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________________ नृसिंहविरचिता बन्धकौमुदी -सं. विजयशीलचन्द्रसूरि काव्यालंकार शास्त्रमा एक विभाग चित्रकाव्यो अथवा बन्धकाव्योनो छे, अने ते सहदय भावकोने घणो रस अने चमत्कृति पमाडे तेवो छे. आ विषयने निरूपतो एक नानकडो ग्रन्थ अत्रे प्रस्तुत छे : बन्धकौमुदी. आना प्रणेता नृसिंह नामे कवि छे, जेमना स्थळ समय जाणवा, कोई साधन अत्यारे मारा पासे हाथवर्गु नथी. प्रतिनो लेखन संवत १८ मो शतक होवानुं श्री पुण्यविजयजीए निर्देशेलुं छे. आ ग्रंथनी हस्तप्रति अमदावाद कीका भटनी पोळना भंडारमा हती, जेनी फोटोस्टेट नकल आगमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी पासे हती. तेओए ते नकल, चित्र काव्य-विषयना समर्थ ज्ञाता अने मारा मित्र-कवि मुनिराज श्रीधुरंधरविजयजीने, वर्षों पूर्वे, संपादनार्थे आपी राखेली. तेमणे ताजेतरमां ते नकल मने संपादित करी प्रकाशनार्थे सोंपी, तेना आधारे आ ग्रंथ संपादन पूर्वक अत्रे रजू थाय छे. प्रति ३ पत्रनी छे. लिपि जैन नागरी छे, अने वळी शुद्धप्राय छे. जे ते बन्धनी आकृति पण (कुल १६) आपेली छे. प्रान्ते लेखकनी पुष्पिका नथी, ते जोतां आ प्रति कर्तानो स्वहस्त होय तो ते असंभवित नथी. __ मध्य कालमां आपणे त्यां खास करीने जैन मुनिगणमां - चित्र काव्योनी रचनाप्रवृत्ति खूब विकसित हती, तेनो ख्याल ते काळनां चित्रकाव्यो तथा तेनी आकृतिओनां पानां भंडारोमां जोईए त्यारे आवी शके छे. आ बधां काव्योनो मात्र संचय थाय तो पण एक-बे मोटा दलदार ग्रंथो थाय, तेटली सामग्री -- कोई उद्धारकनी प्रतीक्षामां - भंडारोमां सचवाई पडी छे. आजे तो आ विषय खेडाण अने अध्ययन आपणे त्यां नहिवत बन्युं छे, एटले आ विषय थोडो कठिन पण बन्यो जणाय छे. श्री धुरंधरविजयजी महाराज, उपर निर्देश्युं तेम, आना अधिकारी विशेषज्ञ छे, तेओ ध्यान आपे तो आ अढळक सामग्रीनो उद्धार थाय, अने अभ्यासीओने घणुं मार्गदर्शन पण मळी रहे. अस्तु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520507
Book TitleAnusandhan 1996 00 SrNo 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages130
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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