतीयपादान्ते यदक्षरद्धयं तच्चतुर्थपादादौ
१. बले दैत्यमप(पा)करोतीति स इन्द्रस्तेन नुतस्तत्र सम्बोधनम् इति प्रतिपार्श्वे टि. । २. शब्दगोचरः । ३. आकृति १ ।
४. आकृति २ ।
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[14]
प्रतिलोमेन कर्तव्यम् । प्रथमे पादे पञ्चमो यो वर्णः स एव चतुर्थपदान्त्य (:) अन्य द् यथाप्रशस्तमेव शङ्खबन्धे ||
यथा ससत्यजयदेहाय देहारूढरसानघ ।
घनसार नमस्तेह हस्तेशूलाऽखिला श्रिय ॥ ३ ॥
छत्रबन्धे - द्वितीयपादान्त्यो वर्णः स एव तृतीयपादादौ चतुर्थपादान्ते च कर्त्तव्यः । तृतीयपादे यश्चतुर्थ (:) स एव पञ्चमः, यश्चाष्टमः स एव नवमः, द्वादश: स एव त्रयोदशः । अन्यद् यथाप्राप्तम् । एवं चेच्छत्रबन्धः ॥
यश्च
यथा युष्माकं भूतये भूयात्सा भवानी भवप्रिया । या तु देववपुर्भाग-गमिता स्वस्वरूपया ॥ ४॥
छत्रबन्धान्तरे-यो द्वितीयपादान्त्यो वर्णः स एव तृतीयपादादौ च चतुर्थपादान्ते च कर्त्तव्यः । तथा तृतीयपादादौ वर्णत्रयमनुलोमप्रतिलोमात्मकम् । तथा अन्तिमं च वर्णत्रयमपि चेच्छत्र बन्धान्तरे ||
यथा शिवेन जगतां सैषा, गौरी सकलसंमता ।
तारिका कारिता मामा, या या मातास्तु तत्सुता ॥ ५ ॥
शूलबन्धे - य आद्यो वर्णः स एव तृतीय: पञ्चमश्च; द्वितीयपादान्त्यो वर्णो य: स एव तृतीयपादाद्यः, तत्पञ्चमश्चतुर्थपादान्त्यश्च कर्त्तव्यः । तथा तृतीयपादे यः षष्ठः स एव सप्तमः अष्टमश्च, चतुर्थपादे वर्णद्वयं अनुलोमप्रतिलोमात्मकम् । एवं चेच्छूलबन्धः ||
यथा सर्वसत्त्वमं वेद्मि त्वामीशं नाशितक्लम ।
,
'मदमोदमना नाना, नाम साररसा दम ॥ ६ ॥
धनुर्बन्धे - प्रथमपादादौ यदक्षरद्वयं अनुलोमात्मकं तच्चतुर्थपादान्ते प्रतिलोमात्मकं कर्त्तव्यम् । तथा द्वितीयपादान्ते अक्षरद्वयं अनुलोमं तृतीयपादान्ते प्रतिलोमेन स्यात् । तथा प्रथमपादान्तवर्णद्वयमनुलोमं द्वितीयपादादौ द्वितीयपादान्ते चद्वर्णद्वयं तदनुलोमप्रतिलोमरूपम् । एवं चेद्धनुर्बन्धो भवेत् ॥
१. आकृति ३. । २. आकृति ४. । ३. रक्षिका इति प्रतिपार्श्वे टि । ४. मदो नुद्यते छिद्यतेऽनेनेति मदनो दमनो यस्य इति प्रति प्रार्श्वे टि. । ५. आकृति ५ ।
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[15] यथा - रक्ष त्वं धृतसद्भूते, भूतेश भुवनत्रयम् ।
यन्त्रप्रायमिदं भोगिभोगिभूषसदक्षर ॥ ७॥ शरबन्धे-प्रथमपादाद्यो वर्णो यः स एव तृतीयः पञ्चमश्च, यः सप्तमः स एव द्वितीयपादाद्यः तृतीयश्च, यः प्रथमपादान्त्यः स एव द्वितीयपादे द्वितीयः, यो द्वितीयपादे पञ्चमः स एव सप्तमः तृतीयपादाद्यश्च, द्वितीयपादे य : षष्ठः स एवाष्टमः, तृतीयपादान्त्यो यः स एव चतुर्थपादे चतुर्थोऽन्त्यः षष्ठश्च, चतुर्थपादाद्यो यः स एव तृतीयः पञ्चमश्च चतुर्थपादे स च सप्तमः । एवं चेत् शरबन्धः ॥ यथा -- सदासविसरापत्र पत्रपङ्क्तिगतागता ।।
गत एवोस्त्वपात्रासा यालयासानसा नसा ॥ ८२ ॥ छुरिकाबन्धे-प्रथमपादे यो द्वितीयो वर्णः स एव चतुर्थः षष्ठो, योऽष्टमः स एव तृतीयपादाद्यः चतुर्थपादान्त्यश्च कर्तव्यः । द्वितीयपादे प्रथमवर्णद्वयमनुलोमप्रतिलोमात्मकं तृतीयपादान्त्यो वर्णः यः स एव चतुर्थपादाद्यः कर्तव्यः ।। यथा - श्रितायताद्भुता भान्ता मुमामामुदपापद ।
तात त्वं वहसीशान नन्तव्यापि जगन्मता ॥ ९ ॥ छुरिकाबन्धान्तरे द्वितीयपादेऽक्षरद्वयं यमकरूपम् । पुनरप्यक्षरद्वयं यमकरूपम् । असावपि छुरिकाबन्धो भवति ॥ यथा – क्लेशपाशवशस्थाय देवदेवप्रियप्रिय ।
यच्छ सौख्यं महादेव वन्द्य मह्यं सदाश्रय ॥१०॥ अन्यच्छुरिकाबन्धान्तरे द्वितीयचतुर्थषष्ठाक्षराण्येकरूपाणि । अष्टमः द्वादशस्तृतीयपादान्तश्चतुर्थादिश्च अमी एकरूपाः । तथा द्वितीयपादाद्यो य स एव तृतीयः यो द्वितीयपादान्त्यः स एव तृतीयपादाद्यः चतुर्थपादान्त्यश्च, तृतीयपादे यः सप्तमः स एव चतुर्थे द्वितीयः ॥ यथा - सा राजराजराजाज वाजवाजशिखिश्रितम् ।
[तं] यामायप्रभावाज जवाभाजनयत्सुतम् ॥ ११ ॥ षोडशकोष्ठागाराणि कृत्वा प्रथमपङ्क्तौ कोष्ठचतुष्टये चत्वार्यक्षराणि लिखेत् । १. आकृति. ६। २. आकृति ७. । ३. आकृति. ८. । ४. आकृति ९. । ५. आकृति १०.।
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[16]
द्वितीयपङ्क्तिकोष्ठेषु चत्वार्यक्षराणि लिखेत् । तृतीयपक्तिकोष्ठेषु चत्वार्यक्षराणि लिखेत् । चतुर्थपक्तिकोष्ठेषु चत्वार्यक्षराणि लिखेत् । पश्चाद् यथाक्रमेण वाचयित्वा पुनरुत्तरार्द्ध तिर्यग्वाचयेत् । तत्श्चोत्तरार्द्धं भवति । तत्र प्रथमपादाद्यक्षरं तृतीयपादाद्यं भवेत् । द्वितीयं उतराध्दै पञ्चमं भवति तृतीयं. चतुर्थपादाद्यं चतुर्थं, चतुर्थपादे पञ्चमम् । पुनः द्वितीयपक्तिप्रथमकोष्ठस्थं पञ्चममक्षरं उत्तरार्द्ध द्वितीयं अष्टमाक्षरं उत्तरार्धे ऽपि षष्ठं सप्तममुत्तरार्द्ध दशमं अष्टमं चतुर्थ पादे षष्ठम् । पुनस्तृतीयपङ्क्तिप्रथमकोष्ठस्थं उत्तरार्धे तृतीयं द्वितीयमुत्तरार्द्ध सप्तमम् । यो वर्णः पूर्वार्द्ध एकादशः चतुर्थः उत्तरार्द्ध । पुनश्चतुर्थपङ्क्तिप्रथमकोष्ठस्थमुत्तरार्द्ध चतुर्थं द्वितीयमष्टमं तृतीयं द्वादशं चतुर्थं उत्तरार्द्ध अन्त्यम् । एवं पूर्वार्द्धस्य षोडशवर्णा यावन्तः तावन्त उत्तरार्द्ध योजनीयाः । एवं चेज्जालबन्धो भवेत् । यथा - देवधीरहराश्रीरा जाताभाजननागते ।।
देहजानवराताना धीश्रीभाग रराजते ॥ १२१ ।। जालबन्धान्तरे पूर्वार्द्ध यत्तदेव पुनरभ्यसेत् पादचतुष्टये । एवं चेत् जालबन्धान्तरम् । तत्र द्वात्रिंशत्कोष्ठागाराणि कृत्वा तत्र प्रथमपङ्क्तेरष्टसु कोष्ठेषु प्रथमपादस्याष्टावक्षराणि लिखेत् । द्वितीयपङ्क्तिकोष्ठेषु पुनः वाचयेत् । पुनरेकान्तरितत्वेन प्रथमपक्तिद्वितीयपक्तिगताक्षराणि वाचयेत् ॥ यथा - सोमालङ्कृतगात्राया समानाकृत्यगात्मया ।
सोमालङ्कृतगात्राया समानाकृत्यगात्मया ॥ १३२ ॥ गोमूत्रिकाबन्धे पूर्वार्द्ध आद्यो यः सोऽन्य एव भवेत् । यः पूर्वार्द्ध द्वितीयः स उत्तरार्धे द्वितीयः, यश्चतुर्थः स उत्तरार्द्ध चतुर्थः, यः षष्ठः स उत्तरार्द्ध षष्ठः, योऽष्टमः स उत्तराद्धेऽष्टमः, यो दशमः स उत्तरार्द्ध दशमः, यो द्वादशः स उत्तरार्द्ध द्वादशः यश्चतुर्दशः स उत्तरार्द्ध चतुर्दशः, यः षोडशः, स उत्तरार्द्ध षोडशः । प्रातिलोम्येन उत्तरार्द्धस्याक्षराणि वाचनीयानि । यथा - नमस्ते कालकण्ठाय, कमलाकान्तकप्रिय ।
समताकारकम्राय, विमलाकाशलक्षप ॥ १४३ ॥
१. आकृति ११.
२. आकृति १२.
३. आकृति १३.
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सर्वतोभद्रे - चतुःषष्ठिकोष्ठागाराणि कृत्वा तत्र प्रथमपङ्क्तिकोष्ठाष्टके प्रथमपादाक्षराणि अष्टौ लिखेत् । द्वितीयपादाक्षराणि द्वितीयपङ्क्तिकोष्ठेषु लिखेत् । तृतीयपङ्क्तिकोष्ठेषु तृतीपादाक्षराणि, चतुर्थे चतुर्थपादाक्षराणि लिखेत् । पञ्चमपङ्क्तिकोष्ठेषु चतुर्थपादाक्षराणि षष्ठपक्तिकोष्ठेषु तृतीयपादाक्षराणि, सप्तमपङ्क्तिकोष्ठेषु द्वितीयपादाक्षराणि, अष्टमपङ्क्तिकोष्ठेषु प्रथमपादाक्षराणि लिखेत् । प्रथमपादाद्यो यः स एव तृतीयपादे तृतीयः । आद्यपादे यो द्वितीयः स एव द्वितीयपादाद्यः, यस्तृतीयः स एव द्वितीयपादे तृतीयः । तृतीयपादे प्रथमो यः स एव तृतीयपादे द्वितीयः, प्रथमे चतुर्थः स एक चतुर्थपादाद्यो, यो द्वितीयपादे द्वितीयः स एव तृतीये चतुर्थः चतुर्थे तृतीयश्च । यो द्वितीये चतुर्थः स एव चतुर्थे द्वितीयः । पादचतुष्टयेऽपि प्रतिपादकं वर्णचतुष्टयमनुलोमप्रतिलोमात्मकम् । एवं सर्वतोभद्रं भवेत् ॥
यथा वामासानि निसामावा मानासाध्वध्वसानमा ।
[17]
सासावामा सासावासा (सासावाननवासासा) निध्वनत्यत्यनध्वनि ॥ १५१ ॥ द्वितीयः प्रथमो वर्णः पदे युग्मांहिपूर्वजः ।
द्वितीयांहितृतीयो यः स तृतीयद्वितीयकः ॥ १६ ॥
सर्वतोभद्रलक्ष्यैतदवादीद् राजशेखरः ।
प्रस्तारस्तु तथा प्रोक्तः तथाप्यर्थोऽपि विस्तृतः ॥ १७ ॥
वामं कौटिल्यं अस्यति क्षिपतीति वामासा । चन्द्रप्रभावविशदं चन्दनातिरतिप्रदम् ।
प्रभातिनन्दपदेशं प्रवरप्रकटं यशः ॥ १८२ ॥ यापात्यपायपतितानवतारिताया
यातारितायपतिवाग्भूवितानिमाया । यामानितावपतु वो वसुसास्यगेया । यागेस्यसासुररिपोर्जययात्युपाया ॥ १९ ॥
रुद्रटालङ्कारात् कमलबन्धान्तरम् ॥
इति श्री नृसिंहविरचितो बन्धकौमुदीग्रन्थः समाप्तोऽयम् ॥
१. आकृति १४. । २. आकृति १५. । ३. आकृति १६. ।
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[18]
आकृनि १
आकृति
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कलशबन्धः॥
104
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यमय-मः।
आकृति ४
आकृति ३
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धन-धः॥
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शबन्धः।।
आकृति ६
आकृति ५
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एलबन्धः ।।
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आकृति ८ .
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धनमः॥
शरबन्ध:
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________________
[19]
आकृति र
आकृति
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धुरिकाबन्य
धुरिक बन्य
आकृति १०
आकृति
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वाज वा
ही जाना भाज
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धुरिकाबन्यः ।।
जालबन्धः।।
आकृति १२
| स [ माना | कृत्यगात्मया । सो मा
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जालन्धः ।।
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________________
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गोमूत्रिका बन्धः ॥
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आकृति १४
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आकृति १५.
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सर्वतोभद्र बन्धः ॥
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आकृति १३
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सर्वतोभद्रबन्धः ॥ (राजशेखर) ।
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आकृति १६
कमलबन्धः (रुद्रालङ्कार ॥
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महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीगणिकृत १०१ बोलसंग्रह : भूमिका
___-सं. विजयशीलचन्द्रसूरि महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी गणि विद्ज्जगतमां दार्शनिक अने समर्थ तार्किक तरीके प्रख्यात छे, तो धर्मना अने जैनाचार-विचारना क्षेत्रमा तेओ सैद्धान्तिक पुरुष तरीके सर्वमान्य छे. सैद्धान्तिक विचारो अने तेनी प्ररूपणा/ प्रतिपादनमां तेमनो बोल अकाट्य अने तेमणे करेलुं अर्थघटन निर्विवादपणे सर्वग्राह्य गणाय छे.
तेओओ जैन सिद्धन्तोनुं यथार्थ अर्थघटन करतां अनेक ग्रन्थो रच्या छे. ते ग्रन्थोमां, विविध सिद्धान्तो परत्वे अन्य जैन विद्वानो/साधुओए करेल प्ररूपणाओमां ज्यां पण विसंगति के वैपरीत्य होय तेन तेओए अत्यंत सूक्ष्मेक्षिकाथी, सिद्धान्तनुं शुद्ध हार्द पकडीने, मध्यस्थभावे, ते ते विसंगतिओ अने वैपरीत्यो प्रत्ये अंगुलिनिर्देश करीने तेनुं निरसन कर्यु छे, अने शुद्ध मत/अर्थ- प्रतिपादन कर्यु छे. "प्रस्तुत १०१ बोलसंग्रह" पण तेमनी आ ज प्रकारनी एक रचना छे.
आ ग्रन्थ, केटलांक वर्षो अगाउ, आचार्य श्री यशोदेवसूरिजीना प्रयत्नथी छपायेल उपाध्याय यशोविजयजीनी अन्य चारेक रचनाओनी साथे, एक पुस्तक रूपे पालीताणा जैन साहित्य मन्दिरेथी प्रकाशित थयेल छे, जेमां तेनुं नाम "श्रीमद यशोविजयजी गणिवर्य द्वारा संग्रहीत १०८ बोलसंग्रह" एवं आपवामां आव्युं छे. ए प्रकाशनमा प्रथमना चार बोल नथी, अने ते विशे तेना प्रारंभे जे सूचना मूकवामां आवी छे. तेमां जणाव्युं छे के -
"प्रस्तुत संग्रहकी पाण्डुलिपि का पहला पृष्ठ खो जाने अथवा नष्ट हो जाने के कारण क्रमांक १ से ४ तक के प्रश्न नहीं दिये गये है। यही कारण है कि इस ग्रन्थका आरम्भ पाँचवे बोलसे हो रहा है।"
अहीं आ सूचना विशे एटलुं ज कहेवानुं प्राप्त छे के एक ज प्रति ना आधारे तेनुं प्रकाशन करी देवानो मोह जतो करीने अन्यान्य ज्ञानभंडारोमां उपलब्ध थई शकती आ ग्रंथनी विविध प्रतिओ मेळवी होत तो उपर्युकत सूचना आपवी
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[m] पडी न होत, अने पूरा बोल आपी शकाया होत. वळी, ए प्रकाशनमां, आ ग्रंथनी समाप्ति पछी एवी टिप्पणी मूकी छे के
___ "यह ग्रन्थ १०१ बोल पर ही समाप्त हो जाता है । सभ्भवतः शेष बोलप्रारभ्भ के ५ बोलोंके समान ही मूल प्रतिमें नष्ट हो गये हैं ।"
आ टिप्पणी साव निरर्थक एटला माटे छे के ए प्रकाशनमां ग्रंथनो अंत पण छे अने ते पछी कर्तानी तेमज लेखकनी पुष्पिका पण छे, जेथी स्पष्ट छे के ग्रंथ अधूरो नथी के तेनो अंतिम अंश नष्ट पण नथी. वस्तुतः आ ग्रंथ' १०८ बोलसंग्रह" छे ज नहि; आ तो १०१ बोलसंग्रह" ज छे. आ मुद्दो, अहीं, कर्ताना स्वहस्ते लखाएली प्रतिना आधारे नि:संदेह सिद्ध थई शके छे. अने प्रसंगोपात्त ए पण स्पष्ट थर्बु घटे के आ ग्रंथ ए श्रीयशोविजयजी महाराजनी पोतानी रचना छे, पण तेमना द्वारा थयेलुं संकलन के संग्रहमात्र नथी. अर्थात् संगृहीत नहि, पण विरचित छे.
आ ग्रंथy प्रकाशन, एकवार, उपर कडुं छे, तेम थई गयुं छे छतां अहीं तेनुं पुनः प्रकाशन करवानां कारणो ए छे के -
१. पूर्व-प्रकाशनमा जे अंश नथी छपायो, ते अंश अहीं प्राप्त छे.
२. जे प्रतिना आधारे आ वाचना तैयार थई छे ते प्रति ग्रंथकार श्रीयशोविजयजीए स्वहस्ते लखेल-ग्रंथना खरडारूप- छे, जेने कारणे वाचना एकदम शुद्ध अने पूर्ण मळे छे.
३. पूर्व-प्रकाशनमा आखी कृति अने तमाम (५ थी १००) बोलो अशुद्धप्राय तेमज घणा अंशो-वाक्यांशो वगेरे विना ज छपायेल छे. प्रस्तुत वाचनामां ते बधुं सहजपणे ज शुद्ध-पूर्ण जोवा मळशे.
४. पूर्व-प्रकाशननो आधार बनेली प्रति सं. १७४४मां कोई लेखके लखेली प्रति होई तेनी भाषा घणी बदलायेली छे. ज्यारे प्रस्तुत प्रति कर्तानी स्वहस्त होई तेनी भाषा तेमज जोडणी-बधुं असल रुपमा ज छे, अने ते ज रीते अत्रे प्रस्तुत पण थाय छे.
१२मा बोलमां श्रीयशोविजयजी महाराजे विविध ग्रंथोना नामो टांक्या
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[23] छे, तेमां "समयसारसूत्रवृत्ति" नुं पण नाम छे. ते उपर टिप्पणी करतां पूर्वप्रकाशनना संपादके "इस प्रकारका गन्थ कौन सा है ? यह ज्ञात नहीं है। यहां जो साक्षी ग्रन्थ है वे श्वेताम्बरीय हैं । अत: 'समयसार' की कल्पना नहीं की जा सकती है।" आवी नोंध मूकी छे, जे बराबर नथी, अने संपादकनी ओछी सज्जतानुं सूचन आपे छे. "समयसार" नामे एक प्राकृत-गाथाबद्ध रचना श्वेतम्बराचार्यनी पण छे, अने सभ्भवतः यशोविजयजी तेने ज टांकता होय तेम जणाय छे.
समग्रपणे ग्रन्थावलोकन करतां जणाय छे के उपाध्याय श्री धर्मसागरजी महाराजे पोताना ग्रन्थोमां जे केटलीक प्ररूपणाओ करी हती, तेने कारणे तेमणे गुरुओ तथा गच्छनायको वगेरेनो रोष वहोरवो पडेलो, माफीपत्रो आपवां पडेला अने पोताना अमुक ग्रन्थोने जलशरण पण करवा पडेला. छतां ते ग्रंथोनो प्रचार तेमना परिवार द्वारा शरु ज रह्यो होवाथी ते ग्रंथोनी अमान्य करवी पडे तेवी वातोमां समाज अनाभोगे पण न खेंचाय, ते हेतुथी सैद्धान्तिक स्पष्टता करतो आ बोलसंग्रह श्रीयशोविजयजी महाराजे रच्यो छे, जे तेमना जेवी अतिसमर्थ प्रतिभा माटे ज शक्य अने न्याय्य छे.
आ ग्रन्थनी कर्ताना स्वहस्ताक्षरनी प्रति मारा पूज्य गुरुजी श्री विजयसूर्योदयसूरिजीना संग्रहमांथी प्राप्त थई छे. तेना ८ पत्रो छे. दोडती कलमे लखायेला खरडा जेवी ओ प्रति छे, छतां शुद्ध छे. आ प्रतिना अंतमां "सम्यक्त्वनी दृढता करवी सही" एम लखाण पूरूं थाय छे ते साथे ज कर्ताए स्वहस्ते १०८ एवो अंक लख्यो छे, जे १००- आम पण वंचाय छे, अने १०८ एम पण वांची शकाय छे. संभव छे के आनी नकल करनाराओए १०८ वांच्युं होय अने ते परथी १०८ बोलसंग्रह एवं नाम प्रवत्र्यु होय. ग्रन्थान्ते कोई वर्ष, स्थल वगेरेनो उल्लेख नथी.
प्रतिना आठमा पानानी बीजी पुंठी पर उपाध्यायजीए स्वहस्ते करेली विविध ढूंकाक्षरी के सांकेतिक शास्त्रीय नोंधो छे. पोताने कोई ठेकाणे उपयोगमां लेवाना पाठो के पदार्थो जड्या के सूझ्या होय तेनी आ नोंध करी राखी होय तेम लागे छे. अवसरे आ नोंध उकेलीने विद्वानो समक्ष मूकवानुं मन छे ज.
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"१०१ बोलसंग्रह " नी वाचना
ऐ नमः ॥ सर्वज्ञशतकादिकग्रंथ माहिला विरुद्ध बोल जे धर्मपरीक्षा ग्रंथमांहि देखाड्या छइ ते माहिला केतलाएक मतभेद जाणवानिं अर्थिं लिखि
छइ ॥
"उत्सूत्रभाषीनिं अनंतो ज संसार होइ " एहवूं लिखूं छइ ते न घटइ, जे महानिशीथादिक ग्रंथनिं विषइ अध्यवसायविशेषनी अपेक्षाई तीर्थंकरनी महाआशातना करणहारनिं संख्यातादिक ३ भेद संसार कहिओ छइ, तथा मरीचिप्रमुख उत्सूत्रभाषीनिं असंख्यातादिक संसार पणि शास्त्रिं छइ ॥ १ ॥
" निहनव तीर्थोच्छेदनी बुद्धि उत्सूत्र भाषइ ते मार्टि तेहनिं अनंतो ज संसार होइ, यथाछंद ते रीतिं उत्सूत्र न भाषइ ते मार्टि तेहनिं अनंत संसारनो नियम नहीं," एहवूं लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं यथाछंदनिं पणि सूत्रोच्छेदनो परिणाम होइ अनि तीर्थोच्छेदनी परिं सूत्रोच्छेद पणि भारे कहिओ छइ योगवीसी प्रमुख ग्रंथमां ॥ २ ॥
" नियत उत्सूत्र भाषइ तेह निह्नव, अनियत उत्सूत्र बोलइ ते यथाछंद" एहवूं लिख्यूं छइ तिहां उत्सूत्रकंदकुद्दाल विना बीजा कोई ग्रन्थनी साखि नथी
॥३॥
"यथाछंदनिं उत्सूत्र बोल्यानो निर्धार नथी " एहवूं लिख्यूं छइ ते न मिलइ, जे मार्टि आवश्यकव्यवहारभाष्यादिक ग्रंथमां यथाछंद उत्सूत्रचारीनिं उत्सूत्रभाषी ज कहिओ छइ ॥ ४ ॥
"नियत उत्सूत्रथी अनियतं उत्सूत्र हलुउं ज होइ" एहवूं कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि एक जातिनिं पापि हिंसादिक आश्रवनी परिं नियतानियतभेदिं फेर कहिओ नथी ॥ ५ ॥
"कीधां पापनूं प्रायश्चित्त तेहज भविं आवइ पणि भवांतरिं नावइ," एहवं लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं पंचसूत्रचतुः शरणादिक ग्रंथनि अनुसारिं भवांतरनां पापनूं पणि प्रायश्चित्त जाणइ छइ ||६||
"अभव्यनिं अनाभोगरूप एकज अव्यक्तमिथ्यात्व होइ गुणठाणुं न कहिइ",
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एहवू व्यारव्यानविधि मां लिख्यूं छइ ते अयुक्त, जे मार्टि गुणस्थानक्रमारोहादिक ग्रंथइ अभव्यनि व्यक्ताव्यक्त २ प्रकारिं मिथ्यात्व कहिउं छइ ॥७॥
वली तिहां एहवू लिख्यूं छइ, जे “एक पुदगलपरावर्त्त संसार शेष जेहनि होइ तेहनि ज व्यक्त मिथ्यात्व कहिइ" ते सर्वथा न घटइ, जे माटि तेहथी अधिक संसारी पणि पाखंडि व्यक्त मिथ्यात्वी ज कहिआ छइ अनें व्यक्त मिथ्यात्व ते गुणठाणुं छइ ॥ ८ ॥
___ "अनाभोगमिथ्यात्वि वर्तता जीव न मार्गगामी न वा उन्मार्गगामी कहिइ", एहवी कल्पना करि छइ ते कोइ ग्रंथि नथी अनि इम कहतां सघलई ३ राशि कल्पाइ ॥ ९ ॥
___ "अभव्य अव्यवहारिया मां" कहिया छइ ते उपदेशपदादिक ग्रंथ साथि तथा लोकव्यवहार साथिं पणि न मिलइ ॥ १० ॥
व्यवहारिया तथा अव्यवहारिया' (?) जीव सर्व, आवलिका असंख्येय भागसमयप्रमाण पुदगलपरावर्त पछी अवश्य मोक्षिं जाइ, एहवू लिख्यूं छई, तिहां कोइ ग्रंथनी साखि नथी । साह{ भुवनभानुकेवलिचरित्र, योगबिन्दु प्रमुख ग्रंथनी मेलिं व्यवहारिया थया पछी अनंता पुदलपरावर्त पणि दीसइ छइ ॥११॥
"सूक्ष्म पृथिव्यादिक ४, तथा निगोद २, ए छ भेद अव्यवहारिया कहिइ", एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटि उपमितिभवप्रपंचा, समयसारसूत्रवृत्ति, भवभावनावृत्ति, श्राद्धदिनकृत्यवृत्ति, पुप्फमालावृत्ति, धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति, संस्कृतनवतत्त्वसूत्रादिक ग्रंथनी मेलिं प्रकट ज बादरनिगोदादिक व्यवहारिया जाणइ छइ, एक सूक्ष्मनिगोद ज अव्यवहारिया कहिया छइ ॥१२॥
"ए उपमितिभवप्रपंचादिकनां वचन, पनवणा साथि विरुद्ध अनाभोगपूर्वक एहवू लिख्यूं छइ," ते पूर्वाचार्यनी आशातनानूं वचन जिनशासननी प्रक्रिया जाणइ ते किम बोलइ ? || १३ ॥
"तथा अव्यवहारिया" आटलो पाठ हांसियामां x आईं चिह्न करीने कर्ताए मूक्यो छे पण ते क्यां उमेरवो तेनुं सूचन/चिह्न जोवा मळतुं नथी; तेथी (?) साथे अहीं उमेरेल छे.
