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हस्तप्रतों में उपलब्ध प्राचीन पाठों (शब्द-रूपों) के आधार पर
भाषिक दृष्टि से पुनःसम्पादित
आचाराग
प्रथम श्रुत-स्कन्ध : प्रथम अध्ययन
गगहराना
मासुत गथात
अरहा,
निनाग-भाव
वि.नि.१३॥
लगवंच गं ग्रहमागहीर लासाए घम्समाइरकर-समया.सू.
संपादक : के. आर. चन्द्र प्राकृत जैन विद्या विकास फंड
अहमदाबाद
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जैन संघ के लिए गौरवरूप घटना
भगवान् महावीर की भाषा अर्धमागधी थी, यह तो आगमों एवं परंपरा में अतिप्रसिद्ध एवं स्वीकृत बात है । मुख्य बात है यहां भाषा- परिवर्तन की : भगवान् की भाषा बदल कैसे गई ? अर्धमागधी के अवशेष भी न मिले इस हद तक महाराष्ट्री प्रविष्ट हो गई, यह कैसे ?
लगता है कि जैसे भगवान् ने लोकभाषा को प्राधान्य दिया था उसी तरह हमारे पूर्वाचार्यों ने भी समय के एवं देशों के परिवर्तन के साथ साथ बदलती हुई लोकभाषा को प्राधान्य दिया और मरहट्ठी प्राकृत के यानी महाराष्ट्री प्राकृत भाषा के बढ़े हुए व्यवहार को लक्ष्य में लेते हुए आगमों को भी उसी भाषा में ढलने दिये । आखिर तो वे थे धर्मग्रंथ और उनका प्रयोजन था भगवान् के तत्त्वोपदेश को लोकहृदय तक पहुँचाना । वह तो लोकभोग्य या लोकप्रिय भाषा के जरिये ही हो सकता था ।
किन्तु इस प्रक्रिया में भगवान् की मूल जबान हमारे पास न रह सकी । अर्धमागधी महदंश में नामशेष हो गई। आज जो कुछ मिलता है वह फुटकर अवशेषों से ज्यादा नहीं और ऐसे अवशेषों को इधर उधर से ढूंढना-जुयना यह तो एक पुरातत्त्वविद् का सा कार्य है।
मैं कहना चाहूँगा कि जैसे एक पुरातत्त्वविद् पथरेठीकरों को ढूंढते-ढूंढते अतीत के गुप्त-लुप्त वैभव को उजागर कर देता है, ठीक उसी तरह हमारे भाषा-पुराविद् डॉ.के.ऋषभचन्द्र (के.आर.चन्द्र)अर्धमागधी भाषा के विषय में खोज कर रहे हैं। आचारांग का प्रथम अध्ययन उन्होंने जिस परिश्रम से तैयार कर दिखाया है, वह सचमुच हमारे लिए आश्चर्यजनक है और पूरे जैन संघ के लिए गौरवरूप भी । भगवान् की खुद की भाषा और उनके प्रयुक्त शब्द सुनने-पढ़ने को मिले इससे बढ़कर
और कौनसा गौरव हमारे लिए - एक जैन के लिए हो सकेगा भला?
___मैं चाहता हूँ कि डो.चन्द्रजी आचारांग के पूरे प्रथम श्रुतस्कन्ध को इसी ढंग से तैयार करें । उनका यह प्रदान शकवर्ती (ऐतिहासिक) व युगों तक चिरंजीव रहेगा, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है।
_अंत में, भगवान् महावीर की कृपा उन पर सदैव बरसें और वे जिनागम की इस ढंग की सेवा करते करते अपना कल्याण पा लें ऐसी शुभकामना व्यक्त करता हूँ।
-विजयशीलचन्द्रसूरि
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विद्या विकास फण्ड, ग्रन्थाङ्क - १३
आचाराङ्ग : पढम सुत-रवंध
पढम अज्झयन
[ हस्तप्रतों में उपलब्ध प्राचीन शब्द-रूप (पांठों) के आधार
पर भाषिक दृष्टि से पुनः सम्पादन ]
डॉ. के. आर. चन्द्र
__ भूतपूर्व अध्यक्ष प्राकृत-पालि विभाग, भाषा साहित्य भवन गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदाबाद-३८०००९
प्रकाशक
प्राकृत जैन विद्या विकास फंड
अहमदाबाद
१९९७
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प्रकाशक डॉ. के. आर. चन्द्र मानद मंत्री प्राकृत जैन विद्या विकास फंड अहमदाबाद-३८००१४
प्रत ५००
ई. सन् १९९७
मूल्य : रू. १५०-००
मुद्रक : क्रिश्ना ग्राफिक्स किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाँव, अहमदाबाद-३८००१३ (दूरभाष : ७४८४३९३)
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DEDICATED
To
The Loving Memory of My
Reverend Teacher
LATE DR. HIRALAL JAIN
M.A., D.Litt.
Editor of The ŞAȚKHAŅDĀGAMA
Doyen of Apabhramśa Studies Editor of old texts like Sāvayadhammadohā, Pāhudadohā, Ņāyakumāracariu, Karakaņdacariu,
Sudaṁsaņacariu, etc., etc.
Ex. Head of the Department of Sanskrit, Pali and
Prakrit, Nagpur Mahavidyalay, Nagpur
Ex. Director of Vaishali Research Institute of Prakrit, Jainology and Ahimsă, Muzaffarpur (Bihar)
and Ex. Professor and Head of the Department of Prakrit, Pali and Sanskrit, Jabalpur University, Jabalpur (M.P.)
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Publisher's Note This is the thirteenth publication and it is a matter of great satisfaction for our Society. For the author/editor of this work (i.c. the first clapter of the first part of the Acārānga, the earliest and oldest composition in the Ardhamāgadhi Prakrit language), it is an event of great pleasure that it has been possible to complete this work inspite of various Hurdles. It has been re-edited linguistically only which was a herculean task for any editor who would have undertaken to do so, as per the opinion of various scholars and particularly the late AgamaPrabhākara Muni Shri Punyavijayaji and Pt.. Shri Bechardasji Doshi. It took almost ten years to prepare this edition as it was indispensable first of all to sort out the archaic word-forms of the original Ardhartāgadhi Prakrit from the authentic published editions of the senior Ardframmāgadhi texts and whatever Mss. of the Acărănga were accessible to the author. And for this thousands of word to word cards of textual readings were prepared and arranged alphabetically to ascertain the original form of the words.
To bring home the truth regarding the principles applied in editing this ancient text it was indispensable to do some spade-work for the conviction of the scholars and the orthodox clergy about the archaic form of the Ardhamāgadhi language and in that context our Society published three works, viz. (1) Prācīna Ardhamāgadhi ki Khoj mem, 1992, (2) Restoration of the Original Language of Aidhamāgadhi Texts, 1994 and Paramparāgata Prākta Vyākaraņa Ki Samiksā aur Ardhamāgadhi, 1995 penned by the same author as well as a number of his articles in reputed journals.
We have appended purposefully at the end of this text opinions and reviews of the above mentioned three publications with a view to make the subject understand in its proper
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perspective. We hope it would be immensely helpful in convincing the scholars and specially the Jain Monastic Order as to why the particular readings have been accepted and the others rejected (from the linguistic point of view). We believe that it is a step towards restoring tentatively the original form of the archaic language-speech that was spoken by Šramana Bhagawan Mahāvira. At the same time we are conscious enough that the re-edited text in question is not the last word but still research in this field is to be carried on by minutely going through a number of other Mss. and cūrnis which still preserve the archaic character of the language here and there.
Our Society is highly grateful to Pt. Shri Dalsukhbhai Malvaniya, doyen of Agamic studies and Prof. H. C. Bhayani, doyen of Prakrit studies for giving incentive as well as guiding the author for undertaking this kind of unparalalled work of historic importance, an epoch-making in the field of editing senior Ardhamăgadhi canonical texts.
We are also grateful to all the scholars and professors who could spare their precious time in expressing their Opinions and writing Reviews of the texts published, as mentioned above, relating to the Ardhamägadhi Prākrta, namely, the professors A.M. Ghatage , Pune, G. V. Tagare, Sangli, Nathmal Tatia, Ladnun, S.R. Banerjee, Calcutta, J.P. Thaker, Baroda, Shriranjansuridev and R.P. Poddar, Patna, M.A.Dhaky, Sagarmal Jain and S.C. Pandey, Varanasi, Sohanlal Patni, Sirohi, N. M. Kansara, Ahmedabad and a number of other professors.
We sincerely express our sense of gratitude to the Shreshthi Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi, its trustees and the late Managing Trustee Shri Almarambhai Sutaria who became instrumental in financing our earlier publications and this publication also in its initial stage of preparation from
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vii Septr. 1984 to March, 1992
Our thanks are also due fo all those Prakrit (M.A) students of Dr. K.R.Chandra who prepared the word-cards, arranged them alphabetically and assisted him in correcting the proofs of the publications. In this context Miss Shobhna R. Shah M.A., M.Phil. deserves special mention as she has been working with the author continuously since long.
We would not forget to convey our thanks to the proprietors of the Printing Presses and their workers as well as designer-artists of the title cover-pages of our publications.
As regards this publication we are thankful to Shri Kirit Harjibhai Patel, Krishna Graphics and its workers for printing this text neatly and also to the artist Shri Jay Pancholi who prepared the design of the cover-page of this book. We also acknowledge with gratitude the liberality of the Jain Vishva Bharati Prakashan, the publisher of the "ĀYĀRO' (ed. Muni Shri Nathmalji), 1974 A.D. for granting us the permission to adopt the title cover-page design of that book.
Ahmedabad Mahavir Jayanti 20-4-97
B. M. Balar
President
K.R.Chandra Hon. Secretary
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सम्पादकीय
श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित प्राचीनतम अर्धमागधी आगम-ग्रंथ आचारांग के पाठ और पाठान्तरों का ध्यान से अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत हुआ कि हस्तप्रतों में भाषिक दृष्टि से पाठान्तरों की बहुलता है और इस संस्करण में कई स्थलों पर प्राचीन शब्द-रूप पाठान्तरों में रखे गये है । ऐसा भी देखने को मिला कि एक ही शब्द के प्राचीन और परवर्ती काल के अलग अलग रूप एक साथ प्रयुक्त हुए हैं। अलग अलग संस्करणों में भी पाठों की एक रूपता नहीं है । कहीं पर प्राचीन शब्द-रूप का प्रयोग है तो कहीं पर परवर्ती काल का शब्द है । हस्तप्रतों में भी इसी तरह की विषमता पायी जाती है । कहने का तात्पर्य यह है कि भाषा की प्राचीनता अक्षुण्ण नहीं रह सकी है। इस पर से ऐसा विचार आया कि अर्धमागधी के यथाशक्य मौलिक स्वरूप को स्थापित किया जाय और उसके आधार से नमूने के रूप में आचारांग के एक अध्ययन का भाषिक दृष्टि से सम्पादन किया जाय ।
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इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अर्धमागधी की प्राचीनता और उसके स्वरूप के विषय में तीन ग्रंथ प्रकाशित किये गये । प्रथम ग्रंथ 'प्राचीन अर्धमागधी की खोज में, १९९२ ' प्रकाशित किया गया । इसमें मुख्यतः अर्धमागधी प्राकृत के काल और उसके प्रदेश पर प्रकाश डाला गया है। दूसरे ग्रंथ ' रेस्टोरेशन ऑफ दी ओरिजिनल लैंग्वेज ऑफ अर्धमागधी टेक्स्ट्स, १९९४' में दश शब्दों के हस्तप्रतों में उपलब्ध विविध स्तर के अनेक शब्द-रूपों का अध्ययन किया गया है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया है कि कभी कभी प्राचीन ताड़पत्र की प्रतियों में परवर्ती काल के शब्द-रूप मिलते हैं तो कभी कभी परवर्ती काल की कागज़ की प्रतों में प्राचीन शब्द-रूप प्राप्त होते हैं । ऐसी अवस्था में जहां पर भी प्राचीन शब्द-रूप मिलता हो उसे ही क्यों नहीं स्वीकृत किया जाना चाहिए ? तीसरे ग्रंथ 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी, १९९५' में यह दर्शाया गया है कि मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोप और महाप्राण व्यंजनों का 'ह' कार में प्रायः परिवर्तन प्राकृत वैयाकरणों के नियम अर्धमागधी प्राकृत पर कितने प्रमाण में लागू हो सकते हैं तथा जिन जिन कारकों के एक से अधिक विभक्ति-प्रत्यय प्राकृत
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IX
व्याकरणों में दिये गये हैं उनमें से कौन से प्राचीन और कौन से परवर्ती काल के हैं और अर्धमागधी जैसी प्राचीन प्राकृत भाषा के लिए कौन से प्रत्यय उपयुक्त माने जाने चाहिए ।
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प्राचीन शब्द-रूपों की शोध के संबंध में एक और कार्य किया गया। प्राचीन माने जाने वाले आगम ग्रंथों में से प्राचीन शब्द रूपों का चयन करके (उनके कार्ड बनाकर ) उनको अकारादिक्रम से जमाया गया जिससे इस सम्पादन में उनका यथास्थान उपयोग किया जा सकें । इस कार्य के लिए जिन ग्रंथों का चयन किया गया वे इस प्रकार हैं। श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक तथा ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित इसिभासियाई (ऋषिभाषितानि) । कहने का तात्पर्य यह है कि इस संपादन में जहाँ तक हो सके सभी तरह से प्राचीन शब्द-रूपों को ग्रहण करने का प्रयत्न किया गया है ।
इस सम्पादन कार्य को प्रारंभ करने और उसे सम्पन्न करने में पं. श्री दलसुखभाई मालवणिया और डो. ह. चू. भायाणी का जो मार्गदर्शन और सहयोग रहा है तथा उन्होंने जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए मैं उनका हृदयपूर्वक आभार मानता हूँ ।
इस ग्रंथ को तैयार करने में कुमारी शोभना आर. शाह लगातार मेरी सहायता करती रही है । अतः उसका भी आभार मानता हूँ। इसके अतिरिक्त अन्य विद्यार्थिनियों प्रीति मेहता, जागृति पंड्या, गीता महेता, अरुणा भट्ट, आदि, आदि ने प्राचीन आगम ग्रंथों, पालि भाषा और अशोक के शिलालेखों के शब्दों के कार्ड तैयार करके जो सहयोग किया है उस कार्य के लिए उनका भी आभार मानता हूँ ।
इस ग्रंथ को तैयार करते समय अन्य विद्वानों और मुनि महाराजों ने भी जो उपयोगी सलाह दी हैं उनका भी मैं अभारी हूँ ।
इसमें जिन जिन मुद्रित संस्करणों का उपयोग किया गया है उनके संपादकों एवं जिन जिन हस्तप्रतों का उपयोग किया गया है उन ज्ञानभंडारों एवं संस्थाओं का आभार मानता हूँ । विशेष करके ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर का और उसके संचालकों का तो अत्यन्त अभारी हूँ क्योंकि उस
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संस्था के पुस्तकालय का मुझे पूरी स्वतंत्रता के साथ उपयोग करने दिया गया है। कतिपय हस्तप्रतों की फोटो अथवा जेरोक्स नकल उपलब्ध करवाने के लिए श्री लक्ष्मणभाई भोजक एवं स्वर्गीय श्री रमेशकुमार दलसुखभाई मालवणिया का भी मैं आभारी हूँ। इस प्रकार के कार्य में पूज्य मुनि श्री जंबूविजयजी (आगमों के संपादक) और पू. मुनि (अब आचार्यपद प्राप्त) श्री शीलचन्द्रविजयजी ने भी यथासंभव जो सहायता की हैं तदर्थ उनका भी बहुत आभारी हूँ।
. इस ग्रंथ के प्रारंभ में महत्वपूर्ण दो शब्द लिखने के लिए विद्वद्वर्य पं. श्री दलसुखभाई मालवणिया, प्रो. डॉ. ए. एम. घाटगे, प्रो. डॉ. हरिवल्लभ भायाणी, पू. मुनि श्री विजयशीलचन्द्रविजयजी (अब सूरिजी), इत्यादि का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ।
इस ग्रंथ के विषय में प्रकाशित होने के पूर्व इस संस्करण में रुचि लेकर जिन जिन विद्वानों ने अपने अपने बहमूल्य अभिप्राय व्यक्त किये हैं (जिन्हें इसी ग्रंथ में समाविष्ट किया गया हैं) उन सभी सज्जनों का मैं हृदयपूर्वक अभार मानता हूँ।
इस प्रकाशन के प्रूफ संशोधन में कुमारी शोभना आर. शाह ने जो सहायता की है उसके लिए भी आभार प्रदर्शित करता हूँ ।
____ अन्त में इस कार्य को सम्पादित करने में जिन जिन महानु वों ने मुझे प्रोत्साहित किया, उपयोगी सलाह-सूचन दिया, एवं अन्य प्रकार से जो भी सहायता की उन सब का मैं हृदय-पूर्वक आभार मानना अपना एक पवित्र कर्तव्य-धर्म समझता हूँ।
सधन्यवाद, महावीर जयन्ती
भवदीय चैत्र शुक्ल त्रयोदशी
-के. आर. चन्द्र अहमदाबाद *दिनांक २०-४-९७ ★ सामान्य प्रजा की जानकारी एवं जैन समाज की जागृति के लिए दिनांक २७-४-९७
अहमदाबाद में इस ग्रंथ के विमोचन का जो कार्यक्रम आचार्य श्री विजयशीलचन्द्रसूरिजी ने आयोजित किया है उसके लिए उनका और सहयोग करनेवाली संस्थाओं का आभार मानते हुए मुझे हर्ष होता है ।
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अर्धमागधी का मूल स्वरूप निर्णीत करने का
स्तुत्य प्रयास भगवान महावीर ने अपना उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिया थायह बात भगवतीसूत्र से सुप्रसिद्ध है । अतएव डॉ. चन्द्रा जो अर्धमागधी की खोज में व्यस्त हैं, उनका ध्यान आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध की ओर जाय यह स्वाभाविक है। उन्होंने आचारांग के प्रथम अध्ययन को अर्धमागधी भाषा में रूपान्तरित करने का जो प्रयत्न किया है वह प्रशंसनीय है । उसे देखने का सुअवसर मुझे मिला है यह मेरा सद्भाग्य है और अध्ययन करने के बाद यह अब मैं कह सकता हूँ कि डॉ. चन्द्रा ने जो किया है वह वे ही कर सकते हैं क्योंकि उनका ध्यान वर्षों से इस ओर है कि वास्तविक दृष्टि से अर्धमागधी भाषा का क्या स्वरूप हो । यह कार्य सरल नहीं है किन्तु डो. चन्द्रा ने अर्धमागधी भाषा के स्वरूप के विषय में अध्ययन किया है और अब उनके समक्ष उसका स्वरूप स्पष्ट हुआ है। अतएव वे इस बात को स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि अर्धमागधी भाषा का स्वरूप ऐसा है। आचारांग को लेकर उन्होंने जो कार्य किया है वह अपूर्व है और इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं ।
जैन आगमों की भाषा दुर्भाग्य से मात्र अर्धमागधी न रहकर महाराष्ट्री से बहुत प्रभावित हो गयी है। अतः आगमों की मूलभाषा के विषय में संशोधन हो यह प्रशंसनीय ही होगा और यह कार्य डो. चन्द्रा कर रहे हैं अतएव वे धन्यवाद के पात्र हैं यह निःसन्देह है।
अहमदाबाद ११-८-९६
-पं. दलसुख मालवणिया
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A NEW DIRECTION IN JAINA CANONICAL
RESEARCH Since past several years Dr. K. R. Chandra has been examining and discussing the language and character of the preserved texts of the Svetāmbara Agamas, which are said in the earliest known Jain tradition, to have been in the Addhamăgaha Bhāsā. i.e. Ardhamāgadhi language. What were the characteristics of that Ardhamāgadhi ? The original language has undergone changes over centuries. How to arrive at or recover that original text ? How far does the information given about Ardhamāgadhi by traditional Prakrit grammars presents a real picture of the Āgamic Ardhamāgadhi ? These are the problems to which Dr. Chandra has addressed himself in his earlier writings. His present latest attempt aims at applying his resultant concept and principles of restoration to one small part of the Ardhamagadhi texts by way of a sample demonstration, viz. the first chapter of the first Amya. the Āyāramga, which scholars have accepted as the earliest among the Āgama texts.
Dr. Chandra goes about the task he has undertaken here in a quite systematic manner. First he presents a concordance of the orthographic variants sūtra-wise from the editions of the Mahavir Jain Vidyalay, Āgamodaya Samiti, Jain Vishvabharati, from Śilānka's commentary and from several earliest known Mss. of the 13th, 14th and 15th century. Next he has documented variation between writing the nasal consonant as dot or a homo-organic nasal, between n and ņ, between preservation, voicing or elision of an intervocalic stop (or the stop constituent of an aspirate stop).
Next follows the restored text of Āyāramga I on the basis of the available archaic' readings. In the fourth section is given statistical information about certain phonetic changes as seen in earlier and later forms. A complete alphabetical index of all the word-forms of the restored text is given. Finally, there has been presented in parallel columns the restored text along with the corresponding texts according to the known earlier editions.
Thus Dr. Chandra's present work succeeds, substantiated
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as it is by evidence based on comparative documentation and assessment of all available textual data, in giving as a glimpse of some phonological and morphological features of the original Agamic Ardhamagadhi, of which we find a later forn in the Eastem Asokan.
Let us earnestly hope this important research work is further taken up by other students of the Ardhamāgadhi canon, at least with regard to the seniors of the canon, i.e. the texts of the first two canonical stages (see Suzuko Ohira : A Study of the Bhagavatisútra, chapter 1), for which Dr. Chandra has given the lead and has demonstrated the method.
Due to the inevitable impact of the dominant literary medium firstly in the times of the Mathurā recension (literary Sauraseni)and secondly during the times of Valabhi recension (literary Mahārāstri), several phonological and morphological traits of the original became gradually altered. Modem researches in the history of the development of Middle Indo-Aryan help us in ascertaining the original readings from the preserved text tradition.
This is of course one of the several aspects of the task of restoring the Āgamic texts. Tracing and locating old words and meanings, expressions, phrases, verses, stylistic devices, themes. legends and tales that are specific and commonly shared by the early stratum of the Ardhamăgadhi and the Pāli canonical texts, along with the chronologi 2) stratification (besides the help available from the Eastern Asokan) are other requisites for forming a sound, authentic and trustworthy idea of the original character of the Agamic texts and the historical changes they have undergrone. Considerable work of course has been already done by numerous scholars in this direction, which requires to be vigorously furthered.
Ahmedabad September 25, 1996
-Prof. H. C. Bhayani
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A CONSTANT CONTINUOUS, AND LAUDABLE EFFORT
Excuse me being so late in expressing my views on your constant continuous and laudable effort to build up the earliest structure of Ardhamāgadhi as seen in the oldest books of the canon, particularly Ayaraṁga and Suyagaḍaṁga. I agree with you whole-heartedly and express my admiration at the labour you have taken to go into the statistical evidence for your conclusions.
You have confined yourself to the phonology of the language and you have included a few grammatical forms and a few rare words. You merit greatest praise for your work and the assumption that the oldest Ardhamägadhi retained the old Indo-Aryan stops like k, t and p as also, g, d, and b as does Pali in most cases. You will have also to consider the retention of nasal 'n' (dental) which is the only nasal in Pāli and it rarely uses 'n' (cerebral nasal). The clusters 'nn' and 'nn' are used without distinction and one may consider the dental cluster 'nn' as earlier than 'ņņ'.
BORI, (Pune) 24-10-96
मान्य भाई,
जिनागमों के क्षेत्र में आपका उल्लेखनीय योगदान है । इस पर हम सबको गर्व है और हम सब आपके प्रति गहन सामाजिक कृतज्ञता का अनुभव
करते हैं ।
इन्दौर ३-६-९४
-Prof. A. M. Ghatage
नेमीचंद जैन (संपा. तीर्थंकर)
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Dear Dr. Chandraji,,
Many thanks for your letter No.288 dt. 22-5-92. I received the book "Prācina Ardhamāgadhi ki Khoja men' in due time. It is an excellent piece of research. It throws enough light on ancient Ardhamāgadhi language of the Jaina Scriptures. Is it possible for you to edit the 1st part of the Acārānga-sūtra applying the principles formulated in your book ? It will be a monumental work if done by you. Ladnun
-Nathmal Tatia 31-2-92
ધર્મલાભ, વિસ્તારથી પત્ર આજે મળ્યો. મારે અભ્યાસ કરવો પડશે. તમારા ઘણા ઘણા શ્રમ માટે ખૂબ ખૂબ અભિનંદન. કરો આચારાંગનું કામ હું ખૂબ રાજી છું. દેવગુરુકૃપાથી સુખસાતા છે. તમને પણ સદા હો.
આદરીયાણા, વિરમગામ, ગુજરાત
-यूविय २२-७-८२
(टन सामान विद्वान् संपा। मुनिश्री)
विद्वद्वर श्री के. आर. चन्द्रा, सादर धर्मलाभ,
...लेख देखा । सचमुच में यह बहुत उत्तम प्रयास है । हमारे आगमग्रन्थ की मूल भाषा व शब्दावली क्या थी, क्या होनी चाहिए, इस विषय को लेकर चल रहा यह अन्वेषण हमें अपने तीर्थंकरों की निजी बानी तक पहुँचा सकती है। मैं आपको धन्यवाद के साथ इस विषय को पूर्ण रूप देकर पूरे आचारांग (भाग १) के पाठ को इस ढंग से तैयार करने का अनुरोध करता हूँ।
महुवा (गुजरात)
- शीलचन्द्रविजय २२-१२-९२ (सूरिसम्राट श्री नेमिसूरीश्वरजी के समुदाय के विद्वान् मुनि श्री)
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जैन संघ के लिए गौरवरूप घटना
[श्रमण भगवान् महावीर के मौलिक उपदेश जिस पुस्तक में ग्रंथस्थ है उस 'आचारांग' यानी जैन अर्धमागधी आगम साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथ का भाषिक दृष्टि से पुनः सम्पादित संस्करण के विषय में आचार्य श्री विजयशीलचंद्रसूरिजी]
___ भगवान महावीर की भाषा अर्धमागधी थी, यह तो आगमों एवं परंपरा में अतिप्रसिद्ध एवं स्वीकृत बात है। मुख्य बात है यहां भाषा- परिवर्तन की : भगवान् की भाषा बदल कैसे गई ? अर्धमागधी के अवशेष भी न मिले इस हद तक महाराष्ट्री प्रविष्ट हो गई, यह कैसे ?
___लगता है कि जैसे भगवान् ने लोकभाषा को प्राधान्य दिया था उसी तरह हमारे पूर्वाचार्यों ने भी समय के एवं देशों के परिवर्तन के साथ साथ बदलती हुई लोकभाषा को प्राधान्य दिया और मरहट्ठी प्राकृत के यानी महाराष्ट्री प्राकृत भाषा के बढ़े हुए व्यवहार को लक्ष्य में लेते हुए आगमों को भी उसी भाषा में ढलने दिये । आखिर तो वे थे धर्मग्रंथ और उनका प्रयोजन था भगवान् के तत्त्वोपदेश को लोकहृदय तक पहुँचाना । वह तो लोकभोग्य या लोकप्रिय भाषा के जरिये ही हो सकता था ।
किन्तु इस प्रक्रिया में भगवान् की मूल जबान हमारे पास न रह सकी । अर्धमागधी महदंश में नामशेष हो गई । आज जो कुछ मिलता है वह फुटकर अवशेषों से ज्यादा नहीं और ऐसे अवशेषों को इधर उधर से ढूंढना-जुटाना यह तो एक पुरातत्त्वविद् का सा कार्य
मैं कहना चाहूँगा कि जैसे एक पुरातत्त्वविद् पथरे-ठीकरों को ढूंढते-ढूंढते अतीत के गुप्त-लुप्त वैभव को उजागर कर देता है, ठीक उसी तरह हमारे भाषा-पुराविद् डॉ.के.ऋषभचन्द्र (के.आर.चन्द्र)अर्धमागधी भाषा के विषय में खोज कर रहे हैं। आचारांग का प्रथम अध्ययन उन्होंने जिस परिश्रम से तैयार कर दिखाया है, वह सचमुच हमारे लिए आश्चर्यजनक है और पूरे जैन संघ के लिए गौरवरूप भी । भगवान् की खुद की भाषा और उनके प्रयुक्त शब्द सुनने-पढ़ने को मिले इससे बढ़कर और कौनसा गौरव हमारे लिए - एक जैन के लिए हो सकेगा भला ?
मैं चाहता हूँ कि डॉ.चन्द्रजी आचारांग के पूरे प्रथम श्रुतस्कन्ध को इसी ढंग से तैयार करें । उनका यह प्रदान शकवर्ती (ऐतिहासिक) व युगों तक चिरंजीव रहेगा, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है।
अंत में, भगवान् महावीर की कृपा उन पर सदैव बरसें और वे जिनागम की इस ढंग की सेवा करते करते अपना कल्याण पा लें ऐसी शुभकामना व्यक्त करता हूँ। कदम्बगिरि तीर्थ
-विजयशीलचन्द्रसृरि पालिताणा, गुजरात
[सूरिसम्राट् श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी के समुदाय २०५३, मार्गशार्ष शुदि ३
के श्री विजयसूर्योदयसूरीश्वरजी के शिष्य] २३-१२-९६
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(भूप मा गुराती भाषामi)
-आगम-प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी का मत
उपलब्ध हस्तप्रतों में जैन आगमों की अर्धमागधी भाषा में
आगत विकृतियाँ
Views of Agama-prabhākara Muni Śri
Puņyavijayaji
On the Form of the Original Language of Jain Ardhamāgadhi Texts as it is found
ALTERED IN THE PRESERVED MANUSCRIPTS
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विद्वद्वर्य मुनि श्री पुण्यविजयजी द्वारा संपादित 'कल्पसूत्र' में
से उद्धृत अंश* १. भाषा भने भौतिs 4ust (१४ ३-४) ।
પતિઓમાં ભાષાદષ્ટિએ અને પાઠોની દષ્ટિએ ઘણું સમવિષમપણું छे..... शुद्ध पाहोनी विशे तो पूछवानुं ४ | डोय?
કોઈ પણ જૈન આગમની મૌલિક પ્રાચીન કે અર્વાચીન સાથંત સાંગોપાંગ અખંડ દ્ધ પ્રતિ એક પણ આપણા સમક્ષ નથી. તેમ જ ચૂર્ણિકાર-ટીકાકાર આદિએ કેવા પાઠો કે આદર્શોને અપનાવ્યા હતા એ દર્શાવનાર આદર્શ પ્રતિઓ
१. भाषा और मौलिक पाठ
भाषा और पाठों की दृष्टि से प्रतिओं में बड़ी ही समविषमता है .....' अशुद्ध पाठों के विषय में तो कहना ही क्या ?
किसी भी जैन आगम की एक भी मौलिक प्राचीन या अर्वाचीन साद्यंत सांगोपांग अखंड शुद्ध प्रति अपने समक्ष नहीं है। तथा च चूर्णिकार-टीकाकार आदि ने कैसे पाठ और आदर्शों को अपनाया था ऐसा दर्शानेवाली आदर्श प्रतियाँ
1. Language and Original Text
From the points of view of language and text there is great disparity in the manuscripts, what to say about corrupt readings.
There is before us not a single original old or young manuscript which is wholly, entirely and perfectly correct. And that kind of sources (having original readings) are also not before us which can guide us to rely on the text and ★ कल्पसूत्र (गुजराती भाषांतर साथे), साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद, ई.स.
१९५२ । गुजराती भाषा में उद्धृत मूल अंश है । उसका अनुवाद हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में दिया गया है - संपादक
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પણ આપણા સામે નથી. આ કારણસર મૌલિક ભાષા ને તેના મૌલિક પાકોના સ્વરૂપનો નિર્ણય કરવો આપણા માટે અતિ દુષ્કર વરતુ છે. અને એ જ કારણને લીધે આજના દેશી-પરદેશી ભાષાશાસ્ત્રજ્ઞ વિદ્વાનોએ આજની અતિ અર્વાચીન હસ્તપ્રતોના આધારે જૈન આગમોની ભાષા વિષે જે કેટલાક નિર્ણયો બાંધેલા છે કે આપેલા છે એ માન્ય કરી શકાય તેવા નથી. જર્મન વિદ્વાન ડૉ. એલ. આલ્સડ મહાશય ચાલુ વર્ષમાં જેસલમેર આવ્યા ત્યારે તેમની સાથે આ વિષયની ચર્ચા થતાં તેમણે પણ આ વાતને માન્ય રાખીને જણાવ્યું હતું કે “આ विषे पुन: मीर विया२ ४२वानी ४३२त छे' (१४. 3).
भी हमारे सामने नहीं हैं। इस कारण मौलिक भाषा और उसके मौलिक पाठों के स्वरूप के बारे में निर्णय करना हमारे लिए अति दुष्कर बात है। इसी कारण से आधुनिक देणी और परदेशी भाषा-शास्त्रीय विद्वानों ने आज की अति अर्वाचीन हस्तप्रतों के आधार से जैन आगमों की भाषा के विषय में जो कितने ही निर्णय लेकर प्रस्तुत किये हैं उन्हें मान्य रखना योग्य नहीं माना जा सकता। जर्मन विद्वान डॉ. एल. आल्सडर्फ महाशय चालू वर्ष में जब वे जैसलमेर आये तब उनके साथ इस विषय में चर्चा की जाने पर उन्होंने भी इस बात को मान्य रखकर कहा था-"इस विषय में पुनः गंभीर विचार करने की आवश्यकता है"।
the manuscripts that were used by the authors of the cūrņis and the commentaries (in Prakrit and Sanskrit respectively). Because of that it is very difficult for us to decide the original form of the textual readings and that of the language too. And also for that reason whatever conclusions have been arrived at and given currency about the actual form of the language of the Jain canonical texts by the modern Indian and Western scholars are not worth recognition. When the German scholar of great repute Dr. Ludwig Alsdorf visited Jaisalmer this year the situation was discussed with him and he also admitted that there was imperative need to reconsider the whole problem seriously.
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ચૂર્ણિકાર મહારાજ સામે જે કેટલાક પાઠો હતા તે આજની ટીકા વાંચનારને નવા જ લાગે તેવા છે (પૃષ્ઠ ૪). २. प्रतिमोभा श०६ प्रयोगानी भिन्नता (पृष्ठ ५-७)
सायीन प्राकृतभा “क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्" (સિદ્ધહેમ, ૮-૧-૧૭૭) આ નિયમનું અનુસરણ જેવું જોવામાં આવે છે તેવું भने तेटj प्राचीन मानतुं तेम४ "ख-घ-थ-ध-भाम् (सिद्धडेभ. ८૧-૧૮૭) વગેરે નિયમોને પણ એટલું સ્થાન ન હતું. આ કારણસર પ્રાચીન
चूर्णिकार महाराज के सामने जो कितने ही पाठ थे वे आज की टीका पढनेवाले को नये ही प्रतीत होंगे-ऐसे पाठ हैं। २. प्रतियों में शब्द-प्रयोग की विभिन्नता
अर्वाचीन (यानी परवर्ती काल की महाराष्ट्री) प्राकृत भाषा में (मध्यवर्ती व्यंजन) "क-ग--च-ज-त-द-प-य-व" के लोप के नियम का अनुसरण जिस प्रकार से देखने को मिलता है वैसा और उस प्रमाण में प्राचीन काल में नहीं था। उसी प्रकार (मध्यवर्ती महाप्राण व्यंजन) "ख-घ-थ-ध-भ" (को 'ह'कार में बदलने के) वगैरह नियमों (सिद्धहेम. ८-१-१७७ और १८७) को भी इतना स्थान प्राप्त नही था। इस कारण से प्राचीन प्राकृत और अर्वाचीन प्राकृत में
The readers of the commentaries that are before us today would find the texual readings therein quite different from those that were before the cūrņikāras, i.e. the Prakrit commentators (of the bygone centuries).
2. Disparity in the use of words (phonological) in the manuscripts.
The frequency that we find in the dropping off of medial consonants- k, g, c, j, t, d, p, y, v-in the younger Prakrit and the loss of the element of occlusion (i.e. the change of aspirates into 'h') from “kh, gh, th, dh, bh” (as per Hema. 8.1.177 and 187), these rules were not applicable to that extent in the older Prakrit (i.e. Ardhamågadhi). On account of that one
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xxi પ્રાકૃત અને અર્વાચીન પ્રાકૃતમાં ઘણીવાર શબ્દ પ્રયોગોની બાબતમાં સમવિષમતા જોવામાં આવે છે (પૃઇ ૫).
આ પાઠભેદો સ્વાભાવિક રીતે જ થઈ ગયા નથી. પરંતુ પાછળના આચાર્યોએ જાણીબુઝીને પણ આ શબ્દ-પ્રયોગોને સમયે સમયે બદલી નાખ્યા છે; અથવા પ્રાચીન પ્રાકૃત ભાષાના પ્રયોગો સાથેનો સંપર્ક ઓછો થવાને લીધે
જ્યારે મુનિવર્ગ સહેલાઈથી તે તે શબ્દ-પ્રયોગોના મૂળને સમજી શકતા ન હોવાથી શ્રીઅભયદેવાચાર્ય, શ્રી મલયગિરિ આચાર્ય વગેરેને તે તે શબ્દપ્રયોગો બદલી નાખવાની આવશ્યકતા જણાઈ અને તેમણે તે તે શબ્દ-યોગોને
अनेक बार शब्द-प्रयोगों के विषय में सम-विषमता देखने को गिलती है।
ये पाठ-भेद स्वाभाविक रूप से ही नहीं हुए हैं, परंतु बाद के आचार्यों ने जानबुझकर ही इन शब्द-प्रयोगों को समय समय पर बदल डाला है; अथवा प्राचीन प्राकृत भाषा के प्रयोगों के साथ का संपर्क कम हो जाने के कारण जब मुनिवर्ग सरलता से उन उन शब्द-प्रयोगों के मूत को नहीं समझ सके तब श्री अभयदेवाचार्य, श्री मलयगिरि आचार्य, इत्यादि को उन उन शब्द-प्रयोगों को बदलने की आवश्यकता प्रतीत हुई और उन्होंने उन उन शब्दप्रयोगों को बदल भी दिया हैं । ऐसा करने से ग्रंथ का विषय समझने
finds disparity in the spelling and form of the same words used in the older and younger Prakrits.
This kind of change in the readings of the text (phonological) has not been due to a natural process but these changes in the spellings of the words (consonantal) have been brought about intentionally by the later pontiffs at different times; or on account of losing contact with the original forms of the ancient Prakrit when the community of monks was unable to understand the original forms of the language (Amg.) Śri Abhayadevācārya, Ācārya Śri Malayagiri, etc. felt necessity to change old forms (into younger forms) and they have transformed the older word-forms. By doing that it became
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બદલી પણ નાખ્યા છે. આમ કરવાથી ગ્રંથનો વિષય સમજવામાં સરળતા થઈ, પરંતુ બીજી બાજુ જૈન આગમોની મૌલિક ભાષામાં ઘણું જ પરિવર્તન થઈ ગયું, જેને લીધે આજે “જૈન આગમોની મૌલિક ભાષા કેવી હતી તે શોધવાનું કાર્ય દુષ્કર જ થઈ ગયું. આ પરિવર્તન માત્ર અમુક આગમ પુરતું મર્યાદિત નથી, પરંતુ દરેક દરેક આગમમાં અને એથી આગળ વધીને ભાષ્યચૂર્ણ ગ્રંથોમાં સુદ્ધા આ ભાષા-પરિવર્તન દાખલ થઈ ગયું છે. એટલે જેને આગમોની મૌલિક ભાષાના શોધકે જૈન આગમ-ભાષ્ય આદિની જુદા જુદા કુલની પ્રતિઓ એકત્ર કરીને અતિ ધીરજથી નિર્ણય કરવાની જરૂરત છે..............................................(જુદા જુદા ભંડારોની में सरलता हो गई, परंतु दूसरी तरफ जैन आगमों की मूल भाषा में बड़ा ही परिवर्तन आ गया, जिससे "जैन आगमों की मूल भाषा कैसी थी" उसे खोज निकालने का कार्य दुष्कर हो गया । यह परिवर्तन मात्र अमुक आगम तक ही मर्यादित नहीं है परंतु हरेक हरेक आगम में और उससे भी आगे बढ़कर भाष्य चूर्णी ग्रंथों में भी यह भाषा-परिवर्तन प्रवेश कर गया है। अतः जैन आगमों की मौलिक भाषा के संशोधक को जैन आगम, भाष्य आदि की अलग अलग कुल की प्रतियां इकट्ठी करके अति धीरज के साथ निर्णय करने की जरुरत है।... convenient to understand the subject matter easily, but on the other hand the original language of the Āgamas 'inderwent a major change and due to that it became very difficult to find out "what was the original form of the language". This transformation is not limited to any one Agama text but it has intruded each and every canonical text including the commentarial works (bhāşya-curņi). Therefore, it requires great patience on the part of a researcher to investigate the original features of the language by collecting the variant readings from the manuscripts of different groups of the above mentioned works. (On having gone through various manuscripts of different repositories (bhandāras) Punyavijayaji comes to the
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જુદી જુદી હસ્તપ્રતો જોઈને મુનિ શ્રી પુણ્યવિજયજી જણાવે છે કે, આ બધા અવલોકનને પરિણામે ય જૈન આગમોની મૌલિક ભાષાનું વાસ્તવિક દિગ્ગદર્શન કરાવવું અશક્ય પ્રાય છે, તેમ છતાં આ રીતે એ ભાષાના નજીકમાં પહોંચી शवानी ४३२ शस्यता छ (५७६).
........ विविध ॥२॥ने साधीन थईने छैन् मागभीनी भौति ભાષા પણ ખીચડું જ બની ગઈ છે. એટલે જૈન આગમોની મૌલિક ભાષાનું અન્વેષણ કરનારે ઘણી જ ધીરજ રાખવી જરૂરી છે (પૃઇ ૭). 3. नियुक्ति सने यूीिनी भाषा (पृष्ठ १४-१५)
અહીં પ્રસંગોપાત જૈન મુનિવરોની સેવામાં સવિનય પ્રાર્થના છે કે
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(अलग अलग भंडारों की अलग अलग हस्तप्रतों का निरीक्षण करके मुनि श्री पुण्यविजयजी दर्शाते हैं कि) इस सारे अवलोकन के बाद भी जैन आगमों की मूल भाषा का वास्तविक दिग्दर्शन करवाना प्रायः अशक्य है । ऐसा होते हुए भी उस भाषा के नज़दीक पहुंचने की संभावना अवश्य है ।
...... विविध कारणों के आधीन होकर जैन आगमों की मूल भाषा खिचड़ी ही बन गई है । अतः जैन आगमों की मूल भाषा का अन्वेषण करने वाले को बहुत ही धैर्य रखने की आवश्यकता बनी रहती है। ३. नियुक्ति और चूर्णि की भाषा
प्रसंगोपात् यहाँ पर जैन मुनिवरों की सेवा में सविनय प्रार्थना है कि
conclusion that) It has become impossible to demonstrate the real form of the original language of the Jain canonical literature but even then it is possible to find out tentatively the actual form of the language. Under the influence of various factors the language of the Jaina Aşamas has become botchpotch (of variou dialects) and consequently a researcher who wants to investigate the original feat ires of the language should possess great patience.
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xxiv જૈન આગમો અને તે ઉપરના નિર્યુક્તિ-ભાગ્ય-ચૂર્ણ આદિ વ્યાખ્યા ગ્રંથોનું વાસ્તવિક અધ્યયન અને સંશોધન કરવા ઇચ્છનારે પ્રાકૃત આદિ ભાષાના ગંભીર જ્ઞાન માટે શ્રમ લેવો જોઈએ. આ જ્ઞાન માટે માત્ર ભગવાન શ્રી હેમચંદ્રાચાર્યકૃત પ્રાકૃત વ્યાકરણ બસ નથી. પ્રાકૃત ભાષાના અગાધ સ્વરૂપને જોતાં શ્રી હેમચંદ્રકૃત પ્રાકૃત વ્યાકરણ એ તો પ્રાકૃત ભાષાની બાલપોથી જ બની श्रय छ (पृष्ठ १४).
જૈન આગમોના અધ્યયન અને સંશોધન માટે જેટલી ભાષા-જ્ઞાનની
जैन आगम और उस पर के नियुक्ति-भाष्य-चूर्णि आदि व्याख्या ग्रंथों का वास्तविक अध्ययन और संशोधन करने के इच्छुक व्यक्ति को प्राकृत आदि भाषा के गंभीर ज्ञान के लिए परिश्रम करना चाहिए । इस प्रकार के ज्ञान के लिए सिर्फ भगवान् श्री हेमचन्द्राचार्यकृत 'प्राकृत व्याकरण' ही पर्याप्त नहीं है। प्राकृत भाषा के अगाध स्वरूप को देखते हुए श्री हेमचन्द्राचार्यकृत 'प्राकृत व्याकरण' तो प्राकृत भाषा की एक बालपोथी के समान है। ___ जैन आगमों के अध्ययन और संशोधन के लिए जितने भाषा-ज्ञान की
3. Language of the Niryuktis and Carpis
In this con text a request is hereby being made to the reverend Jain monks that one who wants to have precise knowledge of Prakrit language of the Jaina Āgamas and niryuktibhāsyas as well as cürņis should take pains to do hard labour in this field. For acquring this type of knowledge the treatise on Prakrit gra mar by Hemacandrācārya is not sufficient. On takilig into account the intricate distinct features of the Prakrit l'anguag - the grammar on Prakrit by Hemacandra is like a school primer. As much minute knowledge of linguistics is essential for the stud' and research of the Jain canonical literature that much acquainta ce of the science of writing (orthography)
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XXV આવશ્યકતા છે તેટલી જ જરૂરીયાત ઉત્તરોત્તર લેખકદોષાદિને કારણે અશુદ્ધિના ભંડારરૂપ બની ગએલ જૈન આગમો અને તે ઉપરના નિયુક્તિ-ભાષ્ય આદિ વ્યાખ્યા-ગ્રંથોના અધ્યયન આદિ માટે પ્રાચીન ગ્રંથસ્થ લિપિ અને તેમાંથી લેખકોએ ઉપજાવી કાઢેલા ભ્રામક પાઠો કે વિવિધ પ્રકારના લિપિદોષોના જ્ઞાનની પણ છે.
આ લિપિની મૌલિકતા અને લેખકોએ કરેલી વિકૃતિઓનું ભાન જેટલું વિશેષ એટલી જ ગ્રંથ-સંશોધનમાં સરળતા રહે છે (પૃષ્ઠ ૧૫).
आवश्यकता है उतना ही ज्ञान इस तथ्य का भी होना चाहिए कि उत्तरोत्तर काल में (लेहियों के) लिपिकारों के दोषादि के कारण अशुद्धियों के भंडाररूप जैन आगम और उस पर लिखी गयी नियुक्ति-भाष्य आदि व्याख्या-ग्रंथों के अध्ययन के लिए प्राचीन (ग्रंथों की) लिपिशास्त्र का ज्ञान और उसमें से लिपिकारों के द्वारा कल्पित भ्रामक पाठों के सम्बंध में विविध प्रकार के लिपि-दोषों के ज्ञान की भी उतनी ही आवश्यकता है। इस लिपि का मौलिक स्वरूप और लिपिकारों के द्वारा की गयी विकृतियों की जितनी विशेष समझ उतनी ही ग्रंथ के पाठों के संशोधन में सरलता रहती है।
is also necessary. Due to scribal errors corrupt textual readings were presumed by the copyists and consequently a number of mistakes were committed by the later copyists. As a result of that the language of the Jaina Āgamas, niryuktis as well as bhāsyas (commentarial works) has become a mess of mistakes of corruptions. The extent to which we are conversant with the original character of the script and its deformation by the scribes that much simpler it would be in editing correctly the text of these ancient works.
