________________
[120] चर्चापत्र
- मधुसूदन ढांकी १) अनुसंधान : अंक ६मां आगळनां अंकोनी जेम अद्यावधि अप्रकट कृतिओ
तेमज माहितीपूर्ण लेखो, नोंधो, इत्यादि जोवां मल्यां. तेमां प्रथमानुयोगनो अंश होवानुं दावो करनारो पाठ आचार्यश्री शीलचन्द्रविजयजीए दर्शाव्युं तेम बनावटी ज छे अने ते इस्वी १४ मी सदी उत्तरार्ध पहेलांनो पण नथी ज, छतां तेमां केटलीक उपयुक्त वातो जरूर नोंधायेली छे. मुनिवर शीलचन्द्रविजयजीना आ अनुसंधाने लखानारा लेखनी आतुरतापूर्वक राह जोई\. २) स्वाध्याय शीर्षकनी नीचे, पृ.११६ पर कंडिका ८मां आ पहेला अनुसंधान
अंक ५मां प्रकाशित थयेला मारा अवलोकनोमांथी चारेक पर अत्यंत संक्षिप्त प्रत्यवलोकनो जोवा मळ्यां. आ टिपप्णो विषे अहीं मुद्दावार स्पष्टता थवी जरूरी छ : (अ) उमास्वाति रचित श्रावकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ संस्कृतमा हतो अम मनाय छे. हरिभद्रसूरिना पंचाशक परनी अभयदेवसूरिनी वृत्तिमां श्रावकना लक्षण विषे उमास्वातिनुं एक वाक्य समर्थन रूपे रजु थयुं छे जे कदाच आ श्रावक प्रज्ञप्तिमांथी लेवायुं हतुं. अत्यारे उपलब्ध प्राकृत सावयपण्णत्तिना कर्ता तो हरिभद्र सूरि छे, जेनी स्वोपज्ञा टीका पण उपलब्ध छे. छतां जो उमास्वातिनी रचना उपलब्ध होय, ओ वळी मुद्रित पण होय तो ते क्यांथी अने कयां वर्षमां छपायली छे तेम ज कोणे संपादित करी छे ते माहिती मळे तो तेनो पाठ जोई जवो जरूरी छे.
___ (ब) उपरकथित "स्वाध्याय"मां "सूरिमंत्र चैत्यावासी जमानानी नीपज छे" एवा मारा विधानने आ प्रमाणे रदियो आप्यो छे : "आर्य सुस्थित सुप्रतिबद्ध नामे बे आचार्यो जे आर्य सुहस्तीना शिष्यो छे, ते "कौटिक" कहेवाता; तेनुं कारण तेमणे कोटवार सूरिमंत्र जपेलो ते छे. ते परथी निर्ग्रन्थ गच्छD नाम पण 'कोटिक गण' पडयु. सूरिमंत्र न होय तो आ बधुं केम संभवे ?'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org