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'अभव्य व्यवहारियाथी तथा अव्यवहारियाथी बाह्य छइ, एहवूं पणि व्याख्यानविधिशतकमां लिख्यूं छइ", ते पणि कल्पनामात्र ज जे माटइ अव्यवहार निगोदमां अभव्यनी विवक्षा नथी, आपातमात्रइ संभव हो तो हो, पणि बेहुथी बाह्य कल्पना नथी ॥ १४ ॥
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'अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व अभिग्रहिक सरिखुं आकरुं" एहवूं तत्र ज लिख्यूं छइ ते पणि न घटइ, जे माटिं योगबिन्दु प्रमुख ग्रंथि अनाभिग्रहिक आदि धर्मभूमिका गुणरूप दीसइ छइ ॥ १५ ॥
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"मिथ्यात्वीनिं देवाराधन अध्यवसाय जीवहिंसादिक अध्यवसायथी पणि घणुं दुष्ट" एहवूं सर्वज्ञशतक मां लिख्यूं छइ ए एकांत ग्रहवो ते खोये, जे माटि आदि धार्मिकनि साधारणदेवभक्ति योगबिन्दु प्रमुख ग्रंथमां संसार-तरणनूं हेतु कही छइ ॥ १६ ॥
"मिथ्यात्वीना गुण ते सर्वथा ज गुणमां न गणिइ " एहवूं कहइ छइ ते पणि न घटइ, जे माटिं मिथ्यादृष्टिना गुण आविं ज, सूधूं पहिलूं गुणठाणु होइ, एहवूं योगदृष्टिसमुच्चय ग्रंथमां कहिउं छइ ॥ १७ ॥
" पर समयमां नही निं स्वसमयमां कही, एहवी ज क्रिया सुपात्रदान जिनपूजा, सामाइक प्रमुख मार्गानुसारिपणानुं कारण", एहवूं कहिउं छइ, ते पणी एकांत न घटइ, [जे माटखं उभयसंमत दयादानादिक क्रियाई पणि मार्गानुसारिपणुं योगबिन्दु प्रमुख ग्रंथई कहिउं छई ] ॥ १८ ॥
"उत्कर्षथी अपार्द्धपुदगलपरावर्त्त संसार शेष हो तेहमां मार्गानुसारी" एहवूं लिख्यूं छइ ते पणि विचारखूं, जे मार्टि उपदेशपदमां वचनौषधप्रयोगकाल चरमपुद्गलपरावर्त्त ज कहिओ छइ तथा योगबिंदु वीसविसी प्रमुख ग्रंथानुसारिं पणि एक चरमपुदगलपरावर्त्त मार्गानुसारीनो काल जाणइ छइ ॥ १९ ॥
" सम्यक्त्वथी घणूं दूकडो मार्गानुसारी होइ, ते संगम - नयसारादिक सरिखो ज पणि बीजो न कहिइ", एहवुं कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि अपुनर्बंधक १, सम्यग्दृष्टी २, चारित्री ३ ए ३ शास्त्रि धर्माधिकारी कहिआ छ, ते तो आप आपणइ लक्षणि जाणिइ पणि एक एकथी दूकडापणानो तंत नथी
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[27] ते मार्टि जिम सम्यग्दृष्टी चारित्रथी वेगलो पणि पामिइ तिम मार्गानुसारी सम्यक्त्वथी वेगलो पणि होइ ते वातनी ना नहीं ॥ २० ॥
"मिथ्यात्वीनी क्रिया व्याधादिकना मनुष्यपणानिं सरिखी" एहवू लिख्यूं छइ ते महाद्वेष, वचन, जे मार्टि अपुनर्बंधकना दयादिक गुण उपदेशपदादिक ग्रंथमां वीतरागनी सामान्यदेशनाना विषय कहिया छइ ॥ २१ ॥
___"जैननी क्रियाई अपुनर्बंधक होइ पणि अन्यदर्शननी क्रियाइं न होइ ज". एहवू जे कहइ छइ ते न मानवू, जे मार्टि समयग्दृष्टी स्वशास्त्रनी ज क्रियाई होइ अनि अपुनर्बध अनेक बौद्धादिक शास्त्रनी क्रियाइं अनेक प्रकारनो होइ एहवू योगबिंदु प्रमुख ग्रंथि कहिउं छइ ।। २२ ॥
"असद्ग्रहपरित्यागेनैव तत्त्वप्रतिपत्तिर्मार्गानुसारिता' एहवं वंदारुवृत्ति कहउं छइ ते मार्टि जैनशास्त्रना तत्त्व जाण्या विना मार्गानुसारी न होइ ज" एहवो एकांत पणि न घटइ, जे माटि ए तंत ग्रहतां मेघकुमार हस्तिजीवनिं पणि मार्गानुसारिपणु नावइ योग्यता लेहइ तो कोइ दोष नथी ॥ २३ ॥
"भगवती मां ज्ञानरहित क्रियावंत देशाराधक कहिओ छड् ते भांगानो स्वामी खारीनिं टीकामां बालतपस्वी वखाण्यो छइ, ते मार्गानुसारी ज मिथ्यात्वी होइ ए अर्थ उवेखीनिं ए भांगानो स्वामी द्रव्यक्रियावंत अभव्य जे कहइ छ। आपछंदइ ते न घटइ," जे मार्टि अभव्यादिकनि देशथीइ आराधकपणूं नथी व्यवहारिं आराधकपणूं तेहनि छइ" ते पणि न घटइ जे मार्टि ए मुग्धव्यवहार लेखामां नहीं लिंगव्यवहारनी परि क्रियाव्यवहार पणि अपुनर्बंधकादि परिणाम विना पंचाशकादिक ग्रंथई निरर्थक कहिओ छइ ॥ २४ ॥
“निह्नवइ क्रियाज्ञा नथी भागी अनि सम्यक्त्वाज्ञा भागी छइ ते मार्टि ते देशाराधक तथा देशविराधक कहिइ" एहवू लिख्यूं छइ ते सर्वविरुद्ध, जे मार्टि ते सर्वथा आज्ञाबाह्य ज कहिया छइ ॥ २५ ॥
"जेहनि ज्ञान छतइ पाम्या चारित्रनो अंग होइ अथवा चारित्रनी अप्राप्ति होइ ते देशविराधक एहवू भगवती वृत्तिं लिख्यूं छइ तेहमां चारित्रनी अप्राप्ति देश विराधक न घटद" एहवू लिख्यूं छइ ते प्रकट पूर्वाचार्यनी आशातनानूं वचन, जे माटिं परिभाषा लेतां कोई दोष नथी ॥ २६ ॥
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[28] सव्वप्पवायमूलं, दुवालसंगं जओ जिणक्खायं ।
रयणागरतुल्लं खलु, तो सव् सुंदरं तम्हि ॥ (उ. ६९४)
ए उपदेशपद गाथामां अन्यदर्शनमा पणि जीवदयादिक सुंदर वचन छइ ते दृष्टिवादनां, ते माटि तेहनी आशातनाई दृष्टिवादनी आशातना थाइ, एहवा अर्थ छइ ते ऊथाप्यो छइ ॥ २७ ॥
तेहनी वृत्तिमां - 'उदधाविवे' त्यादि काव्यनी साखि लिखी छइं ते अयुक्ती, एहवू कहिउं छइ ॥ २८ ॥
ते काव्यनो अर्थ फेरव्यो छइ ।। २९ ॥ "मिथ्यात्वीनी क्रिया - आंबाना फलना अर्थीनिं वटवृक्षसरिखी; चारित्ररहित ज्ञान पोसमासि आंबासरिखं" एहवू लिख्यूं छइ तिहां ए ओछू जे अपुनर्बंधकादि क्रिया आंबाना बीजांकुरादिक सरिखी गणी नथी । श्रीहरिभद्रसूरिना घणा ग्रंथमां ए अर्थ प्रगट छइ ॥ ३० ॥
"लौकिक मिथ्यात्वथी लोकोत्तर मिथ्यात्व भारी" एहवू लिख्यूं छइ एह पणि एकांत नथी; जे माटिं बंधनी अपेक्षाई लौकिक पणि भारे दीसइ छइ । योगबिंदुमां भिन्नग्रंथिर्नु मिथ्यात्व हलुङ कहिउं छइ अभिन्नग्रंथ, भारे कहिउं छइ ॥३१॥
"अनुमोदना तथा प्रशंसा ए २ भिन्न कहिइ" एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि पंचाशकवृत्ति प्रमुख ग्रंथिं प्रमोदप्रशंसादिलक्षण अनुमोदना कही छइ ॥ ३२ ॥
. "मिथ्यादृष्टीना दयादिक गुण पणि न अनुमोदवा " एहवू कहइ ते न घटइ, जे मार्टि परसंबंधिया पणि दानरुचिपणा प्रमुख सामान्य धर्मना गुण अनुमोदवा योग्य कहिया छइ, आराधनापताकादिक ग्रंथिं तथा साधारणगुण प्रशंसा ए धर्मबिंदु सूत्रमा पणि लोक लोकोत्तर साधारण गुणनी प्रशंसा करवी कही छइ ॥ ३३ ॥
"मिथ्यात्वीना दयादिक गुण प्रशंसिइ पणि अनुमोदिइ नहि" एहवू कहइ छइ ते मायानुं वचन, जे माटि खरी प्रशंसाई अनुमोदना ज आवइ, अनि
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खोटी प्रशंसानो तो विधि न होइ ॥ ३४ ॥
" सम्यग्दृष्टी ज क्रियावादी होइ" एहवूं कहइ छइ ते न घटइ, जे माटिं एक पुद्गलपरावर्त्त शेष संसार क्रियारुचि क्रियावादी कहिओ छई दशाचूर्पिण प्रमुख ग्रंथिं ॥ ३५ ॥
"मिथ्यात्वीनिं दयादिक गुणिं करि पणि सकामनिर्जरा न होइ " एहवं लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि मेघकुमार जीव हस्तिप्रमुखन दयादिक गुणि संसार पातलो थयो ते सूत्रिं ज कहिउं छइ ते सकामनिर्जरा विना किम घटइ ? तथा मोक्षनि अर्थिं निर्जरा ते सकामनिर्जरा कही छन् || ३६ ||
"कविला इत्थंपि अहयंपि " ए वचन मरीचीनी अपेक्षाइं उत्सूत्र नहिं, अनि कपिलनी अपेक्षाई उत्सूत्र, ते मार्टि उत्सूत्रमिश्र कहिइ "एहवुं लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं इम करतां सिद्धान्तवचन पणि सम्यग्दृष्टी मिथ्यादृष्टीनी अपेक्षाई उत्सूत्रमिश्र थई जाइ तथा श्रुत भावभाषा मिश्र होइ ज नहीं एहवृंं दशवैकालिकनिर्युक्तिमा कहिउं छइ ।। ३७)
"मरीचिनूं वचन दुर्भाषित कहिइ पणि उत्सूत्र न कहिइ" एहवूं कहइ छइ ते न मिलइ, जे माटिं पंचाशकवृत्तिं दुर्भाषितपदनो अर्थ उत्सूत्र कहिओ छइ
||३८||
"उत्सूत्रलेश मरीचिनूं वचन कहिउं छइ ते मार्टि उत्सूत्रमिश्र कहिइ" एहवूं कहइ छइ ते न घटइ, जे माटिं 'द्रव्यस्तवमां - भावलेश' पंचाशकादिक ग्रंथि कहिओ छइ ते पणि भावमिश्र होइ जाइ ॥ ३९ ॥
“इयमयुक्ततरादुरन्तानन्तसंसारकारणम्" एहवूं श्राद्धप्रतिक्रमणचूर्णि कहिउं छइ, तेहनो अर्थ एह " ए विपरीत प्ररूपणा घणूं अयुक्त दुरन्तानन्तसंसारनं कारण, इहां एहवुं लिख्यूं छइ जे दुरन्तानन्त शब्दनो अर्थ न मिलइ 'दुरन्त' - ते जेहनो दुःखि अंत आवइ, 'अनंत' ते जेहनो अंत नावइ ए पूर्वाचार्यना ग्रंथ खंडियानी खोटी कल्पना, जे माटिं 'दुरन्तानन्त' कहतां महानंत कहिइ "कालमणंतदुरंत" ए उत्तराध्ययनवचननी साखि, इहां कोई दोष नथी ||४०||
"जिनवचननो दूषनार जमालिनी परिं नाश पामइं अरघट्ट घटीयंत्र न्याई संसारचक्रवाल भमइ एहवूं सूयगडांगनिर्युक्तिवृत्ति कहिउं छइ, ते माटिं जमालिनिं
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अनंतो ज संसार" एहवी कल्पना करइ छइ ते न घटइ, जे माटिं दृष्टांतमात्रिं साध्यसिद्धि नो हि, नहिं तो उत्सूत्र प्ररूपणा अनंतसंसारहेतु कही छइ, तिहां श्राद्ध-प्रतिक्रमणचूर्णि श्राद्धविध्यादिक ग्रंथमां मरीचि दृष्टांत कहिओ छइ तेह भणी मरिचि पणि अनन्तसंसारी हुइ जाइ । तथा सूत्रविराधनाई अनंता जीव चतुरंत संसार भम्या जमालिनिं परिं एहवूं नंदीवृत्तिमां कहिउं छइ ते भणि जमालिनिं च्यारइ गति हुइ जोईइ ॥ ४१ ॥
" जमाली णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ कहिं गच्छहि कहिं उववज्जिहि । गो० । चत्तारि पंच तिरिक्खजोणिय मणुअ देवभवग्गहणाई संसारं अणुपरिअट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झिहिति" (श०९.उ.३३)
ए भगवती सूत्रमां 'चत्तारि पंच' कहतां ९ भेद तिर्यंचना लेईइ इम अनंता भव जमालिनि थाइ एहवूं लिख्यूं छइ ते न मिलई । जे माटिं एहवो विषम अर्थ पूर्वि कइणिं विवरिओ नथी तथा ९ भेद तिर्यंचमां पणि नियमिं अनंता भव आवइ नहीं ||४२||
कोइक तिर्यंचनी कायस्थिति लेई जमालिनिं अनंता भव कहइ छइ ते पणि कल्पना मात्र, जे माटिं सूत्रिं भवग्रहण ज कहियां छइ ॥ ४३ ॥
"च्युत्वा ततः पञ्चकृत्वो, भान्त्वा तिर्यग्नृनाकिषु । अवाप्तबोधिर्निर्वाणं, जमालिः समवाप्स्यति ॥ १ ॥"
ए हैमवीरचरित्रश्लोकमां एहवूं कहिउं छइ जे जमाली तिहांथी चवी ५ वार तिर्यंचमनुष्यदेवतामां भमी मोक्ष जास्यइ । एहथी अनंता भव नथी जणाता, तिहां कोइ कहइ छइ जे ५ वार तिर्यंचमां भमतां अनंता भव थाइ ते न मिलइ, जे माटिं भवग्रहणिं भमतां अनंत भव न घटइ ॥ ४४ ॥
"देव - किब्बिसिया णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खणं अणंतरं च चइता कहिं गच्छित कहिं उववज्जिति ? गो० जाव चत्तारि पंच णेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवभवग्गहणारं संसारं अणुपरिअट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झति बुज्झति जाव अंतं करंति ॥ ( श० ९. उ. ३३)
ए सामान्य सूत्रिं सामान्यथी देव किल्बिषियानिं 'चत्तारि पंच' शब्द थी
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अथवा 'जाव' शब्दथी जिम अनंतो संसार लीजइ तिम जमालिनि सूत्रिं पणि 'जाव' शब्द 'ताव' शब्द बाहिरंथी लेइ अनंतो संसार कहवो एहवू लिख्यूं छइ, ते घणूं ज ताण्युं प्रतिभासइ छइ । तथा ए सामान्य सूत्रज एहवू पणि संभवतूं नथी, जे माटिं- “अत्थेगइया अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरिअमृति" (श० ९. उ. ३३) ए सूत्र अनंत संसारनुं आगलि कहिउं छइ ते माटिं पहिलं सूत्र जमालि सरिखा देव किल्बिषियानूं ज संभवइ ॥४५॥
"अत्थेगइया' ए सूत्र अभव्य विशेषनी अपेक्षाइं, जे मार्टि एहमां छेहडइ निर्वाण नथी कहिउं" एहवू लिख्यूं छइ ते पणि न घटइ , जे मार्टि असंवुडनि सूत्रइं पणि छेहडई निर्वाण कहिउं नथी तथा भव्यविषय पणि एहवां सूत्र घणां छइ ।। ४६ ॥
"तिर्यग्मनुष्यदेवेषु, भ्रान्त्वा स कतिचिद् भवान् ।
भूत्वा महाविदेहेषु, दूरान्निवृतिमेष्यति ।।" ए उपदेशमालानी कर्णिका श्लोकमां तिर्यंचमनुष्यदेवतामां केतलाएक भव करी जमालि मोक्ष जास्यइ एहवू कहिउं.छइ तेणिं करी अनंता भव नावइ, तिहां कोइ कहइ छड् जे ए भव लोकनिंदित केतलाएक लीधां बीजां सूक्ष्म एकेन्द्रियादिकमां अनंता जाणवा",एह पणि घणुंज ताण्युं जणाइ छइ । जे माटि नाम लेई व्यक्तिं भव कहिया ते थूल किम कहिइ, अनि थाकता अनंता भव पणि स्या थकी जाण्या ? ॥ ४७ ।।
"कर्णिकामां दूरि मोक्षिं जास्यइ एहवू कहिउं ते माटि केतलाएक भव कहिया तो पणि थाकता अनंता लेवा" एहवू लिख्यूं छइ ते पणि पोतानी ज इच्छाई, जे मार्टि
" तिर्यक्षु कानपि भवानतिवाह्य कांश्चिद् .देवेषु चोपचितसञ्चितकर्मवश्यः । लब्ध्वा ततः सुकृतजन्म गृहे विदेहे,
जन्मायमेष्यति सुखैकखनिर्विमुक्तिम् ॥ ए सर्वानन्दसूरि-विरचितोपदेशमालावृत्तिमां 'दूर' पद विनापि केतलाएक ज भव कहिया छइ ॥४८ ॥
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सिद्धर्षीय हेयोपादेय उपदेशमालावृत्ति केतलीएक परति अनंता भव दीसइ छइ ते माटि ते परतिनी अपेक्षा तिम कहवी, पणि बीजा ग्रंथनी अपेक्षाई परिमित भव ज जमालिनिं कहवा एहवूं परमगुरुनूं वचन उवेखी अन्यथा एकांत अनंता भव जमालिनिं कहइ छइ ते न घटइ ॥ ४९ ॥
" तिर्यग्योनिक' शब्द ज सिद्धान्तनी शीलीइं अनंत भवनो वाचक छ, एहवूं लिख्यूं छइ तिहां 'तिर्यग्योनीनां च' ए तत्त्वार्थसूत्रनी साखि दीधी छइ ते न घटइ, जे माटिं तत्त्वार्थसूत्रमां कायस्थितिनिं अधिकारिं तिर्यचनिं अनंतकाल स्थिति लिखी छइ पंणि तिर्यग्योनिक शब्द शीलीइं अनंता भव आवई एहवं किहांइ कहिउं नथी ॥ ५० ॥
'अशक्यपरिहार जीवविराधनाएं केवलीनिं जीवदयानो काययत्र निःफल थाइ" एहवूं लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं देशना देतां अभव्यादिकनिं विषई जिम केवलीनो वचनयन निः फल न होइ तिम विहारादिक करतां काययत्त्र पणि जावो ॥ ५१ ॥
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" तस्य असंचेय (य) उ, संचेययओ अ जाई सत्ताई जोगं पप्प विणस्संति, णात्थि हिंसाफलं तस्स || "
ए ओघनिर्युक्ति गाथानो एहवो भाव छइ जे ज्ञानी कर्मक्षयनि अर्थिं उजमाल थयो तेहनिं यतना करतां पणि जीवनिं अणजाणवइ तथा जाणतां पणि यत्न करतां न राखी सकाई तेणि करी तेहना योग पामी जे जीव विणसइ छइ तेहनूं हिंसाफल सांपरायिक कर्मबंधरूप नथी केवल ईर्याप्रत्यय कर्म बंधाइ इहां ज्ञानी ११ गुणठाणानो ज जे लिइ छइ तो न मिलइ, जे माटि समान्यथी ज ज्ञानी इहां कहिओ छइ अनिं अशक्य परिहार तो योगद्वारांई केवलिनिं पणि संभवइ ॥५२॥
“जीवरक्षोपायना अनाभोगथी ज यतीनिं जीवघात हुइ तेटल्यइ ते केवलीनिं न होइ" एहवूं कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि ए रीतिं सहजि ज केवलीनिं जीवरक्षा होइ तो पन्त्रवणामां ३६ पदि जीवकुल भूमि देखी केवलीनिं उल्लंघन प्रलंघन क्रिया कही छइं ते न मिलइ ते आलावानो ए पाठ
"कायजोगं जुंजमाणे आगच्छेज्ज वा गच्छेज्ज वा चिट्ठेज्ज वा णिसीएज्ज
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वा तुअट्टिएज्ज वा उल्लंघेज्ज वा पलंघेज्ज वा पाडिहारियं पीठफलगसेज्जासंथारं पच्चष्पिणत्ति" ॥ ५३ ॥
वर्ज्जनाभिप्राय छतइ अनाभोगि जीवघात तथा तत्कृतकर्मबंधाभाव यतीनिं होइ अनिं वर्जनाभिप्राय तो पोतानिं दुर्गतिहेतु कर्मबंध थातो जाणी होइ ते भय केवलीनिं नथी ते माटिं वर्जनाभिप्राय नथी अनाभोगि जीवघात नथी ए कल्पना करी छइ ते खोटी, जे माटिं अशुद्धाहारनी परि जीवहिंसाई पणि केवलीनिं स्वरूपि वर्जनाभिप्राय होइ तथा अवश्यभावी जीवघात पणि संभवइ जिम यतीनि नदी ऊतरतां ॥५४॥
" वीतराग गर्हणीय पाप हिंसादिक किस्यूंड न करइ, एहवूं उपदेशपदमां कहिउं छइ, ते मार्टि द्रव्यहिंसा केवलीनिं न होइ, जे माटि ते लोकदेखीति गर्हणीय छइ" ए वात कही छइ ते न मिलइ, जे माटि प्रतिज्ञाभंगिं ज गर्दा होइ पणि लोकगर्हाई तंत नथी अनिं अकरणनियमई अधिकारिं उपदेशपद पदनूं वचन छइते भणी भावहिंसानो अकरणनियम ज केवलीनि देखाड्यो छइ ॥५५॥
"उपशांतमोहनिं मोहनीयकर्म छइ ते माटिं गर्हणीय हिंसा प्रतिसेवा होइ तो पणि मोहनीयना उदय विना उत्सूत्रप्रवृत्ति न होइ " एहवूं लिख्यूं छइ ते न मिलइ, जे माटि प्रतिसेवीनिं उत्सूत्रप्रवृत्ति ज होइ तेथी अवश्यभावि द्रव्य हिंसानिं दोष न कहिइ तो ज ११ गुणठाणइ अप्रतिसेवीपणूं तथा सूत्रचारीपणूं घटइ ॥५६॥
"गर्हणीय पाप मोहनीयमूल ते उपशांतमोहताई ज होइ, अनिं अगर्हणीय पाप अनाभोगमूल आश्रवच्छायारूप क्षीणमोहनिं पणि होइ " एहवूं लिख्यूं छइ ते कोइ ग्रंथस्यूं न मिलइ । आश्रवच्छाया कहतां आश्रव ज आवइ, ते तो अगर्हणीय तुम्हारिं मति भावपाप छइ, तेहनी सत्ता क्षीणमोहनिं कहतां घणूंज विरुद्ध दीसइ
॥ ५७ ॥
"मोहनीयकर्मना उदयथीं भावा श्रव परिणाम होइ तेहनी सत्ताथी द्रव्याश्रव परिमाण होइ," एहवूं कहइ छइ ते न घटइ जे माटिं इम कहतां द्रव्यपरिग्रह पणि धर्मोपकरणरूप केवलीनिं न जोईइ ॥ ५८ ॥
एणि ज करी उदित चारित्रमोहनीय असंयतीनि भावा श्रवकारण प्रमत्तसंयतनि पणि सत्तावर्ति चारित्रमोहनीय द्रव्याश्रवनूं कारण तेहमां अयतना सहित रागद्वेष ज
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प्रमाद गणिइ तेहथी प्रमत्तसंगत लगइ द्रव्याश्रव होइ अनि अप्रमत्तनिं मोहनीयअनाभोग २ थी ते होइइ, इत्यादिक कल्पना पण निषेधी जाणवी । जे मार्टि अप्रमत्तनिं द्रव्यपरिग्रहनि ठामि ए युक्ति न मिलइ तथा चारित्रमोहनीय सर्वनिं उदयथी भावश्र्व कहिइ तो ४ गुणठाणादिकिं न घटइ | केतलाएकनो उदय लीजइ तो ते यतीन पणि छइ ३ कषायनी उदयसत्तानी मेलि भावश्रव द्रव्याश्रवनो परिणाम कहिइ तो तेहनिं क्षई छद्मस्थानं पणि द्रव्याश्रव न हुआ जोईइ, तथा प्रमादि भावाश्रव कहिओ छइ इत्यादिक न घटइ ॥५९॥
'अयतनया चरन् प्रमादानाभोगाभ्यां प्राणिभूतानि हिनस्ति" एहवूं दशवैकालिकवृत्तिमां कहिउ छइ ते मार्टि प्रमाद अनाभोग विना केवलीनिं द्रव्यहिंसा न हुइ" एहवी मूलयुक्ति कहइ छइ तेहज खोटी, जे माटिं अवश्यभाविहिंसानां ए कारण न कहियां । केवला अयतनानि उद्देशि ए कारण कहियां सघलइ ए हेतु लीजइं तो आकुट्टिकादिक भेद न मिलइ ||६० ||
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"केवलीनिं द्रव्यहिंसा होइ ते सर्व प्रकार जाणतां हिंसानुबंधी रौद्रध्यान हुइ" एहवूं कहइ छइ ते खोटुं, जे मार्टि इह कहतां द्रव्यपरिग्रह छइ तेहना सर्वप्रकार जाणतां संरक्षणानुबंधी रौद्रध्यान पणि न वारिडं जाइ ॥ ६१ ॥
प्रमत्तसंयत शुभयोगनी अपेक्षाई अनारंभी अशुभयोगनी अपेक्षाई आरंभी भगवतीसूत्रमां कहिया छइ तिहां 'शुभयोग ते उपयोगि क्रिया, अशुभयोग ते अनुपयोगि' एहवूं वृत्तिं कहिउं छइ ते ऊवेषी अशुभयोग अपवादि कहइ छइ ते प्रकट विरुद्ध, जे माटिं जाणी मृषावाद मायावत्तिया क्रिया भणी अप्रमत्तनि पणि प्रकट जाणइं छइ तथा अपवादि पणि शास्त्ररीतिं बृहत्कल्पादिकिं शुद्धता ज कही छइ तो अशुभयोग किम कहि ||६२||
"आरंभिकी क्रिया छ गुणठाणइ सदा होइ, " एहवूं लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि अन्यतरप्रमत्तनिं कायदुः प्रयोगभावि ज आरंभिकी क्रिया पनवणासूत्रवृत्तिमां कही छइ ।। ६३ ।।
"केवलीनिं अपवाद नोहि ज" एहवूं कहइ छइ ते न घटइ, जे माटिं रात्रिं हिंडन, श्रुतव्यवहार प्रमाण राखवा निमित्त अनेषणीय आहारग्रहणादिक अपवाद केवलीनिं पणि कहिया छइ ॥ ६४ ॥
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"ते अनेषणीय आहारग्रहण केवलीनि सावद्य नथी ते माटि तेहथी अपवाद न होइ, अनि जो छद्मस्थ अनेषणीय जाणई तो केवली भोजन न करइ. केवलीनी अपेक्षाइं व्यवहारशुद्धि इम न होइ ते भणी अत एव रेवती अशुद्ध जाणइ छइ ते भणी तेहनो कर्यो कोलापाक महावीरिं न लीधो" एहवी कल्पना करइ छइ पणि निरर्थक, जे माटि रात्रिहिंडनादिक छद्मस्थ दुष्ट जाणइ छइ तो पणि भगवंतिं अपवादि आदरिडं छइ, तथा निषिद्ध वस्तुलाभ जाणी उत्तमपुरषि आदरी ते अदुष्ट कही अपवाद न कहिइ तो अपवाद किंहांइ न होइ ॥ ६५ ॥
" जाणीनिं जीवघात करइ तेहज आरंभक कहिइ" एहवूं कहइ छइ ते न मिलइ, जे माटिं इम कहतां एकेन्द्रियादिक सूत्रि आरंभि कहिया छइ ते न घटइ
