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[37] होइ पणि केवल द्रव्यथी भंग न होइ ए रीति समाधान करिउं छइ ॥७४।।
"श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिमां हिंसानी चोभंगीमां 'द्रव्यथी तथा भावथी न हिंसा मनोवाक्कायशुद्ध साधुनि' ए भांगो कहिओ छइ तेहनो स्वामी तेरमा गुणठाणानो धणी ज जे फलावइ छइ अनि चउदमा गुणठाणनो धणी निषेधइ छ। मनवचनकाययोग विना तेहथी शुद्ध न कहवाइ जिम वस्त्र विना वस्त्रि शुद्ध न कहिउ ते भणी" ते खोटुं, जिम जलस्नानि जलसंसर्ग टल्या पछी पणि जलिं शुद्ध कहिइ तिम अयोगीनि योग गया पछी पणि योगि शुद्ध कहिइ ते माटि साधु सर्वनिं जिवारिं द्रव्यहिंसा गुप्तिद्वाराइं न हुइ तिवारिं चोथो भांगो घटइ ।।७५||
"द्रव्यहिंसा पणि हिंसादोषस्वरूप'' एहवू कहइ छइ ते न घटइ, "समितस्य-ईर्यासमितावुपयुक्तस्य या 'आहत्य' कदाचिदपि हिंसा भवेत्सा द्रव्यतो हिंसा, इयं च प्रमादयोगाभावात्तत्त्वतोऽहिंसैव मन्तव्या, 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इति वचनात् (गा. ३९३२ वृत्तिः) ए बृहत्कल्पवृत्ति वचनि अप्रमत्तनि द्रव्यथी हिंसा ते अहिंसा ज जाणइ छइ ॥ ७६ ॥
बृहत्कल्पनी भाष्यवृत्तिमां वस्त्रच्छेदनादि व्यापार करतां जीवहिंसा होइ, जे माटि 'जिहां ताइ जीव चालइ हालइ तिहां तांइ आरंभ होइ' एहवू भगवतीमां कहिउं छइ एहy प्रेरकिं कहिउं ते उपरि समाधान करतां आचार्य ते भगवती सूत्रना आलावानो अर्थ भिन्न न कहिओ केवल इमहज कहिउं जे आज्ञाशुद्धनि द्रव्यथी हिंसा ते हिंसामा ज न गणिइ । यत :
"यदेवं 'योगवन्तं' च्छेदनादिव्यापारवन्तं जीवं हिंसकं त्वं भाषसे तन्निश्चीयते सम्यक्सिद्धान्तमजानत एवं प्रलापः । सिद्धान्ते योगमात्रप्रत्ययादेव न हिंसोपवर्ण्यते, अप्रमत्तसंयतादीनां सयोगिकेवलिपर्यन्तानां योगवतामपि तदभावादित्यादि" (गा. ३९९२ वृत्तिः) तथाऽत्र चाद्यभंगे हिंसायां व्याप्रियमाणकाययोगेऽपि भावत उपयुक्ततया भगवद्भिरहिंसक एवोक्त इत्यादि" (गा. ३९३४ वृत्तिः)।
एणि करी जे इम कहइ छइ केवलीना योगथी द्रव्यहिंसा न होइ तेहनि मतिइ अप्रमत्तना योगथी ज द्रव्यहिंसा न हुई जोईइ. जे माटि पहिलइ चोथइ भंगि करी अप्रमत्तादिक सयोगिकेवली तांई सरिखा ज गण्या छइ. तथा अप्रमत्तनि ज द्रव्यहिंसा कहीं तेणिं करी प्रमत्तसंयतनं पणि जे द्रव्यहिंसा कहइ छइ ते
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