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अचू. आगमो. आचा.
आचाचू. आचावृ. आवचू. इसिभा. उत्तरा. ऋषिमा.
ग्रंथ-संकेत दशवैकालिकसूत्र पर अगस्त्यसिंह की चूर्णि आगमोदय समिति, महेसाणा का संस्करण आचाराङ्गसूत्र (आयारंगसुत्तं, मजैवि. १९७७; आयारो (अंगसुत्ताणि-१), जैविभा. वि. सं. २०३१, ई.स. १९७४ आचाराङ्गसूत्र, वा. शुब्रिग, १९१०; आगमो. १९१६) आचाराङ्गचूर्णि, रिषभदेव केशरीमल, रतलाम, १९४१ आचाराङ्ग पर शीलाङ्काचार्य की वृत्ति, आगमो. १९१६ आवश्यकचूर्णि, रिषभदेव केशरीमल, रतलाम, १९२८ देखो ऋषिभा. उत्तराध्ययनसूत्र, देखो दशवै. ऋषिभाषितानि (इसिभासियाई), वा. शुब्रिग, ला. द. भा. संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद, १९७४. चूर्णि चूर्णिपाठ जैन विश्व भारती, लाडनूं का संस्करण दशवैकालिकसूत्र (दसवे यालियसुत्तं, उत्तरज्झयणाई, आवस्सयसुत्त), मजैवि. १९७७ नीशीथसूत्रचूर्णि, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९५७-६० प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी, १९६२ पञ्चाशकवृत्ति पाठ पादटिप्पण पाठान्तर
चूपा. जैविभा. दशवै.
नीशीथचू. पउमचरियं
पञ्चावृ.
पा. पाटि.
पाठा.
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पिशल.
प्रति
प्रति मजैवि. वसुदेवहिडि
कम्पेरेटिव ग्रामर ओफ द प्राकृत लैंग्वेजेज, आर. पिशल (सुभद्र झा), मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, १९६५ पृष्ठ आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक (मजैवि.) में उपयोग में ली गयी प्रतियां हमारे द्वारा उपयोग में ली गयी प्रतियों का संकेत महावीर जैन विद्यालय, बम्बई का संस्करण वसुदेवहिण्डिप्रथमखण्डम्, आत्मानन्द सभा, भावनगर, १९३० वृत्ति दशवैकालिकसूत्र पर वृद्धविवरणम् शीलाङ्काचार्यवृत्ति (जिस प्रति के पहले शी. जुड़ा है उस प्रति में शीलाङ्काचार्य-वृत्ति से सम्मत पाठ) वाल्थर शुब्रिग महोदय द्वारा सम्पादित आचाराङ्गसूत्र, लीपजिग, १९१० जिस प्रति के आगे सं. जुड़ा है वहां पर उस प्रति में संशोधित
पाठ
समवा.
सूत्रकृ. स्था.
समवायाङ्गसूत्र, आगमो. १९१८ सूत्रकृताङ्गसूत्रम्, मजैवि. १९७८ स्थानाङ्गसूत्र, आगमो. १९१८-२०
हस्तप्रत-संदर्भ-संकेत इस ग्रंथ के संपादन में जिस सामग्री का उपयोग किया गया है वह इस प्रकार है -
श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित आचाराङ्गसूत्र (इ. स. १९७७) के सम्पादन में जिन प्रतियों का उपयोग किया गया है और उनमें से जो पाठान्तर दिये गये हैं उनका इस संस्करण में उल्लेख किया गया है । उस ग्रंथ के अनुसार प्रतियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है--
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"
" ' कंन
xxviii ताड़पत्र की प्रतियां संघवी पाडा ज्ञान भंडार, पाटण, वि. सं. १३वीं शती श्री शांतिनाथ ताड़पत्रीय जैन ज्ञान भंडार, खंभात, वि. सं. १३०३ श्री शांतिनाथ ताड़पत्रीय जैन ज्ञान भंडार, खंभात, वि. सं. १३२७ खेतरवसी पाडा भंडार, पाटण संघवी पाडा ज्ञान भंडार, पाटण, वि.सं. १४६७ श्री जिनभद्रसूरि जैन ज्ञान भंडार, जैसलमेर, वि. सं. १४८५
कागज़ की प्रतियां
जैन साहित्य विकास मंडल, बम्बई हे १, २, ३, श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान भंडार, पाटण इ.
जैन श्वेताम्बर संघ, इडर , वि. सं. १५५२ ला, ला १ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद
___ आचाराङ्ग की जो जो प्रतियां हमें स्वयं को देखने को मिल सकीं उनका हमने उपयोग किया हैं और उनका परिचय इस प्रकार है
देखिए ऊपर 'शां', वि. सं. १३०३ देखिए ऊपर 'खं', वि. सं. १३२७ देखिए ऊपर 'जे', वि. सं. १४८५ भांडारकर ओरियन्टल रीसर्च इंस्टीट्यूट, पूना, नं ७८, वि. सं. १३४८ (शुब्रिग महोदय द्वारा आचाराङ्ग के सम्पादन में उपयोग में ली गयी प्रति) श्री मुक्तिविजय जैन लाइब्रेरी ( की भेंट में दी गयी ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर ) की कागज़ की प्रति, नं. १८७७२ पन्द्रहवीं शती
6.
.
स
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Dedication
Publisher's Note
सम्पादकीय
इस संस्करण के विषय में विविध विद्वान
जैन आगमों की अर्धमागधी भाषा में आगत विकृतियों के
सम्बन्ध में मुनिश्री पुण्यविजयजी का मत
ग्रंथ-संकेत
हस्तप्रत संदर्भ संकेत
विभाग- १
(अ) Introduction
(ब) प्रस्तावना
विभाग- २
आचाराङ्ग के शब्द - पाठों की विविध संस्करणों, हस्तप्रतों, अन्य आगम ग्रंथों तथा आगमेतर प्राचीन प्राकृत ग्रंथों के शब्द- पाठों के साथ तुलना
विभाग - ३
आचाराङ्ग के प्रथम श्रुत- स्कंध के प्रथम अध्ययन का
भाषिक दृष्टि से पुनः सम्पादन
विभाग-४
अनुक्रमणिका
शब्दों में ध्वनिगत परिवर्तन
विभाग-५
प्रथम अध्ययन के सभी शब्दरूपों की अनुक्रमणिका
विभाग - ६
विभिन्न संस्करणों के पाठों की तुलना
परिशिष्ट Appendix
पृष्ठ
iii
V
vill
xi
xvii
xxvi
xxvii
१
१३
७३
१५७
१६७
१९७
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PUBLICATIONS OF 'PRAKRIT JAIN VIDYA VIKAS FUND'
AHMEDABAD भारतीय भाषाओं के विकास और साहित्य की समृद्धि में श्रमणों का
महत्वपूर्ण योगदान : के. आर. चन्द्र, १९७९, रू. 10-00 २. प्राकृत-हिन्दी कोश : के. आर. चन्द्र (पाइयसद्दमहण्णवो की किंचित्
परिवर्तित आवृत्ति), १९८७, रू. 120-00 ३. English Translation of Kouhala's Lilavai-Kaha - Prof. S. T. Nimkar,
1988, रू. 30-00 नम्मयासुंदरीकहा (श्री महेन्द्रसूरिकृत, हिन्दी अनुवाद सहित),
के. आर. चन्द्र, १९८९, रू. 40-00 ५. आरामशोभा रासमाला (गुजराती) : प्रो. जयंत कोठारी, १९८९,
रू. 90-00 ६. जैनागम स्वाध्याय : पं. दलसुखभाई मालवणिया (गुजराती), १९९१
रू. 100-00
जैनधर्म स्वाध्याय: पं. दलसुखभाई मालवणिया (गुजराती), १९९१,
रू. 40-00 ८. जैन आगम साहित्य : संपा. के. आर. चन्द्र, १९९२,
रू. 100-00 प्राचीन अर्धमागधी की खोज में : के. आर. चन्द्र, १९९२,
रू. 32-00 १०. Restoration of the Original Language of Ardhamāgadhi Texts :
. R. Chancra, 1994, रू. 60-00 ११ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी : के. आर. चन्द्र, १९९५, .
रू. 50-00 १२. Jain Philosophy and Religion : K.R. Chandra, 1996,
रू. 12-00 १३. आचाराङ्ग : प्रथम श्रुत-स्कंध : प्रथम अध्ययन (हस्तप्रतोर में उपलब्ध प्राचीन
पाठों (शब्द-रूपों) के आधार पर पुनः संम्पादित, १९९७, रू. 150-00 १४. इसिभासियाइं (ऋषिभाषितानि), अशेष शब्द-रूप कोश (प्रेस में)
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विभाग-१
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(अ) Introduction (ब) प्रस्तावना
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fa-1 (31) Introduction*
The Acaränga is the oldest Ardhamāgadhi Text of the Svetambara Canonical literature but its language has undergone constant changes at the hands of readers and copyists from generation to generation due to influence of the changing form of the popular Prakrit language, and also on account of the influences of the grammatical treatises of post-dated grammarians. There is no uniformity of language (see in Section 2 Comparative Tables of Variant Readings, specially in the spellings of the words, i. e. in the phonology) in any published edition or in the availble Mss. (whether palm-leaf or paper) of the text. One comes across Prakrit forms of three different stages, sometimes in the same sentence, verse, paragraph or chapter, occasionally archaic and younger forms go together. Additionally there are soemtimes younger forms in older texts and older forms in younger texts of Ardhamägadhi as well as Mss.
*
Readers are requested to go through the following three works of the author published by Prakrit Jain Vidya Vikas Fund, Ahmedabad-15
1. प्राचीन अर्धमागधी की खोज में, 1991-1992
2. Restoration of the Original Language of Ardhamägadhi Texts, 1994
3. परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी, 1995
Their study will be helpful in understanding properly the method followed in preparing this edition and reconstituting the oldest form of the language of the text as far as possible.
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२] Introduction
In preparing this edition the Acārānga published by the Mahāvīra Jaina Vidyālaya, Bombay (MJV) has been made the base of our text because in it there has been made use of a number of manuscripts in comparison with other editions. Moreover it preserves on a large scale medial consonants which is lacking in other editions. Inspite of these merits still at a number of places there are readings which deserve replacement by older forms which are available in the manuscripts of this text itself or in other older Ardhamāgadhi texts. For this purpose, i.e. for the restoration of archaic forms, a word to word index of forms from the five older Ardhamāgadhi Agama texts, viz. Ācārānga, Sūtrakstānga, Rşibhāṣitāni, Uttarādhyayana and Daśavaikālika was prepared. With the help of this data younger forms (Mahārāstri) are replaced by older (Ardhamāgadhi) ones. . In support of this kind of replacement we have quoted particular Ardhamāgadhi texts or quotations in them from other texts where the concerned forms are traced. Once an older form is quoted again it is generally not mentioned for support at other places of its recurrence. In this way original medial consonants are restored in a number of cases.
Further we have not changed the initial and medial dental nasal ‘n’to cerebral nasal ‘n’. Conjuncts like 'jña', ‘nya' and 'nna’ are represented by ‘nna' in place of cerebral ‘ņņa’ which is specially a feature of Mahārāștri Prakrit. Original nasal in a conjunct with the consonant
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आचाराङ्ग
[3]
2. 31. FREE of the same class is preferred to the anuswära.
Nominal case suffixes, mas. nom. sg. -e, neu. nom. accu. plu. -ni, inst. sg. -ena and -tå, abl. sg. -to, inst. plu: -hi, loc. plu. -su, etc, are preferred to -0, -im, enam and -ă, -o, and -his, -sum respectively, i.e. whatever is linguistically older that is preferred to younger one."
Verses are preserved according to the edition of the Ācārāngasūtra by Walther Schubring.
Whichever reading of the MIV. edition of the Ācārārga is replaced in this text is given in the foot
note.
To sum up it has been tried as far as possible to restore that reading of the text which is linguistically an archaic form and is properly supported by its occurence in the manuscripts of the text itself or other older published Amg. Agamic texts.
However, it is to be sincerely admitted that this edition is also not the last and final one. It is possible that new material might come into light and in that case revision of the text-constitution would be the desideratum.
K. R. Chandra
1.
See the concerned topics in the text No. 3 quoted supra in the foot-note on the page No. 1. Leipzig, 1910, In Kommission bei F.A. Brockhaus.
1. 2.
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आचाराङ्ग
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के. आर. चन्द्र
..
विभाग-1 (ब) प्रस्तावना
एक अनुरोध (आंचारांग के इस तरह के नये तरीके से संपादन को योग्य रूप से समझने के लिए प्राकृत भाषा के विद्वानों और पाठकों से सर्वप्रथम एक नम्र अनुरोध है कि अर्धमागधी भाषा के प्राचीन एवं मूल स्वरूप को जानना आवश्यक है और इस सम्पादित संस्करण के पाठों को पचाने के लिए पूर्व भूमिका के रूप में मेरे तीनों ग्रन्थों (प्रकाशक : प्राकृत जैन विद्या विकास फंड, अहमदाबाद-380015)1. प्राचीन अर्धमागधी की खोज में, 1991- 92 2. Restoration of the Original Language of
Ardhamagadhi Texts, 1994 और 3. परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी,
1995 को पढ़ने का कष्ट करें जिससे स्वीकृत पाठों को समझने में किसी प्रकार की भ्रान्ति न हो।।
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आचाराङ्ग
[७]
के. आर. चन्द्र
प्रस्तावना जैन अर्धमागधी आगम साहित्य के आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषितानि, उत्तराध्ययन के कतिपय अध्ययन और दशवैकालिकसूत्र प्राचीनतम रचनाएँ मानी गयी हैं। उनमें भी विषय, शैली और भाषिक दृष्टि से आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध सबसे प्राचीन रचना है । प्रो. याकोबी के अनुसार इन प्राचीन रचनाओं का समय ई.स. पूर्व तीसरी सदी है। इस मन्तव्य के अनुसार प्राचीन आगम ग्रंथों की भाषा भी प्राचीन होनी चाहिए, परंतु इन ग्रंथों के उपलब्ध संस्करणों और प्रतियों में सर्वत्र ऐसा नहीं पाया जाता है ।
भ. महावीर और भ. बुद्ध एक ही काल में विद्यमान थे। परंतु पालि भाषा और अद्यावधि प्रकाशित जैन आगमों की अर्धमागधी में बहुत अन्तर है । सम्राट अशोक के पूर्वी भारत के शिलालेखों की भाषा के साथ भी अर्धमागधी पूर्णतः समानता नहीं रखती है, हाँ कितने ही प्रयोग ऐसे हैं जो उससे साम्य रखते हैं । अर्धमागधी आगमों की भाषा में इतना परिवर्तन क्यों आ गया । कारण स्पष्ट है - मौखिक परंपरा, बदलती हुई जन-भाषा और परवर्ती प्राकृत व्याकरणकारों का पंडितों और लेहियों पर प्रभाव पड़ा और स्थलान्तर से भी भाषा के रूप बदलते गये। किसी प्रत में प्राचीन रूप मिलता है तो किसी प्रत में परवर्ती रूप मिलता है, कभी ताड़पत्र की प्रत में परवर्ती रूप तो कभी कागज़ की प्रत में प्राचीन रूप मिलता है, जिससे स्पष्ट है कि प्रतों की पीढी दर पीढी नकल करते समय भाषा में परिवर्तन आते गये ।
'आगमोदय समिति' के आचारांग के संस्करण की जब 'महावीर जैन विद्यालय' के संस्करण के साथ तुलना करते हैं तो स्पष्ट होता है कि अनेक जगह मध्यवर्ती अल्पप्राणों और महाप्राणों को म.जै.वि. के संस्करण में पुनः स्थापित किया गया हैं । मुनि श्री जम्बूविजयजी ने आचारांग की भूमिका में इस बात को स्पष्ट किया ही है । मुनि श्री पुण्यविजयजी का भी ऐसा ही मन्तव्य रहा है कि आगमों की भाषा खिचड़ी बन गयी है। उनके अनुसार प्राचीन काल में मध्यवर्ती अल्पप्राण का लोप और मध्यवर्ती महाप्राण का 'ह' इतने प्रमाण में नहीं था । मुनि श्री जम्बूविजयजी के म. जै. वि. के आचारांग के संस्करण में कुछ हद तक भाषा की प्राचीनता स्थापित हो सकी है। अब उसी प्रक्रिया को भाषाविज्ञान और कालक्रम
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन । [८]
प्रस्तावना की दृष्टि से और आगे बढ़ाने का यह प्रयत्न है । अर्थात् भ. महावीर की जो मूल वाणी थी उस तक पहुंचने का यह एक और प्रयत्न है । इससे यह भी नहीं मान लेना चाहिए कि यह नया संस्करण पूर्णतः अपरिवर्तनीय है। नयी नयी सामग्री और प्रमाण मिलने पर जैसे जैसे नये नये संस्करण तैयार किये जाते हैं उसी परंपरा से और भी नया संस्करण भविष्य में बन सकता है, इस तथ्य को भूलना नहीं चाहिए।
इस संस्करण को तैयार करने में आचारांग के म.जै.वि. के संस्करण को मूल आदर्श प्रत के रूपमें रखा गया है । इसका कारण यह है कि यही एक ऐसा संस्करण है जिसमें (मुनि श्री पुण्यविजयजी ने अनेक ताड़पत्रों और कागज़ की प्रतियों से जो पाठान्तर लिये थे उन्हीं के अनुसार) अनेक प्रतियों से पाठान्तर दिये गये हैं जबकि अन्य संस्करणों में इतनी प्रतियों का उपयोग नहीं हुआ है। आचारांग . के इस संस्करण को ध्यान से पढने पर ऐसी प्रतीति हई कि अभी भी पाठों के संशोधन की पर्याप्त आवश्यकता है क्योंकि इस संस्करण में अभी भी भाषा के दो या तीन स्तर दिखते हैं, सर्वत्र भाषिक प्राचीनता नहीं है । उदाहरणार्थ :लोक, लोग लोय; अत्ता, आता, आया; णरग, णिरय, निरय; पाय, पाद; कोध, कोह; मेधावी, मेहावी; अन्नतर, अण्णतर, अण्णयर; आगतो, आगओ; भगवता, भगवया; अन्नतरीतो, अन्नतरीओ; दिसातो, दिसाओ; कप्पति, कप्पड़, इत्यादि ।
कभी कभी समस्या उत्पन्न हो जाती है कि हस्तप्रतों या प्रकाशित संस्करणों में से कौनसा पाठ (विभिन्न पाठान्तरों के कारण) उपयुक्त माना जाय ।
आचारांग के उपोद्घात के वाक्य के पाठों को ही लीजिए । सूत्रकृतांग में (2. 2. 694) पाठ इस प्रकार है - 'सुतं मे आउसंतेणं भगवता एवमक्खातं' जबकि आचारांगसूत्र जो सूत्रकृतांग से प्राचीन माना जाता है उसमें पाठ इस प्रकार मिलता है - 'सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं' । स्पष्ट है कि कौनसा पाठ भाषिक दृष्टि से प्राचीन है और कौन सा परवर्ती काल का बदला हुआ पाठ है । हालाँ कि — हमारे ख्याल से 'आउसंते णं' पाठ होना चाहिए।'
3. इस संबंध में विस्तृत चर्चा के लिए देखिए, 'श्रमण', जुलाई - सितम्बर, 1995 (पा.वि. __ शोध संस्थान, वाराणसी, 5) में प्रकाशित मेरा लेख-अर्धमागधी भाषा में सम्बोधन का एक
विस्मृत शब्द-प्रयोग 'आउसन्ते' ।
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आचाराङ्ग
[२]
के. आर. चन्द्र 'औपपादिक' के लिए पांच पाठान्तर 'उववाइए, उववातिए, उववादिए, ओववातिए और ओववादिए' मिलते हैं। किसे मूल प्राचीन पाठ मानना और किसे परवर्ती काल का पाठ मानना ?
'यथा' के लिए 'जधा, अधा, अहा और जहा' ये चार पाठ मिलते हैं । 'अधा' पाठ प्राचीन एवं इसमें पूर्वी भारत की भाषिक विशेषता है तो फिर क्यों नहीं 'अधा' पाठ ही स्वीकृत किया जाय जो भ. महावीर के समय और स्थलके अनुरूप
होगा।
क्षेत्रज्ञ' शब्द के लिए आचारांग में 'खेयण्ण' जैसा पाठ मिलता है जबकि सूत्रकृतांग में 'खेतन्न' जैसा प्राचीन पाठ मिलता है। वैसे इस शब्द के लगभग 1011 प्राकृत रूपान्तर आचारांग और सूत्रकृतांग की हस्तप्रतों में मिलते हैं-खेयण्ण खेअण्ण, खेदण्ण, खित्तण्ण, खेतण्ण, खेत्तण्ण, खेदन्न, खेत्तन्न, खेतन्न, और खेयन्न, खेअन्न । ये सभी रूप क्या एक ही समय में किसी एक ही जगह पर प्रचलित होंगे, जरा विचार कीजिए ?
सप्तमी एक वचन के तीन विभक्ति प्रत्यय मिलते हैं,-स्सि,-अंसि और . -म्मि । इन विभक्तियों वाले 'लोक' शब्द के सात रूप मिलते हैंलोगस्सि, लोकंसि, लोगंसि, लोयंसि, लोकम्मि, लोगंमि और लोयंमि । इनमें से प्रथम रूप विभक्ति प्रत्यय की दृष्टि से सबसे प्राचीन है तो क्या इसे स्वीकार किया जाय या नहीं ? दन्त्य नकार
म.जै.वि. के जो आगम ग्रंथ मुनि श्री पुण्यविजयजी ने सम्पादित किये हैं उनमें (उतराध्ययन, दशवैकालिक, इसिभासियाई, आदि में) प्रारंभिक दन्त्य नकार बहुधा मिलता है जबकि मुनिश्री जम्बूविजयजी के आचारांग के संस्करण में दन्त्य नकार के स्थान पर बहुधा मूर्धन्य णकार मिलता है । यह हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण के अनुरूप भी नहीं है । उसमें उदाहरण रूप दिये गये शब्दों में 9 में से 8 में प्रारंभिक नकार मिलता है । उन्होंने स्पष्ट कहा है कि मध्यवर्ती नकार भी आगम ग्रंथों में कहीं कहीं पर मिलता है, परंतु म.जै.वि. के आचारांग में इसकी 4. संबंधित प्रसंगों की चर्चा ऊपर बतलायी गयी तीनों पुस्तकों में की गयी है।
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
प्रस्तावना
[१०] सर्वथा कमी है । यह भी हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण के प्रतिकूल ही है ।
ला. द. भा. सं. विद्या मंदिर, अहमदाबाद के अनुभवी एवं विद्वान् लिपिशास्त्री श्री लक्ष्मणभाई भोजक के अनुसार प्राचीन काल की लिपि में दन्त्य नकार '1' इस प्रकार लिखा जाता था और मूर्धन्य णकार 'I' इस प्रकार लिखा जाता था । परन्तु लगभग चौथी शताब्दी अर्थात् गुप्त काल से अक्षरों के ऊपर शिरोरेखा लगायी जाने लगी तब नकार पर भी शिरोरेखा लगायी जाने लगी और तब नकार '1' पर शिरोरेखा 'I' आ जाने से नकार और णकार एक समान हो गये । अतः यह भी एक प्रबल कारण है कि तबसे भ्रान्ति के कारण प्राकृत में नकार के बदले में णकार का प्रचलन बढ़ता गया हो । प्राचीन शिलालेखों के प्रामाण्य के अनुसार पूर्वी भारत की प्राचीन प्राकृत भाषाओं में दन्त्य नकार की जगह पर मूर्धन्य णकार का प्रयोग उपयुक्त नहीं लगता है, अतः इस संस्करण में मध्यवर्ती नकार का प्रयोग यथावत् रखा गया है जो प्राचीनता का द्योतक है । सर्वत्र णकार में बदला जाना महाराष्ट्री प्राकृत का लक्षण है ( न कि अर्धमागधी प्राकृत का) जो दक्षिण एवं पश्चिम भारत की विशिष्टता रही
1
ताड़पत्र की प्रतियों में 'अधा, तथा, इध' जैसे प्राचीन पाठ मिलते हुए भी उनकी जगह पर मुनि श्री जम्बूविजयी ने 'जहा, तहा, इह' जैसे पाठ स्वीकार किये हैं (देखिए आचारांग (मजैवि.) की भूमिका, पृ. 44 ) जो अर्धमागधी भाषा के पाठ नहीं हैं परंतु महाराष्ट्री प्राकृत के पाठ हैं ।
अर्धमागधी प्राकृत भाषा का मूल स्वरूप परिस्थापित करने के इस प्रयत्न में प्रस्तुत संपादन में जो सिद्धान्त अपनाये गये हैं वे इस प्रकार हैं-
I
1. प्रारंभिक मूल दन्त्य नकार को मूर्धन्य णकार में नहीं बदला है । शुब्रिंग महोदय के संस्करण में भी मूल नकार यथावत् रखा गया है ।
5.
6.
आगमों की हस्तप्रतों और चूर्णी जैसे ग्रंथों में मध्यवर्ती नकार के प्रयोग मिलते हैं । देखिए मेरी पुस्तक 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और
अर्धमागधी', 1995 में नकार विषयक अध्याय नं. 7 और 8.
इसके लिए प्रस्तावना में प्रारंभ में बतलाये गये मेरे तीनों ग्रंथों को पढ़ना अनिवार्य है ।
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आचाराङ्ग [११]
के. आर. चन्द्र 2. ज्ञ = न रखा गया है, जैसे कि शुबिंग महोदय की पद्धति रही है । प्रारंभ
में इसके लिए नकार रखा गया है। 3. न्य, न्न = न्न अपनाया गया है। 4. सजातीय व्यंजनों के साथ संयुक्त रूप में प्रयुक्त अनुनासिक व्यंजनों को . यथावत् रखा गया है जो एक प्राचीन पद्धति है ।।
5. अन्य प्राचीन आगम ग्रंथो में जो कोई शब्द अपने मूल रूप में (यानि ध्वनि
विकार रहित) मध्यवर्ती अल्पप्राण और महाप्राण सहित कहीं पर भी उपलब्ध हो रहा हो तो उस रूप को या उसके घोष रूप को प्राथमिकता दी गयी है। मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजन के लोप और मध्यवर्ती महाप्राण के स्थान पर हकार से सामान्यतः दूर ही रहा गया है ।
6. 'यथा' और 'तथा' के लिए 'अधा', और 'तधा' को प्राथमिकता दी गयी है। 7. कहीं-कहीं पर पालि भाषा के अनुरूप प्राचीन रूप मिलता हो तो उसे
तिलांजलि नहीं दी गयी है। 8. प. प्र. ए. व. के विभक्ति प्रत्यय -ए; नप. प्र. द्वि. ब. व. के -नि, त. ए.
व. के --एन और -ता, पं. ए. व. के -तो, तृ. ब. व. के -हि और स. ब. व. के -सु को (क्रमशः -ओ, - इं,-एणं एवं -आ, -ओ, -हिं और -सुं
के बदले में) प्राथमिकता दी गयी है। 9. पद्यांश शुब्रिग महोदय के आचारांग के संस्करण के अनुसार रखे गये हैं । 10. म.जै.वि. के आचारांग में स्वीकृत जिस पाठ को इस संस्करण में बदला गया
है उसके समर्थन में नीचे पाद-टिप्पण में आचारांग में दिये गये पाठ या उसमें ही अन्य स्थल पर या अन्य आगम ग्रंथों में आनेवाले पाठ या उनके पादटिप्पण में प्राचीन ग्रंथों से उद्धृत पाठ दिये गये हैं। नीचे पाद-टिप्पण में म.जै.वि. का पाठ भी दिया गया है।
इसके अतिरिक्त आचारांग के अन्य संस्कारणों के ऐसे पाठ भी नीचे पादटिप्पण में दिये गये हैं [जैसे - म.जै.वि. (महावीर जैन विद्यालय), शु. (शुब्रिग), आगमो. (आगमोदय समिति) और जै.वि.भा. (जैन विश्व भारती)]
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[१२]
प्रस्तावना
जो हमारे द्वारा बदले गये पाठ का पूर्ण रूप से या आंशिक रूप में समर्थन करते हो ।
I
11. म. जै. वि. के आचारांग का जो शब्द ( या शब्दरूप) एक बार बदलकर उसके स्थान पर जो प्राचीन शब्द या रूप स्वीकार किया गया है उसके पुनः आगमन पर उसके समर्थन में फिर से प्राचीन पाठ पाद-टिप्पणों में नहीं दिये गये हैं 12. अपवाद के रूप में जिस शब्द का प्राचीन रूप कहीं पर भी किसी भी प्राचीन आगम ग्रंथ में या चूर्णी में या अन्य प्राचीन आनुषंगिक ग्रंथ में नहीं मिलता हो तो उसे नहीं बदला गया है, जैसे- मोयन (मोचन ) ।
13. हमारे द्वारा स्वीकृत पाठ का अन्यत्र कहीं पर भी आगमों या आगमों की टीकाओं में समर्थन मिलता है तो उस पाठ को लेने का आग्रह रखा गया है।
के. आर. चन्द्र
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आचाराङ्ग
[१३]
[१३]
के. आर. चन्द्र
विभाग - २
आचाराङ्ग के शब्द-पाठों की उसके विविध संस्करणों, हस्तप्रतों, अन्य आगम-ग्रंथों तथा आगमेतर प्राचीन प्राकृत ग्रंथों के शब्द-पाठों के साथ तुलना ।
मा ।
Comparison of the word-forms of the text of Acaranga with that of its various editions and manuscripts, other Agamic texts and older Prakrit texts.
-
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[१५]
के. आर. चन्द्र
महावीर जैन विद्यालय और आगमोदय समिति के संस्करणों
के पाठों की तुलना
सूत्र नं. महावीर जैन विद्यालय
1
आचाराङ्ग
1.
2
भवति
पुरत्थमातो
दिसातो
आगतो
पच्चत्थिमातो
दिसातो
उत्तरातो
दिसातो
आगतो
उड्डा
दिसातो
आगतो
अधेदिसातो
आगतो
अन्नतरीतो
दिसातो
अणुदिसातो
आगतो
णातं
णत्थि
चुते
सहसम्मुइयाए पुरत्थमातो
आगमोदय समिति
भवइ
पुरत्थमाओ
दिसाओ
आगओ
पच्चत्थिमाओ
दिसाओ
उत्तराओ
दिसाओ
आगओ
उड्डाओ
दिसाओ
आगओ
अहोदिसाओ
आगओ
अण्णयरीओ
दिसाओ
अणुदिसाओ
आगओ
णायं
नत्थि
चुए
सहसंमइयाए पुरत्थिमाओ
.
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पाठों की तुलना
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[१६] सूत्र नं. महावीर जैन विद्यालय आगमोदय समिति दिसातो
दिसाओ आगतो
आगओ अन्नतरीओ
अण्णयरीओ आगतो
आगओ णातं
णायं अणुसंचरति
अणुसंचरइ लोगावादी
लोयावादी काराविस्सं
कारवेसुं यावि
आवि समणुण्णे
समणुन्ने परिजाणितव्वा परिजाणियव्वा अणुसंचरति
अणुसंचरइ सहेति
साहेति संधेति
संधेइ पडिसंवेदयति पडिसंवेदेइ पवेदिता
पवेइआ जाती
जाईदुक्खपडिघातहेतुं दुक्खपडिघायहेउं एतावंति
एयावंति 10 दुस्संबोधे
दुस्संबोहे सिता 12 समारंभमाणो
समारंभेमाणा विहिंसति
विहिंसइ भगवता
भगवया पवेदिता
पवेइया जाती
जाइ
सिया
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आचाराङ्ग
[१७]
के. आर. चन्द्र
सूत्र नं. महावीर जैन विद्यालय
दुक्खपडिघातहेडं
आगमोदय समिति दुक्खपडिघायहेर्ड
समारंभति समारंभावेति समणुजाणति अहिताए समट्ठाए भगवतो
14
निरए गढिए
पुढविकम्मसमारंभेणं समारभमाणे विहिंसति पादमब्भे एत्थ समारभमाणस्स
समारंभइ समारंभावेइ समणुजाणइ अहिआए समट्ठाय भगवओ णरए गड्ढिए पुढविकम्मसमारंभेण समारंभमाणे विहिंसइ पायमब्भे इत्थं समारंभमाणस्स नेव समारंभेज्जा समारंभावेज्जा समारंभंते परिणातकम्मे नियायपडिवण्णे वियाहिए निक्खंतो अणुपालिज्जा वियहित्ता
णेव
समारभेज्जा समारभावेज्जा समारभंते परिण्णायकम्मे णियागपडिवण्णे वियाहिते णिक्खंतो अणुपालिया विजहित्ता
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पाठों की तुलना
22
लोयं
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[१८] सूत्र नं. महावीर जैन विद्यालय | आगमोदय समिति अकुतोभयं
अकुओभयं अब्भाइक्खेज्जा अब्भाइक्खिज्जा लोगं अब्भाइक्खति
अब्भाइक्खइ लोगं
लोयं विहिंसति
विहिंसइ जीवितस्स
जीवियस्स जाती-मरण
जाइ-मरणदुक्खपडिघातहेतुं दुक्खपडिघायहेडं समारभावेति
समारंभावेति समारभंते
समारंभंते अहिताए
अहियाए अबोधीए
अबोहीए समुहाए
समुट्ठाय भगवतो
भगवओ णातं
25
णायं
निरए
णरए
गढिए उदयकम्मसमारंभेणं समारभमाणे उदयणिस्सिया अणेगा उदयं चेत्थ अपुत्रीयि
गड्डिए उदयकम्मसमारम्भेणं समारंभमाणे उदयनिस्सिया अणेगे
26
उदय
चेत्थं अणुवीइ
पास
पासा
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आचाराङ्ग
[१९]
.
के. आर. चन्द्र
सूत्र नं. महावीर जैन विद्यालय
पवेदितं अदिण्णादाणं पातुं विउद्भृति
आगमोदय समिति पवेइयं अदिन्नादाणं पाउं विउट्टन्ति
लोगं
लोयं
णिकरणाए
निकरणाए इच्चेते
इच्चेए समारभेज्जा
समारम्भेज्जा समारभावेज्जा
समारंभावेज्जा समारभंते
समारंभंते
लोयं अब्भाइक्खति (4 बार) | अब्भाइक्खइ (4 बार) लोग खेत्तण्णे (4 बार) खेयण्णे (4 बार) वीरेहि
वीरेहिं संजतेहिं
संजएहिं
सया जतेहिं सदा
गुणट्ठीए पवुच्चति
पवुच्चइ
इयाणि पमादेणं
पमाएणं अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिकम्मसमारम्भेण समारंभमाणे
समारभमाणे विहिंसति
विहिंसंति
सता
जत्तेहिं
सया
गुणट्ठिते
इदाणी
34
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन सूत्र नं. महावीर जैन विद्यालय 35 जाती-मरण
दुक्खपडिघातहेतुं समारभति समारभावेति समणुजाणति अहिताए अबोधीए समुट्ठाए भगवतो णातं निरए गढिए विहिंसति संति पुढवि-णिस्सिता कट्ठ-णिस्सिता संघातमावजंति (2बार) समारभमाणस्स अंपरिण्णाता परिण्णाता मतिमं । एसोवरते पवुच्चति यावि
[२०] पाठों की तुलना आगमोदय समिति जाइ-मरणदुक्खपडिघायहेउं समारभइ समारंभावेइ समणुजाणइ अहियाए अबोहियाए समुट्ठाय भगवओ णायं णरए गड्डिए विहिसइ सन्ति पुढवि-निस्सिया कट्ठ-निस्सिया संघायमावज्जन्ति (2बार असमारंभमाणस्स परिण्णाया परिण्णाया मइमं एसोवरए पवुच्चई आवि लोए वियाहिए
41
|
लोगे
वियाहिते
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के. आर. चन्द्र
आचाराङ्ग
[२१] सूत्र नं. | महावीर जैन विद्यालय | आगमोदय समिति गुणासाते
गुणासाए 42 वणस्सतिकम्मसमारंभेणं वणस्सइकम्मसमारम्भेणं वणस्सतिसत्थं
वणस्सइसत्थं समारभमाणे
समारभमाणा विहिंसति
विहिंसंति 43 भगवता
भगवया दुक्खपडिघातहेतुं दुक्खपडिघायहेडं वणस्सतिसत्थं वणस्सइसत्थं समारभति
समारंभइ समारभावेति
समारंभावेइ समणुजाणति
समणुजाणइ भगवतो
भगवओ णरए
गड्डिए वणस्सतिकम्मसमारंभेणं | वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सतिसत्थं
वणस्सइसत्थं समारभमाणे
| समारंभमाणे विहिंसति
विहिंसंति 45 जातिधम्मयं
जाइधम्मयं मिलाति
मिलाइ अणितियं
अणिच्चयं चयोवचइयं
चओवचइयं विप्परिणामधम्मयं (2 बार)| विपरिणामधम्मयं (2 बार) 46. आरंभा
आरम्भा वणस्सतिसत्थं वणस्सइसत्थं समारभेज्जा
समारंभेज्जा वणस्सतिसत्थं | वणस्सइसत्थं
णिरए
गढिए
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[२२]
पाठों की तुलना
सूत्र नं. महावीर जैन विद्यालय
समारभावेज्जा वणस्सतिसत्थं समारभंते पोतया सम्मुच्छिमा उववातिया उब्भिया पवुच्चति णिज्झाइत्ता परिणिव्वाणं भूताणं अस्सातं अपरिणिव्वाणं तसंति परितावेंति सिता पवदमाणा तसकायसमारंभेणं समारभमाणे भगवता पवेदिता परिवंदण जाती-मरणदुक्खपडिघायहेतुं समारभावेति समणुजाणति
| आगमोदय समिति
समारंभावेज्जा वणस्सइसत्थं समारंभंते पोयया संमुच्छिमा उववाइया उब्भियया पवुच्चई निज्झाइत्ता परिनिव्वाणं भूयाणं अस्सायं अपरिनिव्वाणं तसन्ति परितावंति सिया पवयमाणा तसकायसमारंभेण समारभमाणा - भगवया पवेइया परिवन्दण जाई-मरणदुक्खपडिघायहेडं समारंभावेइ समणुजाणइ
51
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[२३]
के. आर. चन्द्र
सूत्र नं. महावीर जैन विद्यालय
अहिताए अबोधीए समुट्ठाए भगवतो णातं निरए गढिए तसकायकम्मसमारंभेणं समारभमाणे वधेति वधेति वहेंति सोणिताए वधेति
आगमोदय समिति अहियाए अबोहीए समुट्ठाय भगवओ णायं णरएं गड्डिए तसकायसमारंभेण समारंभमाणे हणंति वहंति वहंति सोणियाए वहंति सिङ्गाए
सिंगाए
नहाए
णहाए अट्ठीए
अट्ठिए
वधेति भवंति मेधावी समारभेज्जा समारभावेज्जा समारभंते परिण्णातकम्मे पभू आतंकदंसी जाणति
वहंति भवन्ति मेहावी समारंभेज्जा समारंभावेज्जा समारंभंते परिण्णायकम्मे
पहू
आयंकदंसी जाणइ
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
पाठों की तुलना
सूत्र नं. महावीर जैन विद्यालय
एतं तुलमण्णेसि संतिगता लज्जमाणा पवदमाणा समारभमाणे भगवता पवेदिता जाती-मरणदुक्खपडिघातहेतुं समारभावेति समारभंते अबोधीए भगवतो
[२४] | आगमोदय समिति
एवं तुलमनेसिं सन्तिगया लज्जमाणे पवयमाणा समारंभमाणे भगवया पवेइया जाई-मरणदुक्खपडिघायहेलं समारंभावे समारंभंते अबोहीए भगवओ गड्डिए समारंभमाणे संपयंति परियावज्जंति अपरिण्णाया परिण्णाया समारंभेज्जा समारंभावेज्जा समारंभंते छज्जीवनिकायसमारंभेज्जा समारंभावेज्जा समारंभंते छज्जीवनिकाय
गढिए
समारभमाणे संपतंति परियाविज्जंति अपरिण्णाता परिण्णाता समारभेज्जा समारभावेज्जा समारभंते छज्जीवणिकायसमारभेज्जा समारभावेज्जा समारभंते छज्जीवणिकाय
Page #59
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________________
आचाराङ्ग [२५]
के. आर. चन्द्र 2. जैन विश्व भारती और महावीर जैन विद्यालय के संस्करणों के
पाठों की तुलना जैन विश्व भारती | महावीर जैन विद्यालय | मजैवि. सूत्र नं.
लोयं
लोगं
22
लोए
79, 82
महोवगरणं मूयत्तं बहुगा
लोगे महोवकरणं मूकत्तं बहुया एकयरं
एगयरं
लोकं
140
63
1, 2, 52, 59, 79, 82
लोयं भइणी भव पुरत्थिमाओ दिसाओ आगओ अणुसंचरइ
भगिणी भवति पुरत्थिमातो दिसातो आगतो अणुसंचरति भगवता
भगवया
2, 6 7, 13, 24, 35, 43, 51, 58, 89 7, 13, 24, 35, 43, 58
पडिघायहेडं एयावंति जाई
पडिघातहेतुं एतावंति जाती
अहियाए भगवओ जीवियस्स
अहिताए भगवतो जीवितस्स
7, 13, 24, 35, 43 51, 58 13, 24, 35 14, 25, 36, 44, 59 24, 191
पाउं
पातुं
मइमं
मतिमं
40, 92
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
3
3
उदरं
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[२६]
पाठों की तुलना जैन विश्व भारती | महावीर जैन विद्यालय मजैवि. सूत्र नं. ओववाइया उववातिया
49 पवेइया पवेदिता
51 एयं एतं
56, 79, 85, 86 उन्नयमाणे उण्णतमाणे
127 अवइन्ना अवितिण्णा
183 सीयफास सीतफास
187, 211, 215 मायण्णे मातण्णे
273 आयावाई
आयावादी लोगावाई
लोगावादी पवेइय पवेदित
7, 13, 26, 35, 43
51, 58, 74, 79 उयरं
15 पमाएणं पमादेणं
33,76, 85 एगया एगदा
64, 67, 79, 300
313 दायाया दायादा
79, 82 सया सदा
195 पवेदितं
208 भेउर
224, 251 विही विधी
276, (थ = ध) मेहावी मेधावी
54, 69, 209 अहियास अधियास
99, 186, 286 अहे अधे
191, 291, 320 साहु साधू
200 नाभिगाहइ
णाभिगाहइ नालं
णालं णरगतिरिक्खाए नरगतिरिक्खाए
पवेइयं
भेदुर
71
81
| 84
Page #61
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________________
आचाराङ्ग
[२७]
के. आर. चन्द्र
जैन विश्व भारती | महावीर जैन विद्यालय ।
मजैवि. सूत्र नं. 86, 95 88, 89
उदयणिस्सिया संणिधाणसत्थस्स अभिणिव्वुडच्चे
उदयनिस्सिया संनिहाणसत्थस्स अभिनिव्वुडच्चे बहुणडे संणिहिसंणिचओ उण्णतमाणे पभू
210 224 151 87
बहुनडे
सन्निहिसन्निचओ उन्नयमाणे
127
पहू
56
198
88
187
294
सरीरभेउ णिरामगंधो वासाणि आसणगाणि आगमेण तिविहेणं वीरेहि अण्णयरंसि
सरीरभेदो णिरामगंधे वासाई आसणगाई आगमेणं तिविधेण वीरेहि अण्णयरंमि
173
चरे
सहते
चर सहती सेवे सोएज्जा
सेवए
149
सोयए
विजहित्तु इति संखाय समायाए परिण्णाए
विजहित्ता इति संखाए समादाय परिणाय
161 188
Page #62
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[२८] पाठों की तुलना 3. आगमोदय समिति और जैन विश्व भारती के संस्करणों
के पाठों की तुलना आगमोदय समिति | जैन विश्व भारती मजैवि. सूत्र नं.
लोयावादी लोयं नियायपडिवण्णे वियहित्ता
लोगावाई लोगं णियागपडिवण्णे विजहित्तु णातं
णायं
भवइ
1, 2 2, 52, 59 7, 24, 35 12, 23, 25, 36
22
29
33, 49
भवति भगवता विहिंसइ अकुओभयं इच्चेए पवुच्चइ, -ति. पवेदिता मिलाइ वणस्सति आतुरा समारंभावेइ समणुजाणति आयावादी कम्मावादी किरियावादी
भगवया विहिंसति अकुतोभयं इच्चेते पवुच्चति, -ती पवेइया मिलाति वणस्सइ आउरा समारंभावेति समणुजाणइ आयावाई कम्मावाई किरियावाई
Page #63
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________________
के. आर. चन्द्र
आचाराङ्ग आगमोदय समिति |
[२९] जैन विश्व भारती
मजैवि. सूत्र नं.
उदरं
15
उयरं पवयमाणा नो, णो नेवण्णे णिक्खंतो
पवदमाणा णो, नो णेवण्णे निक्खंतो णहाए नियया
1, 28
नहाए णियया
नियगे
णियगे
नस्सइ
णस्सइ
णरगाए
नरगाए नालं
णालं
ण
102, 105 36
नत्थि पुढविनिस्सिया अपरिनिव्वाणं वंकानिकेया पंथनिज्झाई सव्वगायनिरोहे अभिनिव्वुडे अन्नेसिं
णेव णत्थि पुढविणिस्सिया अपरिणिव्वाणं वंकाणिकेया पंथणिज्झाती सव्वगायणिरोधे अभिणिव्वुडे अण्णेसिं
134 162 247
322
Page #64
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________________
प्रथम अध्ययन का पुन: सम्पादन आगमोदय समिति जैन विश्व भारती
[३०]
पाठों की तुलना मजैवि. सूत्र नं.
अन्नहा
अण्णहा
मण्णमाणे
मन्नमाणे समण्णागयआरियपन्ने परित्राय
समन्नागयआरियपण्णे
१४
कालने खेयन्ने
104
104
44
लोगसन्नं ক্তি अदिनादाणं अहोदिसाओ साहेति
परिणाय कालण्णे खेयण्णे लोगसण्णं छिन्नं अदिण्णादाणं अहे वा दिसाओ सहेति जाईपवुच्चइ ओववाइया
26
1, जैविभा. का पाठ स्वीकारने योग्य है।
.
24, 35
जाइपवुच्चई उक्वाइया
परितावंति समारभति(इ)
परितावेंति समारंभति (इ)
24, 35, 51
चुओ
2
चुए समुट्ठाय वियहित्ता
14, 25, 36
समुट्ठाए विजहित्तु
20
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३१]
के. आर. चन्द्र
आचाराङ्ग (मजैवि.) और शीलाङ्काचार्य ( आगमोदय) की
वृत्ति के पाठ
( मजैवि. संस्करण, सूत्र नं. )
(शीलाङ्कवृत्ति )
आचाराङ्ग
4.