॥६६॥
"आभोगिं जीवहिंसा अवश्यभावीपणइ पणि यतीनि होइ ज. नदी ऊतरता जलजीव विराधना होइ छइ ते पणि सचित्तता निश्चय नथी ते भणी अनाभोग-जन्याशक्यपरिहारई" एहवुं कहइ छइ ते न घटइ, जे माटिं व्यवहार सचित्तता न आदरिइ तो सघलइ शंका न मिटइ, तथा नदीमां अनंतकाय निश्चइं सचित्तपणि छइ. आगमथी निश्चय थई पणि देख्या विना अनाभोग कहीइ तो विश्वासी पुरुषि कहिया जे वस्त्रादिकिं अंतरित त्रसजीव तेहनी विराधनाई पणि अनाभोग थाइ ||६७||
"यतीनि अनाभोगमूल ज हिंसा होइ तेहमां स्थावर सूक्ष्म त्रसनो अनाभोग केवलज्ञान विना न टलइ अनिं कुंथुप्रमुख स्थूल त्रसनो अनाभोग घणी यतनाई टलइ. अत एव नदी ऊतरतां जल संयम दुराराधन कहिओ पणि कुंथुनी उत्पत्ति कहिओ ते माटिं नदी ऊतरतां जलजीवनिं अनाभोगि संयम न भाजइ" एहवी कल्पना करइ छइ ते खोटी, जे मार्टि त्रसनी परि थावरनो आभोग पणि यतीनिं करवो कहिओ छ्इ. अत एव ८ सूक्ष्मादिक जोवानी यतना दशवैकालिकग्रंथिं प्रसिद्ध छ ||६८॥
एजनादिक्रियायुक्तस्यारम्भाद्यवश्यम्भावाद् यदागमः
"जाव णं एस जीवे एयइ वेयइ चलइ फंदईत्या० यावदारंभे वट्टई" त्यादि. एहवं प्रवचनपरीक्षाई लुंपकाधिकारि कहिउं छइ अनि सर्वज्ञशतकमां
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केवलीनिं अवश्यंभावीपणि आरंभ निषेध्यो छइ ए परस्पर विरुद्ध छइ ॥६९।।
"विनापवाद जाणी जीवघात करइ ते असंयत हुइ'' एहवू कहइ छइ ते खोटुं, जे मार्टि अपवादि आभोगिं हिंसाइं पणि जिम आशयशुद्धताथी दोष नहीं तिम अपवाद विना अशक्यपरिहार जीवविराधनाइं पणि आशयशुद्धताई ज दोष न होइ. नही तो विहारादिक क्रिया सर्व दुष्ट थाइ. सिद्धान्तथी विराधनानो निश्चय थई पोतानं अदर्शनमात्रिं जो विहारादिक क्रियामां जे विराधना छइ ते अनाभोगि ज कहीइ तो निरंतर जीवाकुलभूमिका निर्धारी तिहां रात्रि विहार करतां विराधनानो अनाभोग कहवाइ ||७०।।
"नदी ऊतरतां अभोगि जलजीवविराधना यतीनिं हुइ तो जलजीवघाति विरतिपरिणाम खंडित होइ ते भणि देशविरति थाइ जाणीनि एकव्रतभंगि सर्वविरति रहइ तो सम्यग्दृष्टी सर्वनिं चारित्र लेतां बाधक न होइ' एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि नदी ऊतरतां द्रव्यहिंसाइ आज्ञाशुद्धपणइ ज दोष नथी. तथा सम्यग्दृष्टी योग्य जाणीनिं ज चारित्र आदरइ जिम व्यापारी व्यापार प्रति प्रिछी थोड़ी खोटि होइ अनि संभाली लिइ तो बाधा नहीं पणि पहिला खोटिज जाणी कोई सबलो व्यापार आदरइ नहीं ते प्रीछवू ।। ७१ ।।
"अपवादिं जिननो उपदेश होइ पणि विधिमुखि आदेश न होइ'' एहवू कहइ छइ ते खोटुं, जे माटिं छेदग्रंथि अपवादि घणां विधिवचन दीसइ छइ ॥७२।।
"वस्त्रि गलिउं ज पाणी पीवू इहां पीवानो सावधपणा माटि विधि नहि पणि गलवानो ज विधि" एहवू कहइ छइ ते न मिलइ, जे माटि गालन पणि शस्त्र कहिउं छइ. यत :
"उस्सिचगालणधोअणे य उवगरणकोसभंडे य । बायर आउक्काए, एयं तु समासओ सत्थं ॥ आचारांगसूत्रनिर्युक्तौ ॥
(अ.१.नि.गा.११३) ॥ ७३ ।। "द्रव्यहिंसाई द्रव्यथी हिंसा- पच्चक्खाण भाजइ'' एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि धर्मोपकरण राखतां द्रव्यथी परिग्रहनु पच्चक्खाण भाजइ एहवू दिगंबरिं कहिउं छइ. तिहां विशेषावश्यकिं द्रव्य-क्षेत्र-कालथी भावनुं ज पच्चक्खाण
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[37] होइ पणि केवल द्रव्यथी भंग न होइ ए रीति समाधान करिउं छइ ॥७४।।
"श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिमां हिंसानी चोभंगीमां 'द्रव्यथी तथा भावथी न हिंसा मनोवाक्कायशुद्ध साधुनि' ए भांगो कहिओ छइ तेहनो स्वामी तेरमा गुणठाणानो धणी ज जे फलावइ छइ अनि चउदमा गुणठाणनो धणी निषेधइ छ। मनवचनकाययोग विना तेहथी शुद्ध न कहवाइ जिम वस्त्र विना वस्त्रि शुद्ध न कहिउ ते भणी" ते खोटुं, जिम जलस्नानि जलसंसर्ग टल्या पछी पणि जलिं शुद्ध कहिइ तिम अयोगीनि योग गया पछी पणि योगि शुद्ध कहिइ ते माटि साधु सर्वनिं जिवारिं द्रव्यहिंसा गुप्तिद्वाराइं न हुइ तिवारिं चोथो भांगो घटइ ।।७५||
"द्रव्यहिंसा पणि हिंसादोषस्वरूप'' एहवू कहइ छइ ते न घटइ, "समितस्य-ईर्यासमितावुपयुक्तस्य या 'आहत्य' कदाचिदपि हिंसा भवेत्सा द्रव्यतो हिंसा, इयं च प्रमादयोगाभावात्तत्त्वतोऽहिंसैव मन्तव्या, 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इति वचनात् (गा. ३९३२ वृत्तिः) ए बृहत्कल्पवृत्ति वचनि अप्रमत्तनि द्रव्यथी हिंसा ते अहिंसा ज जाणइ छइ ॥ ७६ ॥
बृहत्कल्पनी भाष्यवृत्तिमां वस्त्रच्छेदनादि व्यापार करतां जीवहिंसा होइ, जे माटि 'जिहां ताइ जीव चालइ हालइ तिहां तांइ आरंभ होइ' एहवू भगवतीमां कहिउं छइ एहy प्रेरकिं कहिउं ते उपरि समाधान करतां आचार्य ते भगवती सूत्रना आलावानो अर्थ भिन्न न कहिओ केवल इमहज कहिउं जे आज्ञाशुद्धनि द्रव्यथी हिंसा ते हिंसामा ज न गणिइ । यत :
"यदेवं 'योगवन्तं' च्छेदनादिव्यापारवन्तं जीवं हिंसकं त्वं भाषसे तन्निश्चीयते सम्यक्सिद्धान्तमजानत एवं प्रलापः । सिद्धान्ते योगमात्रप्रत्ययादेव न हिंसोपवर्ण्यते, अप्रमत्तसंयतादीनां सयोगिकेवलिपर्यन्तानां योगवतामपि तदभावादित्यादि" (गा. ३९९२ वृत्तिः) तथाऽत्र चाद्यभंगे हिंसायां व्याप्रियमाणकाययोगेऽपि भावत उपयुक्ततया भगवद्भिरहिंसक एवोक्त इत्यादि" (गा. ३९३४ वृत्तिः)।
एणि करी जे इम कहइ छइ केवलीना योगथी द्रव्यहिंसा न होइ तेहनि मतिइ अप्रमत्तना योगथी ज द्रव्यहिंसा न हुई जोईइ. जे माटि पहिलइ चोथइ भंगि करी अप्रमत्तादिक सयोगिकेवली तांई सरिखा ज गण्या छइ. तथा अप्रमत्तनि ज द्रव्यहिंसा कहीं तेणिं करी प्रमत्तसंयतनं पणि जे द्रव्यहिंसा कहइ छइ ते
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सिद्धान्तविरुद्ध इत्यादिक घणूं विचारवू ॥७७।।
"जावं च णं एस जीवे सया समिएयइ वेयइ चलइ फंदइ जाव तं तं भावं परिणमइ तावं च णं एस जीवे आरभइ सारभइ समारभइ" इत्यादिक भगवती मंडियपुत्रना आलावामां
. "इह जीवग्रहणेडपि सयोग एवासौ ग्राह्योऽयोगस्यजनादेरसम्भवात्" ए वृत्तिवचन उल्लंघीनिं सयोगि जीव केवलिव्यतिरिक्त लेवो एहवू लिख्यूं छइ तें प्रगट हठ जणाइ छइ ॥७८॥
"जिहां तांइ एजनादि क्रिया तिहां ताई आरंभादिक ३नो नियम न घटइ, ते मार्टि आरंभादिक शब्दि योगज कहिइ, योग हुइ तिहां ताई अंतक्रिया न हुइ एहवो ए सूत्रनो अभिप्राय'' एहवू कहइ छइ ते अपूर्वज पंडित, जे माटि ए अर्थ वृत्ति नथी. तथा आरंभादिक अन्यतर नियमनि अभिप्राइं सूत्रिं विरोध पणि नथी ए रीतिनां सूत्र बीजाई दीसइ छइ. तथा हि
"जाव णं एस जीवे सया समियं एयइ जाव तं तं भावं परिणमइ ताव णं अट्ठविहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा नो णं अबंधए" इत्यादिक तथा आरंभादिक ३ शब्दि एक योगनो अर्थ ए पणि न संभवइ इत्यादि विचारवू ।।७९।।
"तत्साक्षाज्जीवघातलक्षण आरम्भो नान्तक्रियाप्रतिबन्धकः, तदभावेऽन्तक्रियाया अभणनात्, प्रत्युताऽनिकापुत्राचार्य-गजसुकुमारादिदृष्टान्तेन सत्यामपि जीवविराधनायां केवलज्ञानान्तक्रिययोर्जायमानत्वात् कुतस्त-त्प्रतिबन्धकत्वशङ्काऽपि" (गा. २९ वृत्तिः )
___ एहवू सर्वज्ञशतकमां लिख्यूं छई ते प्रकट स्वमतविरुद्ध ॥८०॥
शैलेश्यवस्थायां मशकादीनां कायसंस्पर्शेन प्राणत्यागेऽपि पञ्चधोपादानकारणयोगाभावान्नास्ति बन्धः, उपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवलिनां स्थितिनिमित्तकषायाभावात् सामायिक" इत्यादिक आचारांगवृत्तिं कहिठं छइ. तथा
___ "सेलेसिं पडिवनस्स जे सत्ता फरिसं पप्प उद्दायंति मसगादी । तन्थ कम्मबंधो णत्थि । सजोगिस्स कम्मबंधो दो समया" ।
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एहवू आचारांगचूर्णिमा कहिउं छइ तिहां चउदमि गुणठाणइ योग नथी ते माटिं तिहां केवलिकर्तृक मशकादिवध न होइ पणि मशकादिकर्तृक ज होइ, तद्गतोपादानकर्मबन्धकार्यकारणभावप्रपंचनिं अथिं ए ग्रंथ छड् एहवी कल्पना करइ छइ ते खोटी, जे मार्टि सामान्यथी साधुनिं अवश्यभाविजीवघातनि अधिकारि ज ए ग्रंथ चाल्यो छइ. तथा चउदमि गुणठाणइ मशकादिकर्तृक ज मशकादिघात कहिइ तो पहिला पणि तेहवो ते होइ युक्ति सरिखी छइ ते मार्टि मोहनीयकर्म होइ तिहां तांइं जीवघातकर्ता कहिइ एह वचन पणि प्रमाणिक नहि, जे मार्टि प्रमादि ज प्राणातिपातकर्ता कहिओ छइ इत्यादिक इहां घणूं विचारवू ||८१।।
"प्राइं असंभवी कदाचित् संभवइ ते अवश्यभावी कहिइ एहवो जीवघात अनाभोगि छद्मस्थसंयतनि होइ पणि केवलीनिं न होइ" एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे माटि अनभिमतपणइ पणि अवर्जनीय ते अवश्यभावी कहिइ तेहवो द्रव्यवध अनाभोग विणा पणि संभवइ जिन यतीनि नदी ऊतरतां ॥८२।।
"केवलीना योग ज जीवरक्षानुं कारण" एहवू कहइ छइ तेहनि मति चउदमइ गुणठाणइ जीवरक्षाकारणयोग गया ते माटि हीनपणूं थयूं जोईइ ॥८३।।
___ "केवलीनिं बादरवायुकाय लागइ तिवारि तथा नदी ऊतरतां अवश्यभाविनी जीवविराधना थाइ तिहां जे एहवू कल्पइ छइ बादरवायुकाय अचित्तज केवलीनिं लागइ तथा नदी ऊतरतां केवलीनिं जल अचित्तपणइ ज परिणमइ" तिहां कोई प्रमाण नथी, केवल योगनो ज एहवो अतिशय कहिइ तो उल्लंघन-प्रलंघनप्रतिलेखनादि व्यापारनूं निरर्थकपणुं थाइ ॥८४॥
एणि ज करी ए कल्पना निषेधि जे केवली गमनादिपरिणत होइ तिवारिं आपि ज कीडी प्रमुख जीव ओसरइ अथवा ओसरिया होइ पणि केवलीनी क्रियाइं प्रेरी क्रिया न करइ, जे मार्टि इम कहतां जीवाकुल भूमि देखी केवलीनि उल्लंघनादि व्यापार पत्रवणामांहि कहिओ छइ ते न मिलइ तथा वस्त्रप्रतिलेखना पणि न मिलइ ।।८५॥
"अभयदयाणं ए सूत्रनी मेलिं भगवंतना शरीरथी जीवनि सर्वथा भय न उपजइ'' एहवू कहइ छइ ते न मिलइ, जे माटि भगवंत वस्त्रादिकथी जीव अलगा मूकइ तेहनि भय विना अपसरण न संभवइ. तथा 'अभयदयाणं' ए वचनि
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केवलिशरीरथी कोइनिं भय न ऊपजइ एहवूं कल्पि तो 'मंता मतिमं अभयं विदित्ता' इत्यादिक सूत्रनी मेलि यतीमात्रना शरीरथी जीवनिं भय उपजवो न घटइ
॥ ८६ ॥
श्रीवर्धमाननि देखीनिं हाली नाठो तिहां कोइ इम कल्पना करइ छइ जे ‘“तिहां हालीना योग कारण, पाणि भगवंतना योग कारण नहि" ते अति खोटं, जे माटिं 'भगवंतं दट्ठूण धमधमेइ' एहवूं व्यवहारचूर्णि कहि छइ तेहनि अनुसारि भगवंतना योग ज तिहां कारण जाणइ छइ तथा अन्यकर्तृक भय तेरमिं गुणठाणि होइ तो चउदमा गुणठाणानी परि अन्यकर्तृक हिंसा पणि हुई जाईइ ते तो स्वमत विरुद्ध ॥८७॥
'सव्वजियाणमहिंसं' इत्यादिक सूत्रनी मेलिं जे केवलीनिं अवश्यभाविनी हिंसा ऊथापइ छइ तेहनि मतिं हिंसाइदोससुन्ना इत्यादिक सूत्रनी मेलि सामान्य साधुनिं पणि ते ऊथापी जोईइ ॥ ८८ ॥
" जलचारणादिक लब्धिमंत यतीनि जलादिकमां चालतां जलादिक जीवनो घात ज न होइ तो सर्वलब्धिसंपन्न केवलीनिं ते किम हुइ" एहवूं कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि लब्धिफल सर्व केवलीनिं छइ तो हि पणि लब्धिप्रयोग नथी
॥८९॥
"घातिकर्मक्षयथी ऊपनी जीवरक्षाहेतु लब्धि प्रयुंज्या विना ज केवलीनि हुइ" एहवूं मानइ छइ तेहनिं मतिं चउदमिं गुणठाणइ मशकादिकर्तृक मशकादिवध मान्यो छइ तेह पणि न मिलइ, नहीं तो तेरमिं गुणठाणइ पणि तेहवो ते मान्यो जोईइ ॥९०॥
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" द्रव्यहिंसाई केवलीनि १८ दोषरहितपणूं न घटइ" एहवूं कहइ छइ तेहनिं मतिं द्रव्यपरिग्रह छतां पणि १८ दोषरहितपणूं न मिलइ ॥ ९१ ॥
"प्राणातिपात मृषावादादि छद्मस्थलिंग मोहनीय अनाभोगमां एकइ विना न हुइ ते माटिं बारमिं गुणठाणइ मृषा भाषा कर्मग्रंथादिकमां कही छई स संभावनारूढ जाणवी," एहवूं कहइ छइ तेहनिं पूछवूं जे द्रव्यभाव विना संभावनारूढ त्रीजो किहां कहिओ छइ कालशूकरिकनिं कल्पित हिंसानी परिं ए संभावनारूढ मृषावाद लेवो एहवूं लिख्यूं छइ तेहनि अनुसारिं तो अंतरंग भावभृषावाद ज बारमइ गुणठाणइ आवइ ||१२||
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"प्रतिलेखना प्रमार्जनादिक क्रिया क्षुद्रजंतु भयोत्पादकपणइ अपवादकल्प कहिइ ते छद्मस्थनूं लिंग केवलीनिं न होइ,' एहवू कहइ छइ ते न घटइ, ते (जे) मार्टि उत्सर्ग अपवाद टाली त्रीजो अपवादकल्प किहांइ कहिओ नथी. इच्छांइ ३ भेद कल्पि उत्सर्गकल्पनामि चोथो भेद कल्पतां पणि कुण ना कहइ ? तथा केवलिव्यवहारानुसारिं प्रतिलेखनादिक क्रिया पणि केवलीनिं छइ ते प्रीछवू ।। ९३ ॥
"बिलवासी मनुष्य पणि जातिस्मरणादिकिं मांसभक्षण अतिनिंदित जाणी परिहरइ छइ, ते माटिं मांसभक्षणथी सम्यक्त्वनो नाश ज होइ' एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं मांसभक्षणनी परिं परदारागमन पणि महानिंदित छइ तेहथी सत्यकिविद्याधर प्रमुखनि जो सम्यक्त्व न गयुं तो मांसभक्षणथी कृष्णादिकनुं सम्यक्त्व न जाइ तिहां बाधक नथी ।। ९४ ॥
"मांसाहार नरकायुर्बन्धस्थानक छइ ते माटिं तेहनी अनिवृत्तिं सम्यक्त्व न होइ" एहवू लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं महारंभ-परिग्रहादिक पणि नरकायुबंधस्थानक छइ तेहनी अनिवृत्ति प्रति जिम कृष्णादिकनिं सम्यक्त्व छ। तिम मांसभक्षणनी अनिवृत्तिं पणि सम्यक्त्व होइ तिहां बाधक नथी । ९५ ॥
“तए णं से दुवए राया कंपिल्लपुरं णगरं अणुप्पविसइ अणुप्पविसित्ता विपुलं असणं ४ उवक्खडावेइ उवक्खडावित्ता कोडंबिय पुरिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवापुप्पिया ! विपुलं असणं ४ सुरं मज्जं मंसं पसन्नं च सुबहपुप्फफलवत्थगंधमल्लालंकारं च वासुदेवपामोक्खाणं रायसहस्साणं आवासेस साहरह ते वि साहरंति तए णं ते वासुदेवप्पामोक्खा विपुलं असणं ४ जाव पसन्नं असाएमाणा विहर(रं)ति" (ज्ञा.सू.१९८) ए षष्ठांगसूत्रवर्णनमात्र ज एहवू लिख्यूं छइ" इम सद्दहतां नास्तिकपणूं थाइ, जे माटि स्वर्गादि सूत्र पणि वर्णनमात्र कहतां कुण ना कहइ ? ॥ ९६ ।।
"ए सूत्रमा वासुदेवनिं मांसपरिभोग ते आज्ञा द्वारांइं जाणवो. आज्ञा पणि ते ते अधिकारीनी द्वाराई, पणि साक्षात् नहि' एहवी कल्पना करी छइ ते न घटइ. जे मार्टि आस्वादक्रियानो अन्वय वासुदेवप्रमुखनि कहिओ छइ तेहमांथी वासुदेवनि आज्ञाद्वाराई आस्वादनक्रियानो अन्वय कहिइ तो वाक्यभेद थाइ एहवी कल्पना
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शास्त्रज्ञ न करइ ॥९७||
"विधिप्रतिष्ठित ज प्रतिमा जुहारवी ते तपागच्छनी ज पणि गच्छांतरनी नहीं' एहवू कहइ छइ त न घटइ, जे मार्टि प्रतिष्ठादिकनी सर्व विधि जोतां हवणां प्रतिमा वंदननूं दुर्लभपणूं होइ. तथा श्राद्धविधिमां आकारमात्रिं सर्व प्रतिमा वांदवाना अक्षर पणि छड् अविधिचैत्य वांदतां पणि विधिबहुमानादिक होइ तो अविधिदोष निरनुबंध हुइ इत्यादिक श्रीहरिभद्रसूरिना ग्रंथनि अनुसारिं जाणवू
॥९८॥
"गच्छांतरनो वेषधारी जिम वांदवा योग्य नहि तिम गच्छांतरनी प्रतिमा वांदवा योग्य नहीं" एहवू कहइ छइ ते न घटइ, जे मार्टि लिंगमां गुणदोषविचारणा कही छड् पणि प्रतिमा सर्वशुद्धरूप ज कही. यतः--
"जइविय पडिमाउ जहा मुणिगुणसंकप्पकारणं लिंगं । उभयमवि अस्थि लिंगे ण य पडिमासूभयं अत्थि ॥१॥"
-वंदनकनियुक्तौ ॥९९॥ जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स ।
सा होइ णिज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥ १ ॥
ए गाथामां अपवादपदप्रत्यय विराधना निर्जराहेतु होइ, एहवू पिंडनिर्युक्तवृत्ति विवरिउं छइ ते ऊवेषीनिं जे इम कल्पइ छइ जे इहां विराधना निर्जराप्रतिबंधक नथी जीवघातपरिणामजन्यपणानिं अभाविं वर्जनाभिप्रायोपाधिनी अपेक्षाई दुर्बल छइ ते वती, ते खोटुं, जे मार्टि ए कल्पनांई कदाचि अनाभोगहिंसा अदुष्ट आवइ पणि अपवादनी हिंसा अदुष्ट नावइ तिवारिं मलयगिरि आचार्यना साथि विरोध थाइ ते विचार ॥ १०० ॥
"दृष्टमंडलनि विषइ जे साधु दीसइ छइ तपगच्छना ते टाली बीजइ क्षेत्रि साधु नथी" एहवू कहइ छइ ते न मिलइ. जे मार्टि महानिशीथदुःखमास्तोत्रादिकनि अनुसारि क्षेत्रांतरिं साधुसत्ता संभवइ एहवू परमगुरुनूं वचन छइ ॥ १०१ ॥ ।
इत्यादिक घणा बोल विचारवाना छइ ते सुविहित गीतार्थना वचनथी निर्धारीनिं सम्यक्त्वनी दृढता करवी सही ॥ १०१ ॥
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श्री धर्ममंगलशिष्य-विरचित श्री अजपुर (अजार)नगरमंडनपार्श्वनाथस्तोत्र (भाषा) ॥
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि सौराष्ट्रमां दीव बंदरनी नजीकना ऊना शहेरथी चार-पांच किलोमीटरना अंतरे आवेल जैन तीर्थक्षेत्र 'अजारा' ते ज आ स्तोत्रमा वर्णवेल अजपुर नगर. रामायणना नायक रामना दादा 'अरण्यकेतु' राजाए, पोताना 'अजपाल' एवा बीजा नाम उपरथी स्थापेलुं नगर ते अजपुर-एवं प्रतिपादन आ स्तवनमाथी प्राप्त छे. ते नगरमां निर्मेला जैन मंदिरमा प्रतिष्ठित पार्श्वनाथनी प्रतिमा-जे हाल अजारा पार्श्वनाथ तरीके सुप्रसिद्ध छे तेनुं वर्णन करती, सोळमां शतकमां रचायेली, आ गुजराती गेय रचना छे, जे ३७ कडीओमां विस्तरेली छे. तेनी अंतिम २ कडी जोतां, संवत १५६३मां ऊनानगरमां चोमासुं रहेला, 'धर्ममंगल' नामे गुरुना शिष्य (अनामी) कोई मनिराजे आ रचना करी होवानं प्रतीत थाय छे. अने सं. १६७९मां ऊनामां ज चातुर्मास रहेला गणि भक्तिकुशले आ प्रति लखी छे, तेम तेनी प्रांतपुष्पिकाथी समजाय छे. प्रति १ पानांनी ज छे.
कृतिमां वर्णवेली घटना संक्षेपमां आ प्रमाणे छ :
प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेवना पहेला पुत्र भरत चक्रवर्ती, तेमना मोट पुत्र राजा आदित्ययशा; तेमनाथी 'सूर्यवंश' प्रवयों. ते सूर्यवंशमां असंख्य असंख्य पेढीओ वही गया पछी घणा कालांतरे, अयोध्यामां एक राजा थयो, जेनुं नाम अरण्यकेतु होवानुं आ स्तोत्रमा जाणवा मळे छे. जैन समायण प्रमाणे तेनुं नाम 'अनरण्य' मळे छे. __ आ राजाना पुत्रनुं नाम ज़ दशरथ अने तेना पुत्र राम.
राजा अरण्यकेतु दिग्विजयार्थे नीकले छे, अने दक्षिणमां देशो जीततां गुर्जर भूमिमां ते पहोंच्यो त्यां ज तेना पूर्वकर्मना योगे तेना शरीरमा १८ जातिना कुष्ट सहित अनेक रोगो उत्पन्न थई गया.
वैद्योनां औषधो अने ज्योतिषी-तांत्रिकोनी क्रियाओ-बधुं ज ते व्याधिओने शमाववाने व्यर्थ नीवड्यु, त्यारे मंत्रीनी सलाहथी राजा नजीकमां आवेला शत्रुजय
AMHISH-2MI६ .
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[44] तीर्थनी यात्रा करवा गयो. यात्रा पूर्ण थयेथी राजा स्वदेश पाछा फरवानो ढूंको मार्ग मंत्रीने पूछे छे, जेना जवाबमां मंत्री राजाने (तथा सेनाने) दीवबंदरे लई आवे छे, जेथी दरियाईमार्गे झट पोताने घेर पहोंचाय एवी तेनी धारणा हशे. दीवने 'दीवमंदिर' एवा नामे कवि ओळखावे छे ते अहीं नोंधपात्र छे. .
राजा दीव पहोंचे छे, ते ज अरसामां, कोंकणना सागरखेडू शेठ धनसारनां वहाणो दरियाई तोफानमां सपडातां, शेठे अधिष्ठायक देवनी साधना करी छे, जेना प्रतिभावरूपे थयेली देववाणीथी शेठे जाण्यु के वहाण नीचे पाणीमां पेटी छे, तेमां पार्श्वनाथनी मूर्ति छे. ते पेटी काढो, ते लईने दीव जाव, त्यां राजाने सोंपो, राजा ते मूतिने पूजी तेनुं स्नात्रजल शरीरे चोपडे तो नीरोगी थाय. • शेठे तेमज कर्यु. राजाए पण पूजानुं जल प्रयोजी रोगमुक्ति मेळवी. ते ज रात्रे ते रोगोना देवो राजाने स्वप्नमां आव्या, अने कह्यु के अमारे तो हजी छ मास तमारा शरीरमा रहेवार्नु हतुं, परंतु आ मूर्तिना प्रभाव आगळ अमे लाचार छीए. पण अमारे ते समय तो पूरो करवो ज पडे. माटे एक अज कहेतां बकराना शरीरमां अमे छ मास वास करीशुं, पण ते रोगिष्ठ अजने छ मास तमारे पालवो पडशे. एम कही रोगो अदृश्य थया. बीजी सवारे प्रांगणमां आवेला रोगिष्ठ अजने राजाए अपनाव्यो, ने छ मास तेने पाल्यो, तेथी तेनुं नाम थयुं अजपाल.
