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वा तुअट्टिएज्ज वा उल्लंघेज्ज वा पलंघेज्ज वा पाडिहारियं पीठफलगसेज्जासंथारं पच्चष्पिणत्ति" ॥ ५३ ॥
वर्ज्जनाभिप्राय छतइ अनाभोगि जीवघात तथा तत्कृतकर्मबंधाभाव यतीनिं होइ अनिं वर्जनाभिप्राय तो पोतानिं दुर्गतिहेतु कर्मबंध थातो जाणी होइ ते भय केवलीनिं नथी ते माटिं वर्जनाभिप्राय नथी अनाभोगि जीवघात नथी ए कल्पना करी छइ ते खोटी, जे माटिं अशुद्धाहारनी परि जीवहिंसाई पणि केवलीनिं स्वरूपि वर्जनाभिप्राय होइ तथा अवश्यभावी जीवघात पणि संभवइ जिम यतीनि नदी ऊतरतां ॥५४॥
" वीतराग गर्हणीय पाप हिंसादिक किस्यूंड न करइ, एहवूं उपदेशपदमां कहिउं छइ, ते मार्टि द्रव्यहिंसा केवलीनिं न होइ, जे माटि ते लोकदेखीति गर्हणीय छइ" ए वात कही छइ ते न मिलइ, जे माटि प्रतिज्ञाभंगिं ज गर्दा होइ पणि लोकगर्हाई तंत नथी अनिं अकरणनियमई अधिकारिं उपदेशपद पदनूं वचन छइते भणी भावहिंसानो अकरणनियम ज केवलीनि देखाड्यो छइ ॥५५॥
"उपशांतमोहनिं मोहनीयकर्म छइ ते माटिं गर्हणीय हिंसा प्रतिसेवा होइ तो पणि मोहनीयना उदय विना उत्सूत्रप्रवृत्ति न होइ " एहवूं लिख्यूं छइ ते न मिलइ, जे माटि प्रतिसेवीनिं उत्सूत्रप्रवृत्ति ज होइ तेथी अवश्यभावि द्रव्य हिंसानिं दोष न कहिइ तो ज ११ गुणठाणइ अप्रतिसेवीपणूं तथा सूत्रचारीपणूं घटइ ॥५६॥
"गर्हणीय पाप मोहनीयमूल ते उपशांतमोहताई ज होइ, अनिं अगर्हणीय पाप अनाभोगमूल आश्रवच्छायारूप क्षीणमोहनिं पणि होइ " एहवूं लिख्यूं छइ ते कोइ ग्रंथस्यूं न मिलइ । आश्रवच्छाया कहतां आश्रव ज आवइ, ते तो अगर्हणीय तुम्हारिं मति भावपाप छइ, तेहनी सत्ता क्षीणमोहनिं कहतां घणूंज विरुद्ध दीसइ
॥ ५७ ॥
"मोहनीयकर्मना उदयथीं भावा श्रव परिणाम होइ तेहनी सत्ताथी द्रव्याश्रव परिमाण होइ," एहवूं कहइ छइ ते न घटइ जे माटिं इम कहतां द्रव्यपरिग्रह पणि धर्मोपकरणरूप केवलीनिं न जोईइ ॥ ५८ ॥
एणि ज करी उदित चारित्रमोहनीय असंयतीनि भावा श्रवकारण प्रमत्तसंयतनि पणि सत्तावर्ति चारित्रमोहनीय द्रव्याश्रवनूं कारण तेहमां अयतना सहित रागद्वेष ज
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