सहसम्याएं कारविस्सं
णियागपडिवणे
णेव
विउट्टंति
णिकरणाए
णेव
मेहावी
जोकर
पडिलेहित्ता
अण्णेसि
दुगंछणाए
छंदोवणीया
अहासुतं
फरिसाई
मातण्णे
णिद्दं
णिधाय
हतपुव्वो
प्रथम अध्ययन के पाठ
2
4
19
22
27
28
32
33
40
49
56
56
62
नवम अध्ययन के पाठ
254
262
273
281
299
302
सहसम्मइयाए
कारवेसुं
नियागपडिवन्ने
नेव
विउट्टन्ति
निकरणाए
नेव
मेधावी
नोकरए
पडिलेहेत्ता
अन्नेसिं
दुगुञ्छणाए
छन्दोवणीया
अहासुयं
फरुसाई
मायन्त्रे
निहं
निधाय
हयपुव्वो
Page #66
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [३२] पाठों की तुलना 5. महावीर जैन विद्यालय, बम्बई के संस्करण और श्री शांतिनाथ
ताड़पत्रीय जैन ज्ञानभंडार, खंभात की वि. सं. 1303 की
'खं. 1' प्रति के पाठों की तुलना मजैवि.
सूत्र नं. खं. 1 णो उववाइए (दो बार)
ओववातिए (दो बार) एगेसि
एकेसिं उववाइए
ओववादिए लोगंसि
लोकम्मि पुढविकम्मसमारंभेणं
पुढविकम्मसमारंभेण इहमेगेसिं णातं निरए णासमब्भे
नासमब्भे समारभमाणस्स
समारंभमाणस्स समारभेज्जा
समारंभिज्जा णेवऽण्णेहिं
नेवन्नेहि समारभावेज्जा
समारंभाविज्जा समारभंते
समारंभंते णियागपडिवण्णे
नियायपडिवण्णे णिक्खंतो
निक्खंतो णेव (दो बार)
नेव (दो बार) पवदमाणा
नायं नरए
पवयमाणा
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[३३]
के. आर. चन्द्र
मजैवि.
सूत्र नं.
|
खं. 1
उदयकम्मसमारंभेण समारंभावेति अन्ने समारभमाणे इहमेकेसि
उदयकम्मसमारंभेणं समारभावेति अण्णे समारभंते इहमेगेसिं णातं निरए समारभमाणे उदयणिस्सिया अदिण्णादाणं
नायं
णरए समारंभेमाणे. उदयनिस्सिया अदिन्नादाणं कप्पति
कप्पइ
निकरणाए नेवण्णेहिं समारंभाविज्जा
णिकरणाए णेवण्णेहिं समारभावेज्जा ण णेव (दो बार) खेत्तण्णे
नेव (दो बार) खेतण्णे नायं
णातं
नरए
निरए पुढविणिस्सिता तणणिस्सिता
37
पुढविनिस्सिया तणनिस्सिया
37
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
मजैवि.
कटु - णिस्सिता
गोमय- णिस्सिता
कयवर - णिस्सिया
असमारभमाणस्स
णो
वणस्सतिकम्मसमारंभेणं
समारभावेति
णिरए
छिण्णं (दो बार )
णेव
समारभेज्जा
णेवण्णेहिं
समारभावेज्जा वऽण्णे
अवियाणओ
णिज्झाइत्ता
अण्णे
समारभावेति
समारभमाणे
इहमेगेसि
जेव
णेवण्णेहिं
[३४]
सूत्र नं.
37
♡♡♡♡ ÷ ÷ 7 = 7 5 7 5 7 7 9
37
37
38
40
42, 44
43
44
45
47
47
47
47
47
49
49
50
51
51
52
54
54
खं. 1
कट्ठ-निस्सिया गोमय-निस्सिया
कयवर - निस्सिआ
असमारंभमाणस्स
नो
पाठों की तुलना
वणस्सइकम्मसमारंभेण
समारंभावेति
नरए
छिन्नं (दो बार )
नेव
समारंभेज्जा
नेवण्णेहिं
. समारंभावेज्जा
नेवन्ने
अविजाणओ
निज्झाइत्ता
अन्ने
समारंभावेति
समारंभमाणे
इहमेकेसि
ने (स ?) व
नेत्रहि
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
मजैवि.
वऽण्णे
अण्णेहिं
णिरए
असमारभमाणस्स
णेव
समारभेज्जा
वऽण्णेहिं
वणे
अज्झोववण्णा
सव्वसमण्णागत
पणाणणं
णो
अण्णेसि
णेव
छज्जीवणिकायसत्थं ( चार बार )
वणेहिं वऽण्णे
[ ३५ ]
सूत्र नं.
54
+1 8 3 0 0 0 8
58
59
60
61
61
61
61
62
33333
62
62
62
62
62
62
62
खं. 1
नेवणे
अन्नेहिं.
निरए
असमारंभमाणस्स
नेव
समारंभेज्जा
नेवणेहिं
नेवणे
अज्झोववन्ना
सव्वसमन्नागय
पन्नाणेण
नो
अन्नेसिं
नेव
के. आर. चन्द्र
नेवन्नेहिं
नेवन्ने
छज्जीवनिकायसत्थं
--
(चार बार )
Page #70
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [३६]
पाठों की तुलना 6. महावीर जैन विद्यालय, बम्बई के संस्करण और श्री शांतिनाथ
ताड़पत्रीय जैन ज्ञानभंडार, खंभात की वि. सं. 1327 की
'खं. 3' प्रति के पाठों की तुलना । मजैवि.
सूत्र नं. | खं. 3 से मजैवि. के संस्करण
में अनुल्लिखित पाठान्तर आया उववाइए
आता उववादिए अंतिए.
अन्तिए परिण्णायकम्मे
परिण्णातकम्मे विरूवरूवेहिं
विरूवरूवेहि पाणे
नाभि णेवऽण्णेहिं
नेवअन्नेहि
गड्डिए अपरिणाया
अपरिण्णाता मेहावी
मेधावी
पाणा
णाभि
गढिए
मेहावी
गढिए
सत्थेहि
णायं
छिण्णं (दो बार) मिलाति (दो बार) अण्णेसिं मेहावी णेवाण्णेहि
मेधावी गढिते सत्थेहि नायं छिन्नं (दो बार) मिलाइ (दो बार) अनेसि मेधावी णेव'ण्णेहि
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[३७]
के. आर. चन्द्र 7. महावीर जैन विद्यालय, बम्बई के संस्करण और भांडारकर
ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना की ताड़पत्रीय वि. सं.
1348 की प्रति के पाठों की तुलना मजैवि.
सूत्र नं. पूना की प्रति
सण्णा
एवमेगेसिं
सन्ना एवमेकेसि नातं सहसम्मुदियाए एवमेकेसि नायं लोकावाई लोकंसि
णातं सहसम्मुइयाए एवमेगेसिं णातं लोगावादी लोगंसि निरए पुढविकम्मसमारंभेणं णिडालमन्भे णिक्खंतो इहमेगेसिं निरए
नरए
पुढविकम्मसमारंभेण निलाडमब्भे निक्खंतो इहमेकेसिं नरये
णेव
नेव
खेत्तण्णे
खेयन्ने
अहं तिरियं अण्णेहिं
अधं तिरियं अन्नेहि
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[३८] .
पाठों की तुलना
मजैवि.
सूत्र नं.
णातं
पूना की प्रति नायं अन्ने
नेव
अण्णे णेव णेवऽण्णे णेवऽण्णेहिं णच्चा अण्णेसिं अण्णेहि अण्णे णातं णिरए अण्णे अण्णे सव्वसमण्णागतपण्णाणेणं
नेव'ने नेवनेहिं नच्चा अन्नेसिं अन्नेहि
अन्ने
नायं निरए अन्ने
सव्वसमण्णागयपन्नाणेणं
अन्नेसिं
नेव
अण्णेसिं णेव णेवऽण्णे • छज्जीवणिकायसत्थं णेवऽण्णेहि छज्जीवणिकायसत्थसमारंभा
नेवऽन्ने छज्जीवनिकायसत्थं नेवऽन्नेहि छज्जीवनिकायसत्थसमारंभा
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग - [३९]
के. आर. चन्द्र 8. महावीर जैन विद्यालय, बम्बई के संस्करण और जेसलमेर की
वि. सं. 1485 की ताड़पत्र की 'जे.' प्रति के पाठों की तुलना मजैवि.
सूत्र नं. 'जे.' प्रति
सण्णा
सन्ना
णातं .
नातं
एवमेगेसिं णत्थि सहसम्मुइयाए एगेसिं णातं लोगावादी समारंभमाणो निरए णिक्खंतो पवेदितं णेव खेत्तण्णे कट्ठणिस्सिता गोमयणिस्सिता उद्दायंति
एवमेकेसिं नत्थि सहसम्मुदियाए एकेसि नायं लोकावाई समारंभेमाणा नरए निक्खंतो पवेतियं नेव खेयन्ने कट्ठनिस्सिया गोमयनिस्सिया उद्दांयन्ति
अध तिरिय
अहं तिरियं अहं तिरियं णिज्झाइत्ता परिणिव्वाणं
अधं तिरियं निज्झायत्ता परिनिव्वाणं
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[४०]
सूत्र नं.
मजैवि. अपरिणिव्वाणं विरूवरूवेहिं अण्णेहिं अण्णे समुहाए णातं अण्णे हिययाए
पाठों की तुलना 'जे.' प्रति
अपरिनेव्वाणं विरूवरूवेहि अन्नेहि अन्ने समुट्ठाय नायं
अन्ने हितयाए नेव नेव'निहिं नेवऽन्ने नच्चा अन्नेसिं अन्ने
णेव
णेवऽण्णेहिं णेवऽण्णे णच्चा अण्णेसिं अण्णे अण्णेहिं अण्णे णातं अण्णे सव्वसमण्णागतपण्णाणेणं
अन्नेहिं
अन्ने नायं अन्ने सव्वसमण्णागयपन्नाणेणं
नो
अण्णेसिं. णेव छज्जीवणिकायसत्थं णेवऽण्णेहि णेवऽण्णे
अन्नेसिं "नेव छज्जीवनिकायसत्थं नेवन्नेहि
नेवऽन्ने
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[४१] . . . के. आर. चन्द्र 9. महावीर जैन विद्यालय, बम्बई के संस्करण और ला. द. भा.
संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद को भेंट में मिली श्री मुक्तिविजय जैन लाइब्रेरी की 15 वीं शती की काग़ज़ की ‘ला.'
प्रति ( नं. 18772) के पाठों की तुलना मजैवि.
सूत्रनं. 'ला.' प्रति.
सण्णा
सन्ना उववातिते सहसंमदियाए अन्नेसि एवमेकेसि
उववाइए सहसम्मुइयाए अण्णेसिं एवमेगेसिं णातं उववाइए लोगावादी लोगंसि पुढविकम्मसमारंभेणं
नायं
अण्णे
णाभि णिडालमब्भे णिक्खंतो महावीहिं लोगं अण्णेहि अण्णे इहमेगेसिं
उववाइते लोकावाई लोकंसि पुढविकम्मसमारंभेण अन्ने नाभि निडालमज्झे निक्खंतो महावीही लोकं अन्नेहिं अन्ने इहमेकेसि नरए
निरए
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
[४२]
पाठों की तुलना 'ला.' प्रति.
सूत्र नं.
अणगाराण
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन मजैवि. अणगाराणं अदिण्णादाणं कप्पइ अपरिण्णाया परिण्णाय मेहावी अण्णे
ण
णेव (दो बार) खेत्तण्णे खेत्तण्णे (तीन बार) अगणिकम्मसमारंभेणं समारंभमाणे तणणिस्सिता पत्तणिस्सिता कट्ठणिस्सिता गोमयणिस्सिता
अदिन्नादाणं कप्पति अपरिण्णाता परिनाय मेधावी अन्ने न नेव (दो बार) खेअन्ने खेयन्ने (तीन बार) अगणिकम्मसमारंभेण समारभमाणे तणनिस्सिया पत्तनिस्सिया कट्ठनिस्सिया गोमयनिस्सिया
णो
अहं तिरियं (दो बार)
अधं तिरियं (दो बार)
अण्णे
अन्ने
परिणा अण्णे णिरए छिण्णं (दो बार) परिणाया
परिना अन्ने निरए छिन्नं (दो बार) परिण्णाता
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग मजैवि.
[४३] सूत्र नं.
मेहावी
अण्णेहिं अण्णे परिण्णाया परिण्णायकम्मे संसेयया णिज्झाइत्ता परिणिव्वाणं अण्णे अण्णेहिं अण्णे समुट्ठाए अण्णे हिययाए णेव णेवऽण्णेहि अण्णेसिं अण्णे अण्णेहि अण्णे आयाणीयं
के. आर. चन्द्र 'ला.' प्रति. मेधावी अन्नेहिं अन्ने परिन्नाया परिनायकम्मे संसेतया निज्झाइत्ता परिनेव्वाणं अन्ने अन्नेहिं अन्ने समुट्ठाय
अन्ने
हितयाए नेव नेवन्नेहि अन्ने (से ?) सिं अन्ने अन्नेहि अन्ने आताणीयं
णातं
नायं
अपरिण्णाता परिण्णाता
अपरिन्नाया परिनाता
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[४४]
पाठों की तुलना
मजैवि.
सूत्र नं.
'ला.' प्रति, परित्राय
अन्नेहि
परिण्णाय अण्णेहिं अण्णे परिण्णाया परिण्णायकम्मे
अन्ने परिनाया परिन्नायकंमे
अण्णेसिं
अन्नेसि नेव
णेव
णेवऽण्णेहिं छज्जीवणिकायसत्थं (तीन बार) 62 छज्जीवणिकायसत्थसमारंभा परिण्णाया परिण्णायकम्मे
62
नेवन्नेहिं छज्जीवनिकायसत्थं(तीन बार) छज्जीवनिकायसत्थसमारंभा परिन्नाया परिनायकम्मे
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[४५]
के. आर. चन्द्र 10. शुब्रिग महोदय द्वारा सम्पादित आचाराङ्ग (1910 A. D.) के
संस्करण में भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना की वि. सं. 1348 की ताडपत्रीय प्रति में से अनुल्लिखित पाठान्तर
शुबिंग-संस्करण का पाठ
पूना की प्रति | मजैवि. का पाठ का पाठान्तर और सूत्र नं.
भवइ एवमेगेसिं
नायं
भवइ
सहसम्मुइयाए एवमेगेसिं भवइ अणुसंचरइ लोगावाई
भवति एवमेकेसि नातं भवति सहसंमुदियाए एवमेकेसि भवति अणुसंचरति लोकावाई सहेति भगवता लोकंसि जस्सेते आतुरा परितावेंति समारंभति भवति
भवति एवमेगेसि णातं भवति सहसम्मुइयाए एवमेगेसिं भवति अणुसंचरति लोगावादी सहेति भगवता लोगंसि जस्सेते आतुरा परितावेंति समारंभति भवति
सहेइ
भगवया लोगंसि जस्सेए आउरा परियावेन्ति
समारभइ | भवइ
17
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुन: सम्पादन
[४६]
पाठों की तुलना
14
पृ. | शुबिंग-संस्करण | पूना की प्रति पंक्ति का पाठ का पाठान्तर विहिंसइ
विहिंसंति 25 उयरं
उदरं जस्सेए
जस्सेते वियहित्तु विजहित्तु लोगं (दो बार) लोयं (दो बार) अइनायाणं अदिण्णादाणं
अब्भाइक्खइ अब्भाइक्खति 5. 32| रमन्ति
रमंते
मजैवि. का पाठ
और सूत्र नं. विहिंसति उदरं जस्सेते विजहित्ता लोगं (दो बार) अदिण्णादाणं अब्भाइक्खति रमंति
62
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
सण्णा
आचाराङ्ग
[४७]
के. आर. चन्द्र 11. आचाराङ्ग की जेसलमेर की वि. सं. 1485 की ताडपत्रीय
'जे.' प्रति जिसका मजैवि. के संस्करण में सूत्र नं. 1 से 31 तक उपयोग किया गया है, परंतु कुछ पाठान्तरों का उल्लेख नहीं हो पाया है वे इस प्रकार हैं। मजैवि.
सू. नं. | मजैवि. के संस्करण में 'जे.'
प्रति के अनुल्लिखत पाठान्तर
सन्ना णातं
नातं एवमेगेसिं
एवमेकेसिं णत्थि
नत्थि सहसम्मुइयाए
सहसम्मुदियाए एगेसिं
एकेसि णातं
नायं लोगावादी
लोकावाई समारंभमाणो
समारंभेमाणा
नरए णिक्खंतो
निक्खंतो पवेदितं
पवेतियं
निरए
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [४८]
पाठों की तुलना 12. आचाराङ्ग के कुछ संस्करणों में अनुनासिक व्यंजन का स्ववर्ग
के व्यंजन के साथ संयुक्तरूप में प्रयोग के उदाहरण मजैवि. सूत्र नं.
__ अन्य संस्करण संकुचए 1. 243
सङ्कुचए आगमो. संखाय
1. 250 सङ्घाय, (सङ्ख्या ) आगमो. सिंगाए 1.52
सिङ्गाए आगमो. विगिंचमाणे 1. 129 विगिञ्चमाणे संलुंचमाणा 1.298 संलुञ्चमाणा लुंचिंसु 1. 303
लुञ्चिसु शु. आगमो. विउंजंति 1. 200
विउञ्जन्ति अंजू
1. 170 भंजगा 1. 178
भञ्जगा भुंजित्था 1. 271, 272 भुञ्जित्था शु, आगमो. भुंजे 1. 313
शु, आगमो भुंजंते 1. 237
आगमो.
___
अञ्जू
ECE
भुञ्जे भुञ्जन्ति
भुञ्जते
भुंजह
पलालपुंजेसु विउटुंति संति
1. 204
1. 278 __ 1. 28
1.37 1. 49 1. 53 1. 25, 35, 42 1.46
भुञ्जह पलालपुञ्जेसु विउट्टन्ति सन्ति तसन्ति भवन्ति समारम्भेणं आरम्भा
तसंति भवंति समारंभेणं आरंभा
आगमो, शी. आगमो, शु. आगमो, शु. आगमो, शु. आगमो, शु. आगमो. आगमो.
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[ ४९ ]
के. आर. चन्द्र
13. आचाराङ्ग (मजैवि.) में दन्त्य 'नकार' का 'णकार' जबकि
सूत्रकृताङ्ग (मजैवि . ) में 'नकार'
आचाराङ्ग
णच्चाण
णिक्खंत
णिदाण
णियम
णिरामगंध
णिरालंबण
णिस्सार
अभिणिव्वट्ट
अभिणिव्वुड
अहोणिसं
जीवणिकाय
अण्णत्थ
अण्णहा
सुण्णागार
सूत्र नं.
सूत्रकृताङ्ग
314
नच्चाण
20, 199
निक्खंत
584
निदाण
77
नियम
88
नियमगंध
804
निरालंबण
119
निस्सार
181
अभिनिव्वट्ट
224, 228,322 | अभिनिव्वुड
768
अहोनिसं
745
जीवनिकाय
157
अनत्थ
89, 159, 176 अन्नहा
204
सुन्नागार
सूत्र नं.
206
434
739
199, 682
356
714
406
650, 732, 733
100, 109,435,476
751
749, 751
280, 393
73, 384
125, 126
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
[५० ]
पाठों की तुलना
आचाराङ्ग ( आगमो.) के प्रथम अध्ययन की निर्युक्ति-गाथाओं में दन्त्य नकार के प्रयोग
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
14.
प्रारंभिक नकार (गाथा नं. 1 से 171 )
न
नत्थि
नर
नव
नवण्ह
नवम
नवमग
नवर
नाणत्त
नाणत्ती
नाणाविह
नाम
निउण
निओय
निक्खम
निक्खमण
निक्खिव
निक्खिवण
निक्खेव
निग्गुण
निच्छीरं
निज्जाणं
निज्जुत्ति
निद्दोस
4, 63, 82, 83, 135, 143
66, 98, 99, 153
97
20, 30
18
34
22, 32
5
80, 81
106, 116, 126, 152, 164
133
40, 55, 58, 69, 76
89 (दो बार )
143
159
90, 158
4 (दो बार), 88, 104
92
2, 3, 4, 68, 69
100
140
34
1, 115, 125, 151, 163, 171
100
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[५१]
के. आर. चन्द्र
नियम
25
102
68 17 (दो बार) 23, 26
नियाए निरवसेस निवित्ति निव्वाण निसाअ निसाईए निसीयण निस्संगय नेरइय
नेती ★ अपवाद न = ण
27
58, 60, 154 (दो बार)
ण
णव
णिमित्त
★ मध्यवर्ती नकार
इंदनील
अनियाए ★समास में नकार
चउक्कनिक्खेवो अंबटुग्गनिसाया लोगसारनाम दिसानिक्खेवो एयगनिभा पुढवीनामगोयं तालसरलनालिएर
133
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[५२]
पाठों की तुलना
★न = त्र
उववन्न * न्य = न
110
अन्न
धन्न
64, 101, 102, 138 87, 144 91 101
अन्नमन्न
अणुमन्न अपवाद
अण्ण
जहण्णयं ★ज्ञ = न,त्र
नाअ
52, 53, 66(दो बार), 141 41
10
नाण
38, 63 3, 24, 154
65
156
नायव्व पज्जवनाण दंसणनाण अन्नाणी
अपवाद ★ज्ञ = ण, पण
णायव्व आण
20, 21, 25, 27(दो बार), 28, 35, 40, 47, 62
21
आणा
नाणसण्णा
83, 135 38, 63 40, 51, 52, 54, 58, 61, 62, 64 2, 12, 13, 31(दो बार), 35, 37
पण्णव परिणा संणा
Page #87
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________________
आचाराङ्ग
[५३]
के. आर. चन्द्र 15. आचाराङ्ग ( आगमो. )की शीलाङ्काचार्य की वृत्ति में नियुक्ति सिवाय की अन्य उद्धृत गाथाओं में दन्त्य 'नकार' के प्रयोग
पंक्ति शब्द
-
..
प्रारंभिक नकार
10 ब
52 ब
10, 11
62 अ 63 अ
नव
68 अ 43 ब 53 अ
68
अ
68 अ 41 अ 69 अ 5 अ 5 अ 31 अ
नवनवसंवेगसद्धाए नारभे नारय-सुराणं नारय-सुरेसु निज्जीवसजीवरवाओ निल्लेवा निव्वितिगिच्छा निस्संकिय-निकंखिय नीससंति नीससन्ति
6, 7
77 अ 63 अ
मध्यवर्ती नकार
अनिव्वाणी अभिनिवेसए
3
2
ब
समास में नकार
जियनिद्दो तित्थगरनामगोत्तं
24 ब
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[५४]
पाठों की तुलना
__ पृष्ठ
पंक्ति
शब्द
68 अ 75 ब 22 अ
ल छल
12
--पत्तेयनिओय भुयण-निग्गय-पयावो समयनिबद्धं
2. ब
5 अ 24 ब
न = न आसन्नलद्धपइभो चरणसंपन्नो जाइसंपन्नतादि पडुपन्न-तसकाइया
ब
69 अ
56 अ 76 अ 7 अ 69 अ
न्य = न अन्नमन्नेहि अन्नया अन्ने(दो बार) जहन्नपए
ज्ञ = न, न
80 अ
2
अ
24 ब 5 ब 80 अ
नाणं नाणं नाणी नायव्वं नायव्वो अन्नाणओ अन्नाणिय अन्नाणी देसकालभावन्नू
17 अ
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्य
145
आचाराङ्ग
[५५]
के. आर. चन्द्र 16. आचाराङ्ग ( मजैवि.) के शब्द-पाठों की हेमचन्द्राचार्य के
प्राकृत व्याकरण के शब्दों के साथ तुलना संस्कृत आचाराङ्ग (मजैवि.) सूत्र नं.
हैमव्याकरण, अ. 8 अर्थ अट्ठ 33, 52, 68, 79 अत्थ 1.7
82, 119, 124,
147, 204, 205 अण्ण 2, 13, 24, 35, 43, | अन्न 3. 58, 59, 61
51, 342, 374 430, 534, इत्यादि
कुदो 1. 37 262
नट्ट 2. 30 णड
नडं 1. 195 णत्तुई 744
नत्तुओ 1. 137 णम 191, 194, 754, नम 1. 62, 183, 187;
2. 4, 4; 3. 46, 131 108, 140, 177, नर 1. 67, 229 754 572
नव 2. 165; 3. 123 णह 15
नह 1. 6, 7; 2. 90, 99 146, 177, 182, नाण 2. 104
191 णाम
170, 182, 192 नाम 2. 217
743, 769, इत्यादि मण्ण 114, 584
मन्न 1. 171
कुओ णट्ट
151
नम
766
णर
BIFFFFFFE
नव
णव
नख
जान
णाण.
नाम
णाम
मन्य
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [५६]
पाठों की तुलना 17 (अ) अर्धमागधी आगमों में मिल रहे मध्यवर्ती नकार के प्रयोग (1) आचाराङ्ग (आगमोदय समिति संस्करण)
अनुगच्छंति 1. 5. 5. 161 (2) प्रो. आल्सडर्फ द्वारा सम्पादित ग्रंथ
(देखिए Ludwig Alsdorf : Kleine Schriften,
Wiesbaden, 1974) (अ) उत्तराध्ययन सूत्र से
मोनं 15. 1, सुमिनं 15. 7, सिनाणं 15. 8, भोजनं 15. 11, जवोदनं 15. 13 दशवैकालिक सूत्र से न खने 10. 2, सुनिसियं 10. 2
17(ब) हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण (पी. एल. वैद्य, सांगली, 1928) की
शौरसेनी और मागधी में मध्यवर्ती 'नकार' की उपलब्धि (i) शौरसेनी (84260) पूरिद-पदिजेन मारुदिना (ii) मागधी (84.289) धनुस्खण्डं
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[५७]
के. आर. चन्द्र 18. उत्तराध्ययन (मजैवि.) के शब्दों के साथ आचाराङ्ग (मजैवि.)
के शब्दों की तुलना उत्तराध्ययन
आचाराङ्ग
नत्थि
णत्थि
A
355, 664
| णदी 505, 772 नदी 739, 1252 77, 78, 94, 117,
1, 78, 80, 129, 135, 242, 456,
131, 133, 470, 649, 679,
136, 137 743, 752, 917,
138, 144, 1093, 1094, 1443,
146, 153 1518.
176, 200 नपुंसय 1503
णपुंसग 521 नपुंसग 1107, 1501 नमंस. 528, 969
णमंस 754 6, 118, 276, 416,
108, 140, 162 424, 428, 432, 525,
177, 191, 198 566, 575, 741, 780,
794 993, 1244, 1266, 1279,1292, 1305,1318,
1331, 1391, 1394,1415 -नर1417
-णर- 754 नर
418, 500 नवणीय 1389
णवणीत 350
णवणीय 421, 450, 597 निग्गंथी 1028
णिग्गंथी 553 निज्जरापेही 87
णिज्जरापेही 233 निट्ठियं 225
णिट्ठितं 390 निदाण 414, 434
|णिदाण 584
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
[५८].
प्रथम अध्ययन का पुन: सम्पादन उत्तराध्ययन
पाठों की तुलना आचाराङ्ग
निद्ध 1472
णिद्ध 176, 357 नियग . 367, 800
णियग 64, 66, 67, 81 नियच्छ 500
णियच्छ 124 नियाग 750
णियाग 19, 443 निसण्ण 854
णिसण्ण 119 निसन्न 707 नीयागोयं 1112
णीयागोए 75 अभिनिक्खंत 232
अभिणिक्खंत 181 नाण
211,582, 699, 813, | णाण 146, 177, 182 869, 930,982,1034
191, 769 1042, 1065, 1066, 1074-75, 1094, 1099, 1116, 116162,1173,1236,1347, 1349,1452, 1518-19,
1717 -नाण- 178 786,1089,1173 नाणी 63
णाणी 119, 123, 134
135, 269 अमणुन 1164-65, 1255-57, | अमणुण्ण 790
1269-70, 1282-83 1295-96, 1308-9
1321-22 आसुपन्न 122
आसुपण्ण 201
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[५९]
के. आर. चन्द्र
उत्तराध्ययन मणुन
1147, 1164,1165, 1255-56, 1269, 1282,1295,1308
आचाराङ्ग मणुण्ण 357, 400, 407,
408, 538, 790
1321
मायन्न
विनाय
53 850 1257, 1270, 1283, 1296, 1309, 1322
मातण्ण 273 विण्णाय 235, 464 समणुण्ण 4, 169, 190, 207, 208
समणुन्न
सन्ना
1219
दिन्न
168, 380
सण्णा 1, 70 दिण्ण 337, 357, 405,
598, 749 पडुप्पण्ण 132, 522 धण्ण 740
पडुप्पन्न धन्न
1114 353, 430, 634, 1442 123, 535
मन्नमाण
मण्णमाण 66, 73, 94, 150,
169, 190, 193 सुण्णगार 204, 279 समण्णागत 194
सुन्नगार समन्नागय
70, 1437 1144
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [६०]
पाठों की तुलना 19. इसिभासियाइं (शुबिंग, अहमदाबाद) के शब्दों के साथ
आचाराङ्ग (मजैवि.) के शब्दों की तुलना
इसिभासियाइं (ऋषिभाषितानि) | आचाराङ्ग
660, 677
अट्टालक -साधारण-
243
35, 17, 21 25, पृ. 55.1 35, पृ. 77. 16 24. 24
अट्टालय -साहारण साहारण अणल दिण्णं
अनल दिन्नं
2. 1
399 570 337, 357, 405, 598, 749 194
समन्नागत
22, पृ. 43. 5, 6 | समण्णागत
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[६१]
के. आर. चन्द्र 20. दशवैकालिकसूत्र (मजैवि.) के शब्दों के साथ आचाराङ्ग
(मजैवि.) के शब्दों की तुलना
दशवैकालिकसूत्र
आचाराङ्ग
20
तेगिच्छ नगिण नत्थि
327 374, 456, 461, 542
तेइच्छ णगिण णत्थि
नमंस नमोक्कार
णमंस णमोकार णर
94, 307, 728 185 1, 78, 80, 129, 131, 133, 136, 137, 138, 144, 146, 153, 176, 200 754 766 108, 140, 162, 177, 191, 198, 794 761 474, 478, 482, 485 476, 477, 479, 480, 481, 486 20, 191, 264
1, 483 206 259,336,384,444,। 472,490,497,559 15, 455,553,549 358 369
नर
नाग
-नाव
णाग णाव णाव
नाव
निक्खंत निज्झा निट्ठिय
49
नियट्ट
390 191 19, 443
448 442, 445 371 105 18, 311 137 180 202, 470 528 485
नियाग निसन्न निस्सेणि निस्सेस
णिक्खंत णिज्झा णिट्ठित णियट्ट णियाग णिसण्ण णिस्सेणि णिस्सेस णिहे णीय
119
निहे
365 215, 219, 224, 228 80, 89, 105, 133 75
नीय
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
नेव
छिन्न
निसन्न
मन्नंति
सासवनालियं 231 -नालियं
अनियाणे 533
कट्ठनिस्सिय 524
जगनिस्सिय 412
जीवनिकाओ 40
नायपुत्त
परित्राय
दशवैकालिकसूत्र
रन
41-47, 392,
395, 420
231, 234
53, 183, 373
137
299, 329
262, 280, 283,
288
27
44
[ ६२ ]
णेव
सासवणालियं 375
णालिया
अणिदाण
उदयणिस्सिया 26
छिण्ण
णिसण्ण
मण्णति
जीवणिकाय 62, 745
मण्णइ
णायपुत्त
परिण्णाय
आचाराङ्ग
17, 22
रण्ण
पाठों की तुलना
297, 444
142, 202
224, 228, 497, 604
119
114
584
240, 263
9, 17, 29, 30,
31, 33, 47, 48, 53,
54, 55, 61, 61, 62, 62, 74, 78, 88, 92, 97,101, 104, 111, 121, 123, 140, 158, 160, 163, 173, 176, 184, 185, 188, 203, 259, 608 202, 235
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमि
नगरं
आचाराङ्ग
[६३]
के. आर. चन्द्र 21. उत्तराध्ययनसूत्र (मजैवि. संस्करण) में 'नकार' के प्रयोग
प्रारंभिक नकार निकसिज्जइ 1.4, 7
41,43,47,52,61,62 नरस्स 1.6
निसा(मि)मेत्ता 9.8, 11, 13, 17, 19, 1.7, 11, 14(2),
23, 25, 27, 29, 31, 18 (3), 19, 20, 21,
33,37, 39, 41, 43, 24, 25(3), 33 (3)
45, 47, 50, 52 निसंते 1.8
9.11,17, 23, 27, 31, निरत्थाणि 1.8
37, 45, 50 निण्हवेज्ज 1.11
नत्थि 9.14 नोकडे 1.11
निव्वावारस्स 9.15 नेव 1.17, 18, 19, 26
9.20 नियायट्ठी 1.20
निउण 9.20 निसिज्जा 1.21
नगरस्स 9.28 1.34 (3), 40(4), नराहिवा 9.32 41, 42
नरस्स 9.48 निरत्थं 1.25, 26
निज्जिओ 9.56 निसीएज्ज 1.30
नीरओ 9.58 निक्खमे 1.31
नमेइ
9.61 निच्चं 1.44
13.9 नमइ 1.45
23.1 नाम 8.1
नगरि 23.3 8.6, 10, 18, 19 नाम
23.4,8 निज्जाइ 8.9
नगर
23.4,8 निसेवए 8.12
नामं
23.6 निट्ठियं 8.17
23.13, 24, 30 नमी 9.2, 3, 8, 13, निसेज्जाए। 23.17
19, 25, 29, 33, 39, निसण्णा 23.18
नामेणं
।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
नो
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [६४]
पाठों की तुलना 23.24, 30, 53, 56, निबंधेइ
29.1106 60, 61,66, 71, 84 निज्जरेइ 29.1107 नाणाविह 23.32
निव्वुयहियआए 29.1114 निच्छाए 23.33
29.1135 (5) निज्जिया 23.35
निंदणयाए 29.1108 निहंतूण 23.41
नियत्तेइ 29.1109 नेहपासा 23.43
नीयागोयं 29.1112 23.51
निबंधइ 29.1112 निगिण्हामि 23.56, 58 . निवत्तेइ 29.1112 नाससि 23.60
निरुद्धआसवे 29.1113 नस्सामहं 23.61
निरंभइ 29.1115 नावा 23.70, 71(2), निरइयारे
29.1118 .72, 73
निब्भए
29.1119 नाविओ 23.73
निच्चं...न 31.3 से 31.20 निरस्साविणी 23.71
मध्यवर्ती नकार नत्थि
23.81 निव्वाणं 23.83
अनुच्चे 1.30 नमो 23.85
सुनिट्ठिए 1.36 निच्वं
अनियमेत्ता 8.14 23.88 निव्वेए 29.1102
अभिनिक्खमई 9.2
अभिनिक्खंतो 9.4 29.1102 निंदणया 29.1103, 1136,
अभिनिक्खंतम्मि 9.5 1137, 1139
आणानिद्देसकरे 1.2 निव्वेएणं 29.1104
हियनिस्सेसाए 8.3 निव्वेय 29.1104 हियनिस्सेस 8.5 निव्वत्तेइ 29.1105 जगनिस्सिएहिं 8.10
29.1106 तसनामेहिं 8.10 निरंभइ 29.1106 तवनारायजुत्तेणं 9.22
नेरइय
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग चक्खिदियनिग्गहे 29.1102 माया-नियाण- 29.1107 महानिज्जरे 29.1121 परिनिव्वायइ 29.1130 तित्थगरनामगोयं 29.1145
ज्ञ = न
प्रारंभिक नच्चा
1.41, 45; 8.11,
19; 14.47 नाण-दंसण 8.3; 29.1116 नाउं
12.45 नायओ 13.23, 25 नाणं
23.33 नाणसंपन्ना 29.1102 नाणावरणिज्जं 29.1117, 1120
[६५]
के. आर. चन्द्र जन्न
25.1, 4, 5, 7,
11,14,16,18,36 विनाय
23.14 अणुन्नाए 23.22
23.25, 26, 28, 34, 39, 46, 49, 54, 59,
64, 69, 74,79, 85 विनाणेणं 23.31 पइन्ना
23.33 पडिरूवन्नू
23.15
न = न संपन्ने .. 1.2; 29.1116 आसन्ने 1.34 पडिछन्नम्मि 1.35 सुच्छिन्ने 1.36 अवसनो 13.30 संताणछिना 14.41 निदाणछिन्ने 15.1 छिन्नं समुपन्नं 19.7 समुपन्ने 19.9
19.56 -संपन्ना 22.7 समुप्पन्ना 23.10 -पवनाणं 23.13, 14 छिन्नो 19.56; 23.28, 34, 39
46, 49, 54, 59, 64, 68, 74, 79, 85
15.7
भिन्नो
पन्नेणं जन्नवाडं स्त्रो भूइपन्ना परिनाय जन्नसिटुं पन्ने अणुन्नाओ महापन्ने
ज्ञ = त्र मध्यवर्ती
8.20 12.3 12.20 12.33 12.41 12.42 15.2, 15 19.85, 86 22.15 23.1
सव्वन्नू
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [६६] भिन्ना 23.53 छिन्ने 23.86
मन्नई संपन्नया 29.1102
मन्नइ पडिवन्ने
29.1104, 1106, 1107 अन्नेसि पडुपन्न 29.1114
धनं सन्निरुद्ध 27.16
धन्न सन्निभे
कनं 22.30
कन्ना किन्नरा 23.20
मन्नसी निनेसु 12.12
अन्नो दिना
12.21 निन्नेहा 14.49
पाठों की तुलना न्य = त्र
1.28 1.38, 39 1.33 13.24 19.30 22.6, 8 22.7 23.65, 80 23.34, 39, 46, 49, 54, 59, 64, 69, 74, 79 29.1106
अन्ने
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
[६७]
के. आर. चन्द्र
2.1
20.
नागो
3.1
आचाराङ्ग 21. दशवैकालिकसूत्र ( मजैवि. संस्करण)
प्रारंभिक 'न' कार नमंसंति नाणापिंडरया
1.5 निवारए निस्सरई
2.4 निहुओ नारिओ
2.9
2.10 निग्गंथाण
3.1, 10; 6.4 नियागं नाली
3.4 निग्गंथा
3.11; 6.10, 16, 25 नीरया
3.14 नाम
4.1, 2 नेरइया
4.9 निंदामि
4.10, 11, 12, 13, इत्यादि निव्विदए
4.39 निलंभित्ता
4.46 नीरओ
4.47 निसीएज्ज
5.2.8 नीयं
5.2.25 नेव्वाणं
5.2.32 नरयं
5.2.48
6.8 निच्वं
6.22 निसेज्जा
6.54, 56, 59 नगिणस्स
6.64
निउणा
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[६८]
पाठों की तुलना
नामेइ
7.4
नरो
7.5 7.10
7.15
7.17
निस्संकियं नत्तुणिए नामधेज्जेण नंगलं नाभी नावाहिं नत्थि
7.28 7.28
7.38
7.43 7.53
निद्धणे
।
7.57 9.3.6 1.2,4; 2.1, 4, 6; 4.10(4), 35 (2); 5.2.8, 9; 6.5, 18, 20, 25, 26, 34, 36, 37; 7.8; 11.14; 12.9 इत्यादि, इत्यादि. 2.4; 5.1.111; 5.2.29; 6.9, 11, 14 इत्यादि, इत्यादि. 4.10-13 इत्यादि, इत्यादि.
6.36
मध्यवर्ती नकार अनिल अनिलेण गिहतरनिसेज्जा तत्तानिव्वुडभोइत्तं पंचनिग्गहणा परिनिव्वुडा जीवनिकाओ
10.3 3.5 3.6 3.11
3.15
4.9
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
[६९]
के. आर. चन्द्र
5.2.13
5.2.47
आचाराङ्ग जीवनिकायाणं 4.10 विणयनासणो . 8.37 उपसर्ग के साथ अनिव्वुडं 5.2.18 सुनिट्ठिए 7.41 अनियाणे 10.13
दिन्ने उववन्नो -संपन्नं पच्चुप्पन्न सुछिन्ने समुप्पन्ने समुप्पन्नं ज्ञ = न नाणं नायपुत्तेण नाण
6.1(2) 7.8-10 7.41 7.46 7.49
न्य = न
अन्ने अन्नं
4.33, 44 5.2.49 6.1 7.36; 9.12
नच्चा
4.11, 12, 13; 7.16 4.11, 12, 13,18; 5.1.115; 6.11 4.4.8 4.10 5.1.111 6.5
अन्नत्थ अन्नेहि अन्नस्स अन्नत्थ अन्नयरे मन्ने अन्नयरं
3.11
6.7
.
ज्ञ = त्र परिन्नाया धम्मपन्नत्ती सुपन्नत्ता गइविनाया अन्नाणी पन्नवं अन्नायउंछं
6.18 6.32 6.36, 66 7.13
41.3 4.2, 3 4.9 4.33 7.7 9.3.4
मन्नति
अन्नेण
अदिन्नादाणाओ 4.13 अदिन्नादाणं 4.13 अदिन्नं
4.13 समावन्नो 5.2.2 उप्पन्ने
5.2.3
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठों की तुलना
मध्यवर्ती ज्ञ = न, न
ओहिनाणं विनवेमि सम्मन्नाणं अविनायं अन्नाणेणं साभिन्नाणं
अपवाद ज्ञ=ण्ण विण्णत्ता कलाविहण्णू
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [७०] 23 वसुदेवहिंडी, खंड 1 (पृ. 1-16) प्रारंभिक न = न निक्खिवइ
नच्चणेहिं नमो
नाइदूर नाम
निरंतराणि नयरं
निव्वाण निरु वहय
नाणा निवेइय
अपवाद न=ण नवसु निज्जाओ
णाए, णेण नमिऊण
णिवयंति निग्गया
णिसन्न निरत्थओ
मध्यवर्ती न=न निव्वत्ते निअग
पंचनमोक्कार नागरया
जंबुनाम नववहू
कमलानिलओ निच्चिट्ठा
वित्थिन्ननयण नरग
जलधरनिनाद निव्वेय
गमणनिच्छए निवेदिओ
पियनिमित्तं
पडिनियत्ता नपुंसगो
कयनमोक्कारो नियमो
प्रारंभिक ज्ञ = न नत्थि
नाणं निरामया
नाणी नावाउ
रण्णा
धन्न अन्नेन जहन्न मनसि
मन्ने
नासेज्ज
समुप्पन्न पसन्न दिन्नं परिच्छिन्न समावन्नो पडिवनं
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
नरा
[७१]
के. आर. चन्द्र 2A पउमचरियं (अध्याय 1, 2, 3) प्रारंभिक न = न नरिन्द
निम्मलं नमि नयण
निस्सङ्गो नेमि नह
नगवर नमसामि निद्ध
मध्यवर्ती न = न नामावलि निम्मल
तियसनाहं निग्गओ नाह
धणनिवह नाडय
नडनट्ट नच्चन्ति
-निच्चनच्चन्तनवरं निग्गन्थ
भमरनिभनिद्धनिययं नियम
सलिलनिही निम्मविया निरोग
सुरनिकाय नालियर
-सरनिनायनयणा निव्वाण
नवनउइ नवघडिया
महानईओ निसामेह निस्सील
सीहनाएणं नीसेसं नियय
-जलनिवह नगर निदं
हरिनउलनिहओ
मेहनिग्घोस नाणानिग्गअ
रायनीइ निवो निच्च
विनडिडं नरवइ नाभिगिरी
इन्दनील नत्थि
किंनिमित्तेणं
नरयं
नड.
नीइ
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
[७२]
पाठों की तुलना
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन प्रारंभिक ज्ञ-न
न्य = न नाऊण
अन्ने नाणेण
धन्न
नज्जइ
अन्नया
कन्ना
न = न किन्नर समुप्पन्न उन्नय संपन्न उब्भिन्न उप्पन्न भिन्न छिन्न वोच्छिन्न सन्निवेस
नायव्व नाणेसु मध्यवर्ती ज्ञ-न, न तिकालनाणं केवलनाणं विनाण विन्नप्पं
अन्नोन्न मन्नइ
Page #107
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________________
आचाराङ्ग
[ ७३]
विभाग-3
( Acārāñga Linguistically Re-edited)
आचाराङ्गसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन का भाषिक दृष्टि से उपलब्ध प्राचीन शब्दरूपों के
आधार पर पुनः संपादन
के. आर. चन्द्र
Revised Edition of the First Chapter of the First Part of the Acaränga on the basis
of Available Archaic Word-forms.
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
[७४]
विभाग-३ का शुद्धि-पत्रक
५४
पंक्ति
अशुद्ध भवस्सामि
शुद्ध भविस्सामि
कम्मसमारम्भा
कम्मसमारम्भा निकाल दो
कम्मसमारभ्भा कम्मसमारभ्भा पादटिप्पण नं. 48 लज्जामाना पादटिप्पण 14 में से समाम्भावेइ -समारभ्भा -समारभ्भेण -समारभ्भेण मेघावी समारभ्भन्ते पादटिप्पण नं. 13
102
104
लज्जमाना 'मधु' को निकाल दो समारम्भावेइ -समारम्भा -समारम्भेण -समारम्भेण मेधावी समारम्भन्ते निकाल दो
108
111
112
125
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
पढमे उद्देस*
1. सुतं मे आउसन्ते! णं भगवता ' ' एवमक्खातं'
* शीर्षक मूल अर्धमागधी भाषा के अनुरूप बनाये गये हैं- संपादक
1.
सुयं
मजैवि.
2.
सुतं
सुतं (अहासुतं )
-
सुत
(सुत - सील-बुद्धिए)
सुता
- सुता
(विस्सुता) आउस तेणं
आउसंतेणं
आचा.1.4.1.133; 5.2.155
आचाचू. (पृ. 8.13)
सूत्रकृ. 1.4.1.269 एवं चूपा.; 9.460, 15.622 (दो बार)
आचा. 1.9.1.254
सूत्रकृ. 1.6.353
दशवै. पाठा. अचू. वृद्ध. 9.1.467
सूत्रकृ. 1.5.1.307
ऋषिभा. 22.6
ऋषिभा. 24.7, 9; 45.21
मजैवि.
आचा. 2.7.2.635; पाठा. चूपा. 1.1.1.1, पाटि 2
Page #110
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[७६]
प्रथम उद्देशक
सूत्रकृ. 2.2.694; 2.3.722; 2.4.747; पाठा. 2.1.638 (पृ. 121.14)
आउसे
सूत्रकृतांग की चूर्णि में सूत्रकृ. (2.6.51, पाटि. 4) से एक 'आउसे' पाठ उद्धृत किया गया है । यह मागधी का रूप है ओर प्राचीन भी । वैसे संबोधन के लिए 'आउसो' और 'आउसन्तो' पाठ ही मिलते हैं और जहाँ पर भी 'आउस' पाठ मिलता है उसके साथ 'तेण' या 'तेणं' शब्द भी मिलता है । सूत्रकृतांग के चूर्णिकार 'आउसे' को इस प्रकार समझाते हैं-'आउसे त्ति हे
आयुष्मन्तः' । इस (सूत्रकृ. पृ. 232) से स्पष्ट है कि 'आउसे' पाठ 'आउसो' का मागधी रूप है, उसी न्याय से 'आउसन्तो' का मागधी रूप 'आउसन्ते' होता है । अतः भाषिक दृष्टि से और आचारांग की भाषा की प्राचीनता को ध्यान में रखते हुए मूल पाठ इस प्रकार बनता है 'आउसन्ते णं' जिसमें 'णं' अव्यय है। संबोधन का प्रचलित रूप 'भंते' भी 'आउसन्ते' पाठ की ही पष्टि करता है । हस्तप्रतों की लेखन-पद्धति शब्द-विच्छेद रहित होने के कारण प्राचीन पाठ भुला दिया गया और उसके बदले में 'आउसंतेणं' और 'आउसं तेण' पाठ प्रचलित हो गये और फिर उनके कल्पनाके बल पर अर्थ समझाये जाने लगे। इस ‘आउसन्ते णं' पाठ में अप्रस्तुत अर्थ की कोई कल्पना करने की आवश्यकता नहीं रहती (विस्तृत चर्चा के लिए देखिए मेरा लेख 'अर्धमागधी भाषा में सम्बोधन का एक विस्मृत शब्द-प्रयोग 'आउसन्ते', श्रमण, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, 5, जुलाई-सितम्बर 1995) मजैवि.