ए पछी राजाए ते अजने पाळेलो ते स्थान पर 'अजपुर' नगर वसावी, तेमां मंदिर रचावी, तेमां ते पार्श्वनाथनी प्रतिमानी प्रतिष्ठा करी, अने पछी पोते अयोध्या चाल्यो गयो.
कवि कहे छे के आ घटना श्रीभद्रबाहुस्वामी कृत शत्रुजयकल्पना अनुसार ११ लाख ८२ हजार वर्ष पूर्वे घटी हती. आ थयो कथासंक्षेप.
___ ओ अजपुर ते ज अजागृह अने अत्यारनुं अजारा. अजारामां पार्श्वनाथनी प्रतिमा अत्यारे पण मोजूद छे. ते क्षेत्रमा ज्यां क्यांय पण खोदकाम थाय त्यां कोई ने कोई जैन मूति के स्थापत्यकीय अवशेषो पण मळ्या ज करे छे. थोडा वखत अगाउ पण, अजारा पार्श्वनाथनी अत्यारे छे तेवीज 'सेन्ड स्टोन'नी एक प्रतिमा खंडित हालतमा मळी आवी हती.
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[45]
वधुमां, आ गाममां एक स्थान (टीबो) छे, ते आजे 'अजयपालना चोरा' नामे ओळखाय छे. त्यां खंडित जैन शिल्पो गोठवायेला छे, जे देव तरीके पूजाय छे अने ग्राम जनोनी आस्थानो विषय छे. त्यां २-३ वृक्षो छे, जेनां पांदडां आजे ताव-तरिया वगेरे रोगो मटाडवाना खपमां आवे छे, अने लोको चमत्कारिक वृक्ष तरीके तेनी मानता पण राखे छे. संभव छे के ए ओटा नीचे कांइ ऐतिहासिक अवशेषो दटाया पड्या होय. लोकधारणा एवी छे के ते ओटा, उत्खनन करवाथी अपमंगल थाय, तेथी ग्रामजनो खोदवाना पक्षमां नथी होता. आजे आ गाममां जैनोनी वस्ती नथी ते पण एक विचारवाजोग हकीकत छे.
अजपुर पार्श्वनाथस्तोत्र (भाषा) ऐं नमः ॥ सारयससिसम काय माय 'सारय' समरेवि। . निअगुरु गोयम पाय नमेवि तस अनुमति लेवि ॥ नयर 'अज्झाउर' मंडणउ सिरि पासजिणेसर । मानव-मानस-वंछिअत्थ - दायक अलवेसर ।। नीलवर्ण नव करतणु ए त्रेवीसमो जिणंद । वामानंदन वीनवु ए , निरमालडी ए, दीठइ परमाणंद ।
मणोरहीए दीठइ परमाणंद ॥ १ ॥ आदिहि आदिजिणंदपुत्त भरहेसर कहीइ । षट खंड माहिं जास आण नरवर सिरि वहीइ ।। तससुत आदित्ययशा राय बलिं त्रिणि खंड साधइ । पुत्र पौत्र-कोडिहिं करी सायर जिम वाधई ॥ सूरिजिवंसिइं उपना ए संखातीत राजान आवइ कर्मनुं क्षय करीए नि० । पामइ केवलनाण । म० ॥२॥ सागर लाख पंचास कोड पुहते तव हुआ । अजिअनाह बीजा जिणंद सावत्थिई गिरुआ ।। इणि परि अनुक्रमि सूरियवंसि साधई त्रिणि खंड ।
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'अरण्यकेतु' राजा हूउ लिइ देश पदंड ||
उत्तर पूरव पश्चिम ए साधंतु नरनाह
दक्षिण पासई आवीउ ए नि० । गूजर धरतीमाहिं | म० ||३||
कर्मविशेषां देहमाहिं उप्पन्ना रोग |
कुष्ट अढार करई क्लेश लिई तेहनो भोंग ॥ आधि अधिक वाधि नरिंद तनु आकुल थाइ ॥ भूख तरस भूपतितणी निद्रा वली जाई ||
सकल वैद्य तिहिं तेडीइ ए औषध करई अनेक
I
जाण - जोसी सवि पूछी [इ] ए । नि० । रोग न लागइ टेक | म० ॥४॥ कटक अवाटी रहिउ राय अति आरति आणइ ।
तिणि दुखि सहुइ अदन - अरथि नवि बइसइ भाइ ||
तउ प्रधान इंम वनवइ सुणि जगदाधार ।
सोरठदेसह मंडल सत्रुंजय सार ॥
इंहां आसन तीरथ अछइ ए दीठइ दुरगति दुरि
टलइ वलइ वान देहना ए । नि० । अवर न एह सम कोइ । म० ॥५॥
एक कोडाकोडि आठ लाख आठ सहस उदार । भरहादिक नरवर कर्या सेतुंज उद्धार ॥
पूरव नवाणुं रिसहदेव पुहता विहरंता । जिणहर जिणपडिमा असंख वली सिद्ध अनंता ॥
पुंडरीक पंच कोडि सिउं ए द्रविड वाल दस कोडि
मुगति गइ एणइ तीरथिई ए । नि० । अनंती कोडाकोडि । म० ||६||
तीरथमहिमा सुणी राय तव यात्रा आवइ ।
सात क्षेत्र वित वावतु कलि सोह चडावर || पहिलं प्रथम जिणंद पाय भेट सुविचार | स्नात्र महोत्सव आरती मंगलेवु सार ॥ चैत्यवंदन करी नाट रुप वित वावइ भूपाल
धजारोप जिणमंदिर ए । नि० । देई पहिरइ माल । म० ॥७॥
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थानकि थानकि जिन प्रासादि प्रतिमा पूजेई । द्रव्य भाव भेदिइं करी नरभवफल लेई ॥ तलहटीइं आवी नरिंद दिइ संघह मानह । साहमीवच्छल करइ सार याचकनई दान || यात्रा करीनइं पूछिउं ए आघु अच्छइ देस तव मंत्रीसर वींनवइ ए । नि० । 'दीव' छइ बेट नरेस ॥ म० ॥८॥
वस्तु ॥ माय सायर (सारय) २ गोयम गुरु पाय पणमिअ पास 'अजाहरु', नवउं रिसहसुत भरह नरवर तास पुत्त आदित्ययशा सूरि वंशि सिरि अजिअजिणवर । मुणिसुव्वय - नमि अंतरिइं, अरण्यकेतु भूपाल । देश साधी सिद्धाचलिई, यात्रा करी सुविसाल २ ॥ ९ ॥
ठवणि ॥ विमलगिरिवर थिकी दीविमंदिरि गया कर्मवसि कुष्टभरि राय आकुल थया । ताम कुंकुण थिकी मंदिरे पुरिया वाहण धनसारि धणधंनि संपूरिया ॥१०॥ आवतां तिहांथी वाहण वेलई वहइं . बहुल लाभि भरिया समुद्रमांहिं रहइं । वायु वादलि खरं सायरि जल पडइ मरण धन नई भई लोक शोकि रडइ ।।११।। वणिग धनसार तव देव पूजा करइ सार नउकारनउ जाप हीअडइ धरइ । एतलइ देवतावाणि गयणिई हुई पेटीअ लेइयो जलहमांहिं जई ॥१२॥ पेटीअ संपुट आविसिइ जेतलइ, वायु वादल खलं जाइसइ तेतलई ।
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[48] अवनीपति पूजसिइ दीवि हरखिइं वली,
पासप्रतिमाजलिई कुष्ट जासिइ टली ॥१३।। एहनी आदि न कोई जाणइ सही, वरसनां लाख ज समुद्रमांहि रही। वरुण हुं वासव पूजतु पासनई दीविमंदिरि जई आपयो रायनइं ॥१४ ॥ सेठ धनसारि ते सकल सीख जि करी, वाहण वेगिइ दीवि आव्या तरी । पढम धनसारि परवारसिउं परवर्या, पासजिण-पेटिका लेव करि उतर्या ॥१५॥ सकल जन मेलि करि भेर भुंगल भरि, मुरज नीसाण सरणाइआ सुस्सरिइं । ठाणि ठाणिइं नरनारि वधावीइ, सेठ पेटी लेई राय घरि आवीइ ॥१६।। ताम नरपति भणइ असुख छइ मूंहनई, एवडउ उच्छव करु छउ केहनइं। भेटि आवी छइ रोग जावा तणी, राय आणंदि आ वात श्रवणे सुणी ॥१७॥
वस्तु । सेव॒जि यात्रा २ करी नरनाह दीवि मंदिरि जव आवीआ करम रोगि पीडा नरेसर । तव कुंकुणदेसह थिकी पूरइ वाहण धनसार ।। मंदिर वलता तिहांथीअ सुरवयणि पेटी लेई सार ॥ अति उच्छव राय आगलिई भेटि करइ धनसार ॥१८॥
ढाल पेटीअ संपुट जूजूआ ए नरेसुआ, भूपतिदृष्टिई थाइ । प्रगट्या पास जिणेसरु ए नरेसूआ ऊलट अंगि न माइ ।।१९।। न्हवण करी सुरभि जलिई ए, न० । सींचई रायनि देह । कुष्ट ताप ततखिण टलइ ए, न० । जिम जगि वूठइ मेह ॥ २० ॥
अरचइ चंदनि केसरिइं ए, न० । मेलिअ घन घनसार । . चंपकमाल चडावीइ ए, न० । जाइ जुही मंदार ।। २१ ।।
वालउ वेउलि केतकी ए, न० । करणी लाल गुलाल ।
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[49]
मचकुंद मरुउ मालती ए, न० । कुंद मकुंद तमाल || २२|| सिंदुवार वर पारधिई ए, न० । भगति पूजइ भूप ।
कृष्णागुरु कपूरनउं ए, न० । ऊगाहई वर धूप ॥ २३ ॥ पुष्प फल चय ढोअतउ ए, न० । आरती मंगलदीप । अतिऊलटिइं भूपति करइ ए, न० । भाट भणइ चिरं जीव ॥ २४ ॥ भाविइं जिन वंदन करइ ए, न० । अवनिई तिन्न पणाम | निसि सुहणइ गदपालकू ए, न० । कहइ राय दिउ अम्ह ठाम ॥२५॥ रही न सकुं देहि तुम्ह तणइ ए, न० । पासजिण न्हवणइ नीरि । षटमास ते अज पालजो ए, न० । रहिवउं जेह सरीरि । २६ ।। राय वचनि ते मानिउ ए न० । सहूइ कहइ अजपाल | करमवसि ते एकलउ ए, न. । पास पूजइ त्रिणि काल ।। २७ ।।
वस्तु ॥
पास जिणवर २ न्हवणजलि राय
कुष्ट अढार गिया टली मिली वात धनसार-कहिअ चंदन - केसरि अरचि करिहं सिंदुवार वरजाइ जुहीअ 1 चंपकमाला पूजतां सुंहणामांहि गपालि ।
वात कही ते पालतां नाम हूउं अजपाल ॥ २८ ॥
भाषा
सेतुंजिगिरि तलहटीई सार, सायर तीरि सोहविउं ए जिहां अज पालतुं तिहां अजपालि, अजपुर नयर वसाविउ ए २ || २९ ॥ गढ मढ मंदिर पोलि विशाल जिनमंदिर सोहामणु ए २ । महामहोच्छव थाप्या पास, सुंदरि करई वद्धामणु ए ॥ ३० ॥ परिसरि अचरहं देहरी मज्झि, जिणवर पडिमा थापीइ ए । पूजा कारण राय अजपालि, सोल गाम तव आपीई ए ॥ ३१ ॥ पास अजाउर पूजी राय, उवझा नयरिगं आवीआ ए २ । दशरथ सुतनई सूपी राज, लेई संजम भावीआ ए २ ||३२||
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[50] दशरथनंदन लखमण राम नाम निरंतर सहू जपइ ए । त्रिणि कोडि मुनिवरसिउं राम, सेव॒जि आठि कर्म खपइ ए२ ॥३३॥ तस संतानिइं पांडव पांच, जणणी गुरु धरणी सहीअ । सिद्धा इणि परि सुणउ सहू कोइ, सिद्धाचलि सवि कर्म दहिअ २ ॥३४|| अजाहरि थाप्यानी आदि वरिस संख्या सहूइ सुण उ । ब्यासी सहस नइ लाख इग्यार, हूआं भविअण मनि गणउ २ ॥३५।। सेजेज तीरथ महिमा कप्प भद्रबाहू गणहर कहीअ । ते जोई धर्ममंगल सीसि पास अजाहर थुइ लिहीअ २ ॥३६।। पनर बहसठिड़ ऊना नयरि आसो सुदि आठमि दिन ए । जे नरनारि निरमल भावि भणइ गणइ ते सांभलइ ए ॥ मनवंछित सुख साधक तास घरअंगणि सुरतरु फलइ ए २ ।। ३७ ॥
इतिश्री अजपुरनगरमंडनपार्श्वजिनराजस्तोत्रं संपूर्ण ॥ भक्तिकुशल गणिनालेखि । उन्नतदुर्गे । सं. १६७९ व. श्रा. व. ५. ।
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श्री शांतिदास - विरचित
श्री गौतमस्वामी रास ( चौपाई ) ॥
- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
श्रमण भगवान महावीरना आद्य पट्टशिष्य गणधर श्री गौतमस्वामीनो प्रभाव वर्णवती एक वधु लघु-रचना अत्रे प्रस्तुत छे : गौतमस्वामी रास. तेना रचनार एक गृहस्थ- श्रावक छे, एम तेनी अंतिम कडीमांना "शांतिदास" एवा नामाचरणथी जणाय छे; अने ते ज आ रचनानी विशेषता छे. अत्यार सुधीमां प्रसिद्ध थयेल अने प्रचलित बनेल, गौतम गणधर विषयक रचनाओ साधुओ द्वारा ज रचायेली छे, ते संदर्भमां श्रावक-रचित आ रचना खास ध्यानार्ह छे.
रास चौपाई - प्रकारनो छे. तेनी रचना सं. १७३२मां थयानुं अंतिम कडीमां निर्देशायुं होवाथी, तेना कर्ता शांतिदासनो सत्तासमय १८ मा शतकमां होवानुं सहेजे स्वीकारी शकाय. आथी वधु वीगतो माटे 'जैन गुर्जर कविओ' तथा मध्यकालीन साहित्यकोश जेवां साधनो तपासवां पडे.
आ रचना ६६ कडीमां पथरायेली छे. मंगलाचरण थया पछी, गोबरग्रामनुं परंपरागत रीते पण ट्रंकुं वर्णन, (४-६) अने वसुभूति तथा पृथ्वी - ए विप्रदंपतीनो परिचय छे. (६) त्यारबाद, माता पृथ्वीए इन्द्रसभानुं स्वप्न जोयानी अने तेना फळ स्वरूपे 'इन्द्रभूति' पुत्रनी प्राप्तिनी वात, आ रचनामां ज, सर्वप्रथमवार जोवा मळे छे (७-९). पछीनी चार कडीओमां अति संक्षेपमां जन्मथी मांडी वादीविजेता तरीकेनी छाप पाम्या सुधीनी कथा प्रत्ये अंगुलिनिर्देश छे. (१०१३). पछी प्रभु वीरनुं आगमन, यज्ञारंभ, देवोनुं आगमन, वाद अने विजय माटे प्रयाण, मानत्याग अने संशयछेदनपूर्वक वीरस्वामीनुं शिष्यत्व, द्वादशांगीनुं सर्जन अने ज्ञानप्राप्ति, छेवटे निर्वाण (१४ - २६) नुं खूब टूंकमां ज वर्णन छे. आ बधामां कविनी प्रतिभानो कोई विशेष प्रभाव जणातो नथी.
आ पछीनी संपूर्ण रचनामां गौतमनुं नाम अने ध्यान केवुं महिमावंत छे, तेनुं लोकप्रिय अने लोकभोग्य वर्णन छे, जे जोया पछी, गौतमस्वामीनो प्रभाव वर्णववो ए ज कविनुं ध्येय होवानुं स्पष्ट थई जाय छे.
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[52]
आ रचनानी एकमात्र प्रतिनी झेरोक्स नकल मारी पासे मौजूद छे, जे प्रति डभोईना श्रीरंगविजय- शास्त्रसंग्रह - भंडारनी छे. बे पत्रो धरावती आ हस्तप्रति, तेनी लखावट जोतां १९मा शतकमां लखाई होय तेवुं अनुमान थाय छे. आ रचनानी बीजी प्रति हजी सुधी तो क्यांय जोवामां नथी आवी. कोई सुज्ञ जनना ध्यानमां आनी प्रति होय अथवा आ रचना तथा तेना कर्ता विशे विशेष कांई ज्ञातव्य होय तो तेओ ते विशे माहिती मोकले तेवी विनंति.
श्री शांतिदास - विरचित श्री गौतमस्वामी - रास ( चौपाई ) ||
सरस वचनदायक सरसती, अमृत वचन मुखथी वरसती । सहिगुरु केरुं कीजें ध्यांन, अलवें आलें बुद्धिनिधांन ॥
तीर्थंकर चोवीसे तणा, एकमनां गुण गाउं घणा । वीहरमांन जिन वंदु वीस, सीद्ध अनंता नामुं सीस ॥ सुमत गुपत पालें मन सुद्ध, नमुं साधुं जस नीर्मल बुद्ध मुझ मत सारूं करूं अभ्यास, कहस्युं गौतमस्वामीनो यस ॥ जंबुद्वीप अनो ( पम) भणुं भरतखेत्र ते मांहि सुं मगधदेस वसें अभीरांम, इंद्रपूरी सम गोबरगांम ॥
गढ मढ मंदिर पोल प्राकार, वाविं सरोवर नाती विस्तार लखेसरी कोटीसर घणा, दानेसरी ती नहं तीहां मणा ॥ घणा विप्रतणो तिहां वास, वेद पूरांणनो करई अभ्यास सघलामांहि वडो अधीकार, वसुभुति विप्र घर प्रथवी नारिं ॥ अर्धनिसा पोढि जेतलई, इंद्रभुवन दितुं तेतलई । जागि मनस्युं करई विचार, आवि जिहां छें निज भरतार ।. स्वामि सुपन लधूं मिं इस्यूं, तेहतणुं फल कहो मुझ किस्युं वसुभुत विप्र विचारि कहई, प्रथविदेवि ते सद्दहई ||
तुम कुखहुं सुत होस्यें सार, च्यार वेदतणो भणनार जैन धर्म तै दीपावस्यै, त्रिभुवन पूजनीक ते थस्यें ॥
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[53] मा प्रसवानव पूत्र थाय (?), जनम्यो पूत्र हरणे तस माय मूरत जोवा मांडि घडी, धवलमंगल गाई गोरडी ॥ कुंकमनां किधां छांटणां, पंच सबद तिहां वाजई घणां तलीआं तोरण बांध्यां बार, जोवा आवई नरनइं नार ॥ ११ दसमई दिन तस दिधुं नाम, इंद्रभुत रूपइं अभीरांम दिन दिन वाधई चढती कला, सीखई सास्त्र सवे आंमला ॥ १२ च्यार वेद मुखपाठई करई, वांणी संस्कृत मुखइं उचरइ वादि सवे मनावि आंण, इंद्रभुत विद्यानी खांण ॥ समोसर्या तिहां विरजिणंद, समोसरण रचई सुरइंद त्रगडई बइठा त्रिभुवनस्वामि, जाइं पाप जस लिधइं नाम ॥ १४ जेहनइं छ; अतिसय चोत्रीस, वांणी गुण जेहनइं पांत्रीस जोजनभुमि देसना विस्तरइं, भविक जिवना संसय हरई ॥ १५ इंद्रभुत करई जगनारंभ, रचिओ मंडप रोप्यो थंभ वेदाध्ययन करई विप्रषनवा (?), विद्या कुंभतणी परई भर्यां ॥ १६ आवई रिषनई आवई देव, इंद्रभुत तस सारई सेव हवन करई मंत्राक्षर भणी, देवदुंदुभी आकासई सुणी ।। जे (जै)न देव ए कुंण आवीओ, आउंबर एतो लावीओ हुं जइंनइं जीतुं एहनइं, सीस नमावीइ सुर जेहनइं ॥ एम कही चाल्यो जेतलई, समोसरण दिलु तेतलई सीह दिठई गज मुंकई मांन, इंद्रभुत मुकउं अभीमांन ॥ ए को ब्रह्मा ए को ईस, चंद सूर कई ए जगदीस अणसमझ्यें हुं आव्यो वही, ए साधइं जीते स्युं नहीं । २० मन केरी संदेह भांजस्यइं, इंद्रभुत तो चेलो थस्यें इम कही आघो आवीओ, वीरई नांमई बोलावीओ ॥
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[4] जीवतणो तुझनें संदेह, जीव अ(छ)इं तुं जांणे एह मन केरो संदेह टालिइं, बोल्यूं वचन मुखथी पालीइं ॥ २२ इंद्रभुत तव संज्यम लीध, वीरें गौतम गणधर कीध अंग इग्यार चौद पूरव भणइं, सूत्र सीद्धांत वीर मुखथी सुणई ।।२३ मन(मति) श्रुत अवधि मनपर्यव ग्यांन, गौतम पाम्यूं च्यार गनांन लबध अट्ठावीस उपनी वली, हाध(?) सीद्ध सीख थाई केवली ॥२४ वीरतणुं हूउं नीरवांण, गौतम पांम्या केवलज्ञांन ॥ विहार करई महिमंडल मांहिं, भविक जीव प्रतिबोधई त्यांह ॥ २५ केवल पर्याय पूरण करी, गौतम स्वामि पंचम गति वरी ते गौतमना जे गुण गाय, सकल मनोरथ पूरण थाय ॥ २६ आर्य क्षेत्र श्रावक कुलमांहिं, गौतम नांमई आवई त्यांहि दीर्घ आयु पंच इंद्री जेह, गौतमनांमई लहीइं तेह ॥ साच्या देव-गुरु साचो धर्म, दान-शील-तप-भावना मर्म सूत्र सिद्धांत सुणवानो भाव, गौतमनांमई एह सभाव ।। सप्तभुमि उंचा आवास, ते मांहिं रहेवानो वास वृषभ-हय-गजसाला जोडि, गौतमनामई पूरई कोडि ।। घर घरणीस्यूं नीर्मल चीत्त, गौतम नांमइं पूत्र विनीत माता पिता बंधवनइं वहू, गौतमनांमई मानइं सहू । नीमजां पस्तां अषोड बदाम, द्राष चारोली मेवा नाम साकरदल आंबारस सार, गौतमनांमई तेहनो आहार ।। खीर खांड धृत साकर सूखडी, सालिं दालिं पोली नई वडी सेव लापसी दुध में दही, गौतमनामई लहीइं सही ॥ पांन सोपारीनो मुखवास, लविंग एलची कपूर बरास काथो चूनो मेल्यो संजोग, गौतमनांमई बीडां भोग ॥
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[5] सालू भेरव नइं पांमरी, चीर पटोला देसाउरी जरतारी वस्त्र पहेंरणइं, गौतमना गुण जे नर भणइं ॥ वेढ वांकलां नदुं (नई) सांकली, कंदोरा पहेंरई मनरूली कडी नवनां हीरई जड्यां, गौतमनांमई अंगई चढ्यां ॥ ३५ दार झूमणां झांझर झमकार, कांकण कांकणी अती हई सफार चाक चांदलो रूडो घड्यो, गौतमनांमइं ते सीर चढ्यो ॥ ३६ चूआ जबाद कस्तुरी फूल, अंबर अरगजानुं बहू मुल केसर चंदननां छांटणां, गौतमनांमई दीसई घणां ।। ढोल तलाई मीसरूतणी, गालमसुरीआं चादर सुणी भला सेज करो आराम, सुखसाता लहइं गौतमनाम ॥ गज घोडां पायक पालखी, गौतमनांमइं थाइं सुखी रथ धोरी बेसी संचरई, गौतमध्यांन रिदयमा धरई ।। सुभ सकुन लहइं जातां गांम, सुभ सूपनांतर गौतम नाम । सुभ मुहूरत सुभ काजई मिलई, गौतमनामई अफलां फलई ॥ ४० वैरी मीत्र सरीखा थाय, गौतमनांमई प्रणमई पाय ना(रा)जा मांनइं सहू को नमई, गौतमध्यान ऋदयमा रमई ॥ ४१ जी जी कार सहू को करई, बोल्युं वचन नवि पार्छ फीरइं कीरतवेल पसरई जग बहूं, गौतमनांमई इछइं सहूं ।। पद्मद्रहथी आवें वही, सीदेवी घरवासई रही गौतमनामई थीर रहइं सही, खरचंतां खुटइं पीण नहीं ॥ विणज करतां नावइ खोट, गौतमनांमई सबली चोट लखेसरी कोटीस्वरीपणुं, गौतमनांमई दीसई घणुं ॥ वस्तु बहू प्रवहांणइं भरइं, भरदरीआमांहिं संचरइं गौतमनांमई नहीं तोफांन, कुसलई ल्यावई बहूं नीधांन ॥ ४५
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४६
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.
[56] नवे निधाननी इच्छा फलें, गौतमनामइं संपत्त मिलें नवविध परीग्रह जेतो मेर, छप्पन्न उपर वाजइं भेर ।। सोनासीद्ध नइं परीसा सीद्ध (?), गौतमनांमई सबली रीद्ध कांमकुंभ चिंतामणी जेह, गौतमनांम लहीइं तेह ।। चीत्रावेल दक्षिणाव्रत कह्यो, गौतमनांमई ते घर रह्यो कांमधेन दुझबई आंगण, गौतमनां गुण जे नर भणइं ॥ सबदवेद्ध लाधई केटिका, रस आवई रसकुंपी थीका गौतमना गुण गाई तेह, अष्ट माहासीद्ध पांमई तेह ।। नागमंत्रु जांगुलीमंत्र, फले तास चिंतामणीजंत्र सीद्ध औसधी आवई काम, ते लहीइं गौतमनें नाम ।। मंत्र जंत्र जगमांहि घणा, आराधन देव देवी तणा गौतम नाम मंत्र महीमाय, अखुट वस्तू घर सघली थाय ॥ गौतम मंत्र जपो एकांत, जिणे मंत्रे जग वरतइं सांत जिणें मंत्रइं विंछी उतरइं, जिणें मंत्रै विष सघलां हरई ॥
५१
५२
भूतप्रेत जिणें मंत्रइं जाइं, जिणें मंत्रई सनमुखु थाई तेह ॥ ५३ जिणें मंत्रइं कांमण नीसरई, मारई मुठ ते पाछी फीरइं नवग्रह पीडा नवी करई, चेटक चोरास(सी) नीसरइं ॥ ५४ भाजई आठिल भाजइं एथ कडी(?), गौतम नांमइं . न रहई घडी बंदीखांणाथी मुंकाय, राजा रूठो सनमुख थाय ॥ जेणें मंत्रइं धार बंधाय, जेणें मंत्रइं अगनी उलाय गौतमनांम मंत्र छई इस्युं, अवरमंत्र- कारण किस्युं । चौदपूरवमांहिं जेतला, विद्यामंत्र अछइं तेतला अधीक मंत्र गौतम, नाम, जिणें मंत्रई सवी सीझइं काम । ५७
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[57] व्याधि सत्योत्तरसो उपसमें, गौतमध्यांन ऋदयमां रमें मरणघात थकी उगरई, गुरु गौतम जा सांनीध करई ॥ ५८ दीसंतो जे माहा विकराल, ते विषधर थाई फूलमाल केसरी सघला मुंकें मांन, गौतमनामइं साहिई कांन ।। ५९ जलमां बुडंतां दीइं हाथ, मारग भुलां मेलें साथ विघन उपजतां वेगई वलई, मन सुद्धई जो गौतम मिलई ।। ६० परदल आव्यां पाछां फरई, गौतमसांमि जो सांनीध करइं चोर पराछी(घी) धाउ फांसीआ, गौतमनांमई ते वप्र(?) कीआ ।। ६१ गौतमनांमें थाइं सुगाल, गौतमनामइं टलई दुकाल ईत उपद्रव मरगी जेह, गौतमनांमें नासई तेह ॥ चौदसई बावन गणधर सुण्यां, तीर्थंकर चोवीसे तणा अधीक प्रतापी गौतमस्वामि, पाप पणासई जेहनई नाम ॥ ६३ गयणांगण को तारा गणइं, मेरु अंगुल वली को नर मणइं समुद्रनीरनी संख्या थाई, गौतमना गुण कह्या न जाय ॥ प्रह उठीनई पवीत्रहपणई, गौतमना गुण जे नर भणइं श्रवणे सुणतां सुख बहू थाय, दुख दालीद्र सवी दुरई जाय ॥ ६५ संवत् सतर बत्रीसौं कहूं, आसो सुदि दसमी दिन लहूं कर जोडी कहइं शांतिदास, गौतम ऋषि आलो सुखवासो (स) ॥६६
इति श्री गौतमस्वामिरास संपूर्ण : ।। . सुदोसण मध्य लषीत्यं ॥ श्री ॥
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[58]
कठिन शब्दोनो कोश ३/१ सुमत गुपत - समिति (पांच) अने गुप्ति (त्रण); जैन साधुनी
चर्यामां आवता पदार्थो ११/३ तलीआं तळियां-घरनां आंगणां १४/२ समोसरण - तीर्थंकरनी धर्मदेशना-भूमि १४/३ गडई
त्रिगडे-त्रण गढना बनेला समोसरणमां १५/१ अतिसय - तीर्थंकरती विशिष्टता १५/३ देसना - देशना - प्रवचन १६/१ जगनारंभ - यज्ञनो आरंभ २६/१ केवलपर्याय - केवल ज्ञानवाळी अवस्था २६/२ पंचम गति ___ - मोक्ष ५३/१ पद्मद्रह - पद्म सरोवर ४३/२ सीदेवी - श्रीदेवी - लक्ष्मीदेवी ४६/३ नवविध परिग्रह - धन-धान्य-क्षेत्र-वास्तु-रूपुं-सुवर्ण-कुप्य-द्विपद
चतुष्पद-ए नव जातनो संग्रह ४६/३ जेतो मेर - मेरु जेटलो ४९/१ केटिका ६२/१ सुगाल - सुकाल ६२/३ ईत - ईति-कुदरती आपत्तिओ-७ सातनी.
