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________________ [m] पडी न होत, अने पूरा बोल आपी शकाया होत. वळी, ए प्रकाशनमां, आ ग्रंथनी समाप्ति पछी एवी टिप्पणी मूकी छे के ___ "यह ग्रन्थ १०१ बोल पर ही समाप्त हो जाता है । सभ्भवतः शेष बोलप्रारभ्भ के ५ बोलोंके समान ही मूल प्रतिमें नष्ट हो गये हैं ।" आ टिप्पणी साव निरर्थक एटला माटे छे के ए प्रकाशनमां ग्रंथनो अंत पण छे अने ते पछी कर्तानी तेमज लेखकनी पुष्पिका पण छे, जेथी स्पष्ट छे के ग्रंथ अधूरो नथी के तेनो अंतिम अंश नष्ट पण नथी. वस्तुतः आ ग्रंथ' १०८ बोलसंग्रह" छे ज नहि; आ तो १०१ बोलसंग्रह" ज छे. आ मुद्दो, अहीं, कर्ताना स्वहस्ते लखाएली प्रतिना आधारे नि:संदेह सिद्ध थई शके छे. अने प्रसंगोपात्त ए पण स्पष्ट थर्बु घटे के आ ग्रंथ ए श्रीयशोविजयजी महाराजनी पोतानी रचना छे, पण तेमना द्वारा थयेलुं संकलन के संग्रहमात्र नथी. अर्थात् संगृहीत नहि, पण विरचित छे. आ ग्रंथy प्रकाशन, एकवार, उपर कडुं छे, तेम थई गयुं छे छतां अहीं तेनुं पुनः प्रकाशन करवानां कारणो ए छे के - १. पूर्व-प्रकाशनमा जे अंश नथी छपायो, ते अंश अहीं प्राप्त छे. २. जे प्रतिना आधारे आ वाचना तैयार थई छे ते प्रति ग्रंथकार श्रीयशोविजयजीए स्वहस्ते लखेल-ग्रंथना खरडारूप- छे, जेने कारणे वाचना एकदम शुद्ध अने पूर्ण मळे छे. ३. पूर्व-प्रकाशनमा आखी कृति अने तमाम (५ थी १००) बोलो अशुद्धप्राय तेमज घणा अंशो-वाक्यांशो वगेरे विना ज छपायेल छे. प्रस्तुत वाचनामां ते बधुं सहजपणे ज शुद्ध-पूर्ण जोवा मळशे. ४. पूर्व-प्रकाशननो आधार बनेली प्रति सं. १७४४मां कोई लेखके लखेली प्रति होई तेनी भाषा घणी बदलायेली छे. ज्यारे प्रस्तुत प्रति कर्तानी स्वहस्त होई तेनी भाषा तेमज जोडणी-बधुं असल रुपमा ज छे, अने ते ज रीते अत्रे प्रस्तुत पण थाय छे. १२मा बोलमां श्रीयशोविजयजी महाराजे विविध ग्रंथोना नामो टांक्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520507
Book TitleAnusandhan 1996 00 SrNo 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages130
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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