3.
भगवया
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[७७]
के. आर. चन्द्र
भगवता
आचा. 1.1.1.7, 1.2.13, 1.3.24, 1.4.35, 1.5.43, 1.6.51, 1.7.58; 2.5.89, 6.3.187, (पृ. 64.1), 8.4.214 (पृ. 77.2), 8.5.217 (पृ. 78.4), 219 (पृ. 79.7), 8.6.222, 223 (पृ. 81.2) आचा. पाठा. चूपा. 2.7.2.635, पाटि. 2 सूत्रकृ. 2.1.638 (पृ. 121.4), 1.679, 2.694, 3.722, 4.747 (पृ. 210.1, 6), 4.749 (पृ. 211.9, 12; 212.10), 4.751 (पृ. 213.5, 17), 4.752 (पृ. 215.4), 4.753 (पृ. 215.9; 216.6) मजैवि. आचा. पाठा. चूपा. 1.6.4.190, पाटि. 7 सूत्रकृ. 2.2.694, 3.722, 738 (पृ. 206:2), 4.747 उत्तरा. पाठा. चूपा. 5.147, पाटि. 21
4.
अक्खायं अक्खातं
सूत्रकृ. 2.3.723 (पृ. 195.8) सूत्रकृ. पाठा. चूपा. 1.15.609, पाटि.7 सूत्रकृ. 2.1.650 (पृ. 132.1)
-अक्खातं (पुरक्खातं) (सुअक्खातं) (सुयक्खातं)
-अक्खात(सुअक्खातधम्मे) अप्पडिहतापच्चक्खातपावकम्मा)
अक्खाता
आचा. 1.6.3.187 (पृ. 63.2)
ऋषिभा. 25 (पृ. 53.8) आचा. पाठा. चूपा. 1.6.4.190, पाटि.7, सूत्रकृ. 1.4.2.296; पाठा. चूपा. 2.1.652, पाटि.11 (पृ. 132.26)
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[७८]
प्रथम उद्देशक
-अक्खाता
(वियक्खाता) आचा. 1.5.6.174
अक्खाताई
आचा. 2.4.1.522 (पृ. 191.2)
सूत्रकृ. 2.2.694 (पृ. 152.11), 2.717
अक्खाते
आचा. 2.15.775, पाटि. 6 (सूत्रकृ. चूपा. दो बार)
सूत्रकृ. 1.9.437, 11.497; 2.4.747, 751 (पृ. 213.17), 752 (पृ. 215.4), 753 (पृ. 216.7)
-अक्खाते
(सुअक्खाते) आचा. 1.8.1.201 (सुयक्खाते) सूत्रकृ. 2.1.652 (क) 'सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं'-आचा. 2.7.2.635
(ख) ....सुयं मे आउसंतेण भगवता...'-आचा. पाठा. चूपा. 2.7.2.635,
पाटि. 2
(ग)
'सुयं मे आउसंतेण भगवता एवमक्खायं'-सूत्रकृ. 2.1.638 (पृ. 121.5)
(घ) 'सुयं मे आउसंतेणं भगवता एवमक्खातं'-सूत्रकृ. 2.3.722,
__ (पृ. 194.3) (च) 'सुतं मे आउसंतेणं भगवता एवमक्खातं'-सूत्रकृ. 2.2.694
(पृ. 152.3)
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________________
आचाराङ्ग
[७९]
के. आर. चन्द्र "इधमेकेसि नो' सन्ना' भवति, तं अधा10 - पुरथिमातो
6.
इहमेगेसिं इध
इधं
7.
-एकेसिं
___8.
णो
मजैवि. आचा. पाठा. 1.2.6.101, पाटि.22, प्रति खं, खे, जै; 5.2.153, पाटि. 10, प्रति. खं, इ. आचा. पाठा. 1.2.1.64, पाटि. 12, प्रति खं. ऋषिभा 30.1 आचा. पाठा. 1.1.1.1, पाटि. 3. प्रति. सं, हे 1, 2; 1.2.14, पाटि.1, प्रति सं, शां, खं, खे, जै; 1.3.25, पाटि. 14, प्रति सं. शां, खं, हे 1, 2, ला, ला 1; 2.1.64, पाटि. 12, प्रति खं, खे, जै; 2.4.82, पाटि. 2, प्रति सं, खं, खे, जै; 2.5.87, पाटि. 22, प्रति खं, खे, जै. मजैवि. शु, जैविभा; आचा. प्रति* खं 1; प्रति संदी. 1.8.2.207, 7.225; 2.1.1.331, 2.335, इत्यादि आचा. 1.6.1.178, 8.5. 219 (पृ. 79.5); 2.2.502, 554, 583 (6 बार), 584 (4बार), 592, 614, 616, 627, 631, 679, 680, 687 (4 बार); पाठा. 2.3.1.473, 474,3.2.502, 3.3.517, 15.778 (3 बार); पाठा. 787, पाटि. 15 (स्था., समवा.); 2.3.1.464. पाटि. 1 (निशीथचू.); 'नो सन्ना भवति' आचा.चू. पृ. 10.5 सूत्रकृ. 1.1.1.16, 1.2.44, 2.2.119, 123, 133 (दो बार), 2. 3.158, 4.1.251 (3 बार), 7.407, 9.463, 10.474, 479, 496 (दो बार), 14.598 (दो
बार), 600 (दो बार), 16.633; 2.1.649, 653 (दो - बार), 655, 664, 669, 672 (3 बार), 2.2.713,
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[८०]
प्रथम उद्देशक
718, 719 (3 बार), 721 (3 बार), 2.4.748, 750, 753, 2.7.847, 853, 855 (दो बार), 857 पाठा. 1.2.1.106, पाटि. 8, प्रति खं 1, 2, पु 2; 2.1.665 पाटि. 21, प्रति पा, पु 2, ला, सं; 672, पाटि. 3, प्रति खं 2; 2.2.696, पाटि. 8 (दो बार), 714, पाटि. 9, प्रति पा, पु 2, ला, सं; 2.7.846, पाटि, 18. उत्तरा. अनेक बार, देखो उसकी शब्दसूची ऋषिभा. 3 (पृ. 5.21), 9 (पृ. 17.8), 11 (पृ. 23.23), 21 (पृ. 41.1, 2) मजैवि.
9.
सण्णा सन्ना
शु.
10.
-सन्नाणं जहा अधा (अधातधा)
आचा. प्रति पू ,जे, ला. आचाचू. (पृ. 9.13) भावसना, (पृ. 9.14) -नाणसन्ना (चार बार) सूत्रकृ. 1.2.1.98 उत्तरा. 31.1219 मजैवि. आचा. पाठा. 2.11.673, पाटि.5, प्रति खं, इ. आचा. पाठा. 1.4.4.146 (पृ. 45), पाटि.4, प्रति खं, खे, जै. आचा. 2.5.2.581, पाटि.16, प्रति खं. सूत्रकृ. पाठा. 1.10.480, पाटि.3, चूपा. सूत्रकृ. 14.604, पाटि. 1, चूपा. सूत्रकृ. 2.5.761, पाटि. 6, चूपा. ऋषिभा. 30 (पृ. 65.18),
.
(अधापरिग्गहियातिं) (अधाकडं) (अधाबुइताई) (अधाकम्म) (अधासच्चमिणं)
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आचाराङ्ग
[ ८१]
के. आर. चन्द्र
वा दिसातो आगतो अहमंसि, दक्खिणातो वा दिसातो 12 आगतो अहमंसि, पच्चत्थिमातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, उत्तरातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, उड्डातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, * अधेदिसातो वा आगतो अहमंसि, अन्नतरीतो दिसातो वा अनुदिसातो वा आगतो अहमंसि । एवमेकेसिं 14 नो 15 नातं " भवति — अत्थि मे
13
दाहिणाओ
11.
12.
14.
दक्खिणातो
13. अणुदिसातो
एवमेगेसिं
एवमेकेसिं
15.
दिसाओ
णो
卡
मजैवि
(पंचमी एक वचन के लिए -तो विभक्ति वाले अनेक प्राचीन प्रयोग स्वयं मजैवि. के आचाराङ्ग के संस्करण में ही उपलब्ध हो रहे हैं। अतः उसके स्थान पर - ओ विभक्ति को अपनाना उपयुक्त नहीं ठहरता 1 )
आचा. 1.1.1.2 में 'दक्खिण' शब्द ही प्रयुक्त है । सूत्रकृ. 2.1.640 (पृ. 123.4) में 'दक्खिणातो' शब्द का प्रयोग मिलता है ( दक्खिणातो दिसातो आगम्म ) । मजैवि.
* आगे पृष्ट ८३ पर देखो.
(देखिए ऊपर पाटि नं. 11 )
मजैवि.
(देखिए ऊपर पाटि नं. 11 )
मजैवि.
आचा. प्रति* पू, जे.
मजैवि.
शु.
सूत्रकृ. 1.1.16
.
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [८२]
प्रथम उद्देशक आता” ओववादिए। नत्थि19 मे आता20 ओववादिए21 ? के
16.
मजैवि.
णातं नायं
नातं
.
17.
आया आता
आचा. प्रति* पू, जै. मजैवि. आचा. 1.5.5.171 (तीन बार) सूत्रकृ. 2.1.649, 650 (दो बार). ऋषिभा. 5.2.4; 15.17; 26.7, 8; 32.2; 44 (पृ. 93.27); 45.10
आता
आतवं
.
18.
(आतावादी) आचा. 1.5.5.171 (आतोवरता) आचा. 1.4.4. 146 (आतोवरताणं) आचा. 1.4.4. 146 (आतापज्जवे) ऋषिभा. 20 (पृ. 39.11)
आचा. 1.3.1.107 आतबले आचा. 1.2.2.73 उववाइए मजैवि. उववादिए आचा. पाठा. प्रति सं, खं. ओववाइए जैविभा.
आचा. पाठा. प्रति शां, इ. ओववादिए आचा. पाठा. प्रति खं, जै.
आचा. पाठा. पृ.2, पाटि.1 'उववादी = संसारी' चू. णत्थि मजैवि. नत्थि
आगमो, शु.
आचा. प्रति* पू, जे. आया
आचा. प्रति* खं 1
19.
20.
मजैवि.
आता
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आचाराङ्ग
[८३]
के. आर. चन्द्र अहं आसी, के वा इतो22 चुते इध23 पेच्चा भवस्सामि ?
21.
उववाइए उववादिए ओववाइए ओववादिए इओ.
. इतो
मजैवि. आचा. प्रति* खं. 3 जैविभा. आचा. पाठा. प्रति खं, जै. .... मजैवि. सूत्रकृ. 1.1.1.12; 10.481; 15.624; 2.1.682 (इतो चुते पेच्चा देवे सिया ) ऋषिभा. 25 (पृ. 53. 12, 24) नास्ति मजैवि. शु, आगमो, जैविभा... आचा. पाठा. प्रति खं, हे 1, 3, इ, ला, एवं शी. आचा. पाठा. 1.2.1.64, (पाटि. 12), प्रति खं; 6.101, पाटि. 22, प्रति खं, खे, जै.; 5.2.153, (पाटि. 10), प्रति. खं, इ. ऋषिभा. 30.1
___23. इध
अन्य दिशाओं सम्बन्धी जो शैली है उसके अनुसार 'अधे' और 'अनु' के लिए निम्न प्रकार का पाठ उपयुक्त होगा - 'अधे वा दिसातो आगतो', 'अन्नतरीतो वा दिसातो अनु वा दिसातो आगतो' जैविभा. का पाठ है - 'अहे वा दिसा'
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [८४]
प्रथम उद्देशक 2. से ज्जं पुन24 जानेज्जा25 सहसम्मुतिया26 परवागरणेन7 अन्नेसिं28
24. 25.
पुण
मजैवि. जाणेज्जा मजैवि. सहसम्मुइयाए मजैवि. सहसम्मुइया उत्तरा. 28.1081 (सहसम्मुइयाऽऽसव-संवरे) सहसम्मइया आचा. (आगमो.) शीलाङ्कवृत्ति (पृ. 20), नियुक्ति गाथा
67 (सहसम्मइया जाणइ) सह संमइआ आचा.(आगमो.) शीलाङ्कवृत्ति (पृ.20), नियुक्ति गाथा 65
. (इत्थ य सह सम्मइअत्ति जं एअंतत्थ जाणणा होई) सहसम्मुतियाए आचा. 1.8.2.205. सह सम्मुतियाए आचा. पृ. 2, पाठा. चूपा. पाटि, 12 (इस शब्द की
तुलना कीजिए अशोक के शिलालेखों के शब्द 'मुति' के साथ और पालि भाषा के सुत्तनिपात के तृतीया ए.व.के शब्द-रूप 'सम्मुतिया' के साथ । आचाराङ्ग में '-या' प्राचीन विभक्ति प्रत्यय है । साथ साथ जो प्राकृत भाषा का 'ए' प्रत्यय भी हस्तप्रतों में मिलता है वह परवर्ती काल में भ्रम से
जोड़ा गया प्रत्यय है।) सह सम्मुइए आचा. पृ. 2, पाठा. पाटि, 12, प्रति शीजै. सहसम्मइए आचा. पृ. 2, पाठा. पाटि. 12, प्रति शीखं. परवागरणेणं मजैवि. अण्णेसिं मजैवि. अन्नेसिं
आचा. प्रति* ला. आचा. पाठा. 1.8.7.227, पृ. 83, पाटि. 6. चूपा. 1.1.1.2, पाटि.13, पञ्चा. वृ. 1.34 सूत्रकृ. 1.9.23; 2.1.690, 708 (पृ. 166.3) उत्तरा. 1.33
27.
28.
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आचाराङ्ग
[८५]
केआर
के. आर. चन्द्र वा अन्तिए29 सोच्चा, तं अधा -
पुरस्थिमातो वा दिसातो आगतो अहमंसि एवं दक्खिणातो1 वा पच्चत्थिमातो32 वा उत्तरातो वा उड्डातो4 वा अधे35 वा अन्नतरीतो 6 वा दिसातो37 अनु वा दिसातो आगतो अहमंसि । एवमेकेसिं39 नातं भवति
ऋषिभा. 36 (पृ. 81.3) (हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण में 'अन्य' शब्द का प्राकृत रूप 'अन' ही मिलता है, उसके स्थान पर
'अण्ण' नहीं है।) ____29. अंतिए मजैवि. अन्तिए
आचा. प्रति* खं 3, ला. 30. जहा
मजैवि. दक्खिणाओ मजैवि. पच्चत्थिमाओ मजैवि. उत्तराओ मजैवि. उड्डाओ मजैवि. अहाओ मजैवि.
(देखिए पीछे सूत्र. नं. 1 का पाठ 'अधे वा दिसातो') अनतरीओ मजैवि. दिसाओ मजैवि. अणुदिसाओ मजैवि. एगेसिं मजैवि. एकेसि आचा. प्रति खं 1, खं 3. प्रति* पू, जे, ला. णातं
मजैवि. नायं
आचा. प्रति* पू, जे, ला.
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [८६]
प्रथम उद्देशक ___ अत्थि मे आता1 ओववादिए जे42 इमाओ दिसाओ वा अनुदिसाओ43 वा अनुसञ्चरति4 सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अनुदिसाओ सेऽहं ।
3. ॥ से आतावादी46 लोकावादी+7
__कम्मावादी किरियावादी ॥ 41. आया मजैवि. 42. उववाइए जो मजैवि. ,
ओववार ओववाइए जो
और जैसे 'से' वैसे 'जे' जैविभा.
आचा. पाठा, 1.1.1.2., पाटि. 17, प्रति इ. उववादिते प्रति सं, शां. उववादिए प्रति खं, प्रति* खं 1. तोववादिते प्रति जै.
अणुदिसाओ मजैवि. 44. अणुसंचरति मजैवि. 45. से
पिशल के प्राकृत व्याकरण (423) के अनुसार 'सो' प्रयोग गलत है। अतः उसके स्थान पर तथा अन्य सूत्रों (गद्य) में भी 'से' का प्रयोग ही उपयुक्त माना जाना
चाहिए। 46. आयावादी आतावादी आचा. 1.5.5.171 'एस आतावादी समियाए परियाए
वियाहिते त्ति बेमि'
आचा.चू. 'से आतावादी लोगावादी' (पृ. 12.6) 47. लोगावादी
मजैवि. लोकावादी आचा. पाठा. 1.1.1.3, पाटि. 4, प्रति खं. जै. हे 1,
प्रति* खं. 3 लोकावाई प्रति* पू, जे, ला.
मजैवि.
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________________
एतावंतं
आचाराङ्ग
[८७]
के. आर. चन्द्र ___4. अकरिस्सं चऽहं,काराविस्सं चऽहं, करओ यावि48 समनुन्ने49 भविस्सामि । .
5. एतावन्ति सव्वावन्ति लोकंसि2 कम्मसमारभ्भा3 परिजानितव्वा 4 भवन्ति । 48. आवि आगमो. 49. समणुण्णे मजैवि.
समणुन्ने शु, आगमो. एयावंति
मजैवि. एतावंति
आचा. 1.1.1.8; 1.5.6.176 (पृ. 57.8) एतावंती आचा. पाठा. 1.1.1.8, पाटि. 19, प्रति खं, हे 3, इ.
सूत्रकृ. 1.11.506 एयावन्ती सव्वावंति मजैवि. सव्वावन्ती लोगंसि मजैवि. लोकंसि आचा. पाठा. 1.1.1.8, पाटि. 20, प्रति* जे, सं,
हे 1, 2, ला. (सव्वलोकंसि) आचा. 1.4.3.140
ऋषिभा. 21 (पृ. 39.24) कम्मसमारंभा मजैवि. कम्मसमारम्भा शु. परिजाणितव्वा मजैवि. भवंति मजैवि. भवन्ति
53.
54. . 55.
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [८८]
प्रथम उद्देशक 6. अपरिन्नातकम्मे खलु अयं पुरिसे जे इमाओ दिसाओ वा अनुदिसाओ7 वा अनुसञ्चरति,58 सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अनुदिसाओ सहेति, अनेकरूवाओ60 जोनीओ सन्धेति:2, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदयति ।
7. तत्थ खलु भगवता परिन्ना63 पवेदिता
इमस्स चेव जीवितस्स64 परिवन्दन65 - मानन66-पूजनाए67 56. अपरिण्णायकम्मे मजैवि.
अपरिन्नायकम्मे परिन्नाता
ऋषिभा.3 (पृ. 7.18) अपरिण्णाता आचा. 1.1.2.16, 1.4.38, 1.5.46, 1.7.60 अहापरिणातं आचा. 2.2.3.445, 7.2.621 अपरिण्णाते आचा. 1.5.1.149
परिणातकम्मे सूत्रकृ. 2.1.678, 692 57. अणुदिसाओ मजैवि. 58. अणुसंचरति मजैवि. 59. अणुदिसाओ मजैवि. 60. अणेगरूवाओ
(अणेकजम्म
जोणीभयावत्तं) ऋषिभा.3 (पृ.5.16) 61. जोणीओ मजैवि. 62. संधेति
मजैवि. 63. परिणा मजैवि.
परित्रा 64. जीवियस्स
जीवितस्स आचा. 1.1.3.24, 1.6.4.191 (पृ.65.15) जीवितं
आचा. 1.2.1.66, 2.3.78, 3.4.129, 5.1.148
मजैवि.
शु. मजैवि.
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________________
आचाराङ्ग
[८९]
के. आर. चन्द्र -जाति68-मरण-मोयनाए69 दुक्खपडिघातहेतुं
8. एतावन्ति० सव्वावन्ति'1 लोकंसि2 कम्मसमारभ्भा'3 परिजानितव्वा74 भवन्ति । 65. परिवंदण मजैवि.
परिवन्दण 66. माणण मजैवि. 67.
पूयणाए मजैवि. पूजणाए सूत्रकृ. पाठा. 2.1.652, पाटि. 15, चूपा. पूजयामु सूत्रकृ. 1.3.2.198
पूजियं दशवै. पाठा. वृद्ध. 5.2.256 68.
जाती- मजैवि. जाति- आचा. पाठा. 1.1.6.51, पाटि. 5, प्रति सं, खं, खे, जै,
इ. आचा. पाठा. 1.1.7.58, पाटि. 2, प्रति जै. जाइजाइ
आचा. पाठा. 1.1.1.7, पाटि.17, प्रति हे 3, खं.
प्रति* खं 3, पू, ला. 69. मोयणाए मजैवि. 70. एतावंति मजैवि.
एयावन्ती सव्वावंति मजैवि. सव्वावन्ती लोगंसि लोकंसि आचा. पाठा. 1.1.1.8, पाटि. 20, प्रति सं, जे, हे 1,
2, ला, प्रति* पू, जे, ला.
मजैवि.
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [९०]
प्रथम उद्देशक 9. जस्सेते लोकंसि6 कम्मसमारम्भा7 परिन्नाता भवन्ति से हु मुनी80 परिन्नातकम्मे
त्ति बेमि । । सत्थपरिन्नाए पढमे उद्देसगे समत्ते82 । लोकम्मि प्रति* खं. 1 कम्पसमारंभा मजैवि. कम्मसमारम्भा शु. परिजाणियव्वा मजैवि. भवंति मजैवि. भवन्ति लोगंसि
मजैवि. लोकंसि आचा. पाठा. 1.1.1.9, पाटि.. 21, चूपा. कम्मसमारंभा मजैवि. कम्मसमारम्भा परिणाया मंजैवि. परिनाया परिण्णाता आचा. पाठा. 1.1.1.9, पाटि. 21, चूपा. परिन्नाया उत्तरा. 2.66 परिन्नाता ऋषिभा. 3.11 'जस्स एते परिन्नाता...' भवंति मजैवि. भवन्ति
मजैवि. परिण्णायकम्मे मजैवि. परिनायकम्मे शु. परिणातकम्मे आचा. प्रति* खं.3 हरेक उद्देशक के अन्त में आनेवाला समाप्ति-सूचक ऐसा वाक्य मूल अर्धमागधी के अनुरूप बनाया गया है – सपादक । .
शु.
79
मुणी
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________________
बितीये उद्देसगे 10. ॥ अट्टे लोके परिजुण्णे दुस्सम्बोधे अविजानए । ॥ अस्सि लोके पव्वथिते तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितावेन्ति ॥ 11. सन्ति पाणा पुढो-सिता ॥ 12. ॥ लज्जामाना पुढो पास ॥
लोके
लं
सं
लोए मजैवि.
ऋषिभा. 14 (पृ. 27. 27), 22.6, 31 (पृ. 69.20) -लोके (इधलोके) (परलोके), ऋषिभा. 24 (पृ. 47.2) दुस्संबोधे मजैवि. अविजाणए मजैवि.
मजैवि. पव्वहिए मजैवि. पव्वथिए आचा. पाठा. 1.1.1.10, पाटि. 3, प्रति इ. पव्वधिए आचा. पाठा. 1.2.5.84, पाटि. 18, प्रति खे. पव्वहिते आचा. 1.2.4.84 पव्वहिता आचा. 1.2.6.96 परितावेंति मजैवि. परियावेन्ति
लोए
।
संति
मजैवि.
सन्ति
शु.
लज्जमाणा
मजैवि.
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________________
-
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [९२]
द्वितीय उद्देशक 'अनगारा मो' त्ति एके10 पवदमाना11' जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि12 पुढविकम्मसमारम्भेण!3 पुढविसत्थं समारम्भमाणे14 अनेकरूवे5 पाणे विहिंसति । 9. अणगारा मजैवि. 10. एगे
मजैवि. एके
आचा. पाठा. 1.1.2.12, पाटि. 5, प्रति सं, खं, खे, जै., प्रति* खं 3.
सूत्रकृ. 1.1.1.9 11. पवयमाणा मजैवि.
पवदमाणा आचा. 1.1.4.34, 1.5.42, 1.6.50, 1.7.57 12. विरूवरूवेहि
सत्थेहिं । मजैवि. विरूवरूवेहि आचा. प्रति* खं 3.. -समारंभेणं मजैवि. -समारम्भेणं शु.
समारंभेण आचा. प्रति* खं 1, पू, जे, ला. 14. समारंभमाणो मजैवि. समारंभमाणे आचा. (पृ. 416), पाठा. प्रति संदी. 1.1.2.12 मधु.
आचा. 1.1.3.23, 1.4.34 समारभमाणे शु. 15. अणेगरूवे मजैवि. अणेक
'अणेकजम्मजोणीभयावत्तं' ऋषिभा 3 (पृ. 5. 16)
Page #127
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________________
आचाराङ्ग
[९३]
के. आर. चन्द्र 13. तत्थ खलु भगवता परिना16 पवेदिता
इमस्स चेव जीवितस्स17 परिवन्दन18-मानन19-पूजनाए जाति20-मरण-मोयनाए दुक्खपडिघातहेतुं1 -
से सयमेव पुढविसत्थं समारम्भति,22 अन्नेहि वा पुढविसत्थं समारम्भावेति,24 अन्ने25 वा पुढविसत्थं समारम्भन्ते26 समनुजानति27। तं से अहिताए, तं से अबोधीए28 ।
16.
17.
18.
परिण्णा
मजैवि. परिन्ना
शु. जीवियस्स मजैवि. परिवंदण मजैवि परिवन्दण -माणण-पूयणाए मजैवि. जाती-मरणमोयणाए मजैवि. जाइ
शु, आगमो. आचा. प्रति* खं 3
मजैवि. समारंभति मजैवि. अण्णेहि मजैवि. अन्नेहि समारंभावेति मजैवि. समाम्भावेइ अण्णे
मजैवि. अन्ने
शु., दशवै. 4. 41, 42, 43
21. ____ 22.
23.
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [९४]
द्वितीय उद्देशक ____14. से तं29 सम्बुज्झमाने30 आदानीयं:1 समुट्ठाय सोच्चा
26.
28.
समारंभंते मजैवि. समारभन्ते शु. समणुजाणति मजैवि. अबोहीए मजैवि. अबोधीए आचा. 1.1.3.24, 1.4.35, 1.6.51, 1.7.58 तं
मजैवि. त्तं
आचा. 1.1.3.25, 1.4.36, 1.5.44, 1.6 52, 1.7.59
29. .
30. संबुज्झमाणे मजैवि. 31. आयाणीयं मजैवि. आदाण मध्यवर्ती दकार युक्त 'आदाण' के प्रयोग के कुछ
उदाहरण आदाणं आचा. 1.6.3.187
सूत्रकृ. 1.13.560, 1.16.635 -आदाणं (अदत्तादाणं) ऋषिभा. 1 (पृ. 3.6) (छिपणादाणं) ऋषिभा. 15.26,27: 24.22
आदाण(आदाणहेडं) उत्तरा. 13. 426 आदाणाई सूत्रकृ. 1.9. 447 आदाणेणं सूत्रकृ. 2.2.710 (पृ. 169.4) आदाणाए आचा. 1.2.4.86 आदाणातो सूत्रकृ. 1.16.635 (2 बार), 2.1.683-687
ऋषिभा. 16 (पृ. 33.19)
Page #129
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________________
आचाराङ्ग
[ ९५ ]
के. आर. चन्द्र
भगवतो अनगाराणं 33 वा34 अन्तिए 35 इधमेकेसिं 36 नातं 37 भवति -
आदाणस्स
(कम्मादाणस्स)
32. समुट्ठाए
समुट्ठाय
समुट्ठाय
33.
34.
उट्ठाय
अणगाराणं
वा
वा
वा
ऋषिभा. 9.5
मजैवि.
आगमो.
आचा. प्रति* खं. 3
आचा. पाठा. प्रति संदी. 1.2.2.70 (पृ.417)
1.1.2.14, पाटि 18, प्रति खं, हे 3, ला,
1.3.25, पाटि 12 प्रति सं, जे, हे 2, ला,
1. 4.36 पाटि 12, प्रति हे 3,
1.5.44 पाटि 12, प्रति हे 3.
1.6.52, पाटि 9, प्रति हे 1, 2, 3, ला.
1.7.59, पाटि 8, प्रति खं, ला.
उत्तरा 4. 126
आचा. 1.8.6.24, 8.7.228, 9.1.254
मजैवि.
नास्ति मजैवि
शु,
जैविभा.
आचा. पाठा. 1.1.2.14, पाटि 20 प्रति खं, हे 1, 3, लासं, आचा. चू., आचा. वृ.
आचा. प्रति* खं. 3, ला.
Page #130
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[९६]
द्वितीय उद्देशक
इध
-एकेसि
एस खलु गन्थे,38 एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरके39। 35 अन्तिए नास्ति मजैवि.
अन्तिए अंतिए आचा. पाठा. 1.1.2.14, पाटि. 20,
प्रति इ, हे 1, 3, लासं 36. इहमेगेसिं मजैवि. इधमेकेसि आचा. पाठा. 1.2.1.64, पाटि. 12, प्रति खं..
आचा. पाठा. 1.2.6.101, पाटि. 22, प्रति खं, खे, जै., 1.5.2.153, पाटि 10, प्रति खं, इ.
आचा. प्रति* खं 1, खं 3. णातं मजैवि. नायं
आचा. प्रति* खं 1.
मजैवि. गन्थे निरए मजैवि. नरए .
आचा. प्रति* खं 1, पू, जे. णरए
आचा. पाठा. 1.1.2.14, पाटि. 3, प्रति सं, शां, खे, जै, हे 1, 2, 3, इ, ला, ला 1.
आगमो, जैविभा. णरकं ऋषिभा. 14 (पृ. 27. 28)
शु.
गंथे
Page #131
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________________
आचाराङ्ग
[९७]
के. आर. चन्द्र .. ॥ इच्चत्थं गढिते लोके ॥
जमिणं विरूवरूवेहि 2 सत्थेहि 3 पुढविकम्मसमारम्भेण+4 पुढविसत्थं समारम्भमाणे45 अन्ने वऽनेकरूवे7 पाणे विहिंसति ।
मजैवि.
आचा. 1.2.3.79, 2.4.82
40. गढिए
-गढिते(तत्थ गढिते चिट्ठति)
-गढिते (आताण
सोत-गढिते) 41. लोए
लोके विरूवरूवेहि
सत्थेहिं 44. -समारंभेणं
-समारम्भेणं -समारंभेण
आचा. 1.4.4.144 मजैवि. देखो उद्देसग-2, पादटिप्पण नं. 1 मजैवि. मजैवि. मजैवि.
आगमो. आचा. प्रति* पू, जे. मजैवि.
45. 46.
समारभमाणे अण्णे अन्ने
मजैवि.
आचा. प्रति* ला. मजैवि.
47.
अणेगरूवे
Page #132
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [९८]
द्वितीय उद्देशक 15 से बेमिअप्पेके48 अन्धमब्भे49 अप्पेके अन्धमच्छे, अप्पेके पादमब्भे अप्पेके पादमंच्छे, अप्पेके गुप्फमब्भे अप्पेके गुप्फमच्छे, अप्पेके जङ्घमब्भे अप्पेके जङ्गमच्छे,50 अप्पेके जानुमब्भे51 अप्पेके जानुमच्छे, अप्पेके ऊरुमब्भे अप्पेके ऊरुमच्छे, अप्पेके कडिमब्भे अप्पेके कडिमच्छे, अप्पेके नाभिमब्भे2 अप्पेके नाभिमच्छे, अप्पेके उदरमब्भे अप्पेके उदरमच्छे, अप्पेके पासमब्भे अप्पेके पासमच्छे, अप्पेके पिट्ठिमब्भे अप्पेके पिट्ठिमच्छे, अप्पेके उरमब्भे अप्पेके उरमच्छे, अप्पेके हिदयमब्धे3
48.
आ
अप्पेगे मजैवि. इस सूत्र में सभी जगह यही पाठ है । (अप्पेके आचा. प्रति* 'जे' में इसी सूत्र में आगे हियमब्भे) यही 'अप्पेके' पाठ मिलता है ।।
"एके' पाठ के लिए देखो पीछे उद्देसग-2,
पाटि. नं. 10 अंधमब्भे मजैवि. अन्धमब्भे जंघमब्भे मजैवि. जङ्घमब्भे
मजैवि. णाभिम- मजैवि. नाभिम
आचा. प्रति खं 3, ला. हिययम- मजैवि. -हिदयं (मणुस्सहिदयं) ऋषिभा. 4.4
जाणुम
53.
Page #133
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________________
आचाराङ्ग
[ ९९ ]
के. आर. चन्द्र
अप्पेके हिदयमच्छे, 53 अप्पेके थनमब्भे 54 अप्पेके थनमच्छे, 54 अप्पेके खन्धमब्भे'" अप्पेके खन्धमच्छे, 55 अप्पेके बाहुमब्भे अप्पेके बाहुमच्छे, अप्पेके हत्थमब्भे अप्पेके हत्थमच्छे, अप्पेके अङ्गुलिमब्भे" अप्पेके अङ्गुलिमच्छे, 56 अप्पेके नहमब्भे" अप्पेके नहमच्छे, 7 अप्पेके गीवमब्भे अप्पेके गीवमच्छे, अप्पेके हनुमब्भे 8 अप्पेके हनुमच्छे, 58 अप्पेके होट्टमभे अप्पेके होट्टमच्छे, अप्येके दन्तमब्भे" अप्पेके दन्तमच्छे", अप्पेके जिब्भमब्भे अप्पेके जिब्भमच्छे, अप्पेके तालुमब्भे अप्पेके तालुमच्छे, अप्पेके गलमब्भे अप्पेके गलमच्छे, अप्पेके गण्डमब्भे 60 अप्पेके गण्डमच्छे"" अप्पेके कण्णमब्भे अप्पेके कण्णमच्छे, अप्पेके नासमब्भे" अप्पेके नासमच्छे" अप्पेके अच्छिमब्भे अप्पेके अच्छिमच्छे, अप्पे भमुहममे अप्पेके भमुहमच्छे, अप्पेके निडालमब्भे 2 अप्पेके
54.
55.
56.
57.
58.
59.
60.
61.
थणम
खंधम
खन्धम
अंगुलिम
अङ्गुलिम
हम
नहम
हणुम
दंतम
दन्तम
गंडम
गण्डम
णासम
नासम
-
?
मजैवि.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
आचा. प्रति खं 1
Page #134
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[१००] ..
द्वितीय उद्देशक
निडालमच्छे,62 अप्पेके सीसमब्भे अप्पेके सीसमच्छे, अप्पेके सम्पमारए63 अप्पेके उद्दवए ।
16. एत्थ सत्थं समारम्भमाणस्स64 इच्चेते आरम्भा65 अपरिन्नाता66 भवन्ति । एत्थ सत्थं असमारम्भमाणस्स68 इच्चेते आरम्भा९ परिन्नाता भवन्ति ।
मजैवि.
62. णिडालम
निलाडम
आचा. पाठा. 1.1.2.15, पाटि. 14, प्रति हे 1, 2, 3 प्रति* पू. प्रति जे. मजैवि. मजैवि. मजैवि.
63.
निलाट
संपमारए 64. समारभमाणस्स -
आरंभा आरम्भा अपरिण्णाता अपरिन्नाया भवंति भवन्ति
मजैवि.
मजैवि.
शु.
आचा. प्रति* खं 3. मजैवि. मजैवि.
68. असमारभमाणस्स 69. आरंभा
आरम्भा 70. परिणाया
परित्राया
मजैवि.
शु. .
Page #135
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________________
आचाराङ्ग
[१०१]
के. आर. चन्द्र 17. तं परिन्नाय2 मेधावी73 नेव74 सयं पुढविसत्थं समारम्भेज्जा', 76नेवऽन्नेहि पुढविसत्थं समारम्भावेज्जा' नेवऽन्ने 71. भवंति . मजैवि. भवन्ति
आचा. प्रति* खं 3. 72. परिणाय मजैवि.
परिन्नाय 73. मेहावी
मजैवि. मेधावी आचा. 1.1.6.54, 2.2.69, 2.6.104, 3. 1. 111,
3.3.127, 3.4.129, 5.3.157, 6.2.186, 6.4.191, 8.3.209 सूत्रकृ. 1.4.2.298, 8.426, 15.626, उत्तरा. 2.59 दशवै. पाठा. 1.5.2.262, प्रति खं. 4, अचू.पा. 5.2.255, 9.1.468, 9.3.565
ऋषिभा. 9.18 ___74. णेव
मजैवि. नेव
शु, आगमो, जैविभा. आचा. पाठा. 1.5.1.148, प्रति संदी. (पृ.417)
दशवै. 4.41, 42, 43 75. समारभेज्जा मजैवि. 76. णेव
मजैवि. शु, जैविभा.
आचा. प्रति* खं 1 77. अण्णेहिं मजैवि. अन्नेहि
आचा. प्रति* खं 1.
नेव
Page #136
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[ १०२ ]
पुढविसत्थं समारम्भन्ते" समनुजानेज्जा"" ।
18. जस्सेते पुढविकम्मसमारभ्भा' 2 परिन्नाता 3 भवन्ति 4 से हु मुनीss परिन्नातकम्मे 86
78.
79.
80.
81.
82.
83.
84.
85.
86.
तिमि ।
| सत्थपरिन्ना बितीये उद्देस समत्ते ।
समारभावेज्जा मजैवि.
समारम्भावेज्जा शु.
णेवणे
नेवऽन्ने
नेवन्ने
नेवणे
नेवअन्नेहिं
समारभते
समारभन्ते
- समारम्भा
परिण्णाता
परित्राया
भवंति
भवन्ति
मुणी
मजैवि.
शु.
समणुजाणेज्जा मजैवि.
-समारंभा
मजैवि.
शु.
आचा. (पृ. 417) पाठा. 1.8.1.203, प्रति संदी
जैविभा.
आचा. प्रति खं 3.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
परिण्णायकम्मे मजैवि. परिनायकम्मे शु.
द्वितीय उद्देशक
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
ततीये उद्देसगे 19. से बेमि
से अधा' वि॥अनगारे उज्जुकडे नियागपडिवन्ने
अमायं कुव्वमाणे वियक्खाते ॥ 20. ॥ जाए सद्धाए निक्खन्तो तमेव
अनुपालिया विजहित्तु विसोत्तियं ॥ जहा
मजैवि. अणगारे मजैवि. 3. णियागपडिवण्णे मजैवि.
नियागपडिवन्ने नियायपडिवण्णे आगमो.
आचा. प्रति* खं 1 वियाहिते मजैवि. वियक्खाता . आचा. 1.5.6.174 णिक्खंतो मजैवि. निक्खन्तो निक्खंतो आगमो.
आचा. प्रति* खं 1, पू, जे. ला. अणुपालिया
मजैवि. विजहित्ता मजैवि.. विजहित्तु
आचा.पाठा. 1.1.3.20, पाटि. 18,
प्रति सं, जे, हे1, 2, उत्तरा. 8. 210 विजहित्तु जैविभा. वियहित्तु विजहित्तु आचा. प्रति* पू, जे, ला.
शु.
Page #138
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
9.
नेव 11 सयं लोकं 10 अब्भाइक्खेज्जा, नेव! अत्तानं 12 अब्भाइक्खेज्जा । जे लोकं " अब्भाइक्खति से अत्तानं 12 अब्भाइक्खति, जे अत्तानं 12 अब्भाइक्खति से लोकं " अब्भाइक्खति । 23. ॥ लज्जामाना 13 पुढो पास ॥
'अनगारा 14 मो' त्ति एके 5 पवदमाना, 16 जमिणं विरूवरूवेहि7 सत्थे हि 8 19 उदककम्मसमारभ्भेण उदकसत्थं 20 समारम्भमाणे 21 अन्ने 22
8.
10.
11.
[ १०४]
21. ॥ पणता वीरा महावीधिं ॥
22. लोकं " च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं ।
से बेमि
12.
13.
14.
पणया
पणता
महावीहिं
महावीधि
लोगं
लोकं
णेव
नेव
अत्ताणं
लज्जमाणा
अणगारा
तृतीय उद्देशक
मजैवि
सूत्रकृ. पाठा. चू. 1.2.1.109, पाटि 15 मजैवि.
सूत्रकृ. पाठा. चू. 1.2.1.109., पाटि 15 'पणता वीरा महावी(वि ? ) धिं'
मजैवि.
आचा. 1.4.3.140, 4.146,
आचा. पाठा. 1.1.3.22, पाटि 21, प्रति सं, खे, जै.
आचा. प्रति* खं 3, ला.
उत्तरा पाठा. चूपा. 8.6
ऋषिभा. 6 (पृ. 11. 26); 34.4
मजैवि.
शु.
आचा. प्रति* खं 1
मजैवि.
मजैवि.
मजैवि.
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
पवयमाणा
आचाराङ्ग
[१०५]
के. आर. चन्द्र वऽनेकरूवे23 पाणे विहिंसति ।।
24. तत्थ खलु भगवता परिन्ना24 पवेदिता - 15. एगे
मजैवि. एके आचा. प्रति* खं 3, पू, जे.
मजैवि. पवदमाणा
आचा. प्रति* खं. 1 विरूवरूवेहिं मजैवि. सत्थेहिं
मजैवि. उदयकम्मसमारंभेणं मजैवि. उदक(उदकपसूताणि) आचा. 2.2.1.417 -उदका (मधुरोदका) ऋषिभा. 22.2 -समारम्भेणं समारंभेण आचा. प्रति* खं. 1 उदयसत्थं
मजैवि. समारंभमाणे मजैवि. समारम्भमाणे शु. अण्णे अन्ने
आचा. पाठा. 1.1.3.23, पाटि. 4, प्रति हे 1, 3 23. अणेगरुवे मजैवि. 24 परिणा
मजैवि. परिन्ना
मजैवि.
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[ १०६ ]
तृतीय उद्देशक इमस्स चेव जीवितस्स 25 परिवन्दन - मानन" - पूजनाए27 2"जातिमरण - मोयनाए" दुक्खपडिघातहेतुं -
से सयमेव उदकसत्थं 30 समारम्भति", अन्नेहि" वा उदकसत्थं 30 समारम्भावेति, 3 अन्ने वा उदकसत्थं" समारम्भन्ते” समनुजानति" ।
14
25.
26.
27.
28.
29.
30.
31.
32.
33.
34.
परिवंदण
परिवन्दण
-माणण
- पूयणाए
जाती
जाइ
मोयणाए
उदयसत्थं
समारभति
समारम्भइ
अण्णेहिं
अन्नेहिं
-अन्नेहिं
समारभावेति
समारम्भावेइ
अण्णे
अन्ने
'
मजैवि.
शु.
मजैवि.
मजैवि.
मजैवि.
शु, आगमो.
मजैवि.
मजैवि.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
आचा. प्रति* ला.
सूत्रकृ. 1.1.4
दशवै. 4.41, 42, 43
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
आचा. प्रति* खं 1. ला.
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१०७]
के. आर. चन्द्र तं से अहिताए, तं से अबोधीए ।
25. से तं सम्बुज्झमाने” आदानीयं समुट्ठाय 39 सोच्चा भगवतो अनगाराणं० वा अन्तिए। इधमेकेसिं नातं भवति -
35.
मजैवि.
शु.
36.
समारभंते समारम्भन्ते समणुजाणति संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए समुट्ठाय
मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. आगमो. आचा. पाठा. 1.1.3.25, पाटि.12, प्रति हे 3. मजैवि. नास्ति मजैवि.
40. 41.
अणगाराणं अन्तिए
42.
इहमेगेसिं इहमेकेसिं
आचा. पाठा. 1.1.3.25, पाटि. 13, प्रति खेसं, इ, हे 1, 3 मजैवि. आचा.पाठा. 1.1.3.25, पाटि.14, प्रति सं, शां, खे, जे, हे 1, 2, ला, ला 1 आचा. प्रति* खं 1, पू, जे, ला. मजैवि.
43.
पातं नायं
आचा प्रति* खं. 1
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१०८]
तृतीय उद्देशक एस खलु गन्थे14, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरके।
॥ इच्चत्थं गढिते 6 लोके 7 ॥ जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि उदककम्मसमारभ्भेण उदकसत्थं समारम्भमाणे अन्ने वऽनेकरूवे पाणे विहिंसति ।
44.
मजैवि.
गंथे गन्थे निरए
45.
मजैवि.
नरए
.
46.
47.
48.
आचा प्रति* ला. णरए
आगमो, जैविभा. नरये
आचा. प्रति* पू, जे. गढिए
मजैवि. लोए
मजैवि. विरूवरूवेहि मजैवि. सत्थेहिं
मजैवि. उदयकम्मसमारंभेणं मजैवि. -समारम्भेणं शु, आगमो. उदयसत्थं
मजैवि. समारभमाणे मजैवि. समारम्भमाणे अण्णे
मजैवि.
51. 52.
53.
अन्ने
54.
अणेगरूवे
मजैवि. .
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१०९]
. के. आर. चन्द्र 26. से बेमि - ॥ सन्ति 5 पाणा उदकनिस्सिता जीवा अनेका7 ॥
॥ इध च खलु भो अनगाराणं59 ...........उदकं जीवा वियक्खाता ॥
॥ सत्थं चेत्थ अनुवीयि:1 पास,
.......पुढो सत्थं पवेदितं ॥ अदुवा अदिन्नादानं ।
55.
मजैवि.
संति सन्ति उदयणिस्सिया उदयनिस्सिया
56.
मजैवि. शुं, आगमो, जैविभा.. आचा. प्रति* खं. 1
आचा. 1.1.4.37
-णिस्सिता (पुढविणिस्सिता) (तणणिस्सिता) ( पत्तणिस्सिता) (कट्ठणिस्सिता) (गोमयपिस्सिता) अणेगा इहं अणगाराणं उदयं अणुवीयि अदिण्णादाणं अइन्नायाणं अदिन्नादाणं
58.
मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि.
आगमो. आचा, प्रति* खं 1, ला.
www.jainelibrary:org
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [११०]
तृतीय उद्देशक 27. ॥ कप्पति:3 ने, कप्पति:3 ने पातुं ॥ अदुवा विभूसाए पुढो पत्थेहि64 विउदृन्ति ।
28. एत्थ वि तेसिं नो66 निकरणाए67 । 29. एत्थ सत्थं समारम्भमाणस्स68 इच्चेते आरम्भा69
63.
कप्पइ णे कप्पति
कप्पती
मजैवि. आचा.1.2.6.96; 8.3.211, 5.218, 7.225; 2.1.9.390, 392; 1.10.404; 2.1.4253; 2.2.430, 437; 5.1.561, 566; 6.1.598 आचा. पाठा. 1.1.3.27, पाटि.1, प्रति सं, शां, खं, खे, जै, एवं चू. (इसके अतिरिक्त अन्य सूत्रों के पाठान्तरों में भी) आचा प्रति* ला. सूत्रकृ. 1.4.1.256:2.6.814; 2.7.855 (4 बार) ऋषिभा. 17 (पृ.35.24), 37 (पृ. 83.24), 42 (पृ. 93.16) आचा. प्रति* खं 3 मजैवि. मजैवि. शु, आगमो. मजैवि. शु, आगमो आचा. प्रति* खं. 1 मजैवि. शु, आगमो. आचा. प्रति* खं. 1 मजैवि.