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नाम
अउज्झा
अज
अजिय
अजिय
अजियजिण
अज्जकालिय
अज्जकालियारिय
अज्जक्खउडारिया
पढमाणुओग ( अनुसं. ६ ) गत- विशेषनाम्नां सूचिः ॥
अज्ज मल्लारीया
अज्ज महागिरि
अज्जरक्खिय
अज्जसुहत्थि
अज्जसुहत्थिसीस
अट्ठावय
अणाइनिहण
अणिल
अनिरुद्ध
अपराइय
अपराजिय
अमरउर
अमियलिंग
अयलदत्त -
अयलपुर
पृष्ठ
३२
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२२
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२५-२२/२७
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पंक्ति
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अरिटुनेमिपडिमा अरिटुवरनेभी अरिष्टनेमि . अरिष्ठनेमि अरिहदत्तगणहारी अवंतिवई अवरकंका अवरविदेह आइ आइतित्थ आइनाह आमराय आसतित्थ . आसदेव आसवई आससुर आससेण आसावबोह आसावबोहण आसावबोहतित्थ
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२७ २३/१०; २६/२४ ४०/२१, २३ २४ २० २३/१०,२६ २३/१४,२४, २५/२६ २४/११; २७/७, ११, २०, २७
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उज्जेणी उज्झिलसिहर उज्झिलाइ उत्तरायण उलखउरअहिवई उसभ उसह उसहजिण उसहनाह उसहपडिम असहसामि अंजणा अंधगवन्हि अंबा अंबादेवी अंवग
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कित्ति कुंजठाण कुंती कुलियपायपट्टण कुवेर केदार केवलनाणी कोडीनगर कोलापुर कोसंभ कोहिंडि
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खप्परय खुरसाण
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गंधमायण गंधार गइंदकुंड
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गउडदेस ।
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१९/१०,३८/१३
गज्जमाण गद्दभिल्लनिव
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७/२४,२७,१०/८; १७/१६,२२/२
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७/१८;२५/१७;२७/६ ७/१८;८/१५,२४; १६/२४;१७/९, २७/४,८; ३१/६
गोवद्धण गोविंदारिय घोरघटसिद्धपुत्त चंदपहास चंदपुर चंदप्पह
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२८/४,१२,१५,१७; २८/२४; ३०/४,५; ३१/४,१७ २२/१०,२९/१४
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चंदप्पहतित्थ चंदप्पहतित्थगर चंदप्पहपडिम चंदप्पहपडिमा
३१ २८/६;२९/२१
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चंदप्पहपडिमा जीवंतसामि चंदप्पहास
चंदप्पहासखित्त
चंदारिय
चंदि
चंदेराया
चंदेरि
चंदेरी
चंप
चिंतामणि
चक्केसरी
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चारुचंदकरित्त
चारुदत्त
चेडग
छत्तसिल
छत्तसिला
जज्जगगरु
जज्जगारिया
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जयकुमार
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जरासिंध
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जावडिंग
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जीवंतसामिपडिमा
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ढंढणकुमार
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तिलुक्क तिहुयणसामिणी
तुंगहिसिहरी तुंगीसिहर
तेलुक्कसामिणी तेलोक्कसामिणी
दंड अडवि
दक्षिणावह
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दत्तराय
दमघोस
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दसरह
दसरहपुत्त
दसवयण
दाहिण
दाहिणसंड
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दुगासय
दुप्पसह
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देवराय
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धाईसंडविदेह
धारिणी
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धूमराय
धूलिकुट्ट
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नंदिवर्द्धण
नंदीसर
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नमीसर
नम्मया
नम्मयातीर
नयवाहण
नरवाहण
नरसिंहदेव
नवहलपट्टण
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नागज्जुण
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६/१२;९/२१ २१/४;२६/१२ २१
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पवणराय पहासखित्त पहासजक्ख पांडवा पाडलिपुत्त
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पाडलिपुत्ताहिक - दत्त पालित्तारिया
पुंडरिअ
पुंडरिउ
पुंडरिया
पुंडरिकणी
पुंडरिय
पुंडरीअ
पुंडरीय
पुंडरीयतित्थ
पुक्खलावई
पुडलतित्थ
पुण्यनाडयदीव
पुत्रभद्द
पुलक्ख
पेढालपुत्त
बंभकुंड
बंभगिरी
बंभलोइंद
बंभसंति
बंभसंती
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बलभद्द
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बुद्धि भद्दगुत्तारिया
भरह
भरसर
भरुयच्छ
भरुयच्छट्टाण
भव्ववरपट्टण
भागीरथ
भाणुमित्त
भाणू
भारहीपडिमा
भावड
भासरासिग्गह
भासरासियगह
भिउपट्टण
भिउपुर
भूयड
भेरवाणंद
मंडव
मणिभद्द
मयंदकुंड
मयण
मयणसत्थवाह मरुंडदेस
[71]
१७/२२; १८/२०; २३ / २२
२९
२६
२१
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२५/२०, २२;
२६/२,९,१३
२७
३७
२१
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२३/१३:२४/६
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२३/११;२४/१९
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३३
१८/४;२३/११ २५ ३८/१८,२७
मरुदेवी मरुदेस महतित्थ महव्वय महागिरि महातित्थ महापीढ महाभैरवी महाविदेह महावीर महासेणराया महिंदसीह महुर महुरा महुराए महुराथूभ महूय महैस्वर माघविसेस माणिभद्र माणुसुत्तर मायली मालवदेस मालवराया मुणिसुव्वय युगादिपुरुषेन्द्र
११/३;३७/१९
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४०/१५,१७,२२ २२/१३;२३/१
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रयणउर रहनेमि रहनेमी राइमइ राइमई
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१२/३,१४,१३/२२, २५,२८,१४/६; १५/२६,१६/१०,२१/२६ २१/२४;२३/१८; ३१/१५
राम
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रायणवण रावण रिटुनेमि रुप्पिणी रेउइ रेवय रेवयगिरि रेवयतल रेवयवण रेवयसिहर
१४/१५;१५/२३;४१/१
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२९ ११/७ ११/५,१५,१५/१२; १६/४,१९,१७/११,१९; १८/६:२१/२७,२२/५; २३/८;२९/१५
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लंका लंकानयरि लक्खण लक्खणादेवी लच्छि लद्धअंवाएस
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लवणसमुद्द
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वउलवाहण
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वद्धमाणपडिमा
वद्धमाणसामि
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वरदत्त
वरदिन्न
वलभद्र
वलहि
वलहिभंग
वलही
वसंतर
वसहनाह
वसुदेव
वाणारी
वाणारसीया
वारवई
वारवई
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वासुपूज्ज विइलेवावण
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१६
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[74]
५/३२१/१;२६/१३;
३६/२४; ३७/२
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[75]
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१७
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९/२५,२०/२६;२७/४;
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५/१७;७/१,८; ९/१३;४२/६; ४/३,२२,५/७,२६; ६/२०;७/२४,२२,२७; ८/११,१८,२१/२,३,१८; २५/२६,३७/५,४१/१;
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विमलगिरी विमलपुर विमलमती विमलवाहण
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२०/२६,२१/११; ४/२;१७/१७,२५/१३; २९/१८;३०/२४ ३६/११,२१,३९/१४; ३४ /१७; ३८/४;
३८.
वीरजिण वीरपडिमा वीरपुर वेणुवंत वेयालबल वेसमण वेसमणजक्ख वोडियादिट्ठी
१९/२३;१९/२८
२९
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________________
३४
३४ ४/२१;५/५
शिवंकर संख संघाएस संति संदण संपइराया संपई संब सउणी सउणीविहार सउणीविहार
२५
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२३
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१९/२३,३५/२९;४१/८;
सगर सगराई सच्चइ सच्चइरुद्द सच्चइरुदाइ सच्चई सच्चउर
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२७/२;३४/२३,३८/८, १७,२२,३६/२२; ३९/३,६,१४,१८,२०; ४०/३,१७,१९; ४१/१,२३,४२/३,८
३६
३४/१२,२७
सच्चउरनिवेस सच्चउरपट्टण सच्चउरपुर सच्चभामा सज्जण
३६
११/११,१२/१
२१
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________________
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१८/१,२८
२२
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सत्तुंजयतित्थ समंतभद्दारिया समुद्ददत्त समुद्दविजय सयकित्त सयासिव सरस्सई सरस्सई सरस्सईपट्टण सरस्सई वीढ सव्वट्ठसिद्ध सव्वाणुभूइ तित्थगर ससिभूसण सागरपोतासि सारावलीगंडिया सारावलीसुत्त सालाहण सिंघलदीव सिंहकन्न सिंहविक्रमदेव सित्तुंज्ज
९/२५,२७/४; २७
* * *
* * * * * * * *
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सित्तुंज्जय सिद्ध सिद्धखित्त सिद्धतित्थ सिद्धत्थनरिंद सिद्धपुत्त
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________________
सिद्धपुर सिद्धमठ
सिद्धराय
सिद्धसेण
सिद्धसेणदिवायर
सिरि
सिरिकलस
सिरिगुणसुंदर
सिरिगुणसुंदरसीस सिरिगोयमसामि
सिरिपउमनाह
सिरिपुर
सिरिपूसमित्तारिय
सिरभट्ट
सिरिमाल
सिरिमालपट्टण
सिरिमालपुर
सिरिवइरसेण सिरिमुणिसुव्वयपडिम
सिविद्धमाण
सिविद्धमाणविज्जा
सिवियरसामी
सिरि सुव्वय
सिरिसुव्वयतित्थ
सिलाइच्च
सिलाएच्च
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सिवखित्त सिवभत्ता पंडवा सिवरत्ती सिवा सीमंधर सीया
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सीयाविहार सुग्गीव सुदंसणा
२१
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सुद्धमइ सुमंगला सुमइ सुद्धा सुविही सुव्वय सुव्वयतित्थ सुव्वयपाय सूरदेव सूरनरिंद सूरियाभ सेलगायरिया सोमभट्ट सोमराय सोमल सोमलिंग
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________________
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सोरटुङ सोटुय सोरियपुर हत्थिणाउर हत्थिणागपुर हम्मीरराउ हरिवंस हरिसेण हरी हिरि विक्रमओ १०२९ विक्कमउ १२४७
१४२६ १५१८
१५७०
नोंध :- आ रचनामा उल्लेखायेला उपरनां वर्षो उपरथी, आ रचना वि.सं. १५७० पछी रचायेली होय एम अनुमान साव सरलतापूर्वक करी शकाय तेम छे.
-शी.
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--------------------------------------------------------------------------
________________
बे संस्कृत स्तवन
-सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय फुटकर हस्तलिखित पत्रोमांथी प्राप्त थयेलां बे संस्कृत स्तवनो यथामति संपादित करीने अत्रे रजू करवामां आवे छे । बेमां प्रथम स्तवन आदिनाथ भगवान, छे, जेना प्रणेता वाचक हेमहंस गणि छ। आ स्तवनमा मात्र अकारान्त पदो-वर्णो ज छे, अने छतां तेनी सरलता नोंधपात्र छे.
बीजुं पार्श्वनाथ स्तवन छ । तेनी पांचमी कडीमां 'जयसार' एवो निर्देश छे, ते तेना कर्तानो निर्देश होवानुं जणाय छे. । ३-४ कडीमां पार्श्वनाथ भगवानने क्रमशः नवे ग्रहोना रूपमा वर्णव्या छे, ते ध्यान खेंचनारी बाबत छे ।
श्री आदिनाथस्त्वनम् नाभिनामनरनाथचन्दनम् ।
पापतापशमनाथचन्दनम् ॥ केवलाक्षरपदाप्तिहतवे ।
केवलाक्षरपदैरहं स्तुवे ॥ १ । अमलतमकमलकलनयनकरचरणकं
. सकलकरधवलकरवदनमपगतमलम् । भरतवरभरतधरजनकमघभरहर ।
प्रथममनवरतमवनमत शमदमधरम् ।।२।। प्रणयनतसदशशतनयनधरसदमर
प्रततततकनकमयकमलगतपदतलम् । अपरमतगहनवनदहनवनदवसमं ।
प्रथममनवरतमबनमत शमदमधरम् ॥३॥ भवनवनगगनतलसदनसदमरसदः
प्रसरपरसनवरसरचननवनवनवम् । दधतमलममलमपशकलजगदवगर्म
प्रथममनवरतमवनमत शमदमधरम् ॥ ४ ॥
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________________
[2]
रजतमयकलशशरदमलजलधरशरत्
प्रगतमलधवलकरगगनगजसयशसम् । अचलतरपरमपदलनयकरमरजसं
प्रथममनवरतमवनमत शमदमधरम् ॥५।।
कमलभवकमलशयनगरहरशरभव
प्रवरलसदमरमददमनपरमदनहम् । समसमवसरणवरवरणगतमतमसं
प्रथममनवरतमवनमत शमदमधरम् ॥ ६ ॥
प्रबलतमजवनगमपवनपरवशचलत्
फलददलचपलतरकरणहयवशकरम् । प्रणतजनजननजरमरणभवभयहरं
प्रथममनवरतमवनमत शमदमधरम् ।।७।।
स्वजनधनकनकहयपदगमदकलगज
त्यजनपरमवतमसहरणदशशतकरम् । करणरणरणकभरशरभनवजलधरं
प्रथममनवरतमवनमत शमदमधरम् ॥ ८ ॥
चरणसरवकरणगतदशकहतहयवचः
प्रकटकरवचनमयसमयधरगणधरम् । • सततमशरणकजनशरणपदशतदलं
प्रथममनवरतमवनमत शमदमधरम् ॥ ९॥ असमशमभवनसममशमहयवनमहं
कलहवनदहनशमसजलनवजलधरम् । कपटनटनटनसमघटनभवगतरसं
प्रथममनवरतमवनमत शमदमधरम् ॥ १० ॥
कलशयवचमरशरमकरवररथपद
ध्वजनपदकमलतलललनरतशतमखम् ।
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________________
[83]
डमरभरगरलधरहननवनधरसखं
प्रथममनवरतमवनमत शमदमधरम् ॥ ११ ॥
नरकगजकल भदलदलनखरनखरख
प्रखरगजमथनसममचलपदपथरथम् ।
तमनवमनवमरससवनगतमलचयं
प्रथममनवरतमवनमत शमदमधरम् ॥ १२
श्रीसोमसुन्दरगरिममन्दिरसुमुनिसुन्दरपूजितं
श्री आदिनाथं गुणसनाथं य इति विनुवति सन्ततम् । तेनाशुभासुरनरसुरासुरराजपदवी लभ्यते
क्रमतोऽपि विमला मुक्तिकमलाकामिनी परिरभ्यते ॥ १३ ॥
इति श्रीयुगादिस्तवनम् । महोपाध्याय श्री हेमहंसगणिकृतम् ।
सुन्दरदेवगणिलिखितम् ।
श्री पार्श्वनाथलघुस्तवनम्
धर्म्ममहारथसारथिसारम् । सरससुकोमलवचनविचारम् । सुचरितसलिलासारम् । सिद्धिवधूवक्षःस्थलहारम् । केवलकमलाली [ला ] गारम् । नागद्रहशृङ्गारम् ॥ १ ॥
मारविकारनिवारय (यि) तारम् । तारस्वरसुरगीताचारम् । क्षत्रियराजकुमारम् । स्फारफणावलिमण्डलधारम् । कारंकारं विनयमपारम् । वन्दे देवमुदारम् ॥ २ ॥
दिवसपतिः प्रतिभयनिस्तारी । चन्द्रश्चारुकलाविस्तारी । मङ्गलउदयाकारी । किं च बुधः सुधियामुपकारी । सुद्भगुरुरामयदोषनिवारी । शुक्रो विक्रमकारी ॥ ३ ॥
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________________
[4] कामितमशनैः शनिराधत्ते । राहुर्बाहुबलं बहु दत्ते । केतुः कीर्तिसुखाय । तेषां ये जगदीश भवन्तं । वामानन्दनमतिशयवन्तम् । मनसि नयन्ति चिराय ॥ ४ ।। चारुमहोदयरत्नकरण्डम् । भवभयसागरतरणितरण्डम् ॥ खण्डितपरपाखण्डम् ॥ श्रीजयसारकजमार्तण्डम् ॥ नत्वा वामासूनुमचण्डम् ।। नन्दत यूयमखण्डम् ।।
इति श्री पार्श्वनाथलघुस्तवनम् ॥ संवत १६८४ वर्षे कार्तिकवदि-चतुर्दशीदिने शिनीस ।।
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________________
अनुमानमातृका सावचूरि
11 2011
आ प्रति मारा पू. गुरुभगवंतना अंगत संग्रहनी छे । प्रायः सत्तरमा सैकानी आ प्रति पंचपाठी छे । प्रतिमां क्यांय कर्ताना नामनो उल्लेख नथी परन्तु रचनाशैली जोतां कोई जैनमुनिए रचेली होय एवं लागे छे । प्रतिना लेखक श्री पूज्य श्रीसूरसुन्दरसूरिना शिष्य पं. समयमाणिक्य गणिना शिष्य छे अने तेमणे श्रीसुन्दरतीर्थ गणि माटे आ प्रति लखी छे एवं तेमांना उल्लेखथी स्पष्ट जणाय छे। प्रतिनी किनारी फाटी गयेल छे पण अक्षरो सुवाच्य छे अने शुद्धि सारी छे । अनुमानमातृका नामक आ प्रकरणमां नैयायिक दर्शनना मते अनुमान खंडनुं प्रारंभिक अभ्यासी माटे मार्गदर्शन करेल छे । प्रकरणना कुल १३ श्लोको छे अने तेनी नानकडी अवचूरि पण आपेल छे, जे स्वोपज्ञ प्रतीत थाय छे.
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आज प्रतिनी बीजी पण एक नकल मळेल छे जे पण पंचपाठी अने प्रायः सत्तरमा सैकानी छे । लेखक पं. ज्ञानविमल गणि छे । अक्षरना मरोड अने अशुद्धिओ जोतां लेखके अभ्यासकालमा लखेल होय तेवुं लागे छे ।
1
संपादननो अनुभव बिलकुल नथी छतांय अभ्यासीओने उपयोगी थाय ते माटे पू. गुरुमहाराजनी प्रेरणाथी यथामति संपादित करी अत्रे रजू करेल छे । ॥ अनुमानमातृका ॥
सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय
१. पण्डितैः । २ पर्वते न ( ? ) अग्निः ।
अविनाभूताल्लिङ्गाद्विज्ञानं लिङ्गिनोऽनुमानं स्यात् । लिङ्गस्य लिङ्गिना सह या व्याप्तिः सोऽविनाभाव: ॥ यौगदृगपेक्षया तत्पञ्चांशं ते प्रतिज्ञया (१) हेतु: ( २ )
दृष्टान्तः (३) सोपनयो ( ४ ) निगमनम् (५) इति निगदिता विदुरैः ||२|| श्रितसाध्यधर्म्मपक्षाऽपरनामकधर्मिगीः प्रतिज्ञाख्यः ।
प्रथमो यथेह पृथ्वीधरे बृहद्भानुरिति हेतुः ॥ ३ ॥ हेतुत्वाभिव्यञ्जकविभक्तिका लिङ्गवाग् यथा घूमात् । तद्व्याप्ते रुपदर्शनभूर्दृष्टान्तोऽथ सा द्वेधा ॥४॥
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________________
[6] हेतौ सति साध्यस्याऽवश्यम्भावित्वमन्वयव्याप्तिः । यद्वद् धूमो यत्राऽग्निस्तत्रेत्यत्र पाकगृहम् ।। ५ ॥ व्यतिरेकव्याप्तिः स्याद्धेतौ साध्येऽसति ध्रुवमभावः । यद्वद्यत्राग्नि! न तत्र धूमोऽपि कूपोऽत्र ॥ ६ ॥ धूमश्चात्रेत्युपसंहरणं हेतोश्च धम्मिणि तुरीयः । साध्यस्य तन्निगमनं स्यात्तस्मादग्निरत्रेति ।। ७ ॥ हेत्वाभासाः पञ्चाऽसिद्धोऽनैकान्तिको विरुद्धश्च । कालात्ययाऽपदिष्टः प्रकरणसम इति मताश्चतुरैः ॥ ८ ॥ सोऽसिद्धश्चिद्रूपैरनिश्चिता पक्षवर्तिता यस्य । यद्वदनित्यः शब्दश्चक्षुर्दृश्यत्वतो घटवत् ॥९॥ स विरुद्धः साध्यविपर्ययेण सह यस्य जायते व्याप्ति : यद्वच्छब्दो नित्यः कृतकत्वादन्तरिक्षमिव ॥ १० ॥ सोऽनैकान्तिकनामा पक्ष-सपक्षवदितो विपक्षं यः । व्योमवदव्ययशब्दं साधयत इव प्रमेयत्वम् ॥ ११ ॥ प्रत्यक्षादिनिराकृतसाध्यः कालात्ययापदिष्टाख्यः । जलवच्छीतलमनलं यथा पदार्थत्वतो वदतः ॥ १२ ॥ साध्यविपर्यययोः स्यात्तुल्यः प्रकरणसमो यथा नित्यः । शब्दः पक्षसपक्षाऽन्यतरत्वादन्तरिक्षमिव ॥ १३ ॥ "इत्यनुमानमातृका सुन्दरतीर्थगणिकृते लिखिता श्रीपूज्यश्रीसूरसुन्दरसूरिविनेयपं समयमाणिक्यगणिशिष्येण ॥
३. पण्डितैः । (एताः टिप्पणयः प्रत्यन्तरे ।) ४. नित्यत्वे साध्ये नित्यत्वतां सपक्षता । नित्यत्ववान् सपक्षः । अनित्यत्वे हि साध्ये
अनित्यत्ववतां सपक्षता । अनित्यत्ववान् सपक्षः । अनित्यत्वतां विपक्षता । अनित्यत्ववान् विपक्षः। नित्यत्ववतां विपक्षता । नित्यत्ववान् । विपक्षः। (प्रत्यन्तरे टि.) इत्यनुमानमातृका । पं. श्री ६ ज्ञानविमल | जालोरनगरे ॥ श्रीकल्याणमस्तु ॥ ( इति प्रत्यन्तरे ) ।
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________________
[87]
अनुमानमातृका - अवचूर्णि:
१. अविना० । विना साध्यभावेन भूतं विनाभूतं, न विनाभूतं अविनाभूतं साध्यसहचरमित्यर्थः । तथाविधात् लिङ्गात्साधनाल्लिगिनः साध्यस्य विज्ञानं सम्यगर्थनिर्णयात्मकविशिष्टज्ञानमनुमानं स्यादिति सम्बन्धः । अनु लिंगग्रहणसंबंधस्मरणयोः पश्चान्मीयते परिच्छिद्यते परोक्षोऽप्यर्थोऽनेनेत्यनुमानं । अन्यत्राप्युक्तम् पञ्चलक्षणाल्लिङ्गाद् गृहीतान्नियमस्मृतेः । परोक्षे लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानं प्रचक्षते ॥ १ ॥
अविनाभूतादित्युक्तमतोऽविनाभावमाह - लिङ्ग ।
लिंगे सति लिङ्गी भवत्येव । लिङ्गिन्यसति च लिङ्गं न भवत्येवेत्येवंरूपा व्याप्तिरविनाभावः । सा च वक्ष्यतेऽग्रे ॥ १ ॥
२. यौ० । नैयायिकमतमाश्रित्य पञ्चावयवमनुमानमित्यर्थः । अनेन चाऽन्येषां न्यूनाऽधिकावयवमपि स्यादि सूच्यते । यदुक्तम्
पञ्चावयवं यौगाः सृजन्ति मीमांसकाश्चतुरवयवम् । सांरव्यास्त्र्यवयवमार्हतबौद्धाश्च द्व्यवयवं तदिह ॥ १ ।
पञ्चावयवं नैयायिकाः, उपनयान्तं मीमांसकाः, दृष्टान्तान्तं सांख्या:, हेत्वन्तं आर्हताः, व्याप्तिपूर्वकदृष्टान्तोपनयसहितं बौद्धाश्च कुर्वत्यनुमानमित्येतदार्यार्थः । तेऽंशाः । सहार्थे तृतीया, इतिरेवमर्थे ॥ २ ॥
३. श्रित० । साध्यधर्म्मवतः पक्षेत्यपरनाम्नो धम्मिणः पर्वतादेर्गीर्वचनं प्रतिज्ञा स्यादित्यर्थं : । अस्तीह पृथ्वीधरेऽग्निः । इतिः प्रकारार्थे । शेषोदाहरणेष्वपि ज्ञेयः ||३||
४. हेतु० । हेतुत्वज्ञापकपञ्चम्यादिविभक्त्यन्तं लिङ्गवचनं हेतुरित्यर्थः । हेतुव्याप्तेरुपदर्शनं परस्मै प्रतिपादनं तस्य भूराश्रयः ||४||
५- ६. हेतौ० । यत्र धूमस्तत्राग्निः अथवा यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निरिति व्यासि: कार्या । अत्र व्याप्तौ पाकगृहं महानसं दृष्टान्तः । व्यति यत्राग्निर्न स्यात्तत्र धूमोऽपि नेति व्याप्तिः कार्या । अत्र व्याप्तौ कूपो दृष्टान्तः । एवं व्याप्तिद्वैविध्याद् दृष्टान्तोऽपि द्विविधः स्यात् । तत्र साध्यसाधनसद्भावकृतसाध्यसाधर्म्यात्साधर्म्य
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________________
[8] दृष्टान्तः (१) । साध्यसाधनाऽभावजनितवैधाद्वैधर्म्यदृष्टान्तः । (२) इति ।।५।।
७. धूम० । धर्मिणि उपसंहरणं कोऽर्थ : ? दृष्टान्तर्मिणि विसृ(श्रु)तस्य साधनस्य साध्यधर्मिण्युपनयनं तद्धर्मिण्युपसंहरणम् ॥७॥
८. हे० । हेतुलक्षणरहिता हेतुवदाभासमानाः । नामकथनव्यतिक्रमः पाठानुकुल्यात् । ॥८॥
९-१० सो० । अनिश्चिता संदेहगोचरीकृता विप्रतिपत्तिविषयीकृता वा ॥९॥१०॥
११. सोऽने० । एकस्मिन्मते साध्यधर्मे नियत एकान्तिकस्तद्विपरीतः अनैकान्तिकः । व्यभिचारीत्यपि । नित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् व्योमवदिति प्रयोगः ॥११॥
१२. प्रत्य० । आदिशब्दादनुमानागमादिग्रहः । प्रमाणाऽनुपहतपक्षोपन्यासाऽनंतरं हेतूपन्यासस्य समयः कालस्तदत्ययेऽतिक्रमे सति अपदिष्टः कालात्ययापदिष्टः कालातीत-समयातीत-बाधितविषया इत्यादिनामानि । अनलः शीतलः पदार्थत्वात् जलवदिति प्रयोगः प्रत्यक्षबाधोदाहरणम् । अनुमानबाधो यथापरमाणवोऽनित्या मूर्तत्वाद् घटवदित्यत्र । परमाणवोऽनित्या अकार्यत्वादाकाशवदित्यनेन बाध्यते । नन्वस्यानुमानस्य को विशेषो येनेदं तद्बाधकमिति चेत् -
यस्मादणुतरो नास्ति सक्रियो नित्य एव वा । नित्यत्वे सत्यजन्यो यः परमाणुः स लक्षितः ॥ १ ॥
इत्यागमबद्धमूलत्वेन बलीयस्त्वम् । ततो बलवता दुर्बलं बाध्यत इति सार्वत्रिकन्यायादेतद् बाधकं स्यादिति ॥ १२ ॥
१३. साध्य० । पक्षः शब्दः सपक्षो व्योमादि, तयोरन्यतरत्वं एकतरत्वम् । पक्षत्वं सपक्षत्वं चेति यावत् । अयं चैक एव हेतुर्नित्यत्व इव । अनित्यः शब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वाद् । घटवदिति । अनित्यत्वेऽपि त्रिरूपतया वर्तमानः प्रकरणसमः स्यात् । तथा नित्यः शब्दोऽनित्य धर्मरहितत्वादित्यादयोऽपि ज्ञेयाः । सत्प्रतिपक्ष इत्यप्यभिधा एतस्य ॥१३॥
'इत्यनुमान मातृकावचूर्णिः संपूर्णा । लिखिता राजपुर महानगरे ।। १. इत्यनुमानमातृकाऽवचूरिः ॥ (इति प्रत्यन्तरे ।)
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उर्दूभाषाबद्ध त्रण कृतिओ
___ - संपा. मुनि भुवनचन्द्र जैन भक्तिसाहित्य सागर जेवू विशाल छे । छंद, स्तोत्र, स्तुति, स्तवन वगेरे प्रकारोनी अगणित कृतिओ विविध भाषामां रचायेली मळे छे । मुस्लिम राज्यकाल दरम्यान पशियन तथा अरबी भाषाओ भारतमा प्रसार पामी अने हिंदी भाषा साथेना तेमना मिश्रणमांथी उर्दू भाषा जन्मी। ए उर्दू भाषामां रचना करवामां पण जैन श्रमणोए संकोच नथी राख्यो । वस्तुतः लोकप्रिय अने लोकप्रचलित होय एवा कोई पण माध्यमनो धर्मना क्षेत्रे उपयोग श्रमणसंघमां प्राचीन कालथी थतो आव्यो छे ।
उर्दू भाषामां रचायेल स्तवननां त्रण प्रकीर्ण पत्र शामलानी पोल अमदावादना पार्श्वचन्द्रगच्छना ह.लि. ज्ञानभंडारमाथी प्राप्त थया छे । आ रचनाओने यथामति संकलित करी अहीं रजू करी छ ।
प्रथम बे कृतिओना रचयिता यति मोहनविजय छे, जे 'चंदराजानो रास' आदि कृतिओना कर्ता तरीके सुप्रसिद्ध छे ते ज होवा संभव छे । बंने स्तवनोमां रचनासाम्य जणाइ आवे छे । बंने स्तवन साथे बालावबोधनी ढबे गुजरातीमां अर्थ अपायो छ । स्तवनना शब्दोने संकेतचिह्नो वडे छुट पाडी दर्शाव्या छे । बीजी कृतिना अंते 'पारसीमध्ये' एम लख्युं छे । अहीं पारसी एटले फारसी - पर्शियन एम समजवानुं छे । बंने पानां अलग हाथे लखायेलां छे । लेखनवर्ष कोईमां ये नथी । बंने पत्र दोढसो वर्ष जूनां होवानुं अनुमान थई शके छे।
त्रीजा स्तवनना रचयिता नयप्रमोद छे । खरतरगच्छना आ कविनी सं. १७१३ नी कृति जै. गु.क.मां नोंधाई छ ।
प्रथम बे कृतिओ उर्दूभाषामां निबद्ध छे, ज्यारे त्रीजी कृतिमां उर्दू भाषाना शब्दोनो उपयोग मात्र थयो छ । उर्दूभाषानो पर्याप्त परिचय न होवा छतां, शब्दकोशनी सहायथी यथाशक्य पाठशुद्धि करी छे, बाकी जेम वंचायुं तेम उतार्यु छे (अमुक स्थलो हजी अस्पष्ट - अशुद्ध रहे छ । विद्वानो विशेष परिमार्जन करे एवी अपेक्षा छ ।
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[0].
