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खोटी प्रशंसानो तो विधि न होइ ॥ ३४ ॥
" सम्यग्दृष्टी ज क्रियावादी होइ" एहवूं कहइ छइ ते न घटइ, जे माटिं एक पुद्गलपरावर्त्त शेष संसार क्रियारुचि क्रियावादी कहिओ छई दशाचूर्पिण प्रमुख ग्रंथिं ॥ ३५ ॥
"मिथ्यात्वीनिं दयादिक गुणिं करि पणि सकामनिर्जरा न होइ " एहवं लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे मार्टि मेघकुमार जीव हस्तिप्रमुखन दयादिक गुणि संसार पातलो थयो ते सूत्रिं ज कहिउं छइ ते सकामनिर्जरा विना किम घटइ ? तथा मोक्षनि अर्थिं निर्जरा ते सकामनिर्जरा कही छन् || ३६ ||
"कविला इत्थंपि अहयंपि " ए वचन मरीचीनी अपेक्षाइं उत्सूत्र नहिं, अनि कपिलनी अपेक्षाई उत्सूत्र, ते मार्टि उत्सूत्रमिश्र कहिइ "एहवुं लिख्यूं छइ ते न घटइ, जे माटिं इम करतां सिद्धान्तवचन पणि सम्यग्दृष्टी मिथ्यादृष्टीनी अपेक्षाई उत्सूत्रमिश्र थई जाइ तथा श्रुत भावभाषा मिश्र होइ ज नहीं एहवृंं दशवैकालिकनिर्युक्तिमा कहिउं छइ ।। ३७)
"मरीचिनूं वचन दुर्भाषित कहिइ पणि उत्सूत्र न कहिइ" एहवूं कहइ छइ ते न मिलइ, जे माटिं पंचाशकवृत्तिं दुर्भाषितपदनो अर्थ उत्सूत्र कहिओ छइ
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"उत्सूत्रलेश मरीचिनूं वचन कहिउं छइ ते मार्टि उत्सूत्रमिश्र कहिइ" एहवूं कहइ छइ ते न घटइ, जे माटिं 'द्रव्यस्तवमां - भावलेश' पंचाशकादिक ग्रंथि कहिओ छइ ते पणि भावमिश्र होइ जाइ ॥ ३९ ॥
“इयमयुक्ततरादुरन्तानन्तसंसारकारणम्" एहवूं श्राद्धप्रतिक्रमणचूर्णि कहिउं छइ, तेहनो अर्थ एह " ए विपरीत प्ररूपणा घणूं अयुक्त दुरन्तानन्तसंसारनं कारण, इहां एहवुं लिख्यूं छइ जे दुरन्तानन्त शब्दनो अर्थ न मिलइ 'दुरन्त' - ते जेहनो दुःखि अंत आवइ, 'अनंत' ते जेहनो अंत नावइ ए पूर्वाचार्यना ग्रंथ खंडियानी खोटी कल्पना, जे माटिं 'दुरन्तानन्त' कहतां महानंत कहिइ "कालमणंतदुरंत" ए उत्तराध्ययनवचननी साखि, इहां कोई दोष नथी ||४०||
"जिनवचननो दूषनार जमालिनी परिं नाश पामइं अरघट्ट घटीयंत्र न्याई संसारचक्रवाल भमइ एहवूं सूयगडांगनिर्युक्तिवृत्ति कहिउं छइ, ते माटिं जमालिनिं
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