कप्पति(त्ति) सत्थेहिं विउद्भृति विउट्टन्ति णो
णिकरणाए निकरणाए
68.
समारभमाणस्स समारम्भमाणस्स
Page #145
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________________
आचाराङ्ग
[१११] . के. आर. चन्द्र अपरिन्नाता भवन्ति । एत्थ सत्थं असमारम्भमाणस्स2 इच्चेते आरम्भा9 परिन्नाता' भवन्ति ।
30. तं परिनाय4 मेधावी75 नेव6 सयं उदकसत्थं77
69.
मजैवि.
70.
मजैवि.
आरंभा आरम्भा अपरिणाया अपरिन्नाया अपरिण्णाता भवंति भवन्ति
आचा. प्रति* खं. 3, ला. मजैवि.
असमारभमाणस्स
मजैवि.
शु.
मजैवि.
असमारम्भमाणस्स परिणाया परित्राया परिणाय परिन्नाय
मजैवि.
75.
मेहावी मेधावी
आचा. प्रति* ला. मजैवि. आचा. प्रति* खं. 3, ला. मजैवि.
णेव
77. 78.
नेव उदयसत्थं समारभेज्जा समारम्भेज्जा
मजैवि. मजैवि. आगमो.
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[ ११२ ]
तृतीय उद्देशक
नेवऽन्नेहि१ उदकसत्थं 77 समारम्भावेज्जा",
,
समारम्भेज्जा 78 उदकसत्थं” समारभ्भन्ते " वि अन्ने 2 न 3 समनुजानेज्जा 4 । 31. जस्सेते उदकसत्थसमारम्भा'" परिन्नाता" भवन्ति 7 से हु
मज़ैवि.
शु.
आचा. प्रति* खं. 1
दशवै. 4.41, 42, 43
मजैवि.
79.
80.
81.
82.
83.
84.
85.
86.
87.
णेवऽण्णेहिं
नेवनेर्हि
नेवऽणेहिं
नेवsहिं समारभावेज्जा
समारम्भावेज्जा
समारभते
समारभन्ते
समारंभंते
अण्णे
अन्ने
ण
न
समणजाणेज्जा उदयसत्थसमारंभा
-समारम्भा
परिण्णाया
परित्राया
भवंति
भवन्ति
शु.
मजैवि.
शु.
आचा. पाठा. 1.3.30, पाटि 8, प्रति सं, खं,
हे 1,
आगमो, जैविभा.
3
आचा. प्रति* खं 3, ला.
मजैवि.
आचा. प्रति* ला.
मजैवि
आचा. प्रति* खं 1, ला.
मजैवि.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
मुनी परित्रातकम्मे 9
888888
89.
मुणी परिणात कम्मे परिन्नायकम्मे
[ ११३ ]
त्ति बेमि ।
। सत्थपरिन्ना ततीये उद्देस समत्ते ।
मजैवि.
मजैवि.
शु.
के. आर. चन्द्र
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुत्थे उद्देसगे
32. से बेमि -
नेवा सयं लोकं2 अब्भाइक्खेज्जा, नेव' अत्तानं अब्भाइक्रोज्जा । जे लोकं अब्भाइक्खति से अत्तानं अब्भाइक्खति, जे अत्तानं अब्भाइक्खति से लोकं अब्भाइक्खति ।
जे दीहलोकसत्थस्सा खेत्तन्ने से असत्थस्स खेत्तन्ने', जे 1. व
मजैवि. नेव
आचा, प्रति* खंत, जे, ला. 2. लोगं
मजैवि. 3. णेव
मजैवि.
अत्ताणं दीहलोगसत्थस्स खेतण्णे खेयन्ने
आचा. प्रति* खं 1, पु, जे, ला. मजैवि. मजैवि. मजैवि.
शु.
खेअन्ने अखेत्तन्ना खेतन्ने
आचा. प्रति* जे. सूत्रकृ. 2.1.640 आचा. प्रति* ला. सूत्रकृ. 2.1.641 सूत्रकृ. 2.1.641, 680. . सूत्रकृ. पाठा. 2.1.639, पाटि. 15, प्रति खं 2, पा. सूत्रकृ. पाठा. 2.1.641, पाटि. 11, प्रति खं ।
अखेतना
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[११५]
के. आर. चन्द्र असत्थस्स खेत्तन्ने से दीहलोकसत्थस्स खेत्तन्ने ।
33. ॥ वीरेहि एतं10 अभिभूय दिर्छ । 7. खेत्तण्णे मजैवि. खेयने
आचा. प्रति* पु, जे, ला. 8. खेत्तण्णे
मजैवि. खेयने
आचा. प्रति* ला. 9. खेत्तण्णे मजैवि. खेयन्ने
आचा. प्रति* ला. 10. एयं
मजैवि. आचा.1.1.7.56; 2.3.79, 4.85, 86, 5.93;3.4.128; 4.1.133 (तीन बार। : 5.2.153, 3.159, 4.162, 164, 5.166, 6.172 (द बार); 6.1.180, 182, 3.187 (दो बार);8.1.199,201.4.214,215,219 (दो बार), 6.224, 7.226,228,8.239:9.1.255,261;2.1.2.338,3.340, 342, 347, 5.353, 357, 358, 6.360, 363,364,7. 365, 368, 372, 9.391, 396, 398, 10.399, 406, 2.1.419, 425, 426, 2.428,3.444; 3.1, 472, 473, 477,479,480,481, 2.484,503,3.519,5.1.564, 580, 2.581,583,587:7.2.636; 8.1.640; 9.1.644; 15.749 सूत्रकृ. 1.1.1.5, 2.40. 4.85, 8.419, 9.471(दो बार), 12.543, 14.595;2.1.6640,657,658,661,662,664 (दो बार), 675, 3.735. 6.819, 7.846, 866 ऋषिभा. 13.3, 18 (पृ. 15.28,31), 20 (पृ. 39.5, 12, 16,17), 25 (पृ.55.6.12),26.15;33.1; 38.15;45.19,
36.
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुन: सम्पादन [११६ ]
चतुर्थ उद्देशक सञ्जतेहि सदा जतेहि सदा अप्पमत्तेहि ।
॥ जे पमत्ते गुणट्ठिते से हु दण्डे5 पवुच्चति तं परिन्नाय6 मेधावी17 "इदानि18 नो,
जमहं पुव्वमकासी पमादेन20" ॥ 11. संजतेहिं
मजैवि. 12. सता
मजैवि. सदा
आचा. 1.1.4.33, 3.2.116, 3.123, 4.4.143, 146 (दो बार), 5.4.164, 165, 6.173, 6.3.187, 4.195; 2.1.1.334, 2.3.463, 3.1.483, 2.503, 3.519, 4.2.552, 5.1.580, 2.587, 6.1.601, 2.606, 7.1.620, 9.1.644, 13.729 सूत्रकृ. 1.1.4.88, 2.2.116 (दो बार), 3.157, 3.1.170, 4.2.278, 5.1.320, 2.337, 339, 8.435; 15.609; 16.634; 2.3.747
दशवै. पाठा. 1.1 अचूपा. 13. जतेहिं
मजैवि. 14. अप्पमत्तेहिं मजैवि. दंडे
मजैवि. दण्डे परिणाय
मजैवि. परिनाय 17. मेहावी
मजैवि. मेधावी
आचा. प्रति* खं 3. 18.
मजैवि. इयाणिं
शु, आगमो, जैविभा. आचा. पाठा. 1.1.4.33, पाटि. 1,
इदाणी
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[११७]
के. आर. चन्द्र 34. ॥ लज्जमाना पुढो पास ॥
अनगारा2 मो त्ति एके23 पवदमाना24, जमिणं विरूवरूवेहि 5 सत्थेहि अगनिकम्मसमारम्भेण7 अगनिसत्थं28 समारम्भमाणे अन्ने30 वऽनेकरूवे1 पाणे विहिंसति ।
प्रति शां, खे, जै, हे 3, इ, चू. आचा. प्रति* खं 1, पू, जे. मजैवि.
19.
णो
पमादेणं लज्जमाणा अणगारा एगे पवदमाणा विरूवरूवेहि
सत्थेहिं ___-समारंभेणं
-समारम्भेण
-समारंभेण 28. अगणिसत्थं 29. समारंभमाणे
समारम्भमाणे अण्णे
मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. शु, आगमो. आचा. प्रति* पू, जे, ला. मजैवि. मजैवि.
मजैवि.
अन्ने
31.
वऽणेगरूवे
मजैवि.
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
32. परिण्णा
33.
34.
मरण-मोयनाए” दुक्खपडिघातहेतुं -
से सयमेव अगनिसत्थं 38 समारम्भति", अन्नेहि" वा अगनिसत्थं 8 समारम्भावेति", अन्ने 12 वा अगनिसत्थं समारम्भमाणे 43 समनुजानति 14 । तं से अहिताए, तं से अबोधीए ।
44
35.
36.
37.
38.
39.
40.
41.
[ ११८ ]
35. तत्थ खलु भगवता परिन्ना 3 2 पवेदिता इमस्स चेव जीवितस्स 33 परिवन्दन 34 - मानन35 - पूजनाए जाति 36
42.
43.
44.
परिना जीवियस्स
परिवंदण
परिवन्दण
माणण- पूयणाए
जाती
जाइ
- मोयणाए
अगणिसत्थं
समारभत
समारम्भइ
अण्णेहिं
अन्नेहिं समारभावेति
समारम्भावेड़
अण्णे
अन्ने
समारभमाणे
समा
मजैवि.
शु.
मजैवि.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
मजैवि.
मजैवि.
मजैवि.
शु, आगमो.
आचा. पाठा. 1.1.4.35, पाटि 5, प्रति हे. 3.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि
शु.
मजैवि.
चतुर्थ उद्देशक
Exp
शु.
मजैवि.
मजैवि.
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ११९ ]
के. आर. चन्द्र
36. से त्तं सम्बुज्झमाने 15 आदानीयं " समुट्ठाय 17 सोच्चा भगवतो अनगाराणं 48 वा इधमेकेसिं" नातं 1 भवति
एस खलु गन्थे-2, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु
आचाराङ्ग
नरके 53 ।
45.
46.
47.
48.
49.
50.
51.
52.
53.
54.
55.
॥ इच्चत्थं गढिते 54 लोके 5 ॥
संबुज्झमाणे
आयाणीयं
समुट्ठाए
समुट्ठाय
अणगाराणं
वा
इहमेगेसिं
णायं
नायं
गंथे
गन्थे
निरए
नरए
णरए
गढिए
गढिते
लोए
मजैवि.
मजैवि.
मजैवि.
आगमो.
आचा. पाठा. 1.1.4.36, पाटि 12, प्रति हे 3. मजैवि.
नास्ति मजैवि
शु.
आचा. पाठा. 1.1.4.36, पाटि 13, प्रति खं,
खेसं, हे 3, इ.
मजैवि.
मजैवि.
शु.
आचा. प्रति* खं 1.
मजैवि.
शु.
मजैवि
शु.
आचा. प्रति* खं 1. आगमो, जैविभा.
मजैवि.
आचा. प्रति* खं 3
मजैवि.
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
P
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१२०]
चतुर्थ उद्देशक जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि 6 57अगनिकम्मसमारम्भेण अगनिसत्थं समारम्भमाणे अन्ने वऽनेकरूवे पाणे विहिंसति ।
37 से बेमि - सन्ति:2 पाणा पुढविनिस्सिता तणनिस्सिता4 पत्तनिस्सिता65
56.
मजैवि. मजैवि. आचा. प्रति* खं. 3 मजैवि. शु. मजैवि. मजैवि.
विरूवरूवेहि सत्थेहिं सत्थेहि -समारंभेणं -समारम्भेणं अगणिसत्थं समारभमाणे समारम्भमाणे अण्णे अन्ने वणेगरूवे संति सन्ति पुढविणिस्सिता पुढविनिस्सिया
मजैवि.
मजैवि. मजैवि.
62.
63.
मजैवि. शु, आगमो. आचा. प्रति* खं. 1
64.
मजैवि.
तणणिस्सिता तणनिस्सिया
शु.
आचा. प्रति* खं. 1 प्रति* ला.
तिणनिस्सिया
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१२१]
के. आर. चन्द्र कट्ठनिस्सिता66 गोमयनिस्सिता67 कयवरनिस्सिता68 ।
सन्ति69 सम्पातिमा० पाणा आहच्च सम्पतन्ति1 य । 65. पत्तणिस्सिता मजैवि. पत्तनिस्सिया
आचा. प्रति* ला. 66. कट्ठणिस्सिता मजैवि. कट्ठनिस्सिया शु, आगमो.
आचा. प्रति* खं 1, जे, ला. कट्ठनिस्सया आचा. प्रति* पू. -निस्सिया ('जल-धननिस्सिया, जीवा पुढवी
उत्तरा. 35. 1442
-निस्सियाणं (पुढवि-तण-कट्ठनिस्सियाणं) गोमयणिस्सिता गोमयनिस्सिया
दशवै. 10.524 मजैवि.
67.
आचा. प्रति* खं 1, पू, जे, ला. मजैवि.
68.
कयवरणिस्सिया कयवरनिस्सिया कयवरनिस्सिआ संति सन्ति संपातिमा
आचा. प्रति* खं 1. मजैवि.
70.
मजैवि.
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[ १२२ ]
चतुर्थ उद्देशक अगनिं 72 च खलु पुट्ठा एके 3 सङ्घातमावज्जन्ति 74 । जे तत्थ सङ्घातमावज्जन्ति 74 ते तत्थ परियावज्जन्ति 74 । जे तत्थ परियावज्जन्ति 74 ते तत्थ उद्दायन्ति 75 ।
38. एत्थ सत्थं समारम्भमाणस्स 76 इच्चेते आरम्भा 7" अपरित्राता 78 भवन्ति ।
भवन्ति 79 ।
71.
72.
.73.
74.
75.
76.
77.
78.
एत्थ सत्थं असमारम्भमाणस्स " इच्चेते आरम्भा 77 परिन्नाता""
79.
संपयंति
संपतंति
- पतन्ति
( पपतन्ति )
( णिपतन्ति )
अगणि
एगे
- वज्जंति
- वज्जन्ति
उद्यायंति
उद्दायन्ति
समारभमाणस्स
समारम्भमाणस्स
आरंभा
आरम्भा
अपरिण्णाता
अपरित्राया
भवंति
भवन्ति
मजैवि.
आचा.1.1.7.60
सूत्रकृ. पाठा. 1.5.1.324, पाटि 27, प्रति खं 1. ऋषिभा. 10 (पृ. 23.9)
मजैवि.
मजैवि.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१२३]
के. आर. चन्द्र 39. जस्स एते अगनिकम्मसमारम्भा 2 परिन्नाता भवन्ति 4 से हु मुनी85 परिन्नातकम्मे86
त्ति बेमि ।
। सत्थपरिन्नाए चतुत्थे उद्देसगे समत्ते ।
80. 81.
असमारभमाणस्स मजैवि. परिण्णाता
मजैवि. परिन्नाया अगणिकम्मसमारंभा मजैवि. -समारम्भा परिण्णाता
मजैवि. भवंति
मजैवि. भवन्ति मुणी
मजैवि. परिण्णायकम्मे मजैवि. परिनायकम्मे
X
86.
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमे उद्देसगे 40 ॥ तं नो करिस्सामि समुट्ठाय?
मत्ता मतिमं अभयं विदित्ता ॥ ॥ तं जे नो करए, एसोवरते, एत्थोवरते एस अनगारे ॥
त्ति पवुच्चति । 41 जे गुणे से आवट्टे, जे आवटे से गुणे । उर्दू अधं तिरियं
1.
णो
मजैवि.
2.
तन्नो समुट्ठाए समुट्ठाय
आचा. प्रति* खं 1. आचा. प्रति* पू, जे, ला. मजैवि. आचा. पाठा. प्रति ला. आचा. प्रति* ला मजैवि.
3.
णो
एत्थोवरए अणगारे
अहं
अधं
मजैवि. मजैवि. मजैवि. आचा. पाठा. 1.1.5.41, पाटि. 12, प्रति हे 1, 2, 3, इ, ला. आचा. प्रति* ला. आचा. प्रति* जे.
अध
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
मजैवि.
ro og
आचाराङ्ग
[१२५]
के. आर. चन्द्र पाईनं पासमाने रूवाणि पासति, सुणमाने सद्दानि0 सुणेति । उर्दू अधं तिरियं पाईनं मुच्छमाने12 रूवेसु मुच्छति, सद्देसु यावि ।
॥ ........... एस लोके वियक्खाते14 एत्थ अगुत्ते अनाणाए15.....॥ पासमाणे रूवाई
मजैवि. विरूवरूवाणि सूत्रकृ. 1.4.1.6 सुणमाणे
मजैवि. सद्दाई
मजैवि. -सहाणि
आचा. 2.11.669 सदाणि
सूत्रकृ. 1.4.1.6; 14.6 11. अहं
मजैवि. अधं
आचा. पाठा. 1.1.5.41, पाटि. 17, प्रति खे, जै, हे 1, 2, 3, इ.
आचा. प्रति* पू, जे, ला. __12. मुच्छमाणे
मजैवि. 13. आवि
आगमो, जैविभा.
आचा. प्रति* पू, जे, ला. वियाहिते
मजैवि. वियक्खाता
आचा. 1.5.6.174 15. अणाणाए
मजैवि. पुणो पुणो मजैवि. गुणासाते
मजैवि. आसादेमाणे आचा. 1.8.6.223 अणासादमाणे
आचा. 1.8.6.223 आसादेज्जा आचा. 2.3.2.487 आसादिज्जन्त ऋषिभा. 45.43
14.
17.
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१२६]
पञ्चम उद्देशक ॥ पुनो। पुनो 17गुणासादे वङ्कसमायारे। पमत्ते गारमावसे ॥ 42. ॥ लज्जमाना पुढो पास ॥
अनगारा20 मो त्ति एके पवदमाना2, जमिणं विरूवरूवेहि 3. सत्थेहि4 25वनस्सतिकम्मसमारम्भेण26 वनस्सतिसत्थं7 समारम्भमाणे28 अन्ने वऽनेकरूवे पाणे विहिंसति । 18. वंकसमायारे मजैवि.
__ वङ्कसमायारे 19. लज्जमाणा मजैवि. अणगारा
मजैवि.
मजैवि. पवदपाणा मजैवि. विरूवरूवेहि मजैवि. सत्थेहिं
मजैवि. वणस्सति- मजैवि. -कम्मसमारंभेणं मजैवि. -कम्मसमारम्भेणं, शु. -कम्मसमारंभेण आचा. प्रति* खं 1. वणस्सतिसत्थं मजैवि. समारभमाणे मजैवि. समारम्भमाणे अण्णे
मजैवि.
एगे
अन्ने
आचा. प्रति* ला. मजैवि.
____30.
अणेगरूवे
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१२७]
के. आर. चन्द्र 43 तत्थ खलु भगवता परिन्ना1 पवेदिता - - इमस्स चेव जीवितस्स32 परिवन्दन33-मानन-34 पूजनाए जाति35-मरण-मोयनाए दुक्खपडिघातहेतुं
से सयमेव वनस्सतिसत्थं7 समारम्भति38, अन्नेहि वा वनस्सतिसत्थं37 समारम्भावेति, अन्ने1 वा वनस्सतिसत्थं37
मजैवि.
31. परिणा
परिना
32. 33.
आचा. प्रति* पू, जे, ला. मजैवि. मजैवि.
मजैवि. मजैवि.
जीवियस्स परिवंदणपरिवन्दन-माणण-पूयणाए जातीजाइ-मोयणाए वणस्सतिसमारभति समारम्भइ अण्णेहि अन्नेहि
36.
37.
मजैवि. मजैवि. मजैवि.
38.
शु.
39.
मजैवि.
आचा. प्रति* पू, जे, मजैवि.
40.
समारभावेति समारम्भावेइ अण्णे
41.
मजैवि.
अन्ने
शु.
आचा. प्रति* जे, ला.
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
44.
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१२८]
पञ्चम उद्देशक समारम्भमाणे42 समनुजानति43 । तं से अहिताए4 तं से अबोधीए15 ।
44. से तं सम्बुज्झमाने6 आदानीयं47 समुट्ठाय सोच्चा भगवतो अनगाराणं वा इधमेकेसिंह1 नातं2 भवति
एस खलु गन्थे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरके । 42. समारभमाणे मजैवि. 43. समणुजाणति मजैवि. अहियाए
मजैवि. 45. अबोहीए
मजैवि. संबुज्झमाणे मजैवि. आयाणीयं मजैवि. समुट्ठाए
मजैवि. समुट्टाय
आचा. पाठा. 1.1.5.44, पाटि. 12, प्रति हे 3 अणगाराणं मजैवि. 50. वा
नास्ति मजैवि.
शु, आगमो, जैविभा. 51. इहमेगेसिं
मजैवि. 52: णायं
मजैवि. नायं
आचा. प्रति* खं 3. 53. गंथे
मजैवि. गन्थे
मजैवि.
. 54.
णिरए नरए
णरए नरए
आगमो. आचा. प्रति* खं 1.
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग । [१२९]
के. आर. चन्द्र ॥ इच्चत्थं गढिते5 लोके56 ॥
जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि8 59वनस्सतिकम्मसमारम्भेण60 वनस्सतिसत्थं समारम्भमाणे62 अन्ने63 वऽनेकरूवे64 पाणे विहिंसति ।
45. से बेमि - ॥ इमं पि जातिधम्मयं, एतं65 पि जातिधम्मयं ॥ ॥ इमं पि वुड्डिधम्मयं, एतं पि वुड्डिधम्मयं ॥ ॥ इमं पि चित्तमन्तयं66, एतं पि चित्तमन्तयं ॥
निरए
आचा. प्रति* खं 3, पू, ला. आचा. प्रति* जे. मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि.
निरय 55. गढिए 56. - लोए 57. विरूवरूवेहि
सत्थेहि वणस्सति-कम्मसमारंभेणं -कम्मसमारम्भेणं -समारंभेण . वणस्सतिसत्थं समारभमाणे समारम्भमाणे अण्णे अन्ने
आचा. प्रति* खं. 1, जे. मजैवि. मजैवि.
मजैवि.
आचा. प्रति* पू, जे, ला. मजैवि.
64.
अणेगरूवे
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१३०]
पञ्चम उद्देशक ॥ इमं पि छिन्नं67 मिलाति, एतं पि छिन्नं68 मिलाति ॥ ॥ इमं पि आहारगं, एतं पि आहारगं । ॥ इमं पि अनितियं69, एतं पि अनितियं69 ॥ ॥ इमं पि असासतं, एतं पि असासतं ॥
एयं
मजैवि. (सभी पदों में) देखो पीछे उद्देशक 4, सूत्र नं. 33, पाटि. 10. मजैवि.
एतं चित्तमंतयं चित्तमन्तयं छिण्णं छिन्नं
मजैवि. शु, जैविभा. आचा. प्रति* खं 1, पू, जे, ला. आचा. प्रति* खं 3. मजैवि. शु, जैविभा. आचा. प्रति* खं 1, खं 3, पू, जे, ला.
च्छिन्नं छिण्णं छिन्नं
68.
69.
मजैवि.
अणितियं अनिच्चयं
नितिए
70.
असासयं असासतं
असासते
सूत्रकृ. 2.6.822 मजैवि. आचा. 1.5.2.153 सूत्रकृ. पाठा. 1.12.554, पाटि. 20, चू. ऋषिभा. 24 (पृ. 47.7) सूत्रकृ. 1.1.3.66; 2.5.755 ऋषिभा. 24(पृ. 47.3) सूत्रकृ. 2.5.755 ऋषिभा. 3(पृ. 5.18), 15(पृ. 29.15), 21 (पृ. 41.7 ), 3 (पृ. 45.19)
सासतं
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________________
आचाराङ्ग
[१३१] . के. आर. चन्द्र ॥ इमं पि चयावचइयं1, एतं पि चयावचइयं ॥ ॥ इमं पि विपरिणामधम्मयं2, एतं पि विपरिणामधम्मयं ॥2
46. एत्थ सत्थं समारम्भमाणस्स3 इच्चेते आरम्भा'4 अपरिन्नाता'5 भवन्ति । एत्थ सत्थं असमारम्भमाणस्सा इच्चेते आरम्भा74 परिन्नाता8 भवन्ति । सासता
सूत्रकृ. 2.1.656 सासते
सूत्रकृ. 1.1.1.15, 4.81; 2.1.680, 4.753 71. चयोवचइयं मजैवि.
चयावचइयं शु, जैविभा. चयाऽवचइयं आचा. पाठा. 1.1.5.45, पाटि. 3, 4, प्रति हे 3,
ला. चयावचइयं
आचा. पाठा. 1.1. 5.45, (पृ. 417 प्रति संदी.) 72. विप्परिणामधम्मयं मजैवि. विपरिणामधम्मयं शु, आगमो, जैविभा.
आचा. प्रति* पू, जे. समारभमाणस्स
मजैवि. समारम्भमाणस्स आरंभा
मजैवि. आरम्भा अपरिण्णाता
मजैवि. अपरिन्नाया भवंति भवन्ति असमारभमाणस्स मजैवि. परिणाया
मजैवि. परिनाया परिणणाता
आचा. प्रति* ला.
शु.
मजैवि.
शु.
शु.
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१३२]
पञ्चम उद्देशक 47. तं परिन्नाय79 मेधावी80 नेव1 सयं वनस्सतिसत्थं82 समारम्भेज्जा3 81नेवऽन्नेहि 4 वनस्सतिसत्थं2 समारम्भावेज्जा 5, 81नेवऽन्ने वनस्सतिसत्थं 2 समारम्भन्ते 7 समनुजानेज्जा ।
79.
मजैवि.
परिणाय परित्राय
80.
मेहावी मेधावी णेव
आचा. प्रति* ला. मजैवि. आचा. प्रति* खं 3 ला. मजैवि.
नेव
82. वणस्सतिसत्थं । 83. . समारभेज्जा 84. अण्णेहिं
आचा. प्रति* खं 1. मजैवि. मजैवि. मजैवि.
अन्नेहि
आचा. प्रति* ला. मजैवि.
समारभावेज्जा ... समारम्भावेज्जा अण्णे
मजैवि.
अन्ने
शु.
आचा. प्रति* खं 1, ला. मजैवि.
समारभंते
समारभन्ते 88. समणुजाणेज्जा
मजैवि.
Page #167
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________________
आचाराङ्ग
[१३३]
के. आर. चन्द्र 48. जस्सेते वनस्सतिसत्थसमारम्भा परिन्नाता भवन्ति 1 से हु मुनी2 परिन्नातकम्मे 3
त्ति बेमि । । सत्थपरिन्नाए पञ्चमे उद्देसगे समत्ते ।
मजैवि.
89. ___-सत्थसमारंभा
-समारम्भा परिणाया परित्राया
मजैवि.
आचा. प्रति* ला. मजैवि.
91.
भवंति भवन्ति
मुणी
मजैवि. मजैवि.
परिण्णायकम्मे परिन्नायकम्मे
आचा. प्रति* पू, जे, ला.
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________________
छठे उद्देसगे 49. से बेमि -
सन्तिमे तसा पाणा, तं अधा- अण्डया पोतया जराउया रसया संसेदया सम्मुच्छिमा उब्भिया ओववातिया ।
___एस संसारे त्ति पवुच्चति मन्दस्स अविजानतो ॥
| -
मजैवि. मजैवि.
ल
जहा अंडया अण्डया संसेयया संसेदया उववातिया ओववाइया ओववातिय
मजैवि. सूत्रकृ. 1.7.7.387 मजैवि.
+
जैविभा.
'अहोववातिए' (अहा+ओववातिए) आचा. 1.4.2.135 मजैवि. मजैवि.
मंदस्स अवियाणओ अविजाणओ
अविजाणतो (मंदस्साविजाणतो)
अविजाणतो
आचा. प्रति* खं 1. आचा. प्रति* खं 3. आचा. 1.5.1.148 आचा. 1.5.1.149, 2.154 आचा. पाठा. 1.1.6.49, पाटि. 18, प्रति शां, खं, खे, जै.
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________________
आचाराङ्ग
सत्तानं 13 असातं 14 अपरिनिव्वाणं15 |
॥ महब्भयं दुक्खं ति बेमि ॥
मजैवि.
शु, आगमो.
आचा. प्रति* खं 1, ला.
आचा. प्रति* जे.
मजैवि.
7.
8.
9.
10.
11.
12.
13.
14.
[ १३५ ]
॥ निज्झाइत्ता' पडिलेहित्ता पत्तेगं परिनिव्वाणं ॥
सव्वेसिं पाणानं सव्वेसि भूतानं 11 सव्वेसिं जीवानं 12 सव्वेसिं
15.
णिज्झाइत्ता
निज्झाइत्ता
निज्झायत्ता
पत्तेयं
पत्तेगा
परिणिव्वाणं
परिनिव्वाणं
परिनेव्वाणं
पाणाणं
भूताणं
जीवाणं
सत्ताणं
अस्सातं
असायं
असातं
असाता
(असातादुक्खेण )
अपरिणिव्वाणं
अपरिनिव्वाणं अपरिनेव्वाणं
उत्तर. 36.1545
मजैवि.
आगमो.
आचा. प्रति* जे, ला.
मजैवि.
मजैवि.
मजैवि.
मजैवि.
मजैवि.
. आचा. 1.4.2.139 (दो बार )
आचा. पाठा. 1.4.2.139, पाटि 11, प्रति खे,
जै,
इ.
ऋषिभा. 15 (पृ. 29.6, 8, 9 )
मजैवि.
आगमो.
आचा.
के. आर. चन्द्र
प्रति* पू जे.
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१३६ ]
षष्ठ उद्देशक ॥ तसन्ति पाणा पदिसो दिसासु य ॥ . तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितावेन्ति । सन्ति। पाणा पुढो-सिता । 50. ॥ लज्जमाना पुढो पास ॥
'अनगारा20 मो' त्ति एके पवदमाना, जमिणं विरूवरूवेहि 3 सत्थेहि तसकायसमारम्भेण25 तसकायसत्थं समारम्भमाणे26 अन्ने27
16.
मजैवि.
17.
मजैवि.
तसंति तसन्ति परितार्वति परियावन्ति संति सन्ति
"18.
मजैवि.
मजैवि.
लज्जमाणा अणगारा
मजैवि.
एगे
पवदमाणा विरूवरूवेहि विरूवरूवेहि सत्थेहिं -समारंभेणं -समारम्भेणं -समारंभेण समारंभमाणे समारम्भमाणे
मजैवि. मजैवि. मजैवि. आचा. प्रति* जे. मजैवि. मजैवि.
26.
आगमो. मजैवि.
Page #171
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________________
आचाराङ्ग
[१३७]
के. आर. चन्द्र वऽनेकरूवे28 पाणे विहिंसति ।
51. तत्थ खलु भगवता परिना पवेदिता -
इमस्स चेव जीवितस्स० परिवन्दन31-मानन32-पूजनाए33 जाति34-मरण-मोयनाए35 दुक्खपडिघातहेतुं36 - - से सयमेव तसकायसत्थं समारम्भति7, अन्नेहि 8 वा तसकायसत्थं समारम्भावेति", अन्ने वा तसकायसत्थं समारम्भमाणे 1
27.
मजैवि.
अण्णे अन्ने
आचा. प्रति* खं 1, ला. मजैवि. मजैवि.
मजैवि. मजैवि.
28. वणेगरूवे 29. परिणा
परिना जीवियस्स परिवंदणपरिवन्दण-माणण-पूयणाए जातीजाइजाति
मजैवि. मजैवि. मजैवि.
35. मोयणाए 36... -पडिघाय37. समारभति
समारम्भ
आचा. पाठा. 1.1.6.51, पाटि. 5, प्रति सं, खं, खे, जै, इ. मजैवि. मजैवि. मजैवि.
Page #172
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१३८ ]
षष्ठ उद्देशक समनुजानति । तं से अहिताए तं से अबोधीए ।
52. से त्तं सम्बुज्झमाने43 आदानीयं समुट्ठाय 5 सोच्चा भगवतो अनगाराणं46 वा इधमेकेसिं7 नातं48 भवति -
... 38.
मजैवि.
अण्णेहिं • अन्नेहिं
आचा. प्रति* पू, जे, ला. मजैवि.
39.
समारभावेति समारम्भावेइ
शु.
अण्णे
मजैवि.
अन्ने
41.
समारभमाणे समणुजाणति संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए समुट्ठाय
मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. आगमो. आचा. पाठा. 1.1.6.52, पाटि. 9, प्रति हे 1, 2, 3, ला. आचा. प्रति* पू, जे, ला. मजैवि. मजैवि. आचा. प्रति* खं 1. मजैवि.
46. 47.
अणगाराणं इहमेगेसिं इहमेकेसि णायं नायं
48.
आचा. प्रति* पू, जे.
,
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________________
आचाराङ्ग
[१३९]
के. आर. चन्द्र एस खलु गन्थे,49 एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरके ।
॥ इच्चत्थं गढिते लोके52 ॥ जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि4 तसकायकम्मसमारम्भेण5 तसकायसत्थं समारम्भमाणे अन्ने7 वऽनेकरूवे पाणे विहिंसति ।
से बेमि -
अप्पेके 9 अच्चाए वधेन्ति, अप्पेके अजिनाए61 वधेन्ति2, 49.
मजैवि. गन्थे
शु. . मजैवि.
गंथे
निरए नरए
51.
आगमो, जैविभा. मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि.
53.
55.
मजैवि.
णरए गढिए लोगे
विरूवरूवेहिं 54. सत्थेहिं __-समारंभेणं
-समारम्भेणं -समारंभेण समारभमाणे
समारम्भमाणे 57.
अन्ने
आगमो. मजैवि.
56.
अण्णे
मजैवि.
58. 59.
वरुणेगरूवे अप्पेगे
आचा. प्रति* पू, जे, ला. मजैवि. मजैवि. पीछे सूत्र नं. 15 में ऐसे ही प्रयोग हैं ।
Page #174
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१४०]
षष्ठ उद्देशक अप्पेके मंसाए वधेन्ति63, अप्पेके सोणिताए वधेन्ति:2 अप्पेके हिदयाए64 वधेन्ति,65 एवं पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिङ्गाए66 विसाणाए दन्ताए67 दाढाए नहाए ण्हारुणीए अट्ठीए68 अद्विमिज्जाए69 अत्थाए अनत्थाए ।
मजैवि. मजैवि. मजैवि.
60. वधेति 61. अजिणाए 62... वधेति
वहन्ति वहेंति वहन्ति हिययाए
63.
मजैवि. शु. मजैवि. "हिदय के लिए देखो-उद्देशक 2, सूत्र. नं. 15 मजैवि.
शु.
मजैवि.
मजैवि.
वहिति वहन्ति सिंगाए सिङ्गाए दंताए दन्ताए अट्ठिए अट्ठीए अद्विमिंजाए -मिञ्जाए अट्ठिमिज्जाए
मजैवि. शु, आगमो, जैविभा. मजैवि.
शु.
आचा. पाठा. 1.1.6.52, पाटि. 19, प्रति खं, हे 3, इ. आचा. प्रति* खं 3. आचा. प्रति* पू.
-मिज्झाए
Page #175
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________________
आचाराङ्ग
[१४१]
के. आर. चन्द्र अप्पेके'1 हिसिसु मे त्ति वा वधेन्ति'2, अप्पेके हिंसन्ति'3 मे
70.
मजैवि.
अट्ठाए अणट्ठाए अत्थाए (भोगत्थाए)
सूत्रकृ. 1.4.2.295
अत्थ
(अत्थसंपदाणं) (इच्चत्थं)
(अत्थेहि) (इच्चत्थतं) (अत्थसंजुत्तं) (आजीवत्थं) (अत्थेहि) (किमत्थं)
Il titlu lililius si
आचा. 2.15. 747 आचा. 1.1.2.14, 3.25, 4.36, 5.44, 6.52, 7.59; 2.1.63 सूत्रकृ. 2.6.802 सूत्रकृ. 2.6.828 दशवै. 5.2.256 ऋषिभा. 41.9 सूत्रकृ. 2.6.802 ऋषिभा. 38.23, एवं इस ग्रंथ के हरेक अध्ययन की अन्तिम पंक्ति ऋषिभा. 38.26 ऋषिभा. 38.26 ऋषिभा. 38.26 ऋषिभा, 24.35, 39 (पृ. 89.13) ऋषिभा. 30.5, 38.18 ऋषिभा. 38.18 मजैवि. नास्ति मजैवि.
(अत्थसंतती) (अत्थादाईण) (अत्थादायि) (जहत्थं) (णिरत्थकं) (सत्थकं) अप्पेगे वधेन्ति वहन्ति वहति
71.
आगमो, जैविभा. आचा. प्रति* पू, जे, ला. मजैवि.
73. हिंसंति . . . हिंसन्ति
.
Page #176
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१४२]
षष्ठ उद्देशक त्ति वा वधेन्ति'5, अप्पेके हिसिस्सन्ति 6 में त्ति वा वधेन्ति ।
53. एता सत्थं समारम्भमाणस्स78 इच्चेते आरम्भा9 अपरिन्नाता भवन्ति । एत्थ सत्थं असमारम्भमाणस्स2 इच्चेते आरम्भा परिन्नाता भवन्ति । 74. मे त्ति
शु, आगमो, जैविभा. आचा. पाठा. 1.1.6.52, पाटि. 5, प्रति हे 1, 2, 3,. इ, ला. आचा. प्रति* पू, जे, ला.
नास्ति मजैवि. 75. वधेति
नास्ति मजैवि. वहन्ति वहंति
आगमो, जैविभा.
आचा. प्रति* पृ. जे, ला. हिंसिस्संति
मजैवि. हिंसिस्सन्ति वधेति
मजैवि समारभमाणस्स मजैवि. आरंभा आरम्भा अपरिण्णाया मजैवि. अपरिन्नाया भवंति
मजैवि. भवन्ति असमारभमाणस्स मजैवि. परिणाया
मजैवि. परित्राया 84. भवंति
मजैवि. भवन्ति
शु, आगमो.
16
मजैवि.
शु.
Page #177
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________________
आचाराङ्ग
[१४३]
के. आर. चन्द्र 54. तं परिन्नाय85 मेधावी नेव6 सयं तसकायसत्थं समारम्भेज्जा 7, 88नेवऽन्नेहि 9 तसकायसत्थं समारम्भावेज्जा,90 91नेवऽन्ने2 तसकायसत्थं समारम्भन्ते 3 समनुजानेज्जा ।
85.
मजैवि.
परिणाय परिन्नाय णेव
मजैवि.
नेव
87. समारभेज्जा 88. णेव
आचा. प्रति* पू, जे, ला. मजैवि. मजैवि. -
नेव
शु.
आचा. प्रति* खं 1, पू, जे, ला. मजैवि.
89.
अण्णेहि अन्नेहिं
शु.
.
आचा. प्रति* खं 1, जे, ला. मजैवि.
90.
समारभावेज्जा समारम्भावेज्जा
णेव
मजैवि.
नेव
आचा. प्रति* खं 1, पू, जे. मजैवि.
___-_92:
अण्णे अन्ने
आचा. प्रति* पू, जे. मजैवि.
93.
समारभंते समारभन्ते समणुजाणेज्जा
शु.
94.
मजैवि.
Page #178
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१४४]
षष्ठ उद्देशक 55. जस्सेते तसकायसत्थसमारम्भा 5 परिनाता भवन्ति 7 से हु मुनी परिन्नातकम्मे9
त्ति बेमि ।
।सत्थपरिनाए छठे उद्देसगे समत्ते । 95. -समारंभा मजैवि.
-समारम्भा परिणाया
मजैवि. परिन्नाया भवंति भवन्ति
मजैवि. 99. परिणातकम्मे मजैवि.
परिनायकम्मे
96.
परिणा
97.
मजैवि.
मुणी
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्तमे उद्देसगे 56 ॥ पभू एजस्स दुगुञ्छनाए।
आतङ्कदंसी अहितं ति नच्चा ॥ जे अज्झत्थं जानति से बहिया जानति जे बहिया जानति से. अज्झत्थं जानति । एतं तुलमन्नेसिं । ।
॥ इध' सन्तिगता दविया 'नावकडन्ति वीजितुं० ॥
मजैवि.
मजैवि.
दुगुंछणाए दुगुञ्छणाए आतंकदंसी आयङ्कदंसी अहियं अहिताए अहिते
णच्चा
नच्चा
मजैवि. आचा. 1.1.3.24, 4.35, 6.51 सूत्रकृ. 2.2.704, 713, पाठा. 1.1.2.36, पाटि. 16, चू. मजैवि. शु, जैविभा. आचा. प्रति* पू , जे. मजैवि. मजैवि. शु, आगमो. आचा. प्रति* खं 3 पू. जे. मजैवि. मजैवि.
5.
जाणति -अण्णेसिं -अन्नेसि
7.
o .
इह संतिगता सन्तिगया
Page #180
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________________
10.
वीयितुं
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१४६]
सप्तम उद्देशक 57. ॥ लज्जमाना' पुढो पास ॥
'अनगारा2 मो' त्ति एके 3 पवदमाना14, जमिणं विरूवरूवेहि। सत्थेहि 6 वाउकम्मसमारम्भेण7 वाउसत्थं समारम्भमाणे!8 अन्ने वऽनेकरूवे20 पाणे विहिंसति । 9. णावकंखंति मजैवि.
नावकडन्ति जीविउं
मजैवि. वीजिउं
जैविभा. आचा. पाठा. 1.1.7.56, पाटि. 17, चू.
दशवै. पाठा. 6.37, प्रति अचू. वीजिउं
दशवै. पाठा. 6.37, प्रति खं. 3 11. लज्जमाणा मजैवि. अणगारा
मजैवि. एगे
मजैवि. पवदमाणा मजैवि. विरूवरूवेहिं मजैवि. सत्थेहिं
मजैवि. 17. -समारंभेणं मजैवि.
-समारम्भेणं 18. समारंभमाणे मजैवि.
समारम्भमाणे 19. अण्णे
मजैवि.
12.
13.
14.
15.
16.
अन्ने
आचा. प्रति जे, ला. मजैवि.
20.
अणेगरूवे
Main Education International
Page #181
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________________
आचाराङ्ग
[ १४७ ]
58. तत्थ खलु भगवता परिन्ना 21 पवेदिता
इमस्स चेव जीवितस्स 22 परिवन्दन 23 - मानन 24 पूजनाए 25 26जाति-मरण - मोयनाए 27 दुक्खपडिघातहेतुं
?
से सयमेव वाउसत्थं समारम्भति 28 अन्नेहि वा वाउसत्थं समारम्भावेति, 30 अन्ने 31 वा वाउसत्थं समारम्भन्ते 32 समनुजानति ।
83
21.
22.
23.
24.
25.
26.
2222
27.
28.
29.
30.
31.
परिण्णा
परिना
जीवियस्स
परिवंदण -
परिवन्दण-
- माणण
- पूयणाए
जाती-
जाइ
जाति
...
मोयणाए
समारंभति
समारम्भइ
अण्णेहिं
अन्नेहिं
समारभावेति
समारम्भावेइ
अण्णे
अन्ने
मजैवि.
शु.
मजैवि
मजैवि
शु.
मजैवि.
मजैवि.
मजैवि.
शु.
आचा प्रति* ला.
मजैवि.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
आचा. प्रति* खं 1, पू, जे, ला.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
श.
आचा. प्रति* पू
के. आर. चन्द्र
जे,
ला.
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१४८]
सप्तम उद्देशक तं से अहिताए34 तं से अबोधीए।
59. से त्तं सम्बुज्झमाने5 आदानीयं समुट्ठाय37 सोच्चा भगवतो अनगाराणं38 वा इधमेकेसिं0 नातं भवति -
एस खलु गन्थे42, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरके43 ।
32.
मजैवि.
33.
34. 35. 36.
समारभंते समारम्भन्ते समणुजाणति अहियाए संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए समुट्ठाय
37.
मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि. आचा. पाठा. 1.1.7.59, पाटि. 8, प्रति खं, ला. आचा. प्रति* खं 3. मजैवि. मजैवि. आचा. पाठा. 1.2.1.64, पाटि. 12, प्रति खं. मजैवि. मजैवि.
38. 39.
अणगाराणं इहं
इधं
40.
एगेसिं
41.
णातं
नायं
आचा. प्रति* पू, जे, ला. मजैवि.
42.
गंथे
गन्थे
मजैवि.
43. णिरए
नरए निरए
आचा. प्रति* खं 1, पू, जे.
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१४९]
. के. आर. चन्द्र ॥ इच्चत्थं गढिते लोके ॥ जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि वाउकम्मसमारम्भेण वाउसत्थं समारम्भमाणे 7 अन्ने18 वऽनेकरूवे49 पाणे विहिंसति । 60 से बेमि -
॥ सन्ति सम्पातिमा1 पाणा
आहच्च सम्पतन्ति य ॥ फरिसं च खलु पुट्ठा एके 3 54सङ्घातमावज्जन्ति । जे तत्थ
44. 45.
मजैवि. मजैवि. मजैवि. मजैवि.
46.
गढिए लोए विरूवरूवेहिं सत्थेहिं -समारंभेणं -समारम्भेणं -समारम्भेण समारभमाणे अण्णे
आचा. प्रति* खं 3. मजैवि. मजैवि.
अन्ने
आचा. प्रति* पू, जे..
मजैवि.
49. 50.
मजैवि.
शु.
वऽणेगरूवे संति सन्ति संपाइमा संपातिमा संपतंति संपयन्ति एगे
मजैवि. आचा. 1.1.4.37 मजैवि.
53.
मजैवि.
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१५० ]
सप्तम उद्देशक 5+सङ्घातमावज्जन्ति ते तत्थ परियावज्जन्ति: ।जे तत्थ परियावज्जन्ति 5 ते तत्थ उद्दायन्ति ।
एत्थ सत्थं समारम्भमाणस्स7 इच्चेते आरम्भा अपरिन्नाताई भवन्ति । एत्थ सत्थं असमारम्भमाणस्स: इच्चेते आरम्भा58
Tor
54.
मजैवि. मजैवि.
संघायमा-आवज्जति -आवज्जन्ति परियाविज्जंति परियाविज्जन्ति परियावज्जंति
55.
मजैवि.
आगमो, जैविभा. आचा. प्रति* पू, जे. आचा. पाठा. 1.1.4.37, पाटि. 1, चू. मजैवि.
56.
मजैवि.
उद्दायंति उद्दायन्ति समारभमाणस्स समारम्भमाणस्स आरंभा आरम्भा अपरिपणाता अपरिन्नाया
मजैवि.
मजैवि.
आचा. प्रति* ला. मजैवि.
भवंति भवन्ति असमारभमाणस्स
61.
मजैवि.
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१५१]
के. आर. चन्द्र परिन्नाता भवन्ति ।
61. तं परिन्नाय63 मेधावी64 नेव5 सयं वाउसत्थं समारम्भेज्जा66, 67नेवऽन्नेहि वाउसत्थं समारम्भावेज्जा नेवऽन्ने/0
मजैवि.
62. परिण्णाता
परित्राया
परिन्नाता 63..
परिणाय परित्राय
आचा. प्रति* ला. मजैवि.
शु.
64.
मेहावी मेधावी णेव
आचा. प्रति* ला. मजैवि. आचा. प्रति* खं 3. मजैवि.
नेव
समारभेज्जा णेव नेव
आचा. प्रति* खं 1. मजैवि. मजैवि.
आचा. प्रति* खं 1. मजैवि.
68.
अण्णेहिं अन्नेहि
आचा. प्रति* ला. मजैवि.
69.