उर्दू शब्दोना अर्थ त्रणे कृतिओमां प्रयुक्त उर्दू शब्दोमांथी जेटला स्पष्ट समजाया तेटला शब्दोना अर्थ तथा वर्तमान उच्चार अहीं नोंध्या छ । प्रचलित अथवा शुद्ध उच्चार कौंसमां आप्या छे।
मन -- हुं, मारु कादर (कादिर) - सर्व शक्तिमान् फरजन (फर्जन्द) - पुत्र दर् - मां, अंदर तोसफ् (तौसिफ ?) गुणगान लोत्फ् (लुत्फ्) कृपा सबोरोज (शब-ओ-रोज)- रातदिवस ग(गो)- जो के, यद्यपि चस्म (चश्म)-चक्षु यायद् (जायज ?) - उचित तल्ब (तलब) - इच्छा रायब-राहब (राहिब) - साधु गेति (गेती) - दुनिया गिरीयम (गिरियां) - रुदन रुई (रू -रूए) - मुख, आकृति इनायत - भेट, कृपादृष्टि बिंदगी (बंदगी) - भक्ति तलबीदम (तलब-ए-दम ?) - अंतरनी इच्छा बुद (बुत) - देव, मूर्ति खुदावत (खुदाबंद) - मालिक तसरिक (तशरीफ) - पधरामणी दामन् - छेडो अकबर - महान अलाही (इलाही) - ईश्वर
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[91]
बुजरक (बुजुर्ग ) - वृद्ध, वडील
प्रभात
फजर् (फज्र) नेकबखत (नेकबख्त ) खुसबो ( खुश्बू) - सुगंध
इलम ( इल्म) ज्ञान, शास्त्र
सईद भाग्यवान खजमतिगार ( खिजमतगार)
-
मादर- माता
पिदर पिता
बिन् – पुत्र बिना
आधार
खलक (खल्क) लोको, जगत
बंदा भक्त,
सेवक
चस्म सन् (चश्म रोशन)
पेस (पेश)
आगल
कसे
कोई
बीमार
अलेला (अलील) बक्स (बख्श ) क्षमा करवी गैर खोटं, अयोग्य
दरगह (दरगाह)
--
भाग्यवान
-
सेवक
आंखोने आनंददायक
दरबार, समाधिस्थान
१
किसके आगे मैं जाउं, हे परमेश्वर ।
पेस करो मन चरयम कादर । चरण तुम्हारा छोडीने
पाय तोरा बुगजारि बे जारि बे;
दुर्गतिना जोर मटाडें एक सासमां - तुमे एहवा छो दुरगत जोर हरें दम कुरद कोइ गुनें हुं तो भर्यो छु.
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[2]
गोरी हम जाहेरी हम जाहेरी (बे) १। ते माटे अरजे आव्यो छु. अरजि आहिबो आहिबो हे गोडि पास । गरीब निवाज ! गोडि पास गरीबनिवाज ! जगत के आधार जुगदाईहारा बो ईहारा बो; हमकु दरसन दिया दिदम् दे हम रोज वामाना पुत्र ! अरजी सुणो में कहता हूं । फरजन वामेरा वामेरा, गो० टेक । हाजर हूं में तेरी बंदगी मे, पार कर परवरदिगार ! हाजर हम् दर् बंदगी तोसफ् केइ रातदिन जाता है, उस वास्ते केहता हूं के सबोरोज गुदस्ती बे गुदस्ती बे; महेरबानी कर नीजरभर देषो, अछि तरें सें, लोत्फ कुन् चस्म मून् यायद् (जायज् ?) तेरेसें मेरा दिल मस्त हुवा है देष कर, दिल मन् हस्तम्, अस्ति बे अस्ति बे, अ० गो० २ मेरि मतलब, में पात्र एता मागता हूं, तीस वास्तद् मेरि मतलब ब्याबम् तल्ब (उ?) न् मूदम् मेरो मन हजारो दम् षेच नांहि (?) अब में न पडषू (?) मन हस्त अल्य कसेदम् बे कसेदम् बे; इसी दुनीयां बहोली बेबफा हे जो सोद् दूनीयां बा (ब ?) होरी बफोई ज्युं आपी दस्त, जिम तु मनें मल्यु तू दे दस्त रसीदम् बे रसीदम् बे अ० गो० ३ गुनि जीनके ए तरणी हैं गुनागुन् माबूदन्
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[93]
साहिब मुष, दिषवानिं दिदार, नामने भरुसें आव्यो छु दिदम् षातर नाम बे नाम बे,
हे
तु षावन हे, बंदे के अंतरका इसक तीसका षावन् तू तुं हि बे सांइयां बंद अंतर इसकम् जब तेरी सरत आइ उनसे बचे
बचें सरत आमदे [ बे ] आमदे [ बे ] अ० गो० ४ एक बालका मेरे जोषम नही हैं
एक बालकी जलेल नाही
तेरा दावन पकडया हें, तीस वास्ते
दावन् ( दामन् ? ) साथ गु रक्ति बे रक्ती बे बंदा मोहन कहेता हैं, हे परमेसर !
रायब मोहन गोयद् साहिब !
उसके तांइ नरकदूषे न होवे
उसकु दोष रक्ती बे रक्ती बे, अ० गो० ५
माला किहां छै रे
ए देशी ।
गोडी पार्श्व गरीबनो पालणहार फकीर
गौरी पास गरीबनवाज गदा यारा,
दीतुं मुख आकुनै (?) दिवसै दीकरानुं वामाराणीना
दिदैं रूइ अम रोज फर्जन वामारा । टेक ।
पहेला कोई आगलि मै जोउं परमेश्वर ।
पेश कसे मन् बुरवम् कादर
पग ताहरा न छोडुं
पाय तोरा न बुग्जारि बे ।
वाराही । जेंवितहेपंतंषील । (लषतं पं. हेतविजें )
संसारमां मोटी जाइगा छोडीने प्रभुनै घडी घडी करूं छु
दर गेति जो
चुनम् हरदम करदै
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[94]
आजीजी
गिरीअम् हुं जाहर वींनती परमेश्वरनै जारी अरज षुदाही बे । अ० १ तुम हजूर आव्यो छु सेवानै अर्थे प्रभु मोटा छो हाजर आमद बिंदगी मुशफक् शी रीते दिवस जाइ कैसें रोज गुदस्तें बे। महैरबानी करीनै नेक निजरै कृपा करवी लुत्फ ब-कुन चस्म इनायत् चित माहरूं तुमसुं बांध्यु छइ दील मन् अज-तो बस्ते (बे)। अ० २ माहरी इच्छा मननी बीजी वांछना नथी राषतो मा तलबीदम तलब न मुदम् चाकरी हजुर करीइं तो नफो थाइ महनत् अलफ् कसीदे बे। . जोयुं संसारमा घणो तुझथी नफो होइ चुस्ते दुनियां बहर बफाए तुं वेगलो छे हाथ शी रीते पोहचै तुं दुर (दूर ?) दस्त रसीदे [बे] । अ० ३ जुदा जुदा मैं देव दीठा गोंनागोंन आ बुदम् दि दें चित्तमां न आव्या अम्मां षातर नामदें बे । तुं परमेश्वर आजथी इसक छे तु ही षुदावत आ तर इसकां बीजी (?) सुरति नावै बाजे (?) सुरति नामदै (बे)। १८ अ०
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[95]
एक वार जो दीदार देषु एक बेर जूं तसरिफ पाउं छेडो निर्मल साहूं दामन् साफ गिरफ्ते बे यती मोहन नामनो कहै छै प्रभुनै राहब मोहन गोयद् साहिब आज थकी मुझनै नरक थकी निवार अज मत् दोझष् रक्तै [ बे ] पू. अ०
इति श्री पार्श्वनाथस्तवनं पारसीमध्ये |
३
सरस वदन सुखकारं सारं मुक्तावलि उरि हारं ; त्रिभुवनतारण तरण अतारं सो गायिजइ पासकुमारं ॥१॥ पास संखेश्वर परता पूरैं, समर्या धरणिंद होइ हजूरे;
धण मणि-कंचण - कूर - कपूर, नामे पाम (स) उग्गइ सूरं ॥२॥ छंद मोतीदाम ।
भो उग्गंत सूरं नाम नूरं पास समरण पत्थियं
लष लाल मोल कल्याण कुंडल लोल लहें कन इत्थियं; चमकंति चंपकवर्ण रामा कुवरि नाग नागेश्वरं,
नव निद्धि आवें चडति दावे सामि नामि संखेश्वरं ||३|| महकंत महमह वास छुट्टे सुरभि वाक सुगंधियं, लहकंत लहलह चीर पइकण कोर रयणे बंधियं; रणकंति रमझम पाय नूपुर सरस वर युवति वाल्हेश्वरं नव निद्धि आवे चडति दावे सामि नामि संखेश्वरं ||४|| सुविनीत बाल रसाल वाणी देह कोमल सुंदरा, द्रव कोडि लष मीलहे मानव भत्ति वित्त सुमंदिरा; हीसंति हयवर मत्त गयवर सरस भोग भोगेश्वरं, नव० ॥५॥ व्याकरण वेद वखाण वामी विदुर जग सहू को कहे, विद्याविनोदी विविध हुन्नर पास समरण षिणे लहे,
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[3]
देही सनूरा साज पूरा परसिद्ध सउ राजेश्वरं, नव० ॥६॥ तुं अजब अकब्बर अलाही बरवय कर्दन तुं सही, महबूब बुजरक् मर्द तो - सा बगुय जोहवि मही; जसु जाइ ध्यावि नाम पावे तुज्झ दावे सरें भरं, न० ।। ७ ॥ दिलबुजां षुसीयाल् हाजर् फजर् पूजा जे रचे, . दीवान दुनिया श्री वत्स मद्दल सुद्ध नाटक नर नचे; चंपेल वेल जासूल माफीक्, नेफबषत् सेवेश्वरं, न० ॥८॥ हलुवा हालची सेव सक्कर खुब खर्दन ज्या मिले, जर्दै जि पाग सपेद वागा जई पटका झलहले; खुसबो य अंगे सदो पहिने सबल तेज सुरेश्वरं न० ॥९।। सो इलम् कबूल कतेव काजी नाम तेरा जस रखा, मियां मुसाफर सईद काफर राहु-रयनी तुं सखा; हररोज खजमतिगार तेरा बखत वड तापेश्वरं, न० ॥१०॥ तुं ही ज मादर पिदर मेरा बिन् बिनादर् तु धरा, अजीब बंदा षलक तेरा भाग मेरा अब् खरा; दीदार साहिब चसम-रोसन् नमति साहि दिलेश्वरं । न० ॥११॥ गुन् अलेला बक्स अदिलेजवां गैर ज कछु बक्या तर्दोजक् या तसमीन् कामन् पास दरगह में तक्या; कयुं बषन् दारिद् वफे तिसका ध्यावता ध्यावेश्वरं , न० ॥१२।। कलश । सामि नामि संपति कित्ति जसु वाधे सधर, सामि नामि संपति मति निर्मल मुख मधुर, सामि नामि संपति रति रामति लीला वर, सामि नामि संपत्ति फतिदरसन (?) समतर, वर रिद्धि राज साहब थापण सधर, सुरनर जिनसेवा अकल श्री पास आस, नय प्रमोद भणे पावे मन वंछित सफल || १३
इति श्री शंखेश्वरपार्श्वछंद ।।
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श्रीहीरविजयसूरिनी सज्झाय
- सं. मुनि महाबोधिविजय भूमिका :
७ कडीनी आ रचनामां जगद्गुरश्री हीरविजयसूरिमहाराजना गुणानुवाद थया छे. कृतिनी रचना श्रीहर्षविमलना शिष्ये करी छे. कळशमां आवती पंक्ति 'जयविमलकारक' थी एवं अनुमान करी शकाय के आ कृति श्रीजयविमलमुनिए रची होवी जोईए । कृतिमां रचना संवतनो उल्लेख नथी ।
प्रायः राधनपुरना को'क ज्ञानभंडारमा सचवायेला छूटा हस्तलिखितपत्रोमांथी आ रचना प्राप्त थई छे. लंबचोरस पत्रमा ऊभी लखायेली आ कृतिनी प्रत्येक पंक्तिमां लगभग १५ थी १६ अक्षर छे. अक्षरना मरोड परथी एवं अनुमान थाय छे- कृति प्रायः १८मा सैकामां लखायेली छे, अने ते श्रीजयविजयगणीए लखी छे. कृति पूर्ण थया पछी तरत ज जैनेतर दर्शनना देवी देवतानी स्तुति लखाइ छे, जे श्रीजयविजयगणीना हाथे ज लखायेल छे.
श्रीहीरविजयसूरिनी सज्झाय वीरविजणेसर त्रिभुवनि चंद प्रणमी निजगुरु धरी आणंद, \णसंउ तपगच्छगुणनिधान श्रीहीरविजयसूरि युगहप्रधान ॥ १ ॥ तप-संयम नित अंगी धरी पाली जिनवर आण्या खरी, जिन चोवीसइ धरि मनि ध्यान ।। श्रीहीर० २ ॥ टालिइ पंच प्रमादह जेह उपशम संवर आणि देह, सुविहित साधु दीइ बहुमान ।। श्रीहीर० ॥ ३ ॥
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[98]
कुमतवृंदवारणकेसरी मिथ्यातिमिर हरि यमहरी
वादीजनना मोड्या मान । श्रीहीर० ४ ॥
ओशविंश उदयो जगीभाण
सूत्रअरथ परंपारीनो जाण,
आपी भवीयण समकितदान | श्रीहीर० ॥
धन नाथी जिणि उअरी धर्यो
धन कुंरा कुलि तुं अवतर्यो, जिनशासनं जिणई लाधुं मान । श्रीहीर० ॥
श्री आणंदविमल सूरि महिमावंत
श्रीविजयदान भगवंत,
श्री हरखविमलसीस करइ गुणगान । श्री हरी.
॥ कलस ||
प्रधान पंडित महीअ मंडित कुमतिखंडन सुरगुरो गुरुभाव निरमल करी मंगल नारीअपच्छर जयकरो जयविमलकारक भव्यतारक मूरतिमोहन सुरतरो
तपगच्छदिनकर संघसुखकर जयो श्रीहीरविजय सूरीश्वरो ॥ ८ ॥
इति श्री हीरविजयसूरिनी सज्झाय
समाप्त
|| गणिजयविजयलिखितं ॥ श्री : ॥
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प्राकृत प्रयोगोनी पगदंडी पर
ह. भायाणी १. अर्धमागधीमां प्राप्त प्राचीन शब्दप्रयोगो
'अनुसंधान-६' मां अमा. ०मीण प्रत्ययवाळां प्राचीन रूपो विषे ध्यान खेंच्युं हतुं (पृ. ७६-७८ ) । के. आर. चंद्राए खेतन/खेयन्न (सं. क्षेत्रज्ञ) वगेरेनी प्राचीनता विषे लख्युं छे । अहीं तेवा ज बीजा थोडाक प्राचीन प्रयोगो नोंधुं छु । (१) 'उउ-बद्ध', 'उडुबद्ध'
पिनि. २४, ओनि. २९६, ३४९, ६६०, ओनिभा. १२३, १७५मां उउबद्ध अने ओनि. २७मां उडु-बद्ध 'वर्षाकाल सिवायनो आठ मासनो, शियाळा तथा उनाळानो समय' एवा अर्थमां वपराया छे । जेम के
'गच्छम्मि एस कप्पो वासावासे तहेव उउ-बद्धे ।' (ओनिभा. १२३) .
पेरिसना डॉ. नलिनी बलबीरे आ प्रयोगनी विचारणा करतां पालि साहित्यमां पण उतुकाल शब्दनो आवा ज अर्थमा प्रयोग थयो होवानुं बताव्यु छे (एक अंगत पत्रमां) । उउ-बद्ध के उडु-बद्ध - संस्कृत पूर्व रूप तो ऋतुबद्ध छे. एनो उपर्युक्त अर्थ कई रीते निष्पन्न थयो ते विचारणीय छ । ऋतुनो 'वर्षाऋतु' एवो रूढ अर्थ थयो होय (जेम अरबी-फारसी मौसम 'ऋतु' परथी अंग्रेजीमां Monsoon 'वर्षाऋतु')। पण पालि प्रयोगनो खुलासो आथी मळतो नथी । परंतु आवो विशिष्ट शब्दप्रयोग समानपणे जैन अर्धमागधी आगमोनी भाषामां तथा बौद्ध पालि आगमोनी भाषामां मळे छे ए हकीकत सूचक छ । (२) 'पुरिसादाणीए'
'समवायाङ्ग', 'कल्पसूत्र' तथा 'उत्तराध्ययन' मां (छठा अध्ययनना उपसंहारना चूणि अने शान्त्याचार्यनी टीकामां आपेला पाठांतर अनुसार) तीर्थंकर पार्श्व, 'पुरिसादाणीए' एवं एक लाक्षणिक विशेषण मळे छे. जैन परंपरामां 'पुरुषादानीय' एटले के 'उपादेय पुरुष', 'आप्त पुरुष' (पासम.) एवो अर्थ
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करायो छे ।
हवे पालिमां 'पुरिशाजानीय', 'पुरिशाजञ्ञ' एवा प्रयोग मळे छे । (जुओ Adelheid Metteनो लेख : When Did the Buddha Live ? ए पुस्तकमां संपा. Heinz Bechert, १९९५, पृ. १८३ ). सं. 'आजानेय' 'कुलीन' (सं. 'आजाब' 'जन्म'), 'आजानि'='उत्तम कुळमां जन्म', 'आजानेय्य'=कुलीन', पछीथी 'कुलीन घोडो', 'जात्य अश्व' ( अमरकोश १८, ४४; अभिधानचिन्तामणि, १२३४) वगेरे जाणीता छे । एटले 'आदाणीए' ए 'आजाणेए' नुं परंपरामां बराबर न सचवायेलुं, विकृत रूपांतर छे. तेथी मूळ अर्थ पण भूलाई गयो अने 'आदानीय' नुं पछी संदर्भमां बंध बेसे तेम अनुकूळ अर्थघटन करायुं ।
[100]
**
'जुगुप्सा' > 'दुगुंछा' वगेरे तालव्य व्यंजननो दंत्य बन्यानां उदाहरण मळे छे (पिशेल, $२२५).
=
आमांथी ए फलित थाय छे के अर्धमागधी आगमोनी भाषामां मळता कंटलाक शब्दप्रयोगोना मूळ स्वरूप अने अर्थ माटे पालि भाषामांथी मार्गदर्शन मळे छे, अने ए हकीकत ए प्रयोगोनी प्राचीनता सूचवे छे। वळी 'पुरिसादाणीय' ना अर्थनी पण प्रतीतिकर स्पष्टता थाय छे ।
(३) 'ताइ'
'उत्तरज्झाय’मां तथा 'सूयगड' सुत्तमां ताइ शब्दनो प्रयोग मळे छे अने परंपरामां तेनो ‘त्राता, उपकारी, मुनि' एवो अर्थ समझवामां आव्यो छे । गुस्टाव येथे तेमना एक संशोधन - लेखमां ताइ शब्दना प्रयोगना आगमिक साहित्यमाथी बधा संदर्भो आपी, पालि साहित्य तथा अन्य भाषाओना बौद्ध साहित्यमाथी तादि, ताई ए शब्दोना प्रयोगोना संदर्भों टांकीने बताव्युं छे के पालि तादिनुं मूळ सं. तादृश् छे, अने जे संदर्भोमां बौद्ध तेम ज जैन साहित्यमां तादि, ताइ वगेरे वपराया छे, त्यां तेमनो अर्थ पण 'तेना जेवा, तेना जेवा उत्तम, पवित्र महापुरुष' एवो ज थाय छे। ताइना मूळ रूप तरीके तादि, सं. तादृश् भुलाई जतां ताइनो संबंध त्रा- धातु साथै जोडी देवामां आव्यो ।
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[101]
आ उदाहरण पण अर्धमागधीमां प्राचीन प्रयोगो जळवाया होवानुं अने मूळनी शब्दरूप अने अर्थने लगती परंपरा केटलीक बाबतमां लुप्त थई होवानुं सूचवे छे ।
(Gustav Roth : " 'A Saint Like That' and 'A Saviour' in Prakrit, Pali, Sanskrit and Tibetan Literature", श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्ण जयंती ग्रंथ, भाग १, १९६८, पृ. ३१-४६; Indian Studies 1986, पृ. ९१-१० उपर पुनः प्रकाशित) ।
२. प्राकृत 'उडुक्किय' __'दसकालिय' (अथवा 'दसवेयालिय') सूत्रनी अगस्त्यसिंह कृत चूर्णिमां लूषकहेतुना उदाहरणमां, काकडीभारेला गाडामांनी बधी काकडी पोते खाय तो गाडानो धणी तेने नगरद्धारमांथी नीसरी न शके एवडो लाडु आपे एवी शरत करीने एक धूर्त दरेक काकडी पर पोताना दांत बेसाडे छे अने ज्यारे न्यायाधिकारी धूर्तना पक्षमां चुकादो आपे छे, त्यारे गाडानो धणी बीजा एक धूर्तनी शीखवणीथी एक नानो लाडु नगरद्वारनी वच्चे मूकीने तेने ‘बहार नीकळ, नीकळ' एम कहेतां, ए न हलतो लाडु पहेला धूर्तने शरत प्रमाणे आपी दे छे - एवी कथा छ । तेमां 'सव्व-तउसाणि दंतेहिं उडुक्कियाणि' एवो प्रयोग छ । 'देशी शब्दकोश'मां 'दांतों से काट कर दागी करना' ए प्रमाणे अर्थ तो बराबर कर्यो छे, परंतु उडुक्कियने देश्य गण्यो छे अने तेनो संबंध कन्नड उडि 'काटना, टुकडे करना' साथे होवानुं कर्तुं छे।
हकीकते मूळ पाठ सहेज भ्रष्ट छ । उड्डक्किय एवं शब्दरूप जोईए । प्रा. डक्क = सं. दष्ट । डक्क ए मुक्कनी जेम सादृश्यमूल्क रूप छे । उद् उपसर्ग साथे जोडाईने उड्डुक्क 'करडवू' । तेना परथी भूतकृदंत उड्डुक्किय ।
(संदर्भ : दसकालियसुत्त, संपा. मुनि पुण्यविजय. प्राकृत ग्रंथ परिषद, ग्रंथांक १७. १९७३.
देशी शब्दकोश. संपा. मुनि दुल्लहराज, १९८८)
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ट्रॅक नोंध
उपाध्याय श्रीयशोविजयजीना अंतिम समय तथा समाधिस्थळ विषे
-विजयशीलचन्द्रसूरि उपाध्याय श्रीयशोजियजी, नाम अने काम विद्वज्जगत माटे अति परिचित अने प्रसिद्ध छे. तेमनी जन्म तारीख तेमज मृत्यु तारीख हजी सुधी तो अप्राप्त छे. परंपरा प्रमाणे तेमना स्वर्गवास, वर्ष शं. १७४३ अने तिथि मागशर शुदि ११ मनाय छे, जेने कोई प्रकारना प्रमाणनो आधार नथी ज. .
श्रीयशोविजयजीनो स्वर्गवास डभोईमां थयेलो अने त्यां गामनी बहार स्मशानभूमिनी नजीकनी, हाल 'यशोवाटिका' तरीके ओळखाती भूमिमां तेमना अंतिम संस्कार थया छे, ज्यां तेमनो स्तूप छे अने तेमां पादुका पण छे. आ पादुका उपरना लेखमां स. १७४५नी मा. शु. ११ना रोज, उपाध्यायजीना ज शिष्य [तत्त्व] विजयजीए तेनी प्रतिष्ठा करी होवानो उल्लेख छे. आथी मा.शु. ११ ते स्वर्गवासनी नहि, पण पादुका स्थापनानी तिथि होवानुं मानीए, ते वधु समुचित गणाय. स्वर्गवास पाम्या पछी थोडा ज वखतमां अग्निदाहना स्थले देरी बनावी तेमां पादका बेसाडवानी प्रणालिकाने लक्ष्यमा राखीए, तो सं. १७४४ना चातुर्मासमां -डभोईमां-तेमनो स्वर्गवास थयो होय, के चातुर्मास पूरुं थतांमां ज ते बनाव बन्यो होय, अने पछी संघे सत्वर नानो थूभ रचीने तेमना शिष्यो विहार करी जाय ते पहेलां ज, तेमना हाथे ज, पादुका प्रतिष्ठित करी होय, तेवी अटकल तथ्यनी वधु नजदीक लागे छे. प्रमाणभूत प्रमाण न मळे त्यां सुधी अटकळोथी ज काम नभाववानुं छे, ते स्थितिमां परंपरागत प्रणालिका-सापेक्ष अटकळ करवामां वधु औचित्य जणाय छे.
