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________________ [122] हतुं. मध्ययुगमां अलबत्त कोईकवार गच्छोना नामो अन्य विशिष्टताओना आधारे पण पडतां : जेमके अंचलगच्छ, पूर्णिमागच्छ, आगमगच्छ, द्विवंदनिक गच्छ, त्रिस्तुतिक गच्छ, इत्यादि. पण आवा ज कोई कारणसर - लाखवार जपायेला सूरिमंत्रने कारणे अत्यंत प्राचीन एवं कोटिक नाम पडेलुं तेम मानवुं सुसंगत नथी. पट्टावली कर्ताओना मनघडंत खुलासाओ न होय तोए तेमनी पासे आ संबंधमां बहु ज मोडेनी (परीक्षानी कसोटीमां न टकी शकनार) अनुश्रुति हती एटलु ज कही शकाय. ए काळे निर्ग्रन्थ नामनो कोई 'गच्छ' पण नहोतो. जैन धर्मनुं ज असली नाम निर्गन्ध हतुं. "सूरिमंत्र' नी प्रथा प्राचीन होत तो तेना संबंधमां उल्लेख आयार सूत्रो, छेद सूत्रो अने आचार्योनी उपसंपदा - संपदा सम्बन्धना पुराणां कथनोमां अने निर्युक्ति भाष्यो चूर्णियो आदि प्राचीन व्याख्या साहित्यमां मळवा जोई. एवा कोई विश्वस्त निर्देशो मळी आवे तो योग्य चकासणी बाद सूरिमन्त्रनी परंपरा प्राचीन-चैत्यवासना काळ पहेलानी होवानुं जरूर मानी शकाय; पण केवळ मध्यकालीन' चरितो, कथाओ - कथानको दन्तकथाओ प्रबन्धो परथी तो तेनो "अति प्राचीन काळे प्रचार होवानुं" मानवुं मुश्केल बने. पंदरमा सोळमा शतकना पट्टावलीकारो करतां एमनाथी १५०० वर्ष पूर्वेना स्थविरावलीकारोनुं कथन विश्वस्त गणाय. (क) पांचमा शतक सुधीमां साधुओ प्रतिष्ठा नहोता करावता तेना स्थविरावली कथित पृथक्-पृथक् केटलांये गण, शाखा अने कुलोना मुनिओना नाम प्रकट करता मथुरा, अहिच्छत्राना अभिलेखोथी सुस्पष्ट छे. अने कुषाण काल पूर्वेना समयखंडोमां तो प्रतिमाओ जिनप्रासादादिनी प्रतिष्ठा तो शुं उपदेश देवा संबंधमां पण कोई ज प्रमाण नथी. मध्यकाल पूर्वे सुविहित मुनिओ प्रतिष्ठा करावता एवा तो तेनी वास्तवमां प्राचीनता केटली छे, कया सन्दर्भोमां आवी वातो नोंधयेली छे, ते तमाम विगतो काळजीपूर्वक तपासवी घटे छठ्ठी शताब्दी उत्तरार्ध, जे काळथी केटलुंक पूर्वे पश्चिम भारतमां श्वेताम्बर चैत्यावासी सम्प्रदायनो प्रादुर्भाव थई चूकेलो, ते समये तो केटलीक वार साधुओ पोते ज मूर्तिओ करावता हशे; जेम के अकोटामांथी प्राप्त थयेली बे धातुमूर्तिओ, एना लेखो अनुसार, जिनभद्र वाचनाचार्य (जिनभद्र गणि क्षमाश्रमणे) पोते ज करावेली. (ड) जे त्रण पादलिप्तसूरिओ थई गया छे तेमांथी मैत्रक युगना उत्तरार्धवाळा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520507
Book TitleAnusandhan 1996 00 SrNo 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages130
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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