समारभावेज्जा समारम्भावेज्जा
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[ १५२ ]
वाउसत्थं समारम्भन्ते" समनुजानेज्जा 2 |
72
परित्रातकम्मे 77
70.
71.
72.
73.
74.
75.
76.
77.
जस्सेते वाउसत्थसमारम्भा 73 परित्राता 74 भवन्ति 75 से हु मुनी"
vasud
नेवने
नेवण्णे
णेवन्ने
त्ति बेमि ।
वनेहिं
समारभते
समारभन्ते
समणजाणेज्जा -समारंभा
- समारम्भा
परिण्णाया
परित्राया
भवंति
भवन्ति
मुणी
परिण्णायकम्मे
परिनायकम्मे
परिन्नायकंमे
मजैवि.
शु.
आचा. प्रति* खं 1.
आचा. प्रति* पू, जे, ला.
आचा. पाठा. 1.1.7.61, पाटि 14, प्रति खे, जै,
खं.
. मजैवि.
शु.
मजैवि.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
आचा. प्रति* ला.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
मजैवि.
सप्तम उद्देशक
शु.
आचा. प्रति* ला.
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
जे आयारे न80 रमन्ति ।
78.
79.
80.
81.
82.
83.
84.
85.
[ १५३ ]
62. ॥ एत्थं पि जान78 उवादीयमाना ॥
86.
82
॥ आरम्भमाणा 2 विनयं 83 वदन्ति 84
॥ छन्दोवनीता 5 अज्झोववन्ना" आरम्भसत्ता” पकरेन्ति सङ्गं ॥
88
जाण
उवादीयमाणा
ण
न
रमंति
रमन्ति
आरंभमाणा
आरम्भमाणा
विणयं
वयंति
वयन्ति
वदंति
परिवदंति
वदन्ती छंदोवणीया
छन्दोवणीया अज्झोववण्णा
मजैवि.
मजैवि.
मजैवि.
शु, जैविभा.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
मजैवि.
शु.
आचा. 1.2.4.84, 4.2.135,136, 6.1.182,
6.4.190, 191; 2.4.1.520
सूत्रकृ. 1.6.374, 7.395, 12.536; 2.2.710 (पृ. 172.12)
उत्तर. 32. 1241
आचा. 1.2.1.64
ऋषिभा. 10 (पृ. 21.15)
मजैवि.
शु. मजैवि.
के. आर. चन्द्र
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[ १५४ ]
सप्तम उद्देशक
से वसुमं " सव्वसमन्नागतपन्नाणेन" अप्पाणेन 2 अकरणिज्जं पावं कम्मं नो अन्नेसिं 24 ।
अज्झोववन्ना
87.
88.
89.
90.
92.
93.
94.
आरंभसत्ता
आरम्भसत्ता
पकरेंति
पकरेन्ति
91. - पण्णाणेणं
-पन्नाणेणं
•
संगं
सङ्गं
-समण्णागत
-समन्नागय
-पन्नाणेण
- पण्णाणेण
अप्पाणेणं
णो
नो
तनो
अण्णेसिं
अन्नेसिं
अन्नेसि
शु.
आचा. प्रति* खं. 1
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु.
मजैवि.
शु, जैविभा.
आचा. प्रति* खं. 1
मजैवि.
शु.
आचा. प्रति* पू, जे.
आचा. प्रति* खं 1.
आचा. पाठा. 1.1.7.62, पाटि 2, प्रति खे, जै, सं.
मजैवि
मजैवि.
शु.
आचा. प्रति* खं 1,
आचा. प्रति* जे, ला.
मजैवि.
पू.
शु.
आचा. प्रति* खं 1, पू, आचा. प्रति* ला.
जे.
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[ १५५]
के. आर. चन्द्र - तं परिन्नाय%5 मेधावी 6 नेव7 सयं छज्जीवनिकायसत्थं98 समारम्भेज्जा"" 10"नेवऽन्नेहि 01 छज्जीवनिकायसत्थं102 समारम्भावे
95.
मजैवि.
96.
परिणाय परिन्नाय मेहावी मेधावी णेव नेव
मजैवि. आचा. प्रति* खं 3. मजैवि.
___97.
98.
-णिकाय-निकाय
आचा. प्रति* खं 1, पू, जे, ला. मजैवि. शु, आगमो. आचा. प्रति* खं 1, पू, जे, ला. मजैवि. मजैवि.
99.
समारभेज्जा
100. णेव
नेव
आचा, प्रति* खं 1, पू, जे, ला. मजैवि.
101. अण्णेहिं
अन्नेहिं
102. -णिकाय
-निकाय
आचा. प्रति* खं 1, पू, जे, ला. मजैवि. शु, आगमो. आचा. प्रति* खं 1, पू, जे, ला. मजैवि.
__103. समारभावेज्जा
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१५६]
सप्तम उद्देशक ज्जा103, नेवऽन्ने104 छज्जीवनिकायसत्थं 102 समारम्भन्ते105 समनुजानेज्जा106 ।
___ जस्सेते 107छज्जीवनिकायसत्थसमारम्भा 08 परिन्नाता109 भवन्ति। 10 से हु मुनी11 परिन्नातकम्मे112
त्ति बेमि । ॥ सत्थपरिन्ना समत्ता ॥
(पढमं अज्झयनं समत्तं) 104. णेवऽण्णे
मजैवि. नेवऽन्ने
आचा. प्रति* खं 1. नेवन्नेहिं
आचा. प्रति* पू, जे, ला. 105. समारभंते
मजैवि. समारभन्ते
समणुजाणेज्जा मजैवि. 107. -णिकाय
मजैवि. -निकाय
शु, आगमो.
आचा. प्रति* खं 1, पू, जे, ला. 108. -समारंभा
मजैवि. -समारम्भा परिणाया
मजैवि. परिन्नाया
शु., आचा. प्रति* ला. भवंति
मजैवि. भवन्ति 111. मुणी
मजैवि. परिण्णायकम्मे मजैवि. परिन्नायकम्मे शु., आचा. प्रति* ला.
106.
शु.
शु.
112.
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १५७].
विभाग-४
शब्दों में ध्वनिगत परिवर्तन
सामान्य प्राकृत भाषा के लिए ध्वनि परिवर्तन सम्बन्धी जो नियम प्राकृत व्याकरणकारों ने दिये हैं वे अर्धमागधी भाषा पर कितने प्रमाण में लागू होते हैं यही यहाँ पर प्रकाश में लाया गया है ।
[ इस विभाग में किये गये विश्लेषण से मुनि पुण्यविजयजी और पं. बेचरदासजी दोशी का यह अभिप्राय प्रामाणिक ठहरता है कि मूल अर्धमागधी में इतने प्रमाण में ध्वनिगत विकार नहीं होगा जितना आगम ग्रंथों के अधुना उपलब्ध संस्करणों में पाया जाता है ।]
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[१५९]
शब्दों में ध्वनि-परिवर्तन
स्वर कण्ठ्य ङ् और तालव्य ञ् का स्वर के साथ या द्वित्व रूप में प्रयोग नहीं पाया जाता है परंतु सजातीय व्यंजनों के साथ उनके प्रयोग मिलते हैं, जैसे
आतङ्क, अवकङ्घति, सिङ्ग, जङ्घा; अनुसञ्चरति, दुगुञ्छनाए
मात्रात्मक परिवर्तन के कुछ विशिष्ट प्रयोग इस प्रकार हैं- कम्मावादी (कर्मवादी), लोकावादी (लोकवादी), मिज्जा (मेद्य), अप्पाण (अप्पण-आत्मन्), सम्मुति (सम्मति या स्वमति), बेमि (ब्रूमि) ।
व्यंजन असंयुक्त व्यंजन अपवाद के रूप में अव्यय में प्रारम्भिक 'य' का 'अ' मिलता है - अधा (यथा) [परवर्ती प्राकृतों में 'जधा' और 'जहा' रूप मिलते हैं]
प्रारंभिक और मध्यवर्ती दन्त्य नकार यथावत् पाया जाता है । अपवाद के रूप में न=ण के उदाहरण इस प्रकार हैं -
णं (नूनम्), नाण (ज्ञान), पन्नाण (प्रज्ञान), अनाण(अज्ञान), अप्पाण (आत्मन्) इणं (एतत्), छहारुणी (स्नायु)
मध्यवर्ती असंयुक्त व्यंजन मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजन ('ट' वर्ग के सिवाय) क,ग,च,ज,त, द, य, का कभी कभी लोप पाया जाता है। मध्यवर्ती प का प्रायः व मिलता है और मध्यवर्ती व का प्रायः लोप नहीं मिलता है ।
मध्यवर्ती महाप्राण व्यंजन कभी कभी 'ह' में बदले हुए मिलते हैं । महाप्राण 'थ' का 'ध' में परिवर्तन भी मिलता है ।
मध्यवर्ती व्यंजनों में पाया जाने वाला ध्वनिगत-परिवर्तन निम्न तालिकाओं में प्रस्तुत किया जा रहा है ।
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
'आचाराङ्ग
क=
T=
च
ज=
त=
प
य=
उद्देशक १
८
व=
18 F
क
ग
अ
ग
अ
च
अ
ज
अ
द= द
अ
त
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355
अ
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10 ल
व
११
०
०
O,
०
०
०
११
[ १६० ]
आचाराङ्ग : प्रथम अध्ययन
१. मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजन
०
२
७६
o
o
२
20
४
०
O
१
३ ५ ४
१
१
८ ९
०
०
०
o
C
o
११
०
२
१२ २६
०
३
२६
६८ २६ ३५ ४१
०
०
२
६
o
०
०
०
०
०
223
१८
०
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१
०
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१२
०
०
०
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४
०
०
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२
०
०
०
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०
०
३
०
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२
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०
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०
१ २
१८ १० ११
०
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३
०
५७
०
J
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०
८
१
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०
६
१४
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२
४
०
२
०
४
३०
०
o
९
v
१
११
o
१६
०
१६
०
७
१४
०
०
६
०
०
३
६
०
४०
०
०
5
०
१
१८
०
के. आर. चन्द्र
१५
१०
२३
०
कुल
१५७
४
OC
२१
४१
०
२
१३
२८
४
२९७
०
ov
१
६१
ނ
६
९०
0
५१
१२
१३२
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
संख्या
यथावत् घोष
१५७ ४
४१
२
२८
२९७
६१
व्यंजन
क
ग
च
P 15
ज
त
द
प
य
व
कुल
६
५१
१३२
७७५
०
०
०
०
९०
०
०
९४
लाम
२१
०
१३
४
१२
०
[ १६१ ]
५२
यथावत्
८६.५
१००
१२.५
८७.५
९९.५
९८.५
+&
८१
१००
1393
८४
शब्दों में ध्वनि-परिवर्तन
प्रतिशत
घोष
०
O
०
०
०
- ९४
०
०
१०
लोप
११.५
०
८७.५
१२.५
०.५
१.५
o
१९
०
६
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
के. आर. चन्द्र
[१६२] २. मध्यवर्ती महाप्राण व्यंजन २ ३ ४ ५ ६ ० ० ० ० ०
उद्देशक . ख = ख ।
१ ०
७ । कुल ०
०
० ०
घ =
घ
।
०
१
१
१
.
१
१
१
०
०
थ =
थ
।
०
१
०
०
०
०
०
०
०
० ०
०
ध = ध । २
३
२
३
५
१०
३
०
०
०
०
०
०
भ = भ । ०
२
२
१
०
०
१ । ६
०
०
' संख्या व्यंजन | यथावत् घोष
| ०
लोप-ह | यथावत्
० ७१.५
१६.५ । १००
प्रतिशत घोष लोप-ह। ० १०० ० २८.५ ८३.५ ० ० ०
०
०
०
०
_कुल
४०५
४
|
+ ८१
+ १०
+ ८
-
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ संख्या
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१६३] शब्दों में ध्वनि-परिवर्तन ३. मध्यवर्ती अल्पप्राण और महाप्राण व्यंजन
प्रतिशत उद्देशक यथावत् घोष लोप यथावत् घोष लोप १. अ.प्रा । १११ १२
म.प्रा २. अ.प्रा । १४८ ११ ३ । ९१
म.प्रा अ.प्रा ११५
म.प्रा ४. अ.प्रा । ८१ १० ३ ।
८७.५ १०.५
७१ ० ५. अ.प्रा. | १११ १३ १६ ।
-८० +९ +११ . म.प्रा ०
०
390
|
१८
८४
३३.५
म.प्रा
।
०
|
६. अ.प्रा | ९७
+८८
१२
१२
२ /
८८
-
-१०
___ म.प्रा । ११
-१२
८
०
म.प्रा १. अ.प्रा । ११० १८ १३ । ७८ -१३ +९ । म.प्रा.
१००० कुल संख्या
कुल प्रतिशत । उद्देशक यथावत् घोष लोप | उद्देशक | यथावत् घोष लोप
११३ १४ ७ । १ । ८४.५ १०.५ ५ १५४ ११ ५ । २ । ९०.५ - ६.५ ३ ११९ २० ४ । ३ । ८३ १४७
|or rm sw
५
।
। ११७
१०८ | ११५
८१२
१३ १३ १८ ९९
१६ । ५
२ ६ १३ । ७ ५२ । कुल
८० ८७.५ ७८.५ ८४.५
९ १०.५ १२.५ १०
११ २ ९ ५.५
।
७ कुल
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१६४]
के. आर. चन्द्र ४. ध्वनि-परिवर्तन के कतिपय उदाहरण (शब्दों के संदर्भ के लिए देखिए विभाग-५) . यथावत्
घोषीकरण लोप क अनेक, एक, नरक, लोक आहारग, पत्तेग, अन्तिय, ओववातिय,
परवागरण धम्मयं, विसोत्तिय
अल्पप्राण व्यंजन
च
|
|
त
अगुत्त, अनगार, भगवता 'चेव', स्वरान्त शब्द के पश्चात्
कयवर, पाईन, 'च' अव्यय का प्रयोग
मोयन, समायार अविजान, परिजान, पूजन, वीजितुं
पोतया, रसया अक्खात, अहित, आतङ्क, आतुर,
करओ (कुर्वतः) इतो, उवरत, एते, जाति, पडिघात,
(= *करतः) परिनात, भवति, भूत, मतिमं, सोणित, वीजितुं, सम्पातिम आदानीय, उदर, ओववादिय,
उब्भिया पमाद, पवदमान, पाद, सदा, हिदय अनुपालिया
उवरत, ओववादिय, - पडिवन्न, परितावेन्ति, पाव, विरूवरूव, वि(अपि)
प
य
आउसन्त
अमाया, किरियावादी: गोमय, तसकाय, सयं
व
आवट्ट, पवेदित, पुढवि
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
यथावत्
महाप्राण
व्यंज
ख
घ
थ
ध
फ
भ
पडिघात
पव्वथित
अध, इध, अबोधी, मेधावी, वधेन्ति
नाभि, पभू, विभूसा
न्य =
[ १६५ ]
घोषीकरण
न्न = न्न
अधा,
महावीधि
संयुक्त व्यंजन
संयुक्त व्यंजनों के समीकरण के स्थान पर कुछ स्वरभक्ति के प्रयोग इस प्रकार मिलते हैं ।
अनितिय (अनित्य), दविय (द्रव्य), अगनि (अग्नि) [परवर्ती काल की प्राकृतों में अणिच्च, दव्व और अग्गि जैसे प्रयोग मिलते हैं ।]
संयुक्त रूप में आने वाले नासिक्य व्यंजनों के परिवर्तन इस प्रकार पाये जाते हैं ।
शब्दों में ध्वनि-परिवर्तन
'ह' कार में परिवर्तन
न्न
अन्न (अन्य )
नह
दीह
I
त्र ( मध्यवर्ती)
खेत्तन ( क्षेत्रज्ञ), परित्रात (परिज्ञात), समनुन्न (समनुज्ञ)
न्न (प्रारंभिक)
नात (ज्ञात), नच्चा (ज्ञात्वा )
[ अपवाद के रूप में 'आज्ञा' के लिए 'आणा' शब्द मिलता है । ]
अज्झोववन्न (अध्युपपन्न), छिन्न (छिन्न), पडिवन्न (प्रतिपन्न )
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[ १६६ ]
ण्ण
कण्ण (कर्ण)
[ परवर्ती काल की प्राकृत भाषाओं में ज्ञ, न्न और न्य के स्थान पर ण्ण पाया जाता है ।]
तालिकाओं में प्रस्तुत ध्वनि - परिवर्तन के विश्लेषण के अनुसार इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यजनों का लोप ६ प्रतिशत, घोषीकरण १० प्रतिशत और यथावत् स्थिति ८४ प्रतिशत हैं । मध्यवर्ती महाप्राण व्यंजनों का 'ह' कार में परिवर्तन ८ प्रतिशत, घोषीकरण १० प्रतिशत और यथावत् स्थिति ८१ प्रतिशत हैं । अल्पप्राण और महाप्राण व्यंजनों को मिलाने पर यथावत् स्थिति ८४.५ प्रतिशत, घोषीकरण १० प्रतिशत और लोप ५.५ प्रतिशत पाया जाता है । स्पष्ट है कि अर्धमागधी प्राचीन प्राकृत भाषा होने के कारण इसमें मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप उस मात्रा में नहीं मिलता है जितना परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत में मिलता है । अतः • अर्धमागधी प्राकृत भाषा के लिये ध्वनि परिवर्तन का प्रायः लोप का नियम उपयुक्त नहीं ठहरता है । इसके लिये तो कभी कभी लोप का नियम ही उचित प्रतीत होता है । घोषीकरण में क ग ( २ प्रतिशत), थ-ध (८३.५ प्रतिशत) और प-व (९४ प्रतिशत) के प्रयोग मिलते है । तद का इसमें कोई प्रयोग नहीं मिल रहा है परंतु स्वयं आचाराङ्ग (मजैवि.) के सूत्रनं ३३५ में उदु (ऋतु) के प्रयोग मिल रहे हैं और उसी सूत्र के पाद-टिप्पण में चूर्णी से 'उदुसु' पाठान्तर दिया गया है । हस्तप्रतों में त=द के प्रयोग यत्र तत्र मिलते हैं परंतु संपादकों ने ऐसे पाठ नहीं अपनाये । कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित प्राकृत व्याकरण के प्रभाव में आकर पूर्व काल में मध्यवर्ती त के स्थान पर द के जो प्रयोग थे उनमें वापिस त कर दिया गया होगा । दन्त्य न के बदले में ण का प्रयोग भी कभी कभी ही मिलता होगा, सर्वत्र दन्त्य न को मूर्धन्य ण में बदलने की प्रवृत्ति परवर्ती काल में प्रचलित हुई है इस तथ्य पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
1
के. आर. चन्द्र
मात्र एक अध्याय के विश्लेषण से ध्वनि - परिवर्तन सम्बन्धी जो निष्कर्ष निकाला जा रहा है वह अन्तिम तो नहीं ही कहा जा सकता परंतु उससे अर्धमागधी जैसी प्राचीन प्राकृत भाषा की ध्वनि परिवर्तन सम्बन्धी झलक तो अवश्य मिल ही जाती है ।
-
Page #201
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________________
[१६७]
विभाग -५
नवसम्पादित प्रथम अध्ययन के सभी शब्द-रूपों की अनुक्रमणिका
Page #202
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________________
Page #203
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________________
आचाराङ्ग
[१६९]
के. आर. चन्द्र
शब्दरूप-अनुक्रमणिका
१ (७ बार),
२ (२ बार)
&
अंसि अकरणिज्जं अकरिस्सं अकासी अकुतोभयं अक्खातं -अक्खाता -अक्खाते
Mr.
देखो, वियक्खाता देखो, वियक्खाते
अगनिं
३७
अगनिकम्मसमारम्भा अगनिकम्मसमारम्भेण अगनिसत्थं अगुत्ते अङ्गुलि अच्चाए अच्छि
३४, ३६ ३४, ३५ (३ बार), ३६ ४१ १५ (२ बार)
अच्छे
१५ (२ बार) १५ (३३ बार) ५२ ५६ (२ बार)
अजिनाए अज्झत्थं अज्झोववन्ना अट्टे
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
अट्ठिमिज्जाए
अट्टीए
अण्डया
अत्तानं
- अत्थं
अत्थाए
- अत्थाए
अत्थि
अत्थि
अदिन्नादानं
अदुवा
अधं
अधा
अधे
अधेदिसातो अथवा अधे वा दिसातो
अनगारा
अनगाराणं
अनगारे
अनत्थाए
अनाणाए
अनितियं
- अनुजानति
- अनुजानेज्जा
}
[ १७० ]
५२
५२
४९
२२ (३ बार), ३२ (३ बार)
देखो, इच्चत्थं
५२.
देखो, अनत्थाए
१,२
देखो, नत्थ
२६
२६, २७
४१ (२ बार)
१,२,१९,४९
१
१२, २३, ३४, ४२, ५०, ५७
१४, २५, २६, ३६, ४४, ५२, ५९
१९, ४०
५२
४१
४५ (२ बार)
देखो, समनुजानति
देखो, समनुजानेज्जा
के. आर. चन्द्र
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
m
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१७१] शब्द-रूप-अनुक्रमणिका
अनुदिसाओ २ (२ बार), ६ (२ बार) अनुदिसातो अथवा अनु वा दिसातो अनुपालिया अनुवीयि
२६ अनुसञ्चरति अनेकरूवाओ अनेकरूवे
१२, १४, २३, २५, ३४, ३६, ४२, ४४, ५०, ५२,
५७, ५९ अनेका
२६ अन्तिए
२, १४, २५ अन्धं
१५ (२ बार) अन्नतरीतो
१, २ १३, १४, १७, २३, २४, २५, ३०, ३४, ३५, ३६, ४२, ४३, ४४, ४७, ५०, ५१, ५२, ५४, ५७, ५८, ५९, ६१,
६२ अन्नेसिं (अन्येषाम्) २ अन्नेसिं (अन्येषाम्) ५६,६२, (अन्वेषयेत्-आचा. वृत्ति)
१३, १७, २४, ३०, ३५, ४३, ४७, ५१, ५४, ५८, ६१,
अन्ने
अन्नेहि
६२
अपरिनिव्वाणं अपस्निातकम्मे अपरित्राता अपिअप्पमत्तेहि
१६, २९, ३८, ४६, ५३, ६० देखो, अप्पेके
३३
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१७२]
के. आर. चन्द्र
अप्पाणेन
अप्पेके
अप्पेके अबोधीए अब्भाइक्खति अब्भाइक्खेज्जा
(प्रथमा ए.व.) १५ (६६ बार) (प्रथमा ब.व) ५२ (८ बार) १३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८ २२ (४ बार), ३२ (४ बार) २२ (२ बार), ३२ (२ बार) १५ (३३ बार)
अब्भे
अभयं अभिभूय अभिसमेच्चा अमायं अयं अवकङ्क्षति -अवचइयं अवि अविजानए अविजानतो असत्थस्स असमारम्भमाणस्स असातं असासतं अस्सि अहं
देखो, चयावचइयं देखो, यावि १० ४९ ३२ (२ बार) १६, २९, ३८, ४६, ५३, ६० ४९ ४५ (२ बार)
१ (८ बार), २ (२ बार), ३३
अहितं
५६
Page #207
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[१७३]
शब्द-रूप-अनुक्रमणिका
अहिताए -आइक्खति -आइक्खेज्जा आउसन्ते आगतो
१३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८ देखो, अब्भाइक्खति देखो, अब्भाइक्खेज्जा
आणाए
१ (७ बार), २ (२ बार) २२ देखो, अनाणाए ५६ १ (२ बार), २
-आणाए आतङ्कदंसी आता आतावादी आतुरा -आदानं आदानीयं -आदीयमाना आयारे -आरम्भति -आरम्भन्ते आरम्भमाणस्स आरम्भमाणा आरम्भमाणे
१०, ४९ देखो, अदिन्नादानं १४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ देखो, उवादीयमाना
देखो, समारम्भति देखो, समारम्भन्ते देखो, असमारम्भमाणस्स, समारम्भमाणस्स ६२ देखो, समारम्भमाणे
आरम्भसत्ता
आरम्भा
१६ (२ बार), २९ (२ बार), ३८ (२ बार), ४६ (२ बार), ५३ (२ बार), ६० (२ बार)
Page #208
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________________
आवट्टे
४१
आचाराङ्ग
[१७४]
के. आर. चन्द्र -आरम्भावेज्जा देखो, समारम्भावेज्जा -आरम्भावेति देखो, समारम्भावेति -आरम्भेज्जा देखो, समारम्भेज्जा -आरम्भेण देखो, अगनिकम्मसमारम्भेण, पुढविकम्मसमारम्भेण आवजन्ति ३७ (२ बार), ६० (२ बार) -आवज्जन्ति देखो, परियावज्जन्ति
४१ (२ बार) आवसे -आसादे
देखो, गुणासादे आसी
३७,६० आहारगं
४५ (२ बार) इच्चत्थं(इति + अत्थं) १४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ इच्चेते (इति + एते) १६ (२बार), २९ (२ बार), ३८ (२ बार), ४६ (२
बार), ५३ (२ बार), ६० (२ बार) इणं
१२, १४, २३, २५, ३४, ३६, ४२, ४४, ५०, ५२, ५७, ५९ देखो, इच्चत्थं, इच्चेते
आहच्च
इति
m
इदान इध इधं
१, २६, ५६ १, १४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ ४५ (९ बार) ७, १३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८
इमस्स
g
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[१७५]
शब्द-रूप-अनुक्रमणिका
इमाओ
इमे
देखो, सन्तिमे
उज्जुकडे -उट्ठाय उड्ढं उड्डातो उत्तरातो
देखो, समुट्ठाय ४१ (२ बार)
१, २
१, २
उदकं
२३, २५
२६
२३, २४ (३ बार), २५, ३० (३ बार)
उदककम्मसमारम्भेण उदकनिस्सिता उदकसत्थं उदकसत्थसमारम्भा उदरं उद्दवए उद्दायन्ति उब्भिया
१५ (२ बार) १५ ३७, ६०
४९
-उवनीता उवरते -उववन्ना उवादीयमाना ऊरुं एके एके(ब.व)
१५ (२ बार) देखो, छन्दोवनीता ४० (२ बार) देखो, अज्झोववन्ना ६२ १५ (२ बार) देखो, अप्पेके १२, २३, ३४, ३७, ४२, ५०, ५७, ६०
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१७६]
.
के. आर. चन्द्र
१ (२ बार), २, १४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ देखो, पत्तेगं
आचाराङ्ग एकेसि -एगं एजस्स एतं (नपुं) एतावन्ति
३३, ४५ ( ९ बार), ५६
एत्थ
- एत्थ
एत्थं
९, १८, ३१, ३९, ४८, ५५, ६१, ६२ देखो, इच्छेते, जस्सेते १६ (२ बार), २६, २८, २९ (२ बार), ३८ (२ बार), ४०, ४१, ४६ (२ बार), ५३ (२ बार), ६० (२ बार) देखो, चेत्थ ६२ देखो, नेव ७, १३ (२ बार), १७ (३ बार), २०, २२ (२ बार) २४, ३० (२ बार), ३२ (२ बार), ३५, ४३, ४७ (३ बार), ५१ (२ बार), ५४ (३ बार), ५८ (२ बार), ६१ (३ बार), ६२ (३ बार) १ (२ बार), २ (२ बार), ५२ १४ (४ बार), २५ (४ बार), ३६ (४ बार), ४० (२ बार), ४१, ४४ (४ बार), ४९, ५२ (४ बार), ५९ (४ बार)
एवं
४९
ओववातिया ओववादिए -कङ्खति कट्ठनिस्सिता कडिं -कडे
१ (२ बार), २ देखो, अवकडति ३७ . १५ (२ बार) देखो, उज्जुकडे
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
कण्णं
कप्पति
-कम्म
कम्मं
कम्मसमारम्भा
कम्मवादी
-कम्मे
कयवरनिस्सिता
करए
कओ
-- करणिज्जं
करिस्सामि
- करेन्ति
-काय
काराविस्सं
किरियावादी
कुव्वमाणे
के
खन्धं
खलु
खेत्तन्त्रे
१५ (२ बार)
२७ (२ बार) देखो,
६२
५, ८, ९
[ १७७ ] शब्द-रूप- अनुक्रमणिका
३ mm
अगनिकम्मसमारम्भा, अगनिकम्मसमारम्भेण, उदककम्मसमारम्भेण, तसकायकम्मसमारम्भेण, पुढविकम्मसमारम्भा, पुढविकम्मसमारम्भेण, वनस्सतिकम्मसमारम्भेण, वाउकम्मसमारम्भेण
३
देखो, अपरित्रातकम्मे, परिन्नातकम्मे
३७
४०
४
देखो, अकरणिज्जं
४०
देखो, पकरेन्ति
देखो, तसकायकम्मसमारम्भेण, तसकायसत्थं, तसकायसत्थसमारम्भा, तसकायसमारम्भेण
३
१९
१ (२ बार )
१५ (२ बार)
६, ७, १३, १४ (४ बार), २४२५ (४ बार), २६, ३५, ३६ (४ बार), ३७, ४३, ४४ (४ बार), ५१, ५२ (४ बार), ५८, ५९ (४ बार ), ६०
३२ (४ बार)
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
गढिते
गण्ड
- गता
- गतो
गन्थे
गलं
गारं
गीवं
गुणट्टिते
गुणासादे
गुणे
- गुत्ते
गुप्फं
गोमयनिस्सिता
च
च
- चइयं
चयावचइयं
- चरति
चित्तमन्तयं
चुते
चेत्थ (च+एत्थ)
चेव (च+एव) छज्जीवनिकायसत्थं
[ १७८ ]
१४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९
१५ (२ बार)
देखो, सन्तिगता
देखो. आगतो
"
१४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९
१५ (२ बार)
४१
१५ (२ बार)
३३
४१
४१ (२ बार)
देखो, अगुत्ते
१५ (२ बार)
३७
देखो, चेव, चेत्थ
४ (२ बार), २२, २६
देखो, चयावचइयं
४५ (२ बार)
देखो, अनुसञ्चरति
४५ (२ बार)
१
२६
७, १३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८
६२ (३ बार)
के. आर. चन्द्र
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१७९] शब्द-रूप-अनुक्रमणिका छज्जीवनिकायसत्थसमारम्भा ६२ छन्दोवनीता
६२ छिन्नं
४५ (२ बार) १२, १४, २३, २५, ३३, ३४, ३६, ४२, ४४, ५०, ५२, ५७, ५९
१५ (२ बार) जतेहि -जतेहि
देखो, सञ्जतेहि जत्थ
६०
जराउया
४९
जस्स
देखो, जस्सेते
९, १८, ३१, ४८, ५५, ६१, ६२ देखो, विजहित्तु
२०
४५ (२ बार) ७, १३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८
जस्स जस्सेते (जस्स+एते) -जहित्तु जाए जातिधम्मयं जाति-मरण-मोयनाए जान -जानए जानति --जानति -जानतो -जानितव्वा
६२
देखो, अविजानए ५६ (४ बार) देखो, समनुजानति देखो, अविजानतो देखो, परिजानितव्वा १५ (२ बार)
जानु
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१८०]
के. आर. चन्द्र
जानेज्जा -जानेज्जा जिब्भं जीवा जीवानं जीवितस्स
देखो, समनुजानेज्जा १५ (२ बार) २६ (२ बार) ४९ ७, १३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८ देखो, परिजुण्णे २, ६, २२ (२ बार), ३२ (धार), ३३, ३७ (२ बार), ४०, ४१ (२ बार), ५६ (२ बार) ६० (२ बार), ६२
-जुण्णे
जे(यः)
जे(ये)
जोनीओ ज्ज(से ज्ज) झाइत्ता -ट्ठिते
देखो, निज्झाइत्ता देखो, गुणट्ठिते
१
५२
-णता
देखो, पणता पहारुणीए तं (तत्) प्र.ए.व. (नपुं.)१, २, १३, १३, २४, २४, ३५, ३५, ४३, ४३, ४९,
५१, ५१, ५८, ५८ तं(तत्) द्वि.ए.व. (नपुं.) १७, ३०, ३३, ४०, ४०, ४७, ५४, ६१, ६२ तं(ताम्) (द्वि.ए.व.) (स्त्री.) २० तणनिस्सिता
३७ ७, १० (२ बार), १३, २४, ३५, ३७ (४ बार), ४३, ४९ (२ बार), ५१, ५८, ६० (३ बार)
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१८१] शब्द-रूप-अनुक्रमणिका तसकायकम्मसमारम्भेण ५२ तसकायसत्थं
५०, ५१ (३ बार), ५२, ५४ (३ बार) तसकायसत्थसमारम्भा ५५ तसकायसमारम्भेण तसन्ति
तसा
तालुं -तान्ति
१५ (२ बार) देखो, परितावेन्ति
५६
तिरियं
तेसिं तं (अथवा से तं) त्ति (इति)
४१ (२ बार) ५६ ३७ (२ बार), ६० (२ बार) २८ १४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ ९, १२, १८, २३, ३१, ३४, ३९, ४०, ४२, ४८, ४९ (२ बार), ५०, ५२ (३ बार), ५५, ५७, ६१, ६२ १५ (२ बार) देखो, आतङ्कदंसी १, २
थनं
-दंसी दक्खिणातो
दण्डे
१५ (२ बार)
दन्तं दन्ताए दविया
दाढाए
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१८२]
के. आर. चन्द्र
दिटुं
२ (२ बार), ६ (२ बार) देखो, अनुदिसाओ १ (६ बार), २ (२ बार) देखो, अधेदिसातो, अनुदिसातो अथवा अधे वा दिसातो,
४९
दिसाओ -दिसाओ दिसातो -दिसातो अनु वा दिसातो दिसासु दीहलोकसत्थस्स दुक्खं दुक्खपडिघातहेतुं दुगुञ्छनाए दुस्सम्बोधे -धम्मयं
३२ (२ बार)
४९
७, १३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८
५६
१०
देखो, जातिधम्मयं विपरिणामधम्मयं वुड्डिधम्मयं ३०, ५६, ६२ देखो, नत्थि, नेव ५६
नच्चा नत्थि
नरके
१४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ १५ (२ बार)
नहाए
५२
-नात
नातं
देखो, अपरित्रातकम्मे, परिनातकम्मे १, २, १४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ देखो, परिन्नाता १५ (२ बार)
-नाता नाभि
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
नासं
निकरणाए
-निकाय
निक्खन्तो
निज्झाइत्ता
निडालं
-नितियं
नियागपडिवन्ने
- निव्वाणं
निस्सिता
ने
नेव (न+एव)
नेवने (नेव + अन्ने)
नेवऽन्नेहि (नेव + अन्नेहि)
नो
पकरेन्ति
पच्चत्थिमातो
-पडिघात
पडिलेहित्ता
पडसंवेदयति
पडिवन्ने
[ १८३ ]
शब्द-रूप- अनुक्रमणिका
१५ (२ बार)
२८
देखो, छज्जीवनिकायसत्थं, छज्जीवनिकायसत्थसमारम्भा
२०
४९
१५ (२ बार)
देखो, अनितियं
१९
देखो, अपरिनिव्वाणं, परिनिव्वाणं
देखो, उदकनिस्सिता, कट्ठनिस्सिता, कयवरनिस्सिता, गोमयनिस्सिता, तणनिस्सिता, पत्तनिस्सिता, पुढविनिस्सिता
२७ (२ बार)
१७ (३ बार), २२ (२ बार), ३० (२ बार), ३२ (२ बार), ४७ (३ बार), ५४ (३ बार), ६१ (३ बार), ६२ (३ बार)
१७, ४७, ५४, ६१, ६२
१७, ३०, ४७, ५४, ६१, ६२
१ (२ बार), २८, ३३, ४० (२ बार), ६२
६२
१,२
देखो, दुक्खपडिघातहेतुं
४९
६
देखो, नियागपडिवन्ने
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१८४]
के. आर. चन्द्र
पणता
देखो, सम्पतन्ति
४९
देखो, सव्वसमन्नागतपन्नाणेन ५६
देखो, अप्पमत्तेहि
देखो, सम्पमारए
-पतन्ति पत्तनिस्सिता पत्तेगं पदिसो - पन्नाणेन पभू पमत्ते -पमत्तेहि पमादेन -पमारए परवागरणेन परिजानितव्वा परिजुण्णे -परिणामपरितावेन्ति परिनिव्वाणं -परिनिव्वाणं परिन्ना -परित्रातपरिनातकम्मे परित्राता
५,८
देखो, विपरिणामधम्मयं १०,४९
देखो, अपरिनिव्वाणं ७, १३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८ देखो, अपरिनातकम्मे ९, १८, ३१, ३९, ४८, ५५, ६१, ६२ ९, १६, १८, २९, ३१, ३८, ३९, ४६, ४८, ५३, ५५, ६०, ६१, ६२ देखो, अपरिन्नाता
-परिन्नाता
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाईनं
पाणा
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१८५] शब्द-रूप-अनुक्रमणिका परिन्नाय
१७, ३०, ३३, ४७, ५४, ६१, ६२ परियावज्जन्ति ३७ (२ बार), ६० (२ बार) परिवन्दन-मानन-पूजनाए ७, १३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८ . पवदमाना
१२, २३, ३४, ४२, ५०, ५७ पवुच्चति
३३, ४०, ४९ पवेदितं पवेदिता
७, १३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८ पव्वथिते
१० ४१ (२ बार)
११, २६, ३७ (२ बार), ४९ (३ बार), ६० पाणानं
४९ १२, १४, २३, २५, ३४, ३६, ४२, ४४, ५०, ५२, ५७,
५९ -पातिमा
देखो, सम्पातिमा पातुं
२७ पादं
१५ (२ बार) -पालिया
देखो, अनुपालिया पावं
१०, १२, २३, २६, ३४, ४२, ४९, ५०, ५७ पासं
१५ (२ बार) पासति पासमाने
४५ (१८ बार), ६२
पाणे
६२
पास
पिच्छाए
५२
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[१८६]
के. आर. चन्द्र
पिट्टि
१५ (२ बार)
पित्ताए
पुच्छाए
-
३७, ६० १८ १२, १४ .
३७
पुढविकम्मसमारम्भा पुढविकम्मसमारम्भेण पुढविनिस्सिता पुढविसत्थं पुढो पुढो-सिता
१२, १३ (४ बार), १४, १७ (३ बार) १०, १२, २३, २६, २७, ३४, ४२, ५०, ५७ ११, ४९
पुन
४१(२ बार), ४९ १,२
पुनो पुरत्थिमातो पुरिसे पुव्वं
ur
m
३३ देखो, परिवन्दन-मानन-पूजनाए
-पूजनाए
पेच्चा
४९
पोतया फरिसं फासे बहिया बाहुं -बुज्झमाने बेमि
५६ (२ बार) १५ (२ बार) देखो, सम्बुज्झमाने ९, १५, १८, १९, २२, २६, ३१, ३२, ३७, ३९, ४५,
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अध्ययन का पुन: सम्पादन [१८७] शब्द-रूप-अनुक्रमणिका
४८, ४९ (२ बार), ५२, ५५, ६०, ६१, ६२ -बोधीए . देखो, अबोधीए भगवता
१, ७, १३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८ भगवतो
१४, २५, ३६, ४४, ५९ भमुहं
१५ (२ बार) -भयं
देखो, अकुतो भयं, अभयं, महब्भयं भवति
१ (२ बार), २, १४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ भवन्ति
५, ८, ९, १६ (२ बार), १८, २९ (२ बार), ३१, ३८ (२ बार), ३९, ४६ (२ बार), ४८, ५३ (२ बार), ५५,
६० (२ बार), ६१, ६२ भविस्सामि भूतानं -भूसाए
देखो, विभूसाए
१,४ ४९
मंसाए
५२ ४०.
मतिमं मत्ता -मत्ते -मन्तयं
देखो, पमत्ते देखो, चित्तमन्तयं ४९ देखो, जाति-मरण-मोयनाए
-मरणमहब्भयं महावीधिं -मानन
देखो, परिवन्दन-मानन-पूजनाए
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
के. आर. चन्द्र
--मायं
मारे -मिज्जाए मिलाति मुच्छति मुच्छमाने
[ १८८] देखो, अमायं १४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ देखो, अट्ठिमिज्जाए ४५ (२ बार) ४१
४१
मुनी
९, १८, ३१, ४८, ५५, ६१, ६२, १ (२ बार), २
मे (मम) मे (मया) मे(माम्) मेधावी
-मोयनाए
५२ (३ बार) १७, ३०, ३३, ४७, ५४, ६१, ६२ १२, २३, ३४, ४२, ५०, ५७ देखो, जाति-मरण-मोयनाए । १४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ . ३७, ४९, ६० ४, ४१ देखो, उवरते
मोहे
६२
यावि (य+अवि) -रते रमन्ति रसया -रूवाओ -रूवाणि
४९ देखो, अनेकरूवाओ
४१
-रूवे
देखो, अनेकरूवे, विरूवरूवे
रूवेसु
-रूवेहि
देखो, विरूवरूवेहि
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१८९] शब्द-रूप-अनुक्रमणिका. लज्जमाना
१२, २३, ३४, ४२, ५०, ५७ -लेहित्ता
देखो, पडिलेहित्ता -लोक
देखो, दीहलोकसत्थस्स लोकं
२२ (४ बार), ३२ लोकंसि
५, ८, ९ लोकावादी लोके(लोकः) लोके(लोके) १०, १४, २५, ३६, ४१, ४४, ५२, ५९ व(=वि)ऽनेकरूवे १४, २३, २५, ३४, ३६, ४२, ४४, ५०, ५२, ५७, ५९ वङ्कसमायारे -वथिते
देखो, पव्वथिते वदन्ति
६२ -वदमाना
देखो, पवदमाना वधेन्ति
५२ (८ बार) वनस्सतिकम्मसमारम्भेण ४२, ४४ वनस्सतिसत्थं ४२, ४३ (३ बार), ४४, ४७ (३ बार) वनस्सतिसत्थसमारम्भा ४८ वसाए वसुमं
६२ देखो, आवसे १ (९ बार), २ (११ बार), ६ (२ बार), १३ (२ बार), १४, २४ (२ बार), २५, ३५ (२ बार), ३६, ४३ (२ बार), ४४, ५१ (२ बार), ५२ (४ बार), ५८ (२ बार),
५२
--वसे
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आचाराङ्ग
[१९०]
के. आर. चन्द्र
५७, ५९ ५७, ५८, (३ बार), ५९, ६१ (३ बार)
वाउकम्मसमारम्भेण वाउसत्थं वाउसत्थसमारम्भा -वागरणेन
देखो, परवागरणेन
वाल -वादी
वि
देखो, आतावादी, कम्मावादी, किरियावादी, लोकावादी १९,२८,३० देखो, वऽनेकरूवे
२७
२० देखो, अविजानए देखो, अविजानतो ४० .
वि . विउदृन्ति विजहित्तु -विजानए -विजानतो विदित्ता विनयं विपरिणामधम्मयं विभूसाए वियक्खाता वियक्खाते विरूवरूवे विरूवरूवेहि
४५ (२ बार)
१९, ४१
१२, १४, २३, २५, ३४, ३६, ४२, ४४, ५०, ५२, ५७,
विसाणाए विसोत्तियं विहिसति
२०
१२, १४, २३, २५, ३४, ३६. ४२, ४४, ५०, ५२, ५७, ५९
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
[१९१]
शब्द-रूप-अनुक्रमणिका
५६ देखो, महावीधिं २१
वीजितुं विधिं वीरा वीरेहि -वुच्चति वुड्दिधम्मयं -वेदितं -वेदिता -संवेदयति संसारे संसेदया सङ्गं सङ्घातं सञ्चरति सञ्जतेहि -सत्ता सत्तानं
देखो, पवुच्चति ४५ (२ बार) देखो, पवेदितं देखो, पवेदिता देखो, पडिसंवेदयति
३७ (२ बार), ६० (२ बार) देखो, अनुसञ्चरति ३३
देखो, आरम्भसत्ता
-सत्थ
सत्थं
देखो, उदकसत्थसमारम्भा, छज्जीवनिकायसत्थसमारम्भा, तसकायसत्थसमारम्भा, वनस्सतिसत्थसमारम्भा, वाउसत्थसमारम्भा १६ (२ बार), २६ ( २ बार), २९ (२ बार), ३८ (२ बार), ४६ (२ बार), ५३ (२ बार), ६० (२ बार) देखो, अगनिसत्थं उदकसत्थं, छज्जीवनिकायसत्थं, तसकायसत्थं, पुढविसत्थं, वनस्सतिसत्थं, वाउसत्थं
-सत्थं
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________________
सत्थस्स सत्थेहि
[१९२]
के. आर. चन्द्र देखो, असत्थस्स, दीहलोकसत्थस्स १२, १४, २३, २५, २७, ३४, ३६, ४२, ४४, ५०, ५२,
३३ (२ बार)
सदा सद्दानि
सद्देस
११, २६, ३७ (२ बार), ४९, ६० .
सद्धाए सन्ति सन्तिगता सन्तिमे (सन्ति+इमे) सन्धेति
सन्ना
१३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८ १७, ३०, ४७, ५४, ६१, ६२
समनुजानति समनुजानेज्जा समनुन्ने -समन्नागतसमायारे समारम्भति समारम्भन्ते
समारम्भमाणस्स
देखो, सव्वसमन्नागतपन्नाणेन देखो, वङ्कसमायारे १३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८ १३, १७, २४, ३०, ४७, ५४, ५८, ६१, ६२ १६, २९, ३८, ४६, ५३, ६० देखो, असमारम्भमाणस्स १२, १४, २३, २५, ३४, ३५, ३६, ४२, ४३, ४४, ५०, ५१, ५२, ५७, ५९ देखो, अगनिकम्मसमारम्भा, उदकसत्थसमारम्भा,
-समारम्भमाणस्स समारम्भमाणे
-समारम्भा
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_प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१९३] शब्द-रूप-अनुक्रमणिका
कम्मसमारम्भा, छज्जीवनिकायसत्थसमारम्भा, तसकायसत्थसमारम्भा, पुढविकम्मसमारम्भा, वनस्सति
सत्थसमारम्भा, वाउसत्थसमारम्भा समारम्भावेज्जा १७, ३०, ४७, ५४, ६१, ६२ समारम्भावेति १३, २४, ३५, ४३, ५१, ५८ समारम्भेज्जा १७, ३०, ४७, ५४, ६१, ६२, -समारम्भेण देखो, अगनिकम्मसमारम्भेण, उदककम्मसमारम्भेण,
तसकायकम्मसमारम्भेण, तसकायसमारम्भेण, पुढविकम्म
समारम्भेण, वनस्सतिकम्मसमारम्भेण, वाउकम्मसमारम्भेण समुट्ठाय
१४, २५, ३०, ४०, ४४, ५२, ५९ -समेच्चा
देखो, अभिसमेच्चा सम्पतन्ति
३७, ६० सम्पमारए
१५ सम्पातिमा
३७, ६० सम्बुज्झमाने १४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ -सम्बोधे
देखो, दुस्सम्बोधे सम्मुच्छिमा ४९ -सम्मुतिया देखो, सहसम्मुतिया सयं
१३, १७, २२, २४, ३०, ३२, ३५, ४३, ४७, ५१, ५४,
५८, ६१, ६२ सव्वसमन्नागतपन्नाणेन ६२ सव्वाओ
२ (२ बार), ६ (२ बार) सव्वावन्ति
५, ८ सव्वेसिं
४९ (४ बार)
Page #228
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________________
आचाराङ्ग
[१९४]
के. आर. चन्द्र
Yu
देखो, असातं देखो, असासतं
सहसम्मुतिया सहेति -सातं --सासतं सिङ्गाए -सिता सीसं सुणमाने सुणेति
५२
देखो, पुढो-सिता १५ (२ बार)
ano ao
सुतं
ar
n
से (से ज्ज) से(से तं) से(तस्य)
से(से बेमि)
से(स:)
१४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ १३ (२ बार), २४ (२ बार), ३५ (२ बार), ४३ (२ बार), ५१ (२ बार), ५८ (२ बार) (सोऽहम् ब्रवीमि अथवा तद् ब्रवीमि) १५, १९, २२, ३२, ३७ ३, ९, १३, १८, २२ (२ बार), २४, ३१, ३२ (४ बार), ३३, ३५, ३९, ४१, ४३, ४८, ५१, ५५, ५६ (२ बार), ५८, ६१, ६२ (२ बार) २, १४, २५, ३६, ४४, ५२, ५९ देखो, संसेदया ५२ देखो, विसोत्तियं २, ४ (२ बार)
सोच्चा --सेदया
सोणिताए
-सोत्तियं हं(ऽहं)
Page #229
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________________
प्रथम अध्ययन का पुन: सम्पादन
[१९५]
शब्द-रूप-अनुक्रमणिका
१५ (२ बार) १५ (२ बार) देखो, विहिंसति
५२
हत्थं हनुं -हिंसति हिंसन्ति हिंसिंसु हिंसिस्सन्ति -हितं -हिताए हिदयं हिदयाए
देखो, अहितं देखो, अहिताए १५ (२ बार)
९, १८, ३१, ३३, ३९, ४८, ५५, ६१, ६२ देखो, दुक्खपडिघातहेतुं १५ (२ बार)
Page #230
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Page #231
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-
-
..