बीजो एक मुद्दो अग्निदाहनी भूमिनो पण छे. अत्यारे ज्यां यशोवाटिका छे त्यांथी दक्षिणे पांच-सात मिनिटना अंतरे एक खेतरमा एक पुराणी देरीनुं खंडेर छे; एक वायका प्रमाणे ते स्थाने यशोविजयजीना अंतिम संस्कार थयानुं मनाय
परंतु, आ स्थान जोया पछी, आ वायका तथ्यविहोणी ज समजाय छे.
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[18]
आ खंडेर अंगे जाणीता पुरातत्त्वशास्त्री डॉ. र. ना. महेतानो अभिप्राय लेतां तेमणे जणाव्यु के :
"डभोईनी दक्षिणे बावळनी झाडीमां एक त्रण गोखवाली इमारत छे. (मुख्यगोख २७ x २५ उंचाई २५; अन्य बे गोख १८ x २५ तथा १८ x २५). आ नानी इमारत लाखोटी इंटोनी बांधेली छे, अने तेमां टेबलइंटोनो जीर्णोद्धार थयेलो छे.
दरेक गोख उपर घणां जीर्ण थयेलां नक्कर अंगो छे. तेथी आ समग्र इमारत कोई धार्मिक इमारत होवानो संभव छे. ईटो परथी आ इमारत सत्तरमी सदी करतां खास जनी लागती नथी."
हवे आ इमारत केम अंतिम भूमि नथी, ते विषे केटलीक तर्को :
१. आ खंडेरमां त्रण गोख छे, अने कोई देवस्थानक- खंडेर होवार्नु, जोतांज, जणाई आवे छे. आम छतां ते जैन देवस्थानक होय तेवू कोई चिह्न नजरे पडतुं नथी. वळी यशोविजयजीनी भूमि होय तो एक गोख होय, तेने बदले त्रण गोख-ते पण साव जोडिया - केम ? ते पण तपासनो विषय गणाय.
२. आ जग्या, स्मशानभूमि नथी, ते स्वयंस्पष्ट छे. आनी सामे, यशोवाटिकानी जग्या स्पष्टपणे स्मशानस्थान छे. अने तत्कालीन प्रणालिका तो, विविध उदाहरणोना आधारे, एवी छे के साधु-संतोना पण अंतिम संस्कार तो स्मशान भूमिकामां के तेनी आसपासमां राजाए के समाजे फाळवेल खास जग्यामां ज थता; पण तेथी दूर स्वतंत्र कोई जग्यामां न थता. ऊना (शाहबाग)नी हीरविजयसूरिजी आदिनी समाधि आ प्रणालिकानुं श्रेष्ठ उदाहरण छे.
३. जूना जाणकारोने पूछतां जाणवा मळे छे तेम, वर्तमानमां यशोवाटिकामां ज्यां पादुका अने थूभ छे, ते पहेला बीजे हतां, अने काळांतरे, आ स्थाने लाव्या एवी कोई ज जाणकारी कोईने नथी. घरडाओना वखतथी आ ज स्थाने पादुका छे, तेम ज सहु जुए छे-कहे छे.
४. जो वास्तवमां बावळवाला खेतरमां ज अंतिम समाधि होत, तो थूभ-पादुका त्यां न बनावतां अहीं (यशोवाटिकामां) बनाववा माटे, के त्यां
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[104] बनावेल थूभने काळांतरे अहीं, लई आववा माटे, सामाजिक, राजकीय, धार्मिक के वहीवटी कोई जात, कारण देखातुं पण नथी.
५. जो आपणा अंत:करणनां स्पंदनोने श्रद्धेय प्रमाण गणीए तो यशोवाटिकाना थूभनी समक्ष बेसतां श्रद्धालु जनने जे अणदीठ स्पंदनोनी अनुभूति अने तज्जनित संतृप्ति थाय छे. ते पेली खंडेर इमारत सामे ऊभा रहेवाथी लेश पण थती नथी.
आ बधा तर्कोनो सार एटलो छे के श्री यशोवाटिका ए ज उपाध्याय श्री यशोविजयजीनी अंतिम भूमि छे, अने खेतरनी खंडेरनी खंडेरवाळी धरती तेमनी अंतिम भूमि होवानी वायका ते अश्रद्धेय वायकामात्र ज लागे छे.
श्री हेमचन्द्राचार्यनी शिष्य परंपरा विशे
श्री भोगीलाल सांडेसराए "श्री हेमचन्द्राचार्य अने तेमनुं शिष्यमंडळ' विशे निबन्ध लखेल छे. पण तेमां तेमणे श्री हेमचन्द्राचार्यना प्रत्यक्ष शिष्यमण्डळनी ज जिकर करी छे. संवत १२९८मां हेमचन्द्राचार्यनी परंपरामां मेरुप्रभसूरि हता तेनुं प्रमाण शत्रुजय परना एक शिलालेखनी नकल स्वरूप हस्तप्रतोमा उपलब्ध छे. परंतु, ताजेतरमा एक प्रमाण एवं मळ्युं छे के जेना आधारे संवत १४९६मां पण तेमनी शिष्य परंपरा विद्यमान होय, एम कही शकाय. खंभातमां एक देरासरनो जीर्णोद्धार थतां तेनी दिवालमांथी मळी आवेली एक धातुप्रतिमा उपरना लेखमां कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरि पट्टे राजगुरुश्री हरिप्रभसूरि नाम वांचवा मळे छे. ते समग्र लेख आ प्रमाणे छे :
"संवत् १४९६ वर्षे शाके १३६२ प्रवर्तमाने वै.सु. ५ गुरौ मृगशीरनक्षत्रे सौम्ययोगे श्री सूर्योदयात् दिवा प्रथमप्रहर छायापद ८ छाया लग्ने वहमाने शुभे अद्येह श्रीस्तंभतीर्थे श्रीकुमररायविहारे श्रीभूमिगृहे श्री शत्रुजयावतारे श्रीयुगादिदेवरंगमण्डपे पूर्वज कारित श्री महावीरदेवमूर्ति श्री राजगच्छे कलिकालसर्वज्ञ प्रभु श्री हेमचन्द्रसूरिपट्टे श्री राजगुरु श्री हरिप्रभसूरि... (पछीना अक्षरो उकलता नथी). उपरनो लेख जोतां संवत १४९६मां जेम हेमचन्द्राचार्यनी शिष्यपरंपरा प्रवर्तमान होवानुं फलित थाय छे तेम ते समयमां खंभातमां कुमार विहार नामक राजा कुमारपाळे करावेल जिनचैत्य पण विद्यमान होवानुं निश्चित थाय छे.
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[105]
अजारा तीर्थना चैत्यनी प्राचीनता सौराष्ट्रमां ऊना शहेर नजीक अजारा नामे तीर्थ जैनोमां खूब प्रसिद्ध छे. जैन पुराणो अनुसार तेनो सम्बन्ध रामायणना राजा दशरथना पिता राजा अजयपाल साथे छे. आ तीर्थमां १४मा सैकामां देरासर हतुं अने ते वखते आ क्षेत्र अजागृह तरीके ओळखातुं हतुं, तेवू वर्णन आपतुं एक प्रमाण ताजेतरमा प्राप्त थयेल छे. आ प्रमाण एटले अजाराना देरासरना परिसरमां खोदकाम करतां मळी आवेल पाषाण प्रतिमा उपरनो लेख. ते लेख आ प्रमाणे छे :
"सं. १३३३ वैशाख सुदि ३ शुक्रे प्रागवाट ज्ञातीय ठ.भीमसीह भार्यया ठ. वयजलदेव्या अजागृहे श्री पार्श्वनाथचैत्ये बिम्बमिदं कारितम् । प्रतिष्ठितं श्रीभा(व)देव सूरिभिः ।।" 'अजारा' नामनो संबंध, लोकोक्ति अनुसार अजयहरअजाहर-अजार एम प्रसिद्ध छ; अजयपालना रोगना निवारण साथे आ संबंध छे. परंतु उपरोक्त लेखमां अजारानो संस्कृत पर्याय 'अजागृह' आप्यो छे, ते जोतां अजागृह-अजाघर-अजाहर-अजार-एम गोठवणी वधु प्रतीतिकर लागे छे.
-शी.
१. अनुसन्धान-६ मां "मुनि प्रेमविजयजीनी टीप" (पृ. ७१-७५) प्रगट थयेल छे. तेमां कुल ४५ बोल छे, तेमां एक -छत्रीसमो -बोल छापवो रही गयो छे, ते आ प्रमाणे छे :
"जावजीव पाडिहारू वस्त्र अथवा कांबलो-कांबली वावरवा पचखाण; अनइ कारणइं पणि वावरवा पचखाण - ए बोल पांत्रीसमो ३५
माहरी निश्रा ग्रहस्त पासइ लिखावा पचखाण । ए छत्रीसमो बोल ३६ ।।
२. आ ज मुनि प्रेमविजयजीनो एक दस्तावेजी शिलालेख ताजेतरमां शत्रुजय तीर्थ-पर्वत (पालीताणा) उपर श्री आदीश्वर प्रभूनी ढूंकमां पुंडरीक गणधर नी जमणे आवेल चौमुखजीना देरासरना बहारना थांभला उपर वांचवा मल्यो, तेनी विगतो आ टीपना संदर्भमां नोंधपात्र जणाय छे. ते लेखनो पाठ आ प्रमाणे छे :
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[106] संवत १६४८ वर्षे चैत्र सुदि १५ दनि वार सोमे तपगच्छतलक समान भट्टारक श्रीहीरविजयसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः ॥ तत्पट्टप्रभाकर आचार्ज श्री विजयसेनसूरिस्वरगुरभ्यो नमः । तत्गच्छे महोपाध्याय श्री विमलहर्षगुरुभ्यो नमः । तत्शिष्य मुनि प्रेमविजयजी जात्रा ४१४ कीधी परदक्षणा ४ दीधी डुंगरपाखतीउ दरीकिनि १० जात्रा कीधी पंडित श्री पूज्य हर्षगण श्रीरत्नहर्षनो भाई मुनि प्रेमविजयजी जात्रा..... कल्याणमस्तु सुभं.....॥
उपरना लेखथी फलित थाय छे के - १. प्रेमविजयजी ते वाचक विमलहर्षना शिष्य हता; २. तेमना भाईए दीक्षा लीधेली, तेमनुं नाम 'रत्नहर्ष' हतुं; ३. सं. १६४८मां ते विद्यमान हता अने यात्रा करी शके तेवा सशक्त पण होवा जोईए. तेओनुं जीवन आत्मसाधनालक्षी तेमज आराधनापरायण हतुं ते तो आ लेख तेमज टीप उपरथी स्पष्ट थाय छे ज.
'उवहाण-पइट्ठा- पंचासग' प्रकरण (अनुसन्धान- ४, पृ. ३४-३८) ना कर्ता विशे थोडो ऊहापोह कर्यो ( अनुसं. ५. पृ. ५२-५३ तथा अनुसं. ६, पृ. ११६) ते विशे विशेष मन्थन करतां लागे छे के मुनिमित्र धुरंधरविजयजीनो विचार वधु साचो छे.
___ खंभातना ताडपत्र-भंडारनुं वर्णनात्मक सूचिपत्र मुनि पुण्यविजयजीए प्रगट कर्यु छे, तेना आधारे जोईए तो, खंभातनी ताडपत्रीय वाचनाना अंते "उवहाणपंचासयं सम्मत्तं ॥ श्रीमदभयदेवसूरे: कृतिरियम् || 'आ प्रमाणे स्पष्ट उल्लेख छे. आ उल्लेखने नजरअंदाज करीने चालीए छीए ते केटलुं उचित ? सौ प्रथम तो पुण्यविजयजी महाराजे ज ते सूचिपत्रमा प्रति-कृतिनुं वर्णन करतां कर्तानी कोलम भरतां "Author : Abhayadevasuri (?)" आ प्रमाणे नोंध करी छे; जेनाथी समजी शकाय छे के श्रीपुण्यविजयजी पण 'पंचाशक' अने कृतिगत 'विरह' ए बे शब्दो जोईने आ रचना हरिभद्रसूरिनी ज होई शके, अने ताडपत्रमा लखायेल 'अभयदेवसूरि' नुं नाम तो लेखकदोष होवो जोईए, एम ज मानता हता; अन्यथा, "(?)" आवो प्रश्नार्थ न मूक्यो होत.
आ कृतिना संपादके (पं.प्रद्युम्नविजयजी) पण जे बे प्रतिओना आधारे
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[107]
संपादन कर्यु, तेना अंतनी पुष्पिकाओ पादटीपमां पण आपी नथी. जे आपवी संपादननी दृष्टिए आवश्यक गणाय.
. खरेखर तो, पोताना समयमां अन्य गच्छोए, उपधान अने प्रतिष्ठाना मुद्दे विरोधनो अभिगम अपनाव्यो हतो, तेना जवाबमां श्री अभयदेव सूरि महाराजे आ पंचाशक रच्यु होवानी धारणामां विशेष औचित्य जणाय छे. हरिभद्राचार्यनी भाषा तथा शैली करतां आ पंचाशकनी भाषा शैली जुदां पडे छे ते तो खरुंज; परंतु 'भवविरह' शब्द न प्रयोजीने मात्र 'विरह' शब्दनो प्रयोग करतां तेमणे बहु ज मार्मिक रीते आ कृतिनुं कर्तृत्व हरिभद्रसूरिनुं न होवानुं व्यक्त करी दीधुं छे.
बाकी, शीख वगेरे संप्रदायोमा जेम कोई पण गादीपतिनी रचना आद्य गुरुनी रचना ज गणाय छे, तेम आ दाखलामां पण, रचना पोतानी छतां तेने हरिभद्राचार्यनी रचनानी जेम ज रजू करी होय तो ते अभयदेवसूरिजीनी लघुता अथवा नम्रनातानो ज दाखलो गणाय.
मुनि प्रेमविजयजीनी टीपना गुजराती शब्दो
___ - मुनि भुवनचन्द्र अनुसंधान-६मां छपायेली 'मुनि प्रेम विजयजीनी टीप'मां घणा शब्दो एवा छे के जे श्री जयंत कोठारीना 'मध्यकालीन गुजराती शब्दकोश'मां नोंधाया नथी। आमांना मोटा भागना शब्दो जैन परंपरामां आजे पण प्रचलित होय एवा छे; बीजा एवा पण शब्दो छे जे आजनी गुजरातीमां होय, किन्तु मध्यकालीन गुजरातीमां कंइक जुदा स्वरूपे व्यवहारमा हता एवं सूचित करे छे । आवां रूपो शब्दोनां मूळ शोधवामां सहायक बनी शके ।
प्रस्तुत सूचिमां, शब्दनी पछी अत्यारे प्रचलित रूप आप्युं छे । ते पछी तेनो अर्थ अने कौंसमां संस्कृत के देश्य मूळ आपेल छे । आ शब्दोनी विचारणामां पू. आचार्य श्री वि. प्रद्युम्नसूरिजीए रसपूर्वक भाग लीधो छे तेनी नोंध लेतां आनंद थाय छे ।
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कलपडो : संथारियुं : चोलपट्ट :
पडला :
गांठसी :
रताणांछ : मोटो :
सालणउं:
[108] . कपडो, जैन साधुने पहेरवानुं ऊपरनुं वस्त्र; (सं. कल्प) । सूवामां उपयोगी ऊन, जाडु आसन; (सं. संस्थारक) । चोलपटो, जैन साधुनुं अधोवस्त्र; (सं. चोल = वस्त्र, पट्ट = पाटो) । पल्लां, पात्र पर ढांकवाना कपडांना कटका; (सं. पटल) । गु. पडक साथेनुं साम्य नोंधो । जैनोमां प्रचलित रोजना आहार अंगेनो एक नियम; (सं. ग्रन्थि + सहित, प्रा. गंठिसहिय) । पात्रने वींटवाना वस्त्र; (सं. रजस्त्राण) । टोपरानो सूको आखो गोळो । शाक । म.गु. कोश आ शब्दनो 'अथाj, कचुंबर' एवो अर्थ नोंधे छे । 'सालणउ' एवो पुल्लिंग शब्द, पण त्यां छे परंतु तेनो अर्थ त्यां निश्चित थइ शक्यो नथी । । प्रस्तुत टीपमा 'धाननुं सूकउं सालणउं' तथा 'समस्त नीलवण अनइ समस्त सूकवण, ए समस्त सारं सालणउं' एवो संदर्भ जोतां 'शाक' अर्थ सूचित थाय छे । 'धान- सूकउं सालणउं' ए कठोळनु शाक समजी शकाय छे, सूका धान्यनुं अथाणुं होतुं नथी । टीपमा आठमा बोलमा 'दिन प्रतिइं सालणां त्रिणि कलपई' एवं कहेवायुं छे । नीलवण के सूकवणनो तो त्याग छे एटले अथाणुं के कचुंबर अभिप्रेत नथी । श्री पार्श्वचन्द्रसूरि रचित 'वीरनिर्वाण कल्याणक स्तवन'मांनो उल्लेख पण सूचक छे -- 'आले नीले सालणे, जिनधर्म हेला थाय' । सालणउं एटले लीलां के सूकां वघारेलां शाक एवो निष्कर्ष काढी शकाय ।
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उधायं : ?
गकार :
पाठं :
वागण :
उतरपटणउ :
वीसामण :
अखोडा -पखोडा :
सीकी :
काणदोर :
उघ :
ठाबडउ :
डंडासां
मात्रा
[109]
जैन साधुओए प्रयोजेलुं कोइ वस्तुनुं सांकेतिक नाम जणाय छे । आद्याक्षर परथी संकेतनाम योजातां होय छे। एम होय तो आ गोळ (सं. गुड) होई शके ।
ऊननां जाडा वस्त्रनो टूकडो, जे जैन साधुना रजोहरणनी हांडी पर वींटाय छे ।
वींटवानुं वस्त्र, रूमाल ।
उतरपटो, पथारी पर पाथरवानुं वस्त्र, ओछाड; (सं. उत्तरपट्ट)
सेवा, पगचंपी; (सं. विश्रामणा ।
शरीरनां पडखां, पासां; (दे. अक्खोडा, पक्खोडा) । गुजरातीना 'अडखे पडखे' शब्दनुं मूळ आमां देखाय छे.) ।
झोळी; (दे. सिक्का) । सरवावो
-
गु. 'सीकुं'
कंदोरो; 'काण'नुं मूळ गवेषणीय छे ।
ओघारियुं, जैन साधुना रजोहरणने वींटवानुं ऊननुं वस्त्र; (सं. अवग्रहावारक) ।
ठाम, ठामडुं, माटीनां वासण |
लांबी लाकडीना छेडे ऊनना दोरा बांधीने बतावेलुं जैन साधुनुं एक उपकरण;
टीपमां आ शब्द बे जग्याए आवे छे : “पोतानी मात्राना " ( बोल १०) तथा "माहरी मात्रानुं" (बोल ३४) । संदर्भ जोतां 'आवश्यकता', 'खप' अर्थ सूचित थाय छे । (सं.
मात्रा) ।
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हेमचन्द्राचार्यनी काव्य-व्युत्पत्ति-सूचक एक वधु उदाहरण
ह. भायाणी 'छन्दोनुशास'ना सातमा अध्यायमां अपभ्रंश छंद सिंहपद- हेमचंद्राचार्ये जे स्वरचित उदाहरण आपेलुं छे, तेमां कालिदासकृतं 'रघुवंश'ना सोळमा सर्गना पंदरमा पद्यनो प्रतिशब्द होवा बाबत में ध्यान खेंच्युं छे (जुओ, 'अनुसंधान-१', १९९३, पृ. ८; तथा 'छन्दोनुशासन'नो अनुवाद, १९९६, पृ. १५१-१५२). त्यां में कह्यु हतुं के 'सिंहपय' नाम गूंथाय ते रीतनुं उदाहरणपद्य रचवा माटे हेमचंद्राचार्यने 'रघुवंश'ना उपर्युक्त पद्यनुं अवलंबन लेवा माटे संस्मरण थयुं, जेने तेमना 'रघुवंश'ना अनुशीलननु, काव्यरसना भावकत्वनुं अने तीक्ष्ण स्मृतिनुं सूचक गणी शकीए.
आ वातनुं समर्थन करतुं एक बीजुं उदाहरण हमणां मारा लक्षमां आव्यु.
"देशीनाममाला' ना छठ्ठा वर्गना ११०मा सूत्रमां नीचेना देश्य शब्दो अर्थ साथे नोंध्या छ :
मंतेल्ल, मयणसलाया = सारिका; मल्हण = लीला; मंधाओ, महायत्तो
= आढ्य; महेडो = पंक.
आ शब्दोने गूंथी लईने हेमचंद्रे रचेली उदाहरण-गाथा अने तेनो अर्थ (बेचरदास दोशीना अनुवाद अनुसार) नीचे प्रमाणे छ :
एतम्मि महायत्ते मल्हंती णव-महेड्डरुह-णयणा ।। पाढइ मंधाय-वहू मयणसलायापिएत्थ मंतेल्ली ।।
'जेने सारिका-मेना प्रिय छे एवो ए धनसंपन्न प्रिय ज्यारे आवे छे त्यारे महालती-लीला करती, तथा ताजा कमळनी जेवां नयनोवाळी ए धनाढ्यनी वह अहीं सारिकाने-मेनाने पढावे छे.'
आपणने तरत ज कालिदासना 'मेघदूत'ना जाणीता पद्य (सुशीलकुमार देना संपादन प्रमाणे क्रमांक (८२)ना उत्तरार्धनुं स्मरण थशे :
पृच्छंती वा मधुरवचनां सारिकां पंजरस्थां कच्चिद् भर्तुः स्मरसि रसिके त्वं हि तस्य प्रियेति ॥
सारिका वाचक शब्दनो समावेश करतुं उदाहरण रचतां हेमचंद्राचार्यनी स्मृतिमां आ 'मेघदूत'नो संदर्भ जाग्रत थाय छे तेथी तथा शरूमां निर्दिष्ट उदाहरणथी तेमनी कालिदासप्रीति प्रगट थती होवा- आपणे जरूर मानी शकीए ।
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[111]
'प्रबन्धचिन्तामणि' गत एक अनुप्रासनी युक्तिवाळु पद्य
ह. भायाणी मेरुतुंगना 'प्रबंधचिंतामणि' मां परमारराजा भोजने लगती दंतकथाओमां एक वार शियाळामां रत्रिचर्या निमित्ते नगरमां नीकळेला राजाए एक देवळनी पासे कोई दरिद्र माणसने ठंडीथी रक्षण मेळववा तेनी पाशे कशुं साधन न होवाथी पोतानुं दुःख एक पद्यमां वर्णवतो सांभळ्यो. पछी रात पूरी थतां राजाए एने सवारे बोलावीने पूछ्य के तुं रात्रे ठंडीथी थतुं दुःख व्यक्त करतो हतो, तो तुं शियाळानी टाढ कई रीते सहे छे.
पेलाए जे कर्तुं ते पद्य एक हस्तप्रतमां नीचे प्रमाणे छे : शीतत्रान पटी, न चाग्निशकटी, भूमौ च घृष्टा कटी निर्वाता न कुटी, न तंदुल-पुटी. तुष्टिर् न चैका घटी ! वृत्तिर् नारभटी, प्रिया न गुमटी, तन् नाथ मे संकटी.
श्रीमद भोज ! तव प्रसादकरटी भक्तां ममापत्तटीम् ॥ "शियाळामां पोतानी दुर्दशा वर्णवतो दीनदरिद्र कहे छे :
'मारी पासे ठंडीथी रक्षण आपनारी गोदडी नथी नथी सगडी; नथी पवनने पेसवा न दे तेवी बंध मढुली; नथी सुभटवृत्ति, नथी जुवान, गोरी पत्नी; नथी चावळनी चपटी. घडीएक पण शांति मळती नथी. मारे भारे संकट छे. भोंय पर पीठ घसतां हुं रात गाळु छु. तो हे महाराज भोज, तारी कृपानो गजराज मारी आपत्तिरूपी भेखडने तोडी पाडो.'
आम अगियार 'टी'कार वाळा पद्यतुं पठन सांभळीने भोजराजे तेने अगियार लाख दानमा आप्या.
संभव छे के 'प्रबंध चिंतामणि'मां मळता आ मुक्तक माटे 'हनुमनाटक' नुं नीचे आपेलुं पद्य (३.२२) प्रेरक बन्युं होय. हतोत्साह अमने प्रसन्न करवा रामलक्ष्मणे दंडकारण्यमां रमणीय पर्णकुटी बनावी. तेनुं आ लक्ष्मणे करेलुं वर्णन
एषा पंचवटी रघूत्तम-कुटी यत्रास्ति पंचावटी पांथस्यैक-घटी पुरस्कृत-तटी संश्लेष-भित्तौ वटी ।
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[112] गोदा यत्र नटी तरंगित-तटी कल्लोल-चंचत्-पुटी दिव्यामोद-कुटी भवाब्धि-शकटी भूत-क्रिया-दुष्कुटी ॥ आमां बार टीकारान्त शब्दोनो प्रयोग करेलो छे..
ए पछीनु रामनी स्तुतिरूप ११ टकारान्त शब्दो वाळु पद्य (३.२३) नीचे प्रमाणे छे:
क्रीडा-कल्प-वटं विसर्पित-जटं विश्वांवुजन्मावटं पिष्टांडौघ-घटं धृतांघ्रि-शकटं ध्वस्त-क्षमा-संकटम् । विद्युच्चारु रुधा विधूत-कपटं सीताधरा-लंपटं भिन्नारीभ-घटं विरुग्ण-शकटं वंदे गिरां दुर्घटम् ॥
'सिद्धहेम'ना एक अपभ्रंश दोहा- अर्वाचीन रूपांतर
ह. भायाणी हेमचंद्राचार्ये तेमना व्याकरणना अपभ्रंश विभागमा उदाहरण रूपे, तेमने उपलब्ध साहित्यमांथी जे दोहा आप्या छे, तेमांथी केटलाक वधतेओछे रूपांतरे उत्तरकालीन जूनी गुजराती-राजस्थानी साहित्यमां तथा मौखिक परंपराना चारणी साहित्यमा प्रचलित होवानुं जाणीतुं छे ।
मारा सिद्धहेम'ना अपभ्रंश विभागना अनुवादमां में एमांथी केटलांक नोंध्या छे.
अहीं तेवा ज एक रसप्रद उदाहरण प्रत्ये हुं ध्यान खेचं छु । सूत्र ४३० नीचे आपेलुं त्रीजुं उदाहरण अने तेनो अनुवाद नीचे प्रमाणे छे.
सामी-पसाउ स-लज्जु पिउ, सीमा-रुधिटि वासु ।
पेक्खिवि बाहु-बलुलडा, धण मेलइ नीसासु ॥ 'मालिकनी कृपा, शरमाळ प्रियतम, सीमाडा भेगा थाय त्यां वसवाट अने प्रियतमनुं बाहुबल ए जोईने प्रिया नि:श्वास मूके छे.'
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[113] तात्पर्य एवं छे के उक्त परिस्थितिमां गमे त्यारे पतिने युद्ध करवा जर्बु पडे अने युद्धमां ते खपी जाय.
तख्तदान रोहडिया संपादित 'दुहो दशमो वेद' ए परंपरागत तेम ज वर्तमानमां रचायेल दुहाओना संग्रहमां क्रमांक ३२ तरीके आपेलो नीचेनो दुहो उपर्युक्त दोहा साथे सरखाववा जेवो छ :
अरि नेडा पियु बंकडो, सायधण हे कुळ-शुद्ध ।
हालो नणदी हेळवा, (हवे ) अजैया कुंवर दूध ।।
अर्थ : शत्रु निकटमां छे, पियु बंको-पराक्रमी छे । अने हुं तेनी प्रिया शुद्ध कुळनी छु । हे नणंद, चालो आपणे कुंवरने बकरीना दूधथी हेळवीए'।
__ तात्पर्य एवं छे के पति रणमां खपी जशे. पोते ऊंचा कुळनी होवाथी पाछळ सती थशे । एटले पछी बाळ कुंवरने बकरीनुं दूध पाईने उछेरवो पडशे । तो तेने अत्यारथी ज एनो हेवायो करी दईए, जेथी पाछळथी तेने ए अरुचिकर न लागे ।
जूना दोहामा नायिकानो डर व्यक्त थयो छे, तेने, बदले अहीं ए भावी निश्चित होवानुं अने एवी परिस्थिति पहोंची वळवा अत्यारथी तैयारी करवानुं नायिकाना वचनो व्यक्त करे छे । आ अर्वाचीन रूपान्तरमा जे उद्दीपन-विभाव कविए योज्यो छे, ते वास्तविक परिस्थितिने तादृश करीने नायकनी वीरता ऊंडा मर्मथी ध्वनित करे छ ।
बीजां पण बे दोहानां रूपांतर ए ज पुस्तकमांथी नीचे आपुं छु : (१) पाइ विलग्गी ऊंगडी, सिरु ल्हसिउ खंधरसु ।
तो-वि कटाइ हत्थउउ, बलि किज्जउं कंतस्सु (४४५, ३) आंतरडु पगे वळग्युं छे, शिर स्कंध पर ढळी पड्युं छे, पण तो ये हाथ कटारी उपर ज छे : आवा कंथ पर हुं बलिदान रूपे अपाउं छु (= वारी जाउं छु' ।)
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[114]
आनुं प्राकृत रूपांतर में 'वज्जालग्ग'मांथी मारा 'सिद्धहेम'ना अपभ्रंश विभागना अनुवादमां में नोंध्युं छे. (पृ. १८३) (२) अम्मि पयोधर वज्जमा, निच्चु जे संमुक थंति ।
महु कंतहो समरंगणइ, गय-घड भज्जिउ जंति । (३९५, ५) आ साथे सरखावो नीचेना दुहानो उत्तरार्ध :
ले ठाकर वित आपणा, देतो रजपूतांह । धड धरती पग पागडे, आंतर गीधडीआंह ॥
('दुहो दशमो वेद', क्रमांक ३६६) 'माडी मारा स्तन वज्र जेवा छे, कारण के ते सदैव मारा कान्तनी सन्मुख रहे छे, ज्यारे समरांगणमां गजघटाओ पण मारा कान्त पासेथी हारीने भागी जाय छे ?
आ साथे सरखावो :
शैल धमका क्यों सह्या, क्यों सहिआ गज-दंत । कठण पयोधर झुंचतां, तुं कणकणियो' तो कंथ ।
(उक्त पुस्तक, क्रमांक २११)
'शत्रुजयमंडन-ऋषभदेव-स्तुति' : थोडी पूर्ति ।
जयंत कोठारी मुनि भुवनचंद्रजी संपादित आ कृति 'अनुसंधान-५'मां (पृ.४०-४३) मुद्रित थयेली छे. त्यां एना कर्ता विजयदानसूरि शिष्य 'वासणा' (वासण ?) साधु जणावेल छे अने 'जैन गूर्जर कविओ' तथा 'गुजराती साहित्यकारो (मध्यकाल)'नो हवालो आपवामां आव्यो छे.
'अनुसंधान-६'मां मुनि भुवनचन्द्रजी आ कृतिनी अन्य बे हस्तप्रतोनी माहिती आपे छे अने संस्कृत टीकावाळी प्रतमां आरंभे स्पष्ट रीते विजयतिलक
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[115] उपाध्याय, कर्ता तरीके नाम छे तेथी "जैन गूर्जर कविओ" अने गुजराती साहित्यकोश'नी माहिती परिमार्जननो विषय बने छ एम योग्य रीते ज कहे छे.
परंतु आ अंगे थोडी स्पष्टता अने पूर्तिने अवकाश छे :
(१) 'जैन गूर्जर कविओ' (बीजी आवृत्ति) भा.१, पृ. ३६३ पर आ कृति 'आदिनाथ स्तवन' ए नामथी वासणने नामे मुकायेली छे परंतु भा. ७ पृ. ८०४ पर आनी शुद्धि आपवामां आवी छे अने कर्ता विजयतिलक होवानुं जणावायुं छे.
(२) 'जैन गूर्जर कविओ' भा. १ पृ. ४६८ पर 'आदिनाथ स्तवन' विजयतिलक उपाध्यायने नामे मळे ज छे. त्यां पुशियन स्टेट लाइब्रेरीनी त्रण प्रत नोंधायेली छे जेमांनी बे संस्कृत अवसूरि साथे छे अने एक गुजराती बालावबोध साथे. संस्कृत अवसूरि विजयतिलक उपाध्याय कर्ता तरीके स्पष्ट रीते नाम आपे छे. (उपर निर्दिष्ट शुद्धिनो आधार आ माहिती ज छे.)
(३) उपरांत, आ कृतिनी घणी हस्तप्रतो - विजयतिलकने नामे ज - ला.द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावाद तथा हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर, पाटणमां प्राप्य होवानी पण त्यां ज नोंध छे.
कृतिनी आटलीबधी हस्तप्रतो होवी ने एना पर संस्कृतमा टीका ने गुजरातीमां बालावबोध रचावा ते बतावे छे के कृतिनुं संप्रदायमां विशिष्ट ने महत्वनुं स्थान हतुं. आ बधां साधनोनो उपयोग करीने संस्कृत टीका अने गुजराती बालावबोध साथे कृतिनुं संपादन करवा, अने एनी साथे पोतानो अभ्यास जोडवा, कोई विचारे तो ए श्रम सार्थक हशे एम लागे छे. भाषादृष्टिए पण केटलीक मूल्यवान सामग्री एमांथी सांपडशे...
(४) 'गुजराती साहित्यकोश (मध्यकाल)'मां वासणने नामे आ कृति छे ते उपरांत 'विजयतिलक उपाध्याय'ने नामे पण आ कृति छे ! (पृ. ४०१) . आनो आधार, अलबत्त, प्रशियन स्टेट लायब्रेरीनी प्रतो ज. २१ मे १९९६
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हरिभद्रसूरिकृत 'चंदप्पहचरिय 'नी एक दृष्टांतकथा
सलोनी जोषी
अनुसंधान-५ (पृ. ६८)- 'केटलाक कथाघटको' अंतर्गत (१) 'परपुरुषनो संग निवारवा स्त्रीने पेटमां संताडी राखवी' - मां उदयकलश कृत 'शीलवती चोपाइ'मां मळती कथाना जेवी ज एक कथा आचार्य हरिभद्रसूरि कृत 'चंदप्पहचरिय' ले. सं. १२२३) मां मळे छे. ( गाथा १५३७ - १७१६). कृति संक्षिप्तमां ते कथा आ प्रमाणे छे ।
हजी अप्रकाशित छे में तेनुं संपादन- कार्य हाथ पर लीधुं छे.
उजेणी नगरीमां गिरिविक्रमसार राजानो धूर्तचूडामणि एवो मूळदेव नामनो मित्र हतो. स्त्रीओना शील विषये साशंक होवा छतां राजाना आग्रहथी ते जच्चंधा (जन्मांध कन्या) ने परण्यो । मूळदेवनी उत्कट प्रार्थना अने भक्तिथी प्रसन्न थईने पादरदेवताए जच्चंधाने चक्षु आप्यां । एकवार पोतानी दासी पासेथी दत्तश्रेष्ठिना रूप- गुणनी प्रशंसा सांभळी जच्चधा दत्तमां अनुरक्त बनी । दासीनी सहायथी तेणे दत्तनो संग कर्यो ।
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जच्चंधाना अंगोपांगनुं निरीक्षण करतां विचक्षण मूलदेवने तेना पर-पुरुष -संगनो ख्याल आवी गयो । 'आवुं मारे त्यांज बन्युं के अन्यत्र पण बने छे तेनी तपास करी योग्य निर्णय लइश' आम विचारतो खिन्न थयेलो ते राजकुळमां जवा नीकळ्यो । रस्तामां तेणे शृंगार करीने जतां मिंठ (महावत) ने जोयो । कुतूहलवशात् तेनो पीछो कर्यो । जोयुं तो राजानी पटराणी तेने मळवा आवती हती । मोडा आववा बदल ते मिंठ राणीने हाथीना दोरडाथी मारतो हतो छतां य विनवणी करीने तेने मनावी लइने राणीए ते मिठ साथे भोगोपभोग कर्यो । आ जोइ आश्चर्य अनुभवतो मूळदेव घेर पाछो फर्यो ।
बीजा दिवसे राजमार्ग पर जता महाव्रतीने जोइने मूळदेव कुतूहलथी तेनी पाछळ गयो । मठमां प्रवेशीने ते व्रतीए पोतानां उपकरणो एक बाजु मूक्यां । पछी जमीन पर यंत्र आलेखी मंत्रोच्चार कर्यो । वक्षस्थळमांथी अंगुष्ठप्रमाण युवतीने बहार काढीने तेना पर मंत्रीत जळनो छंटकाव करता ते सुंदर युवती बनी
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गइ । तेनी साथे भोग भोगवी ने ते महाव्रती कोइक कामसर बहार गयो । तरत जते युवती पोताना हृदयमांथी अंगुष्ठप्रमाण युवकने बहार काढी, मंत्रित जळनो अभिषेक करी तेने सुंदर युवक बनाव्यो । तेनी साथे यथेच्छ भोग भोगवी, व्रतीने आववानो समय थयो जाणीने फरी ते युवकने नानो बनावी, वक्षस्थळमां संताडी दीधो । महाव्रतीए आवीने ते युवतीने अंगुष्ठ प्रमाण बनावीने पोताना वक्षस्थळमां छुपावी दीधी । आ जोइने अत्यंत आश्चर्य अनुभवतो मूलदेव राजा पासे गयो अने तेमने बीजा दिवसे पोताना घेर भोजन माटे आमंत्रण आप्युं । पेला महाव्रती पासे जइ ते पण पारणुं करवा माटे आमंत्रण आप्युं ।
बीजा दिवसे भोजन समये राजा पधार्यो त्यारे मूळदेवे कह्युं - प्रियपात्रना साथ वगर स्वादिष्ट भोजनथी पण तृप्ति थती नथी । आप आपनी प्रिय राणीने बोलावो । पटराणीने बोलाववामां आवी । तेने पण आज वात कही तेनी पासे मिंठने बोलावडाव्यो । पछी पेला महाव्रतीने कह्युं आप पण आपनी प्रियाने वक्षस्थळमांथी बहार काढो । विस्मित थतां महाव्रतीए मंत्रप्रयोगथी युवतीने उपस्थित करी । ते युवतीने पण पोताना प्रियतमने बोलाववा कह्युं । महाव्रतीने आश्चर्य थयुं । ते युवतीए पण मंत्रित जळ छांटीने प्रियतमने उपस्थित कर्यो । पछी जच्चंधानो वारो आव्यो । तेनी पासे पण मूलदेवे दत्तने बोलावडाव्यो ।
I
आ सघळं जोइने राजा आश्चर्य पाम्या । मूलदेवे साची विगतो जणावी . त्यारे क्रोधित थइ तेमणे सर्वने दंड आप्यो ।
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Pk. ālia- 'tied'
H. C. Bhayani 1. THI737 occurs in the expression - 9117341 in Setubandha 9, 85, meaning ‘tyed to one post', with reference to clephants. The context is that of the description of the Suvela mountain. In the mountain forests all the seasons are said to be present simultaneously like several elcphants tied at the same post. The commentators have rendered Pk. ālia variously as ānita, ālānita, ālīna or niyamita as noted by Handiqui (Notes, p. 12). There is also a textual variant ņialiā= nigadita. Goldschmidt has tentatively corrected as khambhallia which is recorded in PSM on that basis.
2. Handiqui's observation that ālia is a Deśya word is in the right direction. He has drawn attention to two Apabhramśa passages from Svayambhu's Paumacariya wherein the form aliyau occurs with reference to the tying post of an elephant : 371511M- f 31f743, em-forefale furfest43 I (19, 14, 3)
(The elephant) which was tied to the tying post and was fettered with chains.'
31167147-017 at 15 I (79, 12, 6) '(The elephant) with his trunk was tied to the tying post.'
In the glossary to the Paumacariyu, Part 1, I have connected, now I think wrongly, 371147374 with Sk. 371 + mit and translated it as 'Crouched'. But in the glossary to Part 3, I have translated 37143 correctly as 'tied' and has referred, now I think wrongly, to PSM which has derived आलइय from Sk. आलगित and आलाणिय fron] आलानित.
In Sk. 34767197 is a later form of 371G17 'tying, binding' (from the root dā- 'to bind'). A past passive participle 3411cT would give 3717474 in Prakrit. Semantically it is unsatisfactory to connect it with Sk. आ + ली, and phonetically so to connect it with आ + लग्. Besides there is the expression chico occurring in the Jain Canonical text
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Paṇhāvāgaraņāim (1, 3 according to PSM), for which although PSM has given FEHICE as the source word, the change cannot be accounted for phonetically. 3476707 is clearly an action noun from a root आल्-, आलिय being its past passive participle. आल्- 'to tie' was possibly formed on the basis of आलाण (< आदान, deriving from आ + G). References : Setubandha, Translated by K. K. Ilandiqui (Prakrit Text Series, No.
xx, 1976). Paumacariya edited by H. C. Bhayani (Singhi Jain Series, no. 34.
Part 1, 1953; no. 36. Part 3, 1960). Pāiasaddamahanņavo (PSM). 1963.
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[120] चर्चापत्र
- मधुसूदन ढांकी १) अनुसंधान : अंक ६मां आगळनां अंकोनी जेम अद्यावधि अप्रकट कृतिओ
तेमज माहितीपूर्ण लेखो, नोंधो, इत्यादि जोवां मल्यां. तेमां प्रथमानुयोगनो अंश होवानुं दावो करनारो पाठ आचार्यश्री शीलचन्द्रविजयजीए दर्शाव्युं तेम बनावटी ज छे अने ते इस्वी १४ मी सदी उत्तरार्ध पहेलांनो पण नथी ज, छतां तेमां केटलीक उपयुक्त वातो जरूर नोंधायेली छे. मुनिवर शीलचन्द्रविजयजीना आ अनुसंधाने लखानारा लेखनी आतुरतापूर्वक राह जोई\. २) स्वाध्याय शीर्षकनी नीचे, पृ.११६ पर कंडिका ८मां आ पहेला अनुसंधान
अंक ५मां प्रकाशित थयेला मारा अवलोकनोमांथी चारेक पर अत्यंत संक्षिप्त प्रत्यवलोकनो जोवा मळ्यां. आ टिपप्णो विषे अहीं मुद्दावार स्पष्टता थवी जरूरी छ : (अ) उमास्वाति रचित श्रावकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ संस्कृतमा हतो अम मनाय छे. हरिभद्रसूरिना पंचाशक परनी अभयदेवसूरिनी वृत्तिमां श्रावकना लक्षण विषे उमास्वातिनुं एक वाक्य समर्थन रूपे रजु थयुं छे जे कदाच आ श्रावक प्रज्ञप्तिमांथी लेवायुं हतुं. अत्यारे उपलब्ध प्राकृत सावयपण्णत्तिना कर्ता तो हरिभद्र सूरि छे, जेनी स्वोपज्ञा टीका पण उपलब्ध छे. छतां जो उमास्वातिनी रचना उपलब्ध होय, ओ वळी मुद्रित पण होय तो ते क्यांथी अने कयां वर्षमां छपायली छे तेम ज कोणे संपादित करी छे ते माहिती मळे तो तेनो पाठ जोई जवो जरूरी छे.
___ (ब) उपरकथित "स्वाध्याय"मां "सूरिमंत्र चैत्यावासी जमानानी नीपज छे" एवा मारा विधानने आ प्रमाणे रदियो आप्यो छे : "आर्य सुस्थित सुप्रतिबद्ध नामे बे आचार्यो जे आर्य सुहस्तीना शिष्यो छे, ते "कौटिक" कहेवाता; तेनुं कारण तेमणे कोटवार सूरिमंत्र जपेलो ते छे. ते परथी निर्ग्रन्थ गच्छD नाम पण 'कोटिक गण' पडयु. सूरिमंत्र न होय तो आ बधुं केम संभवे ?'
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स्पष्टता : आवी नोंध, कदाच सौ प्रथम, तपागच्छीय देवसुन्दरसूरिशिष्य गुणरत्र सूरि द्वारा गुरुपर्वक्रमवर्णन (सं. १४६६ - ई.स. १४१०) अंतर्गत, अने ते पछी तपागच्छीय धर्मसागरनी पट्टावली (सं. १६४८ / इ.स. १५९२) मां थयेली छे खरी; परन्तु ते बधी ज कृतिओ उत्तर - मध्यकालीन अने एथी स्पष्टतया बहु मोडेनी छे. ते सौमां कर्ताओना पोताना गच्छ पूर्वेनी, अने विशेषे मध्यकाल पहेलांना समय प्रसंगे थयेली नोंधोमां अनेक औतिहासिक विसंगतताओ, विपर्यासो अने काल्पनिकताओनी भरमार जोवा मळे छे. कोटिकना उद्भव माटे सत्य हकीकत तो अत्यंत प्राचीन एवी पर्युषणाकल्प (संकलन प्राय: इस्वी ५०३ वा ५१६) अंतर्गत समाविष्ट 'स्थविरावली' मां ज्यां आ गणनो प्रथम ज वार उल्लेख थयो छे त्यां 'संक्षिप्त वाचना' मां आ प्रमाणे ( अर्धमागधी भाषा - रूपो अनुसार) कह्यु छे.
"थेरस्स नं अज्ज सुहस्तीस्स वासिस गुत्तस्स अंतेवासी दुबे थेरा सुठ्ठीय-सुपडिबुद्धा कोटिय काकंदगा वग्धावच्चस गुत्ता ॥
अने आगळ विस्तृत वाचनामां पण एवं ज विधान मळे छे.
'थेरेहिंतो सुट्ठिय- सुपडिबुध्धेहिंतो कोटिय काकंदएहिंतो वग्धावच्चस गुत्तेहिंतो इत्थनं कोटियगणे नाम गणे निग्गए......
"
"
पहेला उद्धरणनो अर्थ छे : " वासिष्ठगोत्रीय आर्य सुहस्तीना व्याघ्रापत्य गोत्रना अंतेवासी, कोटि (वर्ष) अने काकंदी (बिहारमां हालनुं खुखुंदा) ना (मूळ) रहेवासी, सुस्थित अने सुप्रतिबद्ध नामे बे स्थविरो हता." बीजी नोंधमां विशेषमां तेमनाथी कोटीय (कौटिक ) गण नीकण्यो तेम स्पष्टता करी छे. आ नोंधो इस्वीसनना आरंभकाळ जेटली प्राचीन छे. कुषाणकालीन अभिलेखो (इस्वी बीजीथी चोथी शताब्दी) मां प्रस्तुत कोटिक गण माटे "कोटियातो गणातो एवी रीतना उल्लेख छे.
प्राचीन गणोनां नामो आचार्यो के पछी गामना नामो परथी, शाखाओ गामनां नामो परथी अने कुलो मोटो भागे आचार्योनां नामो परथी पडतां. कौटिक गण कोटि (वर्ष) परी निष्पन्न होवानो मुनिवर कल्याणविजयजीने पण अभिप्रेत
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हतुं. मध्ययुगमां अलबत्त कोईकवार गच्छोना नामो अन्य विशिष्टताओना आधारे पण पडतां : जेमके अंचलगच्छ, पूर्णिमागच्छ, आगमगच्छ, द्विवंदनिक गच्छ, त्रिस्तुतिक गच्छ, इत्यादि. पण आवा ज कोई कारणसर - लाखवार जपायेला सूरिमंत्रने कारणे अत्यंत प्राचीन एवं कोटिक नाम पडेलुं तेम मानवुं सुसंगत नथी. पट्टावली कर्ताओना मनघडंत खुलासाओ न होय तोए तेमनी पासे आ संबंधमां बहु ज मोडेनी (परीक्षानी कसोटीमां न टकी शकनार) अनुश्रुति हती एटलु ज कही शकाय. ए काळे निर्ग्रन्थ नामनो कोई 'गच्छ' पण नहोतो. जैन धर्मनुं ज असली नाम निर्गन्ध हतुं. "सूरिमंत्र' नी प्रथा प्राचीन होत तो तेना संबंधमां उल्लेख आयार सूत्रो, छेद सूत्रो अने आचार्योनी उपसंपदा - संपदा सम्बन्धना पुराणां कथनोमां अने निर्युक्ति भाष्यो चूर्णियो आदि प्राचीन व्याख्या साहित्यमां मळवा जोई. एवा कोई विश्वस्त निर्देशो मळी आवे तो योग्य चकासणी बाद सूरिमन्त्रनी परंपरा प्राचीन-चैत्यवासना काळ पहेलानी होवानुं जरूर मानी शकाय; पण केवळ मध्यकालीन' चरितो, कथाओ - कथानको दन्तकथाओ प्रबन्धो परथी तो तेनो "अति प्राचीन काळे प्रचार होवानुं" मानवुं मुश्केल बने. पंदरमा सोळमा शतकना पट्टावलीकारो करतां एमनाथी १५०० वर्ष पूर्वेना स्थविरावलीकारोनुं कथन विश्वस्त गणाय.
(क) पांचमा शतक सुधीमां साधुओ प्रतिष्ठा नहोता करावता तेना स्थविरावली कथित पृथक्-पृथक् केटलांये गण, शाखा अने कुलोना मुनिओना नाम प्रकट करता मथुरा, अहिच्छत्राना अभिलेखोथी सुस्पष्ट छे. अने कुषाण काल पूर्वेना समयखंडोमां तो प्रतिमाओ जिनप्रासादादिनी प्रतिष्ठा तो शुं उपदेश देवा संबंधमां पण कोई ज प्रमाण नथी. मध्यकाल पूर्वे सुविहित मुनिओ प्रतिष्ठा करावता एवा तो तेनी वास्तवमां प्राचीनता केटली छे, कया सन्दर्भोमां आवी वातो नोंधयेली छे, ते तमाम विगतो काळजीपूर्वक तपासवी घटे छठ्ठी शताब्दी उत्तरार्ध, जे काळथी केटलुंक पूर्वे पश्चिम भारतमां श्वेताम्बर चैत्यावासी सम्प्रदायनो प्रादुर्भाव थई चूकेलो, ते समये तो केटलीक वार साधुओ पोते ज मूर्तिओ करावता हशे; जेम के अकोटामांथी प्राप्त थयेली बे धातुमूर्तिओ, एना लेखो अनुसार, जिनभद्र वाचनाचार्य (जिनभद्र गणि क्षमाश्रमणे) पोते ज करावेली.
(ड) जे त्रण पादलिप्तसूरिओ थई गया छे तेमांथी मैत्रक युगना उत्तरार्धवाळा
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[13] अने बौद्ध रससिद्ध नागार्जुन साथे संकळायेला, महावीरनी मन्त्रगभित सुवर्णसिध्दि -स्तुति ना रचयिता, क्रममां द्वितीय, पादलिप्तसूरि किमियागर होवानो संभव छे. (मारो इशारो तेमना तरफ हतो). पोते खातरी न करी होय, चकासी न होय, तेवी मन्त्रसिद्ध स्तुतिनुं निर्माण करवाथी शुं फायदो ? आ पादलिप्तसूरि पगे खास वनस्पतिओनो लेप लगावी आकाशगमन करता तेवू चरितकारो नोंधे छे. आ बधां लक्षणो चैत्यावासीओनां ज होवा विषे शंका नथी. कोई चैत्यवासी साधु कीमियागर पण होय तो तेमां अजुगतुं शुं छे ? सुविहित साधु माटे तो अलबत्त ए लांछन रूप गणाय अने प्राचीन काळना निर्ग्रन्थ मुनिओ माटे तो तेनी कल्पना पण न थई शके. (आगमोमां मुनिओने वैदूं, ज्योतिष, मन्त्रादि आदि प्रवृत्तिओनो स्पष्ट निषेध छे ज. धातुवाद, तन्त्रवाद आदि तो आगमोना काळथी घणा समय बाद जैन सम्प्रदायमां घुसेला).
(३) भायाणी साहेबनी "गौलेय', 'गोला', गोदावरीनो देश) अने ते परथी उतरी आवेला 'गोला' लोको उपरनी रसप्रद नोंध वांची. पोरबंदरमां अमारु मकान 'गोलवाड शेरी' मां आवेलुं छे. प्रायः ८०-१०० वर्ष पूर्वे त्यां गोला जातिनी, दासत्व कार्य करनारी, कोमना कुटुंबो रहेतां हता तेवू नानपणमां वृद्धो पासेथी सांभळ्यानुं स्मरण छे. पण गोलाओनी वणिक ज्ञाति पण छे. मध्यप्रदेशमा आजे पण 'गोला पूरव' नायक दिगम्बर जैन धर्म पाळती वाणियानी नात छे. सोलंकी भीमदेव द्वितीयना मंत्री आह्लादन "गल्लक' जातिना वणिक हता. अने ए काळे थयेला नागेन्द्रगच्छीय वर्धमानसरिने लघप्रबन्धसंग्रह (१५मी सदी) मां 'गल्लक' (ज्ञातिनां) 'गुरु' कह्या छे आ गल्लक ते 'गोला' नुं संस्कृतीकरण पामेलु रूप हशे ? आ वर्धमान सूरि ऊना-अजारा, प्रभास आदि स्थळोमां विचर्या होवानो संभव प्रकट करतो उल्लेख अजाहराना एक प्रतिमासनना लेख परथी स्पष्ट छे, अने वेरावळमां (तथा प्रभासमां पण ?) गोला वाणियानी ज्ञाति हती तेवं प्रभासपाटणना मारा मित्र (स्व.) हरिशंकर प्रभाशंकर शास्त्रीए मने जणाव्यानुं स्मरण छे.
मधुसूदन ढांकी
वडगच्छनी स्थापना अंगे वड नीचे आठने आचार्य पदवी आपवानी वात
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जाणीती छे. आ स्थळ आबुनी नजीक आवेलुं छे एवु पण उपदेशमाळानी प्रशस्तिमा स्पष्ट लख्युं छे. स्थळनुं नाम हीरसौभाग्य (४-९५) मां टेली गामनी सीममां लख्यु छे. ज्यारे उपदेशमाळानी प्रशस्तिमां धर्माणा जणाव्युं छे जीरावला अने मंडार वच्चे वरमाण तीर्थ आवेलुं छे. आ गामनी बहार आजे पण एक विशाळ वडलो आवेलो छे. अडधा पोणा की.मीना घेरावामां आवेला आ वडलाने लोको अत्यारे कानजी वड कहे छे. वड नीचे पुरातन मंदरिना अवशेषो पडेला छे. अने एक ओटला पर श्री कृष्णनी सूतेली मूर्ति बिराजमान छे. धर्माण अने वरमाण मां साम्य पण छे. लखनारनी भूलथी पण वनुं ध थई शके एटले आ बाबत थोडं संशोधन करवा जेवू लागे छे. आ अंगे बीजुं पण आपश्रीना ध्यानमा होय तो जणावशो आ साथे (ही.सौ अने. प्रशस्तिना संदर्भ मोकल्या छे.)
प्रशस्तिसंग्रह पृ. २६ श्री शान्तिनाथश्री ज्ञान भंडार, खंभात श्रीमन्नर्बुदतुङ्गशैलशिखरच्छायाप्रतिष्ठापदे, धर्माणाभिधसंन्निवेशविषये (न्य)ग्रोधवृक्षो बभौ । यत्शाखाशतसंख्य(मध्य) बहलच्छायास्वपायाहतं, सौख्येनोषितसंघमुख्यशकटश्रेणीशतीपंचकम् ॥१॥ लग्ने क्वापि समस्तकार्यजनके सप्तग्रहालोकने ज्ञात्वा ज्ञानवशाद् गुरुः पृथुहितं श्रीसर्वदेवाभिधः । आचार्यान् रचयांचकार चतुरस्तस्मात् प्रवृद्धो बभौ । चंद्रोऽयं वडगच्छनामरुचिरो जीयात् युगानां शतम् ॥२॥ तत्र लोकादश(तत्त्वलोकन)सूरिराजविपुते(ले) गच्छे प्रतिष्ठाधिकः, पूर्वं श्रीजिनचन्द्रसूरिरभवत् सीमंधरद्योतकः । शुद्धात्मा धवलकक्के पुरवरे यो(षो) ढाकचैत्यान्तरे, श्रीसंघप्रभवप्रभाव विपुले....तेन द्योतिनी (न्तेवासिवृन्दैर्वृतः) ॥३॥ तस्मिन् पट्टमहोदधौ नवविधुः श्री आम्रदेवाभिधो
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