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________________ महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीगणिकृत १०१ बोलसंग्रह : भूमिका ___-सं. विजयशीलचन्द्रसूरि महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी गणि विद्ज्जगतमां दार्शनिक अने समर्थ तार्किक तरीके प्रख्यात छे, तो धर्मना अने जैनाचार-विचारना क्षेत्रमा तेओ सैद्धान्तिक पुरुष तरीके सर्वमान्य छे. सैद्धान्तिक विचारो अने तेनी प्ररूपणा/ प्रतिपादनमां तेमनो बोल अकाट्य अने तेमणे करेलुं अर्थघटन निर्विवादपणे सर्वग्राह्य गणाय छे. तेओओ जैन सिद्धन्तोनुं यथार्थ अर्थघटन करतां अनेक ग्रन्थो रच्या छे. ते ग्रन्थोमां, विविध सिद्धान्तो परत्वे अन्य जैन विद्वानो/साधुओए करेल प्ररूपणाओमां ज्यां पण विसंगति के वैपरीत्य होय तेन तेओए अत्यंत सूक्ष्मेक्षिकाथी, सिद्धान्तनुं शुद्ध हार्द पकडीने, मध्यस्थभावे, ते ते विसंगतिओ अने वैपरीत्यो प्रत्ये अंगुलिनिर्देश करीने तेनुं निरसन कर्यु छे, अने शुद्ध मत/अर्थ- प्रतिपादन कर्यु छे. "प्रस्तुत १०१ बोलसंग्रह" पण तेमनी आ ज प्रकारनी एक रचना छे. आ ग्रन्थ, केटलांक वर्षो अगाउ, आचार्य श्री यशोदेवसूरिजीना प्रयत्नथी छपायेल उपाध्याय यशोविजयजीनी अन्य चारेक रचनाओनी साथे, एक पुस्तक रूपे पालीताणा जैन साहित्य मन्दिरेथी प्रकाशित थयेल छे, जेमां तेनुं नाम "श्रीमद यशोविजयजी गणिवर्य द्वारा संग्रहीत १०८ बोलसंग्रह" एवं आपवामां आव्युं छे. ए प्रकाशनमा प्रथमना चार बोल नथी, अने ते विशे तेना प्रारंभे जे सूचना मूकवामां आवी छे. तेमां जणाव्युं छे के - "प्रस्तुत संग्रहकी पाण्डुलिपि का पहला पृष्ठ खो जाने अथवा नष्ट हो जाने के कारण क्रमांक १ से ४ तक के प्रश्न नहीं दिये गये है। यही कारण है कि इस ग्रन्थका आरम्भ पाँचवे बोलसे हो रहा है।" अहीं आ सूचना विशे एटलुं ज कहेवानुं प्राप्त छे के एक ज प्रति ना आधारे तेनुं प्रकाशन करी देवानो मोह जतो करीने अन्यान्य ज्ञानभंडारोमां उपलब्ध थई शकती आ ग्रंथनी विविध प्रतिओ मेळवी होत तो उपर्युकत सूचना आपवी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520507
Book TitleAnusandhan 1996 00 SrNo 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages130
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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