विभाग - ६
विभिन्न संस्करणों के पाठों की तुलना
प्रथम पंक्ति में आचाराङ्ग के इस नव-सम्पादित संस्करण का पाठ दिया गया है और उसके नीचे अन्य संस्करणों के पाठ हैं ।
[इससे स्पष्ट होता है कि समय के प्रवाह के साथ और स्थलान्तर से मूल पाठ में कितना भाषिक परिवर्तन हो सकता है । इसी तथ्य की पुष्टि मेरी पुस्तक 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी' के अध्ययन नं. १५ (मूल अर्धमागधी भाषा के यथास्थापन में विशेषावश्यकभाष्य की जेसलमेरीय ताड़पत्र की प्रति में भाषिक दृष्टि से उपलब्ध प्राचीन पाठों द्वारा एक दिशा सूचन) में हो रही है ।]
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पंक्ति संस्करण.का नाम - प्रकाशन वर्ष संकेत १. नव-सम्पादित संस्करण, 1997 A.D. प्रा. २. वाल्थेर शुब्रिग, 1910 A.D. शु. ३. आगमोदय समिति, 1916 A.D. आ. ४. जैविभा. वि.सं. 2031/1974 A.D. जै. ५. 'मजैवि.
1977 A.D. म. [इससे स्पष्ट होता है कि समय के प्रवाह के साथ और स्थलान्तर से मूल पाठ में कितना भाषिक परिवर्तन हो सकता है। इसी तथ्य की पुष्टि मेरी पुस्तक 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी', १९९५ A.D. के अध्ययन नं. १५ (मूल अर्धमागधी के यथास्थापन में विशेषावश्यक-भाष्य की जेसलमेरीय ताड़पत्र की प्रति में भाषिक दृष्टि से उपलब्ध प्राचीन पाठों द्वारा एक दिशा-सूचन) और 'Editing of Ancient Ardhamāgadhi Texts in View of the Text of Visesavasyaka-Bhasya, (published in the 'NIRGRANTHA' Vol. 1, pp. 1-10, S.C.E.R. Centre, Shahibag, Ahmedabad, 1995 A.D.) में हो रही है ।] -
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.
.
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [१९९] संस्करणों के पाठों की तुलना
पढमे उद्देसगे प्रा. १. सुतं मे आउसन्ते ! णं भगवता एवमक्खातं- इधमेकेसिं शु. सुयं मे, आउसं, तेणं भगवया एवमक्खायं : इहमेगेसिं आ. सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं- इहमेगेसिं जै. १. सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं- इहमेगेसिं म. १. सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं- इहमेगेसिं प्रा. नो सन्ना भवति, तं अधा- पुरत्थिमातो वा दिसातो शु. नो सन्ना भवइ, तं जहा : 'पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आ. णो सण्णा भवइ(१) तं जहा- पुरत्थिमाओ वा दिसाओ जै. नो सण्णा भवइ, तं जहा- पुरत्थिमाओ वा दिसाओ म. णो सण्णा भवति । तं जहा- पुरत्थिमातो वा दिसातो प्रा. आगतो अहमंसि, दक्खिणातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, शु. आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, आ. आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, जै. आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, म. आगतो अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगतो अहमंसि, प्रा. पच्चत्थिमातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, उत्तरातो वा शु. पच्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा आ. पच्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा जै. पच्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा म. पच्चत्थिमातो वा दिसातो आगतो अहमंसि, उत्तरातो वा
Page #234
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आचाराङ्ग [२००]
के. आर. चन्द्र प्रा. दिसातो आगतो अहमंसि, उड्डातो वा दिसातो आगतो शु. दिसाओ आगओ अहमंसि, उड्डाओ वा दिसाओ आगओ आ. दिसाओ आगओ अहमंसि, उड्डाओ वा दिसाओ आगओ जै. दिसाओ आगओ अहमंसि, उड्डाओ वा दिसाओ आगओ म. दिसातो आगतो अहमंसि, उड्डातो वा दिसातो आगतो प्रा. अहमंसि, अधेदिसातो वा - आगतो अहमंसि, अन्नतरीतो शु. अहमंसि, अहेदिसाओ वा - आगओ अहमंसि, अन्नयरीओ आ. अहमंसि, अहोदिसाओ वा - आगओ अहमंसि, अण्णयरीओ जै. अहमंसि, 'अहेवा दिसाओ' आगओ अहमंसि, 'अण्णयरीओ म. अहमंसि, अधेदिसातो वा - आगतो अहमंसि, अन्नतरीतो
प्रा. - दिसातो वा - - अनुदिसातो वा आगतो शु. वा दिसाओ वा - - अणुदिसाओ वा आगओ आ. वा दिसाओ - -
अणुदिसाओ वा आगओ जै. वा दिसाओ - आगओ अहमंसि अणुदिसाओ वा' आगओ म. - दिसातो वा - - अणुदिसातो वा आगतो
- सन
प्रा. अहमंसि । शु. अहमंसि'- आ. अहमंसि, जै. अहमंसि, म. अहमंसि,
एवमेकेसि एवमेगेसि
एवमेगेसि २. एवमेगेसिं
एवमेगेसिं
नो नो णो णो
नातं भवतिनायं भवइ : णायं । भवति (२) णातं भवतिणातं भवति ।
Page #235
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२०१] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. अत्थि मे आता ओववादिए , नत्थि मे आता ओववादिए ? शु. 'अत्थि मे आया उववाइए , नत्थ मे आया उववाइए ? आ. अत्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उववाइए , जै. अस्थि मे आया ओववाइए , णत्थि मे आया ओववाइए , म. अत्थि मे आया उबवाइए , णत्थि मे आया उववाइए , प्रा. के अहं आसी, के वा इतो चुते इध पेच्चा शु. के अहं आसी के वा इओ चुओ इह पेच्चा आ. के अहं आसी ? के वा इओ चुए इह पेच्चा जै. के अहं आसी ? के वा इओ चुओ इह पेच्चा म. के अहं आसी, के वा इओ चुते - पेच्चा
|
प्रा. भविस्सामि ? २. से ज्जं पुन जानेज्जा सहसम्मुतिया शु. भविस्सामि ?' से ज्जं पुण जाणेज्जा सहसम्मुइयाए आ. भविस्सामि ? (३) से जं पुण जाणेज्जा सह संमइयाए जै. भविस्सामि ? ३. सेज्जं पुण जाणेज्जा- सहसम्मुइयाए , म. भविस्सामि । २. से ज्जं पुण जाणेज्जा सहसम्मुइयाए
al.
प्रा. परवागरणेन अन्नेसि वा शु. परवागरणेणं अन्नेसि वा आ. परवागरणेणं अण्णेसिं - जै. परवागरणेणं अण्णेसिं वा म. परवागरणेणं अण्णेसिं वा
अन्तिए - सोच्चा, तं अन्तिए - सोच्चा, तं अंतिए वा सोच्चा तं अंतिए - सोच्चा अंतिए - सोच्चा, तं
al.
al.
2.
Page #236
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________________
आचाराङ्ग [ २०२]
के. आर. चन्द्र प्रा. अधा- पुरत्थिमातो वा दिसातो आगतो अहमंसि एवं शु. जहा : 'पुरथिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि जाव आ. जहा- पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि जाव जै. जहा- पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, - म. जहा- पुरत्थिमातो वा दिसातो आगतो अहमंसि एवं
|
| छ
।
प्रा. दक्खिणातो वा
पच्चत्थिमातो वा शु. -
- - आ. - जै. दक्खिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पच्चत्थिमाओ वा म. दक्खिणाओ वा. - - - पच्चत्थिमाओ वा
प्रा. -
उत्तरातो वा शु. - आ. - जै. दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ म. - - - उत्तराओ वा - -
# |
प्रा. - उड्ढातो वा - - - अधे वा
- - - - आ. - - - - - - - - जै. अहमंसि, उड्डाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अहे वा म. - उड्ढाओ वा - - अहाओ वा
Page #237
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [ २०३ ]
प्रा.
अन्नतरीतो
शु.
अन्नयरीओ
आ.
अण्णयरीओ
जै. दिसाओ आगओ अहमंसि अण्णयरीओ
अन्नतरीओ
म.
म.
-
--
प्रा.
शु.
आ.
जै. अहमंसि,
म.
-
1
-
-
वा
1
प्रा.
एवमेकेसिं
नातं
भवति —
शु.
एवमेगेसिं नायं
भवइ :
आ. एवमेगेसिं जं णायं भवति
जै. ४. एवमेगेसिं जं णातं
एवमेगेसिं
णातं
अनु वा दिसातो
अणुदिसाओ
अणुदिसाओ
455
-
अणुदिसाओ
अणुदिसाओ
---
-
प्रा. ओववादिए जे
शु. उववाइए; जो आ. उववाइए, जो इमाओ
जै. ओववाइए । जो इमाओ
I
म. उववाइए
जो
इमाओ
भवइ
भवति ।
इमाओ दिसाओ
इमाओ दिसाओ
(दिसाओ)
'दिसाओ
दिसाओ
संस्करणों के पाठों की तुलना
दिसातो
दिसाओ
दिसाओ
दिसाओ आगओ
दिसाओ
वा
वा
वा
वा
-
वा
वा
वा
वा
अस्थि
'अत्थि
अत्थि
मे
अस्थि मे
अत्थि
-
-
आगतो अहमंसि ।
आगओ अहमसि'
आगओ अहमंसि
आगओ अहमंसि
आगतो अहमंसि,
वा
मे
--
वा अनुदिसाओ वा
अणुदिसाओ वा
अणुदिसाओ वा
अणुदिसाओ वा'
अणुदिसाओ वा
आता
आया
आया
आया
मे आया
Page #238
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________________
आचाराङ्ग [ २०४]
के. आर. चन्द्र प्रा. अनुसञ्चरति सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अनुदिसाओ - शु. अणुसंचरइ , सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ - आ. अणुसंचरइ , सव्वाओ दिसाओ - अणुदिसाओ, - जै. अणुसंचरइ , सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ 'जो म. अणुसंचरति सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ - प्रा. - -
सेऽहं। ३. से आतावादी लोकावादी सो'हं। से आया-वाई लोगा-वाई
सोऽहं(४) से आयावादी लोयावादी जै. आगओ अणुसंचरइ', सोहं ॥ ५. से आयावाई, लोगावाई, म. - - सो हं। ३. से आयावादी लोगावादी
E |
४.
-। य।
प्रा. कम्मावादी किरियावादी शु. कम्मा-वाई किरिया-वाई आ. कम्मावादी किरियावादी (५) जै. कम्मावाई, किरियावाई म. कम्मावादी किरियावादी
अकरिस्सं 'करिस्सं अकरिस्सं अकरिस्सं अकरिस्सं
प्रा. चऽहं, काराविसं चऽहं, करओ यावि समनुन्ने भविस्सामि । शु. च'हं कारावेस्सं च'हं करओ यावि समणुने भविस्सामि'आ. चऽहं, कारवेसुं चऽहं, करओ आवि ‘समणुन्ने भविस्सामि (६) जै. चहं, कारवेसुं चहं, करओ यावि समणुण्णे भविस्सामि ॥ म. च हं, काराविस्सं च हं, करओ यावि समणुण्णे भविस्सामि ।
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [ २०५] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. ५. एतावन्ति सव्वावन्ति लोकंसि कम्मसमारम्भा परिजानितव्वा शु. एयावन्ती सव्वावन्ती लोगसि कम्म-समारम्भा परिजाणियव्वा
एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा जै. ७. एयावंति सव्वावंति लोगसि कम्म-समारंभा परिजाणियव्वा म. ५. एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणितव्वा
|
अपारना
प्रा. भवन्ति । शु. भवन्ति । आ. भवंति(७) जै. भवंति ॥ म. भवंति ।
६. अपरिन्नातकम्मे खलु अयं पुरिसे जे
अपरिनाय-कम्मे खलु अयं पुरिसे, जो
अपरिण्णायकम्मा खलु अयं पुरिसे जो ८. अपरिण्णाय-कम्मे खलु अयं पुरिसे, जो ६. अपरिण्णायकम्मे खलु अयं पुरिसे जो
प्रा. इमाओ दिसाओ वा अनुदिसाओ वा अनुसञ्चरति, सव्वाओ शु. इमाओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ आ. इमाओ दिसाओ - अणुदिसाओ - अणुसंचरइ, सव्वाओ जै. इमाओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ म. इमाओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा अणुसंचरति, सव्वाओ प्रा. दिसाओ सव्वाओ अनुदिसाओ सहेति, अनेकरूवाओ जोनीओ शु. दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ सहेइ, अणेग-रूवाओ जोणीओ आ. दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ साहेति(८) अणेगरूवाओ जोणीओ जै. दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ सहेति, अणेगरूवाओ जोणीओ म. दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ सहेति, अणेगरूवाओ जोणीओ
Page #240
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________________
के. आर. चन्द्र
७. तत्थ
तत्थ
आचाराङ्ग
[२०६] प्रा. सन्धेति, विरूवरूवे फासे -- शु. सन्धेइ, विरूव-रूवे फासे - आ. संधेइ, विरूवरूवे फासे - जै. संधेइ, विरूवरूवे फासे य म. संधेति, विरूवरूवे फासे -
पडिसंवेदयति । पडिसंवेएइ । पडिसंवेदेइ(९) पडिसंवेदेइ ॥ पडिसंवेदयति ।
तत्थ
९. तत्थ ७. तत्थ
प्रा. खलु भगवता परिन्ना पवेदिता
इमस्स चेव शु. खलु भगवया परिन्ना पवेइया इमस्स चे'व आ. खलु भगवता परिण्णा पवेइआ(१०) इमस्स चेव जै. खलु भगवया परिण्णा पवेइया ॥ १०. इमस्स चेव म. खलु भगवता परिण्णा पवेदिता । इमस्स चेव
प्रा. जीवितस्स परिवन्दन-मानन-पूजनाए जाति-मरण-मोयनाए शु. जीवियस्स परिवन्दण - माणण-पूयणाए , जाइ-मरण-मोयणाए आ. जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाई-मरण-मोयणाए जै. जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए , जाई-मरण-मोयणाए म. जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए जाती-मरण-मोयणाए प्रा. दुक्खपडिघातहेतुं- ८. एतावन्ति सव्वावन्ति लोकंसि शु. दुक्ख-पडिघाय-हेडं - एयावन्ती सव्वावन्ती लोगंसि आ. दुक्खपडिघायहेउं (११) एयावंति सव्वावंति लोगंसि जै. दुक्खपडिघायहेउं ॥ ११. एयावंति सव्वावंति लोगंसि म. दुक्खपडिघातहेतुं । ८. एतावंति सव्वावंति लोगंसि
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२०७] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. कम्मसमारम्भा परिजानितव्वा भवन्ति । ९. जस्सेते लोकंसि शु. कम्म-समारम्भा परिजाणियव्वा भवन्ति । जस्से'ए लोगंसि आ. कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति (१२) जस्सेते लोगंसि जै. कम्म-समारंभा परिजाणियव्वा भवंति ॥ १२. जस्सेते लोगंसि म. कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति । ९. जस्सेते लोगंसि
प्रा. कम्मसमारम्भा परिन्नाता भवन्ति से हु मुनी परिन्नातकम्मे शु. कम्म-समारम्भा परिन्नाया भवन्ति, से हु मुणी परिनाय-कम्मेआ. कम्मसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे(१३) जै. कम्म-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुणी परिण्णाय-कम्मे ॥ म. कम्मसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे प्रा. त्ति बेमि । शु. त्ति बेमि । आ. त्ति बेमि । जै. त्ति बेमि । म. त्ति बेमि ।
बितीये उद्देसगे प्रा. १०. अट्टे लोके परिजुण्णे दुस्सम्बोधे अविजानए। अस्सि शु. अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए। अस्सि आ. अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए अस्सि जै. १३. अट्टे लोए परिजुण्णे, दुस्संबोहे अविजाणए ॥ १४. अस्सि म. १०. अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोधे अविजाणए। अस्सि
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आचाराङ्ग [२०८]
के. आर. चन्द्र प्रा. लोके पव्वथिते तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितावेन्ति । शु. लोए पव्वहिए तत्थ-तत्थ पुढो पास आउरा परियोवेन्ति । आ. लोए पव्वहिए तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितावेंति (१४) जै. लोए पव्वहिए ॥ १५. तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा परितावेंति ॥ म. लोए पव्वहिए तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परिताउति ।
प्रा. ११. सन्ति पाणा पुढो-सिता। १२. लज्जमाना पुढो पास । शु. सन्ति पाणा पुढो-सिया। लज्जमाणा पुढो पास । आ. संति पाणा पुढो सिया लज्जमाणा पुढो पास जै. १६. संति पाणा पुढो सिया ॥ १७. लज्जमाणा. पुढो पास ॥ म. ११. संति पाणा पुढो सिता। १२. लज्जमाणा पुढो पास । प्रा. 'अनगारा मो' त्ति एके पवदमाना जमिणं विरूवरूवेहि शु. 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा। जमिणं विरूव-रूवेहिं आ अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहि जै.१८. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहि म. 'अणगारा मो'त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहि
-
|
ल
प्रा. सत्थेहि पुढविकम्मसमारम्भेण शु. सत्थेहिं पुढवि-कम्मसमारम्भेणं आ. सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं जै. सत्थेहिं पुढवि-कम्म-समारंभेणं म. सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं
पुढविसत्थं समारम्भमाणे पुढवि-सत्थं समारभमाणे पुढविसत्थं समारंभेमाणा पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे पुढविसत्थं समारंभमाणो
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२०९] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. - अनेकस्वे पाणे विहिंसति। १३. तत्थ खलु भगवता शु. अन्ने व'णेग-रूवे पाणे विहिंसइ- तत्थ खलु भगवया आ. - अणेगरूवे पाणे विहिंसइ(१५) तत्थ खलु भगवया जै. अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति ॥ २०. तत्थ खलु भगवया म. - अणेगरूवे पाणे विहिंसति। १३. तत्थ खलु भगवता
इमस्स इमस्स
चेव चेव .
इमस्स
प्रा. परिन्ना पवेदिता शु. परिन्ना पवेइया आ. परिण्णा पवेइया, जै. परिण्णा पवेइया ॥ म. परिण्णा पवेदिता -
इमस्स
जीवितस्स जीवियस्स जीवियस्स जीवियस्स जीवियस्स
२१.
इमस्स
इमस्स
चेव
प्रा. परिवन्दन-मानन-पूजनाए शु. परिवन्दण-माणण-पूयणाए आ. परिवंदणमाणणपूयणाए जै. परिवंदण-माणण-पूयणाए, म. परिवंदण- माणण-पूयणाए
जाति-मरण-मोयनाए जाइ-मरण-मोयणाए जाइमरणमोयणाए जाई–मरण-मोयणाए, जाती-मरण-मोयणाए
प्रा. दुक्खपडिघातहेतुं- से सयमेव पुढविसत्थं समारम्भति, अन्नेहि शु. दुक्ख-पडिघाय-हेउं– से सयमेव पुढवि-सत्थं समारभइ अन्नेहिं आ. दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव पुढविसत्थं समारंभइ अण्णेहि जै. दुक्खपडिघायहेउं ।। २२. से सयमेव पुढवि-सत्थं समारंभइ, अण्णेहिं म. दुक्खपडिघातहेउं से सयमेव पुढविसत्थं समारंभति, अण्णेहि
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C
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आचाराङ्ग
[२१०]
के. आर. चन्द्र प्रा. वा पुढविसत्थं समारम्भावेति, अन्ने वा पुढविसत्थं समारम्भन्ते शु. वा पुढवि-सत्थं समारम्भावेइ अन्ने वा पुढवि-सत्थं समारभन्ते आ. वा पुढविसत्थं समारंभावेइ अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते जै. वा पुढवि-सत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा पुढवि-सत्थं समारंभंते म. वा पुढविसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते प्रा. समनुजानति। तं से अहिताए, तं से अबोधीए। शु. समणुजाणइ तं से अहियाए, तं से अबोहीए । आ. समणुजाणइ(१५) तं से अहिआए तं से अबोहीए जै. समणुजाणइ ॥ २३. तं से अहियाए, 'तं से अबोहीए । म. समणुजाणति । तं से अहिताए, तं से अबाहीए । प्रा. १४. से त्तं सम्बुज्झमाने आदानीयं समुट्ठाय सोच्चा शु. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं, समुट्ठाए- सोच्चा आ. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा जै. २४. से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए ॥ २५.सोच्चा म. १४. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोच्चा
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2.
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प्रा. - भगवतो अनगाराणं वा अन्तिए इधमेकेसिं नातं शु. खलु भगवओ अणगाराणं वा अन्तिए इहमेगेसिं नायं आ. खलु भगवओ अणगाराणं - - इहमेगेसिं णातं जै. खलु भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णातं म. - भगवतो अणगाराणं - - इहमेगेसिं णातं
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प्रथम अध्ययन का पुन: सम्पादन [२११] संस्करणों के पाठों की तुलन प्रा. भवति- एस खलु गन्थे, एस खलु चोहे, एस खलु मारे शु. भवइ : ए! खलु गन्थे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, आ. भवति- एस् खलु गंथे एस खलु मोरे एस खलु मारे जै. भवति– १ स खलु गंथे एस खलु मोहे, एस खलु मारे, म. भवति- एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, प्रा. एस खलु नरके। इच्चत्थं गढिते लोके। जमिणं शु. एस खलु नरए। इच्चत्थं गढिए लोए। जमिणं आ. एस खलु गरए इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं जै. एस खलु गरए । २६. इच्चत्थं गढिए लोए ॥ २७. जमिणं म. एस खलु निरए। इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं
| म
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प्रा. विरूवरूवेहि साथेहिं शु. विरूवरूवेहिं सत्यहि आ. विरूवरूवेहिं सत्थे जै. 'विरूवरूवेहिं सत्थेहि म. विरूवरूवेहिं सत्थेहि
पुढविकम्मसमारम्भेण पुडविसत्थं पुढवि-कम्मसमारम्भेणं पुढाव-सत्थं पुढविकम्मसमारंभेण पुढवि पत्थं पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं
प्रा. समारम्भमाणे अन्ने वऽनेकस्वे पाणे विहिंगते। १५. से शु. समारभमाणे अन्ने व'णेग-रूवे पाणे विहिंसइआ. समारंभमाणे अण्णे अगेगरूवे पाणे विहिंसइ, जै. समारंभेमाणे अण्णे वणे गरूवे पाणे विहिंसइ ॥ २८. म. समारभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति । १५. से
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आचाराङ्ग
[ २१२]
के. आर. चन्द्र प्रा. बेमि- अप्पेके अन्धमब्भे अप्पेके अन्धमच्छे, अप्पेके पादमब्भे शु. बेमि : अप्पेगे अच्चमब्भे अप्पेगे अच्चमच्छे; . अप्पेगे पायमब्भे आ. बेमि अप्पेगे अंधमब्भे अप्पेगे अंधमच्छे, अप्पेगे पायमन्भे जै. बेमि- अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे ॥ २९.अप्पेगे पायमब्भे, म. 'बेमि- अप्पेगे अंधमब्भे अप्पेगे अंधमच्छे, अप्पेगे पादमब्भे २,
प्रा. अप्पेके पादमच्छे, अप्पेके गुप्फमब्भे अप्पेके गुप्फमच्छे, शु. अप्पेगे पायमच्छे; - गुप्फं आ. अप्पेगे पायमच्छे अप्पेगे गुप्फमब्भे अप्पेगे गुप्फमच्छे जै. अप्पेगे पायमच्छे, अप्पेगे गुप्फमब्भे अप्पेगे गुप्फमच्छे, म. - - अप्पेगे गुप्फमब्भे २, - प्रा. अप्पेके जङ्घमब्भे अप्पेके जङ्घमच्छे अप्पेके शु. - जच - - - आ अप्पेगे जंघमब्भे२ - - अप्पेगे
अप्पेगे जंघमब्भे, अप्पेगे जंघमच्छे अप्पेगे अप्पेगे जंघमब्भे २, -
अप्पेगे
|
प्रा. जानुमब्भे शु. जाणुं आ. जाणुमब्भे २ जै. जाणुमब्भे, म. जाणुमब्भे २,
के - - अयेगे -
जानुमच्छे, अप्पेके . - - अप्पेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे
अप्पेगे
ऊरुमब्भे ऊरुं ऊरुमब्भे२ ऊरुमब्भे, ऊरुमब्भे २,
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२१३] संस्करणों के पाठों की तुलन प्रा. अप्पेके ऊरुमच्छे, अप्पेके कडिमब्भे अप्पेके कडिमच्छे, शु. - - - कडिं - - आ. - - अप्पेगे कडिमब्भे २ - - जै. अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पेगे कडिमब्भे, अप्पेगे कडिमच्छे, म. - - अप्पेगे कडिमब्भे २, - -
प्रा. अप्पेके नाभिमब्भे अप्पेके नाभिमच्छे, अप्पेके उदरमब्भे शु. - नाभिं - - - उयरं आ. अप्पेगे णाभिमब्भे २ - - अप्पेगे उदरभब्भे २ जै. अप्पेगे णाभिमब्भे, अप्पेगे णाभिमच्छे, अप्पेगे उयरमब्भे म. अप्पेगे णाभिमब्भे २, - - अप्पेगे उदरमब्भे २, प्रा. अप्पेके उदरमच्छे, अप्पेके पासमब्भे अप्पेके पासमच्छे, अप्पेके शु. - - - पासं - - - आ. - - अप्पेगे पासमब्भे २ - - अप्पेगे जै. अप्पेगे उयरमच्छे, अप्पेगे पासमब्भे, अप्पेगे पासमच्छे, अप्पेगे म. - - अप्पेगे पासमब्भे २,- - अप्पेगे प्रा. पिछिमब्भे अप्पेके पिट्ठिमिच्छे, अप्पेके उरमब्भे शु. पिटुिं - - - उरं आ. पिट्ठिमब्भे २ -
अप्पेगे उरमब्भे २ जै. पिट्ठमब्भे, · अप्पेगे पिट्ठमच्छे, अप्पेगे उरमब्भे म. पिट्ठिमब्भे २, -
अप्पेगे उरमब्भे २,
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आचाराङ्ग
[२१४]
के. आर. चन्द्र प्रा. अप्पेके उरमच्छे, अप्पेके हिदयमब्भे अप्पेके हिदयमच्छे,
__ - - - हिययं आ. - - अप्पेगे हिययमब्भे २ - - जै. अप्पेगे उरमच्छे, अप्पेगे हिययमब्भे अप्पेगे हिययमच्छे, म. - - अप्पेगे हिययमब्भे२, - -
प्रा. अप्पेके थनमब्भे अप्पेके थनमच्छे, अप्पेके खन्धमब्भे शु. - थणं - - - खन्धं आ. अप्पेगे थणमब्भे २ - - अप्पेगे खंधमब्भे२ जै. अप्पेगे थणमब्भे, अप्पेगे थणमच्छे, अप्पेगे खंधमब्भे, म. अप्पेगे थणमब्भे २, - - अप्पगे खंधमब्भे २, प्रा. अप्पेके खन्धमच्छे, अप्पेके बाहुमब्भे अप्पेके बाहुमच्छे, शु. - - - बाहुं - - आ. - - अप्पेगे बाहुमब्भे २ - जै. अप्पेगे खंधमच्छे, अप्पेगे बाहुमब्भे, अप्पेके बाहुमच्छे, म. - - अप्पेगे बाहुमब्भे २, - - प्रा. अप्पेके हत्थमब्भे. अप्पेके हत्थमच्छे, अप्पेके अङ्गलिमब्भे शु.
- अङ्गुलिं आ. अप्पेगे हत्थमब्भे२ - - अप्पेगे अंगुलिमब्भे२ जै अप्पेके हत्थमन्भे. अप्पेगे हत्थमच्छे, अप्पेगे अंगुलिमब्भे, म. अप्पेगे हत्थमन्भे २, - - अप्पेगे अंगुलिमब्भेर,
हत्थं
-
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२१५] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. अप्पेके अङ्गलिमच्छे, अप्पेके नहमब्भे अप्पेके नहमच्छे, अप्पेके शु. - - - नहं - - - आ. - - अप्पेगे णहमब्भे २ - - अप्पेगे जै. अप्पेगे अंगुलिमच्छे अप्पेगे णहमब्भे अप्पेगे णहमच्छे, अप्पेगे म. - - अप्पेगे णहमब्भे २,- - अणेगे
गीवमच्छे, -
प्रा. गीवमब्भे शु. गीवं
गीवमब्भे २ जै. गीवमब्भे,
गीवमब्भे २,
आ.
अप्पेके - - अप्पेगे -
अप्पेके हनुमब्भे - हणुं अप्पेगे हणुमब्भे२
अप्पेगे हणुयमब्भे, - अप्पेगे हणुमब्भे २,
गीवमच्छे,
म.
|
प्रा. अप्पेके हनुमच्छे, अप्पेके होटुमब्भे अप्पेके होमच्छे, शु. - - - होटुं - - आ. - - अप्पेगे। होठुमब्भे २ - - जै. अप्पेगे हनुमच्छे, अप्पेगे होट्ठमब्भे, अप्पेगे होठुमच्छे, म. - - अप्पेगे हो?मब्भे २, - प्रा. अप्पेके दन्तमब्भे. अप्पेके दन्तमच्छे, अप्पेके जिब्भमब्भे शु. - दन्तं -
- जिब्भं आ. - - अप्पेगे तमच्छे अप्पेगे जिब्भमब्भे २ जै. अप्पेगे दंतमब्भे अप्पेगे दतमच्छे, अप्पेगे जिब्भमब्भे, म. अप्पेगे दंतमब्भे२, -
अप्पेगे जिब्भमब्भे२,
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आचाराङ्ग [२१६]
के. आर. चन्द्र प्रा. अप्पेके जिब्भमच्छे, अप्पेके तालुमब्भे अप्पेके तालुमच्छे, शु. - - - तालुं - - आ. - - अप्पेगे तालुमब्भे २ - - जै. अप्पेगे जिब्भमच्छे, अप्पेगे तालुमब्भे, अप्पेगे तालुमच्छे,
अप्पेगे मालुमब्भे २, -
प्रा. अप्पेके गलमब्भे अप्पेके गलमच्छे, अप्पेके गण्डमब्भे शु. - गलं - - - गण्डं आ. अप्पेगे गलमब्भे २ - - अप्पेगे गंडमब्भे २ जै. अप्पेगे गलमब्भे, अप्पेगे गलमच्छे, अप्पेगे गंडमब्भे, म. अप्पेगे गलमब्भे २. - - अप्पेगे गंडमब्भे २,
प्रा. अप्पेके गण्डमच्छे, अप्पेके कण्णमब्भे अप्पेके कण्णमच्छे, शु. - -
लणं - - आ. - - अप्पेगे ण्णमब्भे२ - जै. अप्पेगे गंडमच्छे, अप्पेगेण्ण मब्भे अप्पेगे कण्णमच्छे, म. - - अप्पेगे - प्रणमब्भे २, - -
प्रा. अप्पेके नासमन्भे अप्पेके शु. - नासं आ. अप्पेगे णासमब्भे २ जै. अप्पेगे णासमब्भे, अप्पेगे म. अप्पेगे णासमब्भे २, -
समच्छे, अप्पेके अच्छिमब्भे
अच्छि ... अप्पेगे अच्छिमब्भे २ समच्छे, अप्पेगे अच्छिमन्भे,
अप्पेगे अच्छिमब्भे २,
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२१७] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. अप्पेके अच्छिमच्छे, अप्पेके भमुहमब्भे अप्पेके भमुहमच्छे,
__ - - - भमुहं - - आ. - - अप्पेगे भमुहमब्भे२ - - जै. अप्पेगे अच्छिमच्छे, अप्पेगे भमुहमब्भे, अप्पेगे भमुहमच्छे, म. - - अप्पेगे भमुहमब्भे २, - -
प्रा. अप्पेके निडालमन्भे अप्पेके निडालमच्छे, अप्पेके सीसमब्भे शु. - निलाडं - - - सीसं आ. अप्पेगे णिडालमब्भे २ - - अप्पेगे सीसमन्भे जै. अप्पेगे णिडालमब्भे, अप्पेगे णिडालमच्छे, अप्पेगे सीसमब्भे, म. अप्पेगे णिडालमब्भे २, -
अप्पेगे सीसमन्भे २,
अप्पेके अप्पेगे
प्रा. अप्पेके सीसमच्छे, शु. - -
- - जै. अप्पेगे सीसमच्छे ॥ म. - -
अप्पेके अप्पेगे
अप्पेगे ३०.अप्पेगे
अप्पेगे
सम्पमारए संपमारए संप (सा?) मारए संपमारए, संपमारए
अप्पेगे अप्पेगे अप्पेगे
प्रा. उद्दवए १६. एत्थ शु. उद्दवए एत्थ आ. उद्दवए इत्थं जै. उद्दवए ३१. एत्थ । म. उद्दवए । १६. एत्थं
सत्थं समारम्भमाणस्स इच्चेते आरम्भा सत्थं समारभमाणस्स इच्चेए आरंभा सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा
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आचाराङ्ग
प्रा. अपरिनाता भवन्ति । शु. अपरिन्नाया भवन्ति,
आ. अपरिण्णाता भवंति (१६)
जै. अपरिण्णाता भवंति ।
म. अपरिण्णाता भवंति ।
[ २१८ ]
एत्थ
एत्थ
एत्थ
३२. एत्थ
एत्थ
के. आर. चन्द्र
सत्थं असमारम्भमाणस्स इच्चेते सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेए
सत्थं असमारभमाणस्स
इच्चेते
सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते
सत्थं असमारभमाणस्स
इच्चेते
प्रा. आरम्भा परिन्नात्ता भवन्ति । १७.
शु. आरम्भा परिन्नाया भवन्ति ।
आ. आरंभा
परिणतभवंति ।
जै. आरंभा
परिण
म. आरंभा परिण
तं परित्राय
मेधावी नेव
तं
परिन्नाय
मेहावी ने'व
परिणाय मेहावी नेव
परिण्णाय मेहावी नेव
भवंति ॥ ३३. तं १७. तं परिणाय मेहावी णेव
भवंति ।
प्रा. सयं पुढविसत्थं
रम्भेज्जा, नेवऽन्नेहि पुढविसत्थं समारम्भावेज्जा, शु. सयं पुढवि - स ॥भेज्जा ने 'व' नेहिं पुढवि-सत्थं समारम्भावेज्जा आ. सयं पुढविसमारंभेज्जा णेवण्णेहिं पुढविसत्थं समारंभावेज्जा
जै सयं पुढविस समारंभेज्जा, म. सयं पुढविसत्थं समारभेज्जा,
नेवण्णेहिं पुढवि-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवऽणणेहिं पुढविसत्थं समारभावेज्जा,
प्रा. नेवऽन्ने पुढविसत्थं समारम्भन्ते समनुजानेज्जा । १८.
शु. ने' व'ने पुढवि-सत्थं समारभन्ते
समणुजाणेज्जा ।
आ. णेवण्णे पुढविसत्थं समारंभंते
समणुजाणेज्जा,
जै नेवणे पुढवि-सत्थं समारंभंते
समणुजाणेज्जा ॥ ३४.
म णेवऽण्णे पुढविसत्थं
समारभंते
समणुजाणेज्जा । १८.
।
जस्सेते
जस्से' ए
जस्से
जस्सेते
जस्सेते
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२१९] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. पुढविकम्मसमारम्भा परिन्नाता भवन्ति स हु मुनी शु. पुढवि-कम्म-समारम्भा परिन्नाया भवन्ति, से हु मुणी आ. पुंढविकम्मसमारंभा परिण्णाता भवंति से हु मुणी जै. पुढवि-कम्म-समारंभा परिण्णाता भवंति से म. पुढविकम्मसमारंभा परिण्णाता भवंति से हु मुणी
_chche
मुणी
।
प्रा. परिन्नातकम्मे त्ति बेमि । शु. परिनाय-कम्मे- त्ति बेमि । आ. परिण्णातकम्मेत्ति बेमि (१७) जै. परिण्णात-कम्मे ।-त्ति बेमि । म. परिण्णायकम्मे त्ति बेमि ।
ततीये उद्देसगे प्रा. १९. से बेमि- से अधा वि अनगारे उज्जुकडे नियागपडिवन्ने शु. से बेमि : से जहा वि अणगारे उज्जुकडे नियाग-पडिवन्ने
से बेमि - जहा - अणगारे उज्जुकडे नियायपडिवण्णे जै. ३५. से बेमि- से जहावि – अणगारे उज्जुकडे, णियागपडिवण्णे, म. १९. से बेमि- से जहा वि अणगारे उज्जुकडे णियागपडिवण्णे प्रा. अमायं कुव्वमाणे वियक्खाते । २०. जाए सद्धाए निक्खन्तो शु. अमायं कुव्वमाणे वियाहिए । जाए सद्धाए निक्खन्तो, आ. अमायं कुव्वमाणे वियाहिए(१८) जाए सद्धाए निक्खंतो जै. अमायं कुव्वमाणे वियाहिए ॥ ३६. जाए सद्धाए णिक्खंतो, म. अमायं कुव्वमाणे वियाहिते । २०. जाए सद्धाए णिक्खंतो
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________________
आचाराङ्ग
[ २२०]
के. आर. चन्द्र
प्रा. तमेव अनुपालिया विजहित्तु विसोत्तियं । २१. पणता वीरा शु. तमेव अणुपालिया; वियहित्तु विसोत्तियं पणया वीरा आ. तमेव अणुपालिज्जा, वियहित्ता विसोत्तिय(१९) पणया वीरा जै. तमेव अणुपालिया 'विजहित्तु विसोत्तियं' ॥ ३७. पणया वीरा म. तमेव अणुपालिया विजहित्ता विसोत्तियं । २१. पणया वीरा
| 5
प्रा. महावीधिं । २२. लोकं शु. महा-वीहिं
लोगं आ. महावीहिं (२०) लोगं जै. महावीहिं । ३८. लोगं म. महावीहिं । २२. लोगं
च च च च च
आणाए अभिसमेच्चा आणाए अभिसमेच्चा आणाए अभिसमेच्चा आणाए अभिसमेच्चा आणाए अभिसमेच्चा
प्रा. अकुतोभयं । से बेमि- नेव सयं लोकं अब्भाइक्खेज्जा, शु. अकुओभयं । से बेमि : ने'व सयं लोगं अब्भाइक्ज्ज्जा , आ. अकुओभयं(२१) से बेमि णेव सयं लोगं अब्भाइक्खिज्जा जै. अकुतोभयं ॥ ३९. से बेमि- णेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, म. अकुतोभयं । से बेमि– णेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा,
|
अब्भाइक्खति अब्भाइक्खइ,
प्रा. नेव अत्तानं अब्भाइक्खेज्जा। जे लोकं शु. ने'व अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा। जे लोगं आ. णेव अत्ताणं अब्भाइक्खिज्जा, जे लोयं जै. णेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा । जे लोयं म. णेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा । जे लोगं
अब्भाइक्खइ
15
अब्भाइक्खइ, अब्भाइक्खति
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [ २२१]
संस्करणों के पाठों की तुलना
प्रा. से अत्तानं अब्भाइक्खति, जे अत्तानं अब्भाइक्खति से लोकं शु. से अत्ताणं अब्भाइक्खइ; जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोगं
से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोयं जै. से अत्ताणं अब्भाइक्खइ । जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोयं म. से अत्ताणं अब्भाइक्खति, जे अत्ताणं अब्भाइक्खति से लोगं
|
प्रा. अब्भाइक्खति । २३. लज्जमाना पुढो पास । 'अनगारा मो' शु. अब्भाइक्खइ । लज्जमाणा पुढो पास । “अणगारा मो" आ. अब्भाइक्खइ (२२) लज्जमाणा पुढो पास- अणगारा मो जै. अब्भाइक्खइ ।। ४०. लज्जमाणा पुढो पास ॥ अणगारा मोत्ति म. अब्भाइक्खति । २३. लज्जमाणा पुढो पास । 'अणगारा मो'
प्रा. त्ति एके पवदमाना, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि शु. त्ति एगे पवयमाणा । जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं आ. त्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं जै. - एगे पवयमाणा ॥ ४२. जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं म. त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं
।
प्रा. उदककम्मसमारम्भेण उदकसत्थं समारम्भमाणे अन्ने वऽनेकरूचे शु. उदयकम्मसमारम्भेणं उदयसत्थं समारम्भमाणे · अन्ने व'णेगरूवे आ. उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे - अणेगरूवे जै. उदय-कम्म-समारंभेणं उदय-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे म. उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे
Page #256
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________________
आचाराङ्ग
[ २२२]
के
आर. चन्द्र
प्रा. पाणे विहिंसति । २४. तत्थ शु. पाणे विहिंसइ- तत्थ आ. पाणे विहिंसइ । तत्थ जै. पाणे विहिंसति ॥ ४३. तत्थ म. पाणे विहिंसति । २४. तत्थ
सलु। भगवता परिना खलु भगवया रिता खलु भगवता परेिगा खलु भगवया परिणा खलु भगवता परिष्णा
# | F
प्रा. पवेदिता- इमस्स चेव जीवितस्स परिवन्दन-मानन-पूजनाए शु. पवेइया इमस्स चे'व जीवियस्स परिवन्दण-माणण-पूयणाए आ. पवेदिता । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जै. पवेदिता ॥ ४४. इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए म. पवेदिता - इमस्स चेव जीवितस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए
प्रा. जाति-मरण-मोयनाए दुक्खपडिघातहेतुंशु. जाइ-मरण-मोयणाए दुक्ख-पडिघाय-हेउंआ. जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं जै. जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं ॥ म. जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतुं
से
से ४५. से
से से
सयमेव सयमेव सयमेव सयमेव सयमेव
E |
F
उदकसत्थं उदयसत्थं
शु.
. वा
ल
उदकसत्थं समारम्भति, उदयसत्थं समारम्भइ उदयसत्थं समारभति उदय-सत्थं समारंभति, उदय-सत्थं समारभति,
अन्नेहि अन्नेहिं अण्णेहिं अण्णेहिं अण्णेहिं
उदयसत्थं
ल
उदय-सत्थं
वा वा
उदयसत्थं
#
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [ २२३]
संस्करणा - पाठों की तुलना
प्रा. समारम्भावेति, अन्ने वा उदकसत्थं समारम्भन्ते समनुजानति । शु. समारम्भावेइ अन्ने वा उदयसत्थं समारभन्ते समणुजाणइ; आ. समारंभावेति अण्णे - उदयसत्थं समारंभंते समणुजाणति । जै. समारंभावेति, अण्णे वा उदय-सत्थं समारंभंते समणुजाणति ।। म. समारभावेति, अण्णे वा उदयसत्थं समारभंते समणुजाणति । प्रा. तं से अहिताए, तं से अबोधीए । २५. से तं शु. तं से अहियाए, तं से अबोहीए। से तं आ. तं से अहियाए तं से अबोहीए। से तं जै.४६. तं से अहियाए, तं से अबोहीए ॥ ४७. से तं म. तं से अहिताए तं से अबोधीए । २५. से तं
al..
प्रा. सम्बुज्झमाने आदानीयं समुट्ठाय, सोच्चा - भगवतो शु. संबुज्झमाणे आयाणीयं, समुट्ठाए- सोच्चा खलु भगवओ आ. संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा - भगवओ जै. संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए ॥ ४८. सोच्चा खलु भगवओ म. संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोच्चा - भगवतो प्रा. अनगाराणं वा अन्तिए इधमेकेसिं नातं भवति- एस खलु शु. अणगाराणं वा अन्तिए इहमेगेसिं नायं भवइ : एस खलु आ. अणगाराणं - अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति- एस खलु जै. अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति- एस खलु म. अणगाराणं - - इहमेगेसिं णातं भवति- एस खलु
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________________
आचाराङ्ग
प्रा. गन्थे, एस खलु मोहे, शु. गन्थे, एस खलु मोहे,
आ. गंथे
एस खलु मोहे
जै. गंथे, एस सलु मोहे,
म. गंथे, एस खलु
मोहे,
इच्चत्थं गढिते लोके ।
इच्चत्थं गढिए लोए ।
प्रा.
शु.
आ.
इच्चत्थं गड्डिए लोए
जै. ४९. इच्चत्थं गढ़िए लोए ||
म. इच्चत्थं गढिए लोए,
प्रा. पाणे विहिंसति ।
शु. पाणे
विहिंस
आ. पाणे
विहिंसइ ।
"
जै. पाणे
म.
पाणे
[ २२४ ]
एस खलु मारे,
एस खलु मारे,
एस खलु मारे
एस खलु
मारे,
एस खलु मारे,
प्रा. उदककम्मसमारम्भेण उदकसत्थं
समारम्भमाणे अन्ने asनेकवे समारभमाणे
शु. उदयकम्मसमारम्भेणं उदयसत्थं
अन्ने व' गरूवे
आ. उदयकम्पसमारम्भेणं उदयसत्थं
समारंभमाणे
अण्णे अणेगरूवे
जै. उदय - कम्म-समारंभेणं उदयसत्थं
समारंभमाणे
अण्णे वणेगरूवे
म. उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारभमाणे
अण्णे वऽणेगरूवे
विहिंसति ॥
विहिंसति ।
जमिणं
विरूवरूवेहि सत्थेहि
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं
५०. जमिणं 'विरूवरूवेहिं सत्थेहिं' जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं
內文
२६. से
५१. से
२६. से
बेमि
बेमि :
के. आर. चन्द्र
एस खलु नरके ।
एस खलु नरए ।
एस खलु णरए,
एस खलु णरए ||
एस खलु निरए ।
बेमि :
बेमि
बेमि
'अप्पेगे अंधमब्भे
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________________
प्रथम अध्ययन का पुन: सम्पादन [ २२५] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. - - शु. - - आ. - - - जै. अप्पेगे अंधमच्छे ॥
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे म. - - - - - - प्रा. - - - - - - - - शु. - - - - - - - - आ. - - - - - - - - जै. पायमच्छे ॥ ५३. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए ॥ ५४.से बेमिम. -
# |
प्रा. सन्ति पाणा उदकनिस्सिता जीवा अनेका । शु. सन्ति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगा । आ. संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगे (२३) जै. संति पाणा उदय-निस्सिया जीवा अणेगा ॥ ५५. म. संति पाणा उदयणिस्सिया जीवा अणेगा।
इहं इहं इहं इहं
|
प्रा. च खलु भो अनगाराणं उदकं जीवा वियक्खाता। शु. च खलु भो अणगाराणं उदयं जीवा वियाहिया । आ. च खलु भो ! अणगाराणं उदयजीवा वियाहिया (२४) जै. च खलु भो ! अणगाराणं उदय-जीवा. वियाहिया ॥ म. च खलु भो अणगाराणं उदयं जीवा वियाहिया ।
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________________
आचाराङ्ग
प्रा. सत्थं चेत्थ अनुवीयि पास,
शु.
सत्थं चेत्थ अणुवीइ,
पास
आ. सत्थं चेत्थं अणुवीइ
पासा,
जै. सत्थं चेत्थ
अणुवीइ
पासा ॥
म. ५६ सत्थं चेत्थ
अणुवीयि पास ।
प्रा.
शु.
आ.
अदुवा
जै. ५८. अदुवा
अदुवा
म.
प्रा.
शु.
लं लं नए पं
प्रा. पातुं । अदुवा
विभूसाए
शु. पाउं', अदु वा विभूसाए
आ. पाउं, अदुवा
जै पाउं, अदुवा
म. पातुं, अदुवा
अदुवा
अदुवा
आ.
म.
[ २२६ ]
अदिन्नादानं ।
अइन्ना' याणं :
अदिन्नादाणं (२६)
अदिण्णादाणं ॥
५९.
अदिण्णादाणं । २७.
विभूसाए (२७)
विभूसाए ||
विभूसाए ।
२८. एत्थ वि तेसिं नो
...
एत्थ वि तेसिं नो
एत्थऽवि तेसिं नो
जै. ६१. एत्थवि तेसि णो
२८.
एत्थ वि तेसि णो
पुढो
पुढो
पुढो
५७. 'पुढो
पुढो
पुढो
पुढो
सत्थं
सत्थं
सत्थं
सत्थं'
सत्यं
के. आर. चन्द्र
२७. कप्पति ने,
'कप्पइ णे
कप्पइ णे
कप्पड़
कप्पइ णे
कप्पइ णे कप्पइ णे
पवेदितं ।
पवेइयं :
पवेइयं (२५)
पवेइयं ॥
पवेदितं ।
कप्पति ने
कप्पइ णे
कप्पइ णे
चणे,
सत्थेहि विउन्ति ।
सत्थेहि विउदृन्ति ।
पुढो
६०. पुढो सत्थेहिं विउट्टंति ॥
पुढो सत्थेहिं विउट्टंति ।
सत्थेहिं विउट्टन्ति (२८)
निकरणाए । २९. एत्थ सत्थं
निकरणाए ।
एत्थ सत्थं
एत्थ सत्थं
निकरणाए (२९) णिकरणाएं ।। ६२. एत्थ सत्थं
णिकरणाए ।
२९. एत्थं सत्थं
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [ २२७]
संस्करणों के पाठों की तुलना
प्रा. समारम्भमाणस्स इच्चेते आरम्भा अपरिन्नाता भवन्ति । एत्थ शु. समारभमाणस्स इच्चेए आरम्भा अपरिन्नाया भवन्ति, एत्थ आ. समारभमाणस्स इच्चेए आरंभा अपरिण्णाया भवंति, एत्थ । जै. समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति ॥ ६३. एत्थ म. समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति । एत्थ ।
|
प्रा. सत्थं असमारम्भमाणस्स इच्चेते आरम्भा परिन्नाता भवन्ति। शु. सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेए आरम्भा परिनाया भवन्ति । आ. सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा । परिण्णाया भवंति, जै. सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति ॥ म. सत्थं असमारभमाणस्स.. इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवति । प्रा. ३०. तं परिन्नाय मेधावी नेव सयं उदकसत्थं समारम्भेज्जा,
तं परिनाय मेहावी ने'व सयं उदयसत्थं समारभेज्जा आ. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं उदयसत्थं समारम्भेज्जा जै. ६४. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं उदय-सत्थं समारंभेज्जा, म. ३०. तं परिण्णाय मेहावी णेब सयं उदयसत्थं समारभेज्जा,
-
|
प्रा. नेवऽन्नेहि शु. नेव'नेहिं आ. णेवण्णेहिं जै. णेवन्नेहि म. णेवण्णेहिं
उदकसत्थं उदयसत्थं उदयसत्थं उदय-सत्थं उदयसत्थं
समारम्भावेज्जा, - उदकसत्थं समारम्भावेज्जा ने'व'ने उदयसत्थं समारंभावेज्जा - उदयसत्थं समारंभावेज्जा, - उदय-सत्थं समारभावेज्जा, . - उदयसत्थं
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आचाराङ्ग प्रा. समारम्भन्ते वि शु. समारभन्ते - आ. समारंभंतेऽवि जै. समारंभंतेवि म. समारभंते वि
[२२८]
के. आर. चन्द्र अन्ने न समनुजानेज्जा। ३१.जस्सेते - - समणुजाणेज्जा । जस्से'ए अण्णे ण समणुजाणेज्जा, जस्सेते अण्णे ण समणुजाणेज्जा ॥ ६५. जस्सेते अण्णे ण समणुजाणेज्जा । ३१. जस्सेते
hoh
प्रा. उदकसत्थसमारम्भा परिन्नाता भवन्ति से हु शु. उदयकम्मसमारम्भा परित्राया भवन्ति से हु आ. उदयसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु जै. उदय-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु म. उदयसत्थसमारंभा . परिणाया भवंति से ह
मुनी मुणी मुणी मुणी मणी
oh ohhh
प्रा. परिन्नातकम्मे शु. परिन्नायकम्मेआ. परिण्णातकम्मे(३०) जै. परिण्णात-कम्मे । - म. परिण्णात-कम्मे
बेमि। बेमि । बेमि ।। बेमि ॥ बेमि ।
त्ति
चतुत्थे उद्देसगे प्रा. ३२. से बेमि- नेव सयं लोकं अब्भाइक्खेज्जा,नेव अत्तानं शु. से बेमि : ने'व सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा ने'व अत्ताणं आ. से बेमि णेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा णेव अत्ताणं जै. ६६. 'से बेमि'- णेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं म. ३२. से बेमि- णेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२२९] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. अब्भाइक्खेज्जा ।जे लोकं अब्भाइक्खति से अत्तानअब्भाइक्खति, शु. अब्भाइक्खेज्जा । जे लोगं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ; आ. अब्भाइक्खेज्जा, जे लोयं अब्भाइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जै. अब्भाइक्खेज्जा ॥ जे लोगं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ । म. अब्भाइक्खेज्जा । जे लोगं अब्भाइखति से अत्ताणं अब्भाइक्खति
5
5
प्रा. जे अत्तानं अब्भाइक्खति से लोकं अब्भाइक्खति । जे शु. जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोगं अब्भाइक्खइ। आ. जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ से लोयं अब्भाइक्खइ (३१) । जै. जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोगं अब्भाइक्खइ ॥ ६७. म. जे अत्ताणं अब्भाइक्खति से लोगं अब्भाइक्खति । प्रा. दीहलोकसत्थस्स खेत्तन्ने से असत्थस्स खेत्तन्ने, जे शु. दीहलोग-सत्थस्स खेयन्ने, से । असत्थस्स खेयन्ने; जे आ. दीहलोगसत्थस्स खेयण्णे से असत्थस्स खेयण्णे जे जै. दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे । जे म. दीहलोगसत्थस्स खेत्तण्णे से असत्थस्स खेत्तण्णे, जे
| F
ल
प्रा. असत्थस्स शु. असत्थस्स
असत्थस्स
असत्थस्स म. असत्थस्स
खेत्तन्ने . से दीहलोकसत्थस्स खेयन्ने, से दीहलोग-सत्थस्स खेयण्णे से दीहलोगसत्थस्स खेयण्णे, से दीहलोग-सत्थस्स खेत्तण्णे से दीहलोगसत्थस्स
खेत्तन्ने । खेयन्ने । खेयण्णे (३२) खेयण्णे । खेत्तण्णे ।
न
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आचाराङ्ग [२३०]
के. आर. चन्द्र प्रा. ३३. वीरेहि एतं अभिभूय दिटुं । सञ्जतेहि सदा जतेहि सदा शु... वीरेहिं एयं अभिभूय दिटुं संजएहिं सया जएहिं सया आ. वीरेहिं एवं अभिभूय दिटुं, संजएहिं सया जत्तेहिं सया जै. ६८. वीरेहिं एवं अभिभूय दिटुं, संजतेहिं सया जतेहिं सया म. ३३. वीरेहि एयं अभिभूय दिटुं संजतेहिं सता जतेहिं सदा
jonal laurel
प्रा. अप्पमत्तेहि । जे पमत्ते गुणट्टिते से हु दण्डे पवुच्चति शु. अप्पमत्तेहिं ; जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दण्डे पवुच्चइ ; आ. अप्पमत्तेहिं (३३) जे पमत्ते गुणट्ठीए, से हु दंडेत्ति पवुच्चइ(३४) जै. अप्पमत्तेहिं ॥ ६९. जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दंडे पवुच्चति ॥ म. अप्पमत्तेहिं ।' जे पमत्ते गुणद्रुिते से हु दंडे पवुच्चति । प्रा. तं परिन्नाय मेधावी "इदानि नो, जमहं पुल्वमकासी शु. तं परिनाय मेहावी "इयाणिं नो, जमहं पुव्वमकासी आ. तं परिण्णाय मेहावी इयाणिं णो जमहं पुव्वमकासी जै. ७०. तं परिण्णाय मेहावी इयाणिं णो जमहं पुव्वमकासी म. तं परिण्णाय मेहावी इदाणी णो जमहं पुव्वमकासी
al.
al.
2.
प्रा. पमादेन"। ३४. लज्जमाना पुढो पास । अनगारा शु. पमाएणं" । लज्जमाणा पुढो पास । "अणगारा आ. पमाएणं (३५) लज्जमाणा पुढो पास- अणगारा जै. पमाएणं ॥ ७१. लज्जमाणा पुढो पास ॥ ७२. अणगारा म. पमादेणं । ३४. लज्जमाणा पुढो पास। 'अणगारा
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पवदमाणा
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२३१] संस्करणों के पाठों की तुला प्रा. मो त्ति एके पवदमाना, जमिणं विरूवरूवेहि शु. मो''त्ति एगे पवयमाणा । जमिणं . विरूवरूवेहि आ. मोत्ति
जमिणं विरूवरूवेहि जै. मोत्ति एगे पवयमाणा ॥ ७३. जमिणं विरूवरूवेहि म. मो'त्ति एगे पवदमाणा, जमिणं ___विरूवरूवेहिं प्रा. सत्थेहि अगनिकम्मसमारम्भेण अगनिसत्थं समारम्भमाणे अन्ने शु. सत्थेहिं अगणिकम्मसमारम्भेणं अगणिसत्थं समारम्भमाणे अन्ने आ. सत्थेहिं अगणिकम्मसमारम्भेणं अगणिसत्थं समारभमाणे अण्णे जै. सत्थेहिं अगणि-कम्म-समारंभेणं अगणि-सत्थं समारंभमाणे, अण्णे म. सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे
प्रा. वऽनेकरूवे पाणे विहिंसति । ३५. तत्थ खलु भगवता परिन्ना शु. व'णेगरूवे पाणे विहिंसइ- तत्थ खलु भगवया परिन्ना आ. अणेगरूवे पाणे विहिंसंति । तत्थ खलु भगवता परिण्णा जै. वणेगरूवे पाणे विहिंसति ॥ ७४. तत्थ खलु भगवया परिण्णा म. वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति । ३५. तत्थ खलु भगवता परिण
प्रा. पवेदिता- इमस्स चेव जीवितस्स परिवन्दन-मानन-पूजनाए शु. पवेइया इमस्स चेव जीवियस्स परिवन्दण-माणण-पूयणाए, आ. पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जै. पवेइया ॥ ७५. इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए , म. पवेदिता- इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए
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आचाराङ्ग
[२३२] प्रा. जाति-मरण-मो.माए दुक्खपडियातहेतुं- से शु. जाइ-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघायहेउं- से आ. जाइमरणमोयणाए रखपडिधायहेउं से जै. जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेडं ॥ ७६. मे म. जाती-मरण--मोयणाए दुक्खपडिघातहेतुं से
के. आर. चन्द्र सयमेव सयमेव सयमेव सयमेव सयमेव
पा. अगनिसत्थं समारम्भति,अन्नेहि वा अगनिगत्थं समारम्भावेति, शु. अगणिसत्थं समारम्भइ अति वा असत्थं समारम्भावेइ आ. अगणिसत्थं समारभइणहिं वा अाणिसत्थं समारंभावेइ जै. अगणि-सत्थं पलारंभइ, अण्णेहिं वा अगणि-सत्थं समारंभावेइ, म. अगणि-सत्थं समारभति, अण्णेहि वा. अगणिसत्थं समारभावेति,
1.
प्रा. अन्ने वा शु. अन्ने वा आ. अण्णे वा जै. अण्णे वा म. अण्णे वा
निसत्थं समारम्भमाणे समनुजानति। तं अगणिसत्थं समारभन्ते समणुजाणइ ; तं अगणिसत्थं समारभमाणे समणुजाणइ, अगणि-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ ॥ ७७. तं अगणिसत्थं समारभमाणे समणुजाणति । तं
कल |
Fल न
प्रा. से अहिताए , तं से अबोधीए। ३६. से तं सम्बुज्झमाने शु. से अहियाए , तं से अबोहीए। से , तं सम्बुझमाणे आ. से अहियाए तं से अबोहियाए ___ तं संबुज्झमाणे जै. से अहियाए , तं से अबोहीए ॥ ७८. से तं संबुज्झमाणे, म. से अहिताए , तं से अबोधीए । ३६. से तं संबुज्झमाणे
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२३३] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. आदानीयं समुट्ठाय सोच्चा - भगवतो अनगाराणं शु. आयाणीयं समुट्ठाए- सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं आ. आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा - भगवओ अणगाराणं जै. आयाणीयं समुट्ठाए ॥ ७९. सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं म. आयाणीयं समुट्ठाए सोच्चा - भगवतो अणगाराणं
प्रा. वा - शु. वा अन्तिए
इधमेकेसिं नातं भवति- एस खलु गन्थे, एस इहमेगेसिं नायं भवइ; एस खलु गन्थे, एस इहमेगेसिं णायं भवति- एस खलु गंथे एस इहमेगेसिं णायं भवति- एस खलु गंथे, एस इहमेगेसिं णातं भवति– एस खलु गंथे, एस
जै. वा म. -
अंतिए -
प्रा. खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरके । शु. रवलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए । आ. खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए ।। जै. खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए । म. खलु मोहे, एस खलु मारे, एस। खलु निरए । प्रा. इच्चत्थं गढिते लोके। जमिणं विरूवरूवेहि
इच्चत्थं गढिए लोए । जमिणं विरूवरूवेहि
इच्चत्थं गड्एि लोए जमिणं विरूवरूवेहिं जै. ८० इच्चत्थं गढिए लोए ॥ ८१. जमिणं विरूवरूवेहि
इच्चत्थं गढिए लोए , जमिणं विरूवरूवेहि
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________________
आचाराङ्ग
[ २३४ ]
के. आर. चन्द्र
प्रा. सत्थेहि अगनिकम्मसमारम्भेण अगनिसत्थं समारम्भमाणे अने
शु. सत्थेहिं अगणिसत्थसमारम्भेणं
अगणिसत्थं समारभमाणे
अन्ने
आ. सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभमाणे
अण्णे
जै. सत्थेहिं अगणि-कम्म-समारंभेणं अगणि-सत्थं समारंभमाणे
अण्णे
सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभेणं
अगणिसत्थं समारभमाणे
अण्णे
म.
प्रा. वऽनेकस्वे पाणे विहिंसति । ३७. से
शु. व 'णेगरूवे
पाणे
विहिंसइ
से
आ. अणेगरूवे
पाणे
विहिंसइ (३६)
से
जै. वणेगरूवे पाणे
विहिंसति ॥ ८२. से
asगरूवे पाणे
विहिंसति ।
३७. से
म.
प्रा.
शु.
आ.
जै. अंधमब्भे, अप्पेगे
म.
प्रा.
शु.
आ.
जै पायमच्छे ॥ ८४.
म.
-
बेमि
बेमिः
बेमि
बेमि- अप्पेगे
बेमि
अंधमच्छे ॥ ८३. अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे
अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दव ॥८५. से
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२३५] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. - सन्ति पाणा पुढविनिस्सिता तणनिस्सिता पत्तनिस्सिता शु. - सन्ति पाणा पुढवि-निस्सिया तण-निस्सिया पत्त-निस्सिया
- संति पाणा पुढवीनिस्सिया तणणिस्सिया पत्तणिस्सिया जै. बेमि- संति पाणा पुढवि-णिस्सिया, तण-णिस्सिया, पत्त-णिस्सिया, म. - संति पाणा पुढविणिस्सिता तणणिस्सिता पत्तणिस्सिता
प्रा. कट्टनिस्सिता गोमयनिस्सिता कयवरनिस्सिता । सन्ति सम्पातिमा शु. कट्ठ-निस्सिया गोमय-निस्सिया कयवस्-निस्सिया, 'सन्ति संपाइमा आ. कट्ठनिस्सिया गोमयणिस्सिया कयवरणिस्सिया, संति संपातिमा जै. कट्ठ-णिस्सिया, गोमय-णिस्सिया, कयवर-णिस्सिया । संति संपातिमा म. कट्टणिस्सिता गोमयणिस्सिता कयवरणिस्सिया । संति संपातिमा
|
प्रा. पाणा आहच्च सम्पतन्ति य। अगनिं च खलु पुट्ठा शु. पाणा, आहच्च सम्पयन्ति य' । अगणिं च खलु पुट्ठा आ. पाणा आहच्च संपयंति, - अगणिं च खलु पुट्ठा जै. पाणा, आहच्च संपयंति य । अगणिं च खलु पुट्ठा, म. पाणा आहच्च संपयंति य। अगणिं च खलु पुट्ठा
|
प्रा. एके सङ्घातमावज्जन्ति । जे नत्थ सङ्घातमावज्जन्ति ते तत्थ शु. एगे संघायमावज्जन्ति ; जे तत्थ संघायमावज्जन्ति; ते तत्थ आ. एगे संघायमावज्जंति, जे तत्थ संघायमावज्जंति ते तत्थ जै. एगे संघायमावज्जंति ॥ जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ म. एगे संघातमावज्जंति । जे तत्थ संघातमावज्जंति ते तत्थ
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आचाराङ्ग
[२३६]
के. आर. चन्द्र
प्रा. परियावज्जन्ति । जे तत्थ परियावज्जन्ति ते तत्थ उद्दायन्ति । शु. परियाविज्जन्ति; जे तत्थ परियाविज्जन्ति, ते तत्थ उद्दायन्ति । आ. परियावज्जंति, जे तत्थ परियावज्जंति ते तत्थ उद्दायंति(३७) जै. परियावज्जंति । जे तत्थ परियावज्जंति, ते तत्थ उद्दायति ।। म. परियावज्जंति । जे तत्थ परियावज्जंति ते तत्थ उद्दायति ।
आरम्भा
आरम्भा
के
प्रा. ३८. एत्थ सत्थं समारम्भमाणस्स इच्चेते.
एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेए
एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते जै. ८६. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते म. ३८. एत्थ सत्थं . समारभमाणस्स इच्चेते
आरंभा आरंभा आरंभा
| 5
प्रा. अपरिनाता भवन्ति । एत्थ सत्थं असमारम्भमाणस्स इच्चेते शु. अपरिन्नाया भवन्ति । एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेए आ. परिण्णाया भवंति , - - - जै. अपरिण्णाया भवंति ॥ ८७. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते म. अपरिण्णाता भवंति । एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते
| F
प्रा. आरम्भा परिनाता भवन्ति । शु. आरम्भा परिन्नाया भवन्ति । - - आ. -
-
तं परिण्णाय मेहावी णेव जै. आरंभा परिण्णाया भवंति ॥ ८८. तं परिण्णाय मेहावी नेव म. आरंभा परिण्णाता भवंति । - -
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [ २३७]
संस्करणों के पाठों की तुलना
- - - - -
सयं अगणिसत्थं समारंभे नेवऽण्णेहिं अगणिसत्थं समारंभावेज्जा जै. सयं अगणि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवण्णेहिं अगणि-सत्थं समारंभावेज्जा, म. - - - - - - प्रा. - - - - -
शु. -
-
-
आ. अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे न समणुजाणेज्जा, जै. अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे न समणुजाणेज्जा ॥ म. -
-
- - -
प्रा. ३९.जस्स एते अगनिकम्मसमारम्भा परिन्नाता भवन्ति शु. जस्स एए अगणिकम्मसमारम्भा परिन्नाया भवन्ति आ. जस्सेते
अगणिकम्मसमारंभा परिण्णाया भवंति जै. ८९.जस्सेते अगणि-कम्म-समारंभा परिण्णाया भवंति, म. ३९.जस्स एते अगणिकम्मसमारंभा परिण्णाता भवंति प्रा. से हु मुनी परिन्नातकम्मे ति बेमि । शु. से हु मुणी परित्राय-कम्मे -त्ति
बेमि । आ. से हु मुणी परिण्णायकम्मे (३८) त्ति बेमि ।। जै. से हु मुणी परिण्णाय-कम्मे । -त्ति बेमि ॥ म. से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि ।
|
ch
chhoy
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मत्ता
आचाराङ्ग [२३८
के. आर. चन्द्र पञ्चमे उद्देसगे प्रा. ४०. तं नो करिस्सामि समुट्ठाय शु. तं नो करिस्सामि समुट्ठाए मत्ता आ.. तं णो करिस्सामि समुट्ठाए, मत्ता जै. ९०. तं णो करिस्सामि समुट्ठाए ॥ ९१.मंता म. ४०. तं णो करिस्सामि समुट्ठाए
मत्ता प्रा. मतिमं अभयं विदित्ता। तं जे नो करए , एसोवरते, शु. मइमं अभयं विइत्ता । तं जे नो करए , एसोवरए ; आ. मइमं, अभयं विदित्ता, तं जे . णो करए , एसोवरए , जै. मइमं अभयं विदित्ता ॥ ९२. तं जे णो करए एसोवरए , म. .. मतिमं अभयं विदित्ता तं जे णो करए एसोवरते ,
2.
प्रा. एत्थोवरते एस. अनगारे .. त्ति पवुच्चति । ४१. जे शु. एत्थोवरए एस अणगारे त्ति पवुच्चइ । जे आ. एत्थोवरए , एस अणगारेत्ति - पवुच्चई (३९) ... जे जै. एत्थोवरए एस अणगारेत्ति - पवुच्चइ ॥ ९३. . जे म. एत्थोवरए , एस अणगारे त्ति पवुच्चति । ४१. जे प्रा. गुणे से आवटे, जे आवटे से गुणे। . उड्ढे अधं शु. गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणेः उड्ढे अहं आ. गुणे से आवट्टे जे आवट्टे से गुणे (४०) उड्ढे . जै. गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे ॥ ९४. उड्ढे अहं म. गुणे से आवटे, जे आवट्टे से गुणे । उड्ढे अहं
-
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२३९] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. तिरियं पाईनं पासमाने रूवाणि पासति, सुणमाने सद्दानि शु. तिरियं पाईणं पासमाणे रूवाई पासइ, सुणमाणे . सद्दाई आ. तिरियं पाईणं पासमाणे रूवाइं पासति, सुणमाणे सद्दाई जै. तिरियं पाईणं 'पासमाणे रूवाइं पासति', 'सुणमाणे सद्दाई म. तिरियं पाईणं पासमाणे रूवाइं पासति, सुणमाणे सद्दाई प्रा. सुणेति उ8 अधं तिरियं पाईनं मुच्छमाने रूवेसु मुच्छति, शु. सुणइ ; उड्ढे अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छइ आ. सुणेति, उड़े अहं - पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छति, जै. सुणेति' ॥ ९५. उड्ढे अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छति, म. सुणेति । उट्टे : अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छति,
प्रा. सद्देसु यावि। ... 'एस लोके वियक्खाते शु. सद्देसु यावि। . एसलोए, वियाहिए. आ. सद्देसु आवि (४१) . एस . लोए .. वियाहिए जै. सद्देसु आवि ॥ ९६. एस लोए .. वियाहिए ॥ म. सद्देसु यावि ।।. एस लोगे वियाहिते ।
- एत्थ
एत्थ
एत्थ ९७. एत्थ
एत्थ
प्रा. अगुत्ते अनाणाए। शु. अगुत्ते अणाणाए । आ. अगुत्ते अणाणाए (४२) जै. अगुत्ते अणाणाए ॥ ९ म. अगुत्ते अणाणाएको
पुनो। पुनो : गुणासादे
पुणो पुणो . गुणासाए । ___पुणो पुणो गुणासाए,
पुणो-पुणो गुणासाए, पुणो- पुणो . गुणासाते
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के. आर. चन्द्र
आचाराङ्ग
[२४०] प्रा. वङ्कसमायारे पमत्ते गारमावसे। शु. वंक-समायारे पमत्ते गारमावसे । आ. वंकसमायारे (४३) पमत्तेऽगारमावसे (४४) जै. वंकसमायारे, पमत्ते गारमावसे ॥ म. वंकसमायारे पमत्ते गारमावसे ।
४२. लज्जमाना पुढो
लज्जमाणा पुढो
लज्जमाणा पुढो ९९. लज्जमाणा पुढो ४२. लज्जमाणा पुढो
प्रा. पास । अनगारा शु. पास । "अणणारा आ. पास, अणा जै. पास ॥१००. अणगारा म. पास । 'अणगारा
मो त्ति एके पवदमाना, जमिणं मो"त्ति एगे पवयमाणा जमिणं मोत्ति एगे पवदमाणा जमिणं मोत्ति एगे पवयमाणा ॥१०१ जमिणं मो'त्ति एगे पवदमाणा, जमिणं
| F
प्रा. विरूवरूवेहि सत्थेहि वनस्पतिकम्मसमारम्भेण वनस्पतिसत्थं शु. विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइ-कम्म-समारम्भेणं वणस्सइसत्थं आ. विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं जै. विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइ-कम्म-समारंभेणं वणस्सइ-सत्थं म. विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सतिकम्मसमारंभेणं वणस्सतिसत्थं
तत्थ
प्रा. समारम्भमाणे अन्ने वऽनेकरूवे पाणे विहिंसति ४३. तत्थ शु. समारम्भमाणे अन्ने व'णेगरूवे पाणे विहिंसइआ. समारभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति, तत्थ जै. समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति ॥ १०२. तत्थ म. समारभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति । ४३. तत्थ
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
प्रा. खलु
भगवता परिन्ना
शु. खलु
भगवया
आ. खलु भगवया
जै.
खलु भगवया
खलु
भगवता
म.
प्रा. जीवितस्स
शु. जीवियस्स
आ. जीवियस्स
जै. जीवियस्स,
जीवियस्स
म.
प्रा. अन्नेहि
शु. अन्नेहिं
आ. अण्णेहिं
जै. अण्णेहिं
म. अण्णेहिं
[ २४१ ]
वा
वा
पवेदिता
परिवन्दन - मानन - पूजनाए
परिवन्दण - माणण- पूयणाए,
परिवंदणमाणणपूयणाए
परिवंदण - माणण- पूयणाए,
परिवंदण - माणण - पूयणाए
वा
वा
वा
परिन्ना पवेइया
परिण्णा
पवेदिता,
इमस्स
परिण्णा
पवेदिता ॥ १०३. इमस्स
परिण्णा
पवेदिता -
इमस्स
प्रा. दुक्खपडिघातहेतुं -
से सयमेव
वनस्पतिसत्थं समारम्भति,
शु. दुक्ख - पडिघाय-हेउं -
से सयमेव वणस्सइ - सत्थं समारम्भइ
आ. दुक्खपडिघायहेडं
से सयमेव वणस्सइसत्थं
समारंभइ
जै. दुक्खपडिघायहेउं ॥ १०४. से सयमेव वणस्स - सत्थं समारंभइ,
म. दुक्खपडिघातहेतुं
से सयमेव वणस्सतिसत्थं समारभति,
संस्करणों के पाठों की तुलना
इमस्स चेव
इमस्स चे' व
*
वनस्पतिसत्थं
वणस्सइ-सत्थं
वणस्सइत्थं
वणस्सइ - सत्थं
वणस्सतिसत्थं
चेव
चेव
चेव
जाति-मरण - मोयनाए
जाइ - मरण - मोयणाए
जातीमरणमोयणाए
जाती- मरण - मोयणाए, जाती - मरण - मोयणाए
समारम्भावेति, अन्ने
वा
समारम्भावेइ
अने
वा
समारंभावेइ
अण्णे वा
समारंभावेइ,
अण्णे वा
समारभावेति,
अण्णे
वा
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________________
.
al.
आचाराङ्ग
[२४२]
के. आर. चन प्रा. वनस्सतिसत्थं समारम्भमाणे समनुजानति । तं से अहिताए शु. वणस्सइसत्थं समारम्भन्ते समणुजाणइ; तं से अहियाए , आ. वणस्सइसत्थं समारभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए जै. वण्णस्सइ-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ ॥ १०५.तं से अहियाए म. वणस्सतिसत्थं समारभमाणे समणुजाणति । तं से अहियाए प्रा. तं से अबोधीए। ४४.से त्तं सम्बुज्झमाने आदानीयं शु. तं से अबोहीए। से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं, आ. तं से अबोहीए, । से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं जै. तं से अबोहीए ॥ १०६. से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं म. तं से अबोहीए। ४४. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं
|
प्रा. समुद्धाय सोच्चा - भगवतो अनगाराणं वा - शु. समुट्ठाए- सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं वा अन्तिए आ. समुट्ठाए सोच्चा - भगवओ अणगाराणं वा अंतिए जै. समुट्ठाए || १०७. सोच्चा - भगवओ, अणगाराणं वा अंतिए
सोच्चा - भगवतो अणगाराणं -- -
-
प्रा. इधमेकेसिं नातं भवति- एस शु. इहमेगेसिं नायं भवइ : एस आ. इहमगेसिं णायं भवति- एस जै. इहमेगेसि णायं भवति– एस मं. इहमेगेसिं णायं भवति– एस
खलु खलु खलु खलु खलु
गन्थे, एस खलु गन्थे, एस खलु गंथे एस खलु गंथे, एस खलु गंथे, एस खलु
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इच्चत्थं
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२४३] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरके । शु. मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए । इच्चत्थं आ. मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए , इच्चत्थं जै. मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए ॥ १०८. इच्चत्थं म. मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए । इच्चत्थं
प्रा. गढिते शु. गढिए आ. गड्डिए जै. गढिए
गढिए
लोए । लोए, लोए, लोए,
जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहि
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहि १०९. जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहि
जमिणं । विरूवरूवेहिं सत्थेहि
प्रा. वणस्सइकम्मसमारम्भेण वनस्सतिसत्थं समारम्भमाणे अन्ने शु. वणस्सइ-कम्म-समारम्भेणं वणस्सइसत्थं समारम्भमाणे अन्ने आ. वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे जै. वणस्सइ-कम्म-समारंभेणं वणस्सइ-सत्थं समारंभेमाणे अण्णे म. वणस्सतिकम्मसमारंभेणं वणस्सतिसत्थं समारभमाणे अण्णे
प्रा. वऽनेकरूने पाणे विहिंसति । शु. वणेगरूवे पाणे विहिंसइ- आ. अणेगरूवे . पाणे विहिंसंति (४५) जै. वणेगरूवे पाणे विहिंसति ॥ म. वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति ।
४५. से
से
से ११०. से ४५. से
बेमि - - बेमि : - बेमि - बेमि- अप्पेगे बेमि- -
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[२४४]
के. आर. चन्द्र
__
आचाराङ्ग प्रा. -
-
-
-
शु. -
-
आ. - - - जै. अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे ॥ १११. अप्पेगे पायमब्भे, म. - - -
- - प्रा. - - -
- - - शु. - -
- - आ. - - जै. अप्पेगे पायमच्छे ॥ ११२. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए । म. - -
- - - -
| । । ।
प्रा. - इमं
- इमं आ. - , इमंपि जै. से बेमि– इमंपि म. - इमं
पि जाति-धम्मयं, एतं पि जाति-धम्मयं । पि जाइ-धम्मयं, एयं पि जाइ-धम्मयं;
जाइधम्मयं एयं पि जाइधम्मयं
जाइधम्मयं, एयं पि जाइधम्मयं । पि जातिधम्मयं, एयं पि जातिधम्मयं;
प्रा. इमं पि शु. इमं पि आ. इमंपि. जै. इमाप म. इमं पि
वुड्डिधम्मयं एतं पि वुड्डि-धम्मयं, एयं पि बुड्दिधम्मयं एयंपि वुद्धिधम्मयं, एयपि वुड्डिधम्मयं, एयं पि
बुड्डिधम्मयं । इमं पि बुड्डि-धम्मयं; इमं पि वुड्डिधम्मयं इमं पि वुड्दिधम्मयं । इमं पि वुड्डिधम्मयं; इमं पि
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२४५] संस्करणों के पाठों की तुलन प्रा. चित्तमन्तयं, एतं पि चित्तमन्तयं ।इमं पि छिन्नं मिलाति, एतं शु. चित्तमन्तयं एवं पि चित्तमन्तयं; इमं पि छिन्नं मिलाइ एयं आ. चित्तमंतयं एयं पि चित्तमंतयं इमंपि छिण्णं मिलाइ एय जै. चित्तमंतयं, एयं पि चित्तमंतयं । इमंपि छिन्नं मिलाति, एस् म. चित्तमंतयं, एयं पि चित्तमंतयं; इमं पि छिण्णं मिलाति, एयं
प्रा. पि छिन्नं मिलाति । इमं पि आहारगं, एतं पि आहारगं । शु. पि छिन्नं मिलाइ; इमं पि आहारगं, एयं पि आहारगं; आ. छिण्णं मिलाइ इमंपि आहारगं एयपि आहारगं जै. छिन्नं मिलाति । इमंपि आहारगं, एयंपि आहारगं । म. पि छिण्णं मिलाति; इमं पि आहारगं, एयं पि आहारगं;
प्रा. इमं पि अनितियं, एतं पि अनितियं । इमं पि शु. इमं पि अनिच्चयं, एयं पि अनिच्चयं; इमं पि आ. इमंपि अणिच्चयं एवं पि अणिच्चयं इमंपि जै. इमंपि अणिच्चयं, एयं पि अणिच्चयं । इमंपि म. इमं पि अणितियं, एयं पि अणितियं; इमं पि
असासतं, असासयं, असासयं असासयं, असासयं,
प्रा. एतं पि असासतं । इमं पि चयावचइयं, एतं पि चयावचइयं । शु. एयं पि असासयं; इमं पि चयावयइयं, एयं पि चयावचइयं; आ. एयपि असासयं इमंपि चओवचइयं एयंपि चओवचइयं जै. एयंपि असासयं इमंपि चयावचइयं, एयंपि चयावचइयं । म. एयं पि असासयं; इमं पि चयोवचइयं, एयं पि चयोवचइयं;
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________________
आचाराङ्ग [२४६]
के. आर. चन्द्र प्रा. इमं पि विपरिणामधम्मयं, एतं पि विपरिणामधम्मयं । शु. इमं पि विपरिणाम-धम्मयं, एयं वि विपरिणाम-धम्मयं आ. इमंपि विपरिणामधम्मयं एयंपि विपरिणामधम्मयं (४६) जै. इमंपि विपरिणामधम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं ॥ म. इमं पि विप्परिणामधम्मयं, एयं पि विप्परिणामधम्मयं ।
प्रा.४६. एत्थ सत्थं समारम्भमाणस्स इच्चेते आरम्भा अपरिनाता शु. एत्थ सत्थं समारम्भमाणस्स इच्चेए आरम्भा अपरिन्नाया आ. एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता जै.११४. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया म.४६. एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता
प्रा. भवन्ति । एत्थ सत्थं असमारम्भमाणस्स इच्चेते आरम्भा शु. भवन्ति, एत्थ सत्थं असमारम्भमाणस्स इच्चेए आरम्भा आ. भवंति, एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा जै. भवंति ।।११५. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा म. भवंति । एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा
.
प्रा. परिन्नाता भवन्ति । ४७. तं परिन्नाय मेधावी नेव सयं शु.. परिन्नाया भवन्ति । तं परिन्नाय मेहावी ने'व सयं आ. परिन्नाया भवंति, तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं जै. परिण्णाया भवंति ॥ ११६. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं म. परिण्णाया भवंति । ४७. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं
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प्रथम अध्ययन का पुन: सम्पादन [२४७] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. वनस्सतिसत्थं समारम्भेज्जा नेवऽन्नेहि वनस्सतिसत्थं समारम्भावेज्जा, शु. वणस्सइसत्थं समारंभेज्जा ने'व'नेहिं वणस्सइसत्थं समारम्भावेज्जा आ. वणस्सइसत्थं समारंभेज्जा णेवण्णेहिं वणस्सइसत्थं समारंभावेज्जा जै. वणस्सइ-सत्थं समारंभेज्जा, णेवण्णेहिं वणस्सइ-सत्थं समारंभावेज्जा, म. वणस्सतिसत्थं समारभेज्जा, णेवऽण्णेहिं वणस्सतिसत्थं समारभावेज्जा,
प्रा. शु.
;
नेवऽन्ने वनस्सतिसत्थं ने'व'न्ने वणस्सइसत्थं णेवण्णे
वणस्सइसत्थं णेवण्णे वणस्सइ-सत्थं जेवऽण्णे वणस्सतिसत्थं
समारम्भन्ते समनुजानेज्जा । समारभन्ते समणुजाणेज्जा । समारंभंते समणुजाणेज्जा, समारंभंते समणुजाणेज्जा ॥ समारभंते समणुजाणेज्जा ।
ल
म.
|
प्रा. ४८. जस्सेते वनस्सतिसत्थसमारम्भा परिनाता भवन्ति से
जस्से'ए वणस्सइ-कम्म-समारम्भा परिन्नाया भवन्ति से . जस्सेते वणस्सतिसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से जै. ११७. जस्सेते वणस्सइ-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, से म. ४८. जस्सेते वणस्सतिसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से प्रा. हु मुनी परिन्नातकम्मे त्ति बेमि । शु. हु मुणी परिन्नाय-कम्मे- त्ति बेमि । आ. हु मुणी परिण्णायकम्मे (४७) त्ति बेमि ॥ जै. हु. मुणी परिण्णाय-कम्मे ।- त्ति बेमि ॥ म. हु मुणी परिण्णायकम्मे
बेमि ॥
|
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________________
al.
4.
आचाराङ्ग [२४८]
के. आर. चन्द्र छट्टे उद्देसगे गा. ४९. से बेमि- सन्त्रिमे तसा पाणा तं अधा- अण्डया
से बेमिः सन्निमे तसा ाणा, तं जहा : अण्डया ग. से बेमि संतिमे तसा पाणा, तं जहा अंडया ... ११८. से बेमि- संतिमे तसा पाणा, तं जहा- अंडया i. ४९. से बेमि- संतिमे तसा पाणा, तं जहा- अंडया ता. पोतया जराउया रसया संसेदया सम्मुच्छिमा उब्धिया ओववातिया। .. पोयया जराउया रसया संसेयया सम्मुच्छिमा उब्भिया उववाइया । पा. पोयया जराउया रसया संसेयया संमुच्छिमा उब्भियया उववाइया, 1. पोयया जराउया रसया संसेयया संमुच्छिमा उब्भिया ओववाइया ।। . पोतया जराउया रसया संसेयया सम्मुच्छिमा, उब्भिया उववातिया । एस संसारे त्ति पवुच्चति
मन्दस्स एस संसारे त्ति पवुच्चइ
मन्दस्स T. एस संसारेत्ति पवुच्चई (४८) मन्दस्सावियाणओ(४९) .. ११९. एस संसारेत्ति पवुच्चति ॥ १२०. मंदस्स ... एस संसारे त्ति पवुच्चति
मंदस्स
7. अविजानतो। निज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेगं परिनिव्वाणं । - अविजाणओ। निज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिनिव्वाणं
निज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिनिव्वाणं - अवियाणओ ॥ १२१. णिज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिनिव्वाणं ॥ : अवियाणओ। णिज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिनिव्वाणं
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [ २४९] संस्करणों के पाठों की तुलना
सव्वेसिं पाणानं सव्वेसिं भूतानं, सव्वेसिं जीवानं
सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं, सव्वेसि जीवाणं, आ. सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं
१२२. सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं म. सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूताणं सव्वेसिं जीवाणं
ल
।
प्रा. सव्वेसिं सत्तानं असातं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ति शु. सव्वेसिं सत्ताणं असायं अपरिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ति आ. सव्वेसिं सत्ताणं अस्सायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं तिबेमि, जै. सव्वेसिं सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ति म. सव्वेसिं सत्ताणं अस्सातं अपरिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ति
प्रा. बेमि। तसन्ति पाणा पदिसो दिसासु य ।। शु. बेमि । तसन्ति पाणा पदिसो दिसासु य ।
तसंति पाणा पदिसो दिसासु य (५०) जै. बेमि ॥ १२३. तसंति पाणा पदिसो दिसासु य ॥ म. बेमि । तसंति पाणा पदिसो दिसासु य ॥
|
तत्थ तत्थ पुढो. पास आतुरा परितावन्ति । सन्ति
तत्थ तत्थ पुढो पास आउरा परियावेन्ति । सन्ति आ. तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितावंति, संति जै. १२४. तत्थ -तत्थ पुढो पास, आउरा परितावेंति ॥ १२५. संति म. तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितावेंति । संति
।
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________________
आचाराङ्ग
प्रा. पाणा पुढो - सिता
शु. पाणा पुढो - सिया ।
आ. पाणा पुढो सिया (५१)
जै. पाणा पुढो सिया ॥
म.
पाणा पुढो सिता ।
म.
प्रा.
शु.
आ.
अणगारा मोत्ति
जै. १२७. अणगारा मोत्ति
शु. अन्ने
आ. अण्णे
जै. अण्णे
म. अण्णे
[ २५० ]
64
५०.
१२६.
'अनगारा मो'
"अणगारा मो" त्ति
त्ति एके
एगे
एगे
एगे
'अणगारा मो' त्ति एगे
५०
लज्जमाना पुढो पास ।
लज्जमाणा
पुढो पास ।
लज्जमाणा
पुढो पास
लज्जमाणा
पुढो पास ॥
लज्जमाणा पुढो
पास ।
पवदमाना,
पवयमाणा ।
जमिणं
जमिणं
पवयमाणा
जमिणं
पवयमाणा ॥ १२८. जमिणं
पवदमाणा,
जमिणं
प्रा. विरूवरूवेहि सत्थेहि तसकायसमारम्भेण तसकायसत्थं समारम्भमाणे शु. विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकायसमारम्भेणं तसकायसत्थं समारम्भमाणे
समारभमाणा
आ. विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकायसमारंभेण तसकायसत्थं जै. विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकाय - समारंभेणं तसकाय - सत्थं समारंभमाणे म. विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकायसमारंभेणं तसकायसत्थं समारभमाणे
प्रा. अन्ने asनेकत्वे पाणे विहिंसति ।
व'णेगरूवे पाणे विहिंसइ
अणेगरूवे
पाणे
विहिंसति,
aad
पाणे
विहिंसति ॥
asणेगरूवे
पाणे
विहिंसति ।
के. आर. चन्द्र
५१.
१२९.
५१.
तत्थ खलु
तत्थ
खलु
तत्थ
खलु
तत्थ
खलु
तत्थ
खलु
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२५१] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. भगवता परिन्ना पवेदिता- इमस्स चेव जीवितस्स शु. भगवया परिना पवेइया इमस्स चेव जीवियस्स आ. भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स, जै. भगवया परिण्णा पवेइया || १३०. इमस्स चेव जीवियस्स, म. भगवता परिण्णा पवेदिता- इमस्स चेव जीवियस्स
-
प्रा. परिवन्दन-मानन- पूजनाए जाति-मरण-मोयनाए दुक्खपडिघातहेतुंशु. परिवन्दण-माणण-पूयणाए, जाइ-मरण-मोयणाए दुक्ख-पडियाय-हेडंआ. परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेडं जै. परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण- मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं ।। म. परिवंदण-माणण-पूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघायहेतुं
प्रा. से सयमेव तसकायसत्थं समारम्भति, अन्नेहि वा शु. से सयमेव तसकायसत्थं समारम्भइ अन्नेहिं वा आ. से सयमेव तसकायसत्थं समारभति अण्णेहिं वा जै. १३१. से सयमेव तसकाय-सत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा म. से सयमेव तसकायसत्थं समारभति, अण्णेहिं वा
प्रा. तसकायसत्थं शु. तसकायसत्थं आ. तसकायसत्थं जै. तसकाय-सत्थं म. तसकायसत्थं
समारम्भावेति, अन्ने वा । समारम्भावेइ अन्ने वा समारंभावेइ अण्णे समारंभावेइ, अण्णे समारभावेति, अण्णे वा
तसकायसत्थं तसकायसत्थं तसकायसत्थं तसकाय-सत्थं
वा
तसकायसत्थं
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--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
प्रा. समारम्भमाणे समनुजानति ।
शु. समारभन्ते
समणुजाणइ;
आ. समारभमाणे
समणुजागइ,
तं
जै. समारंभगणे
समणुजाण ।। १३२ तं
म. समारभमाणे
समणजाणति ।
तं
म.
प्रा.
एं
म.
[ २५२ ]
प्रा. अबोधीए ।
५० मे त्तं सम्बुज्झमाने आदानीयं समुद्वाय शु. अबोहं । से त्तं संबुज्झमाणे आयाणीयं, समुट्ठाए
आ. अबोहीए,
से तं
जै. अबोहर ॥
संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय संबुज्झमाणे, आयाणीयं संबुज्झमाणे आयाणीयं
समुट्ठाए ||
अबोधीए ।
समुट्ठाए
१३३. से तं
५२. से त्तं
म.
शु.
आ.
सोच्चा भगवओ अणगाराणं
जै. १३४. सोच्चा भगवओ, अणगाराणं
सोच्चा भगवतो अणगाराणं
प्रा. नातं भवति- एस खलु
शु. नायं
आ. णायं
जै. णायं
के. आर. चन्द्र
तं से अहिताए तं से
अहियाए, तं से
अहियाए तं से
अहियाए, तं से
अहिताए, तं से
भवइ; एस खलु
भवति - एस खलु
भवइ- एस खलु
णातं भवति- एस खलु
सोच्चा भगवतो अनगाराणं वा
इधमेकेसिं
सोच्चा भगवओ अणगाराणं वा अन्तिए इहमेगेसि
2.
21.
गंथे,
स
ग्रंथे,
गंथे,
से
से
गन्थे, एस खलु मोहे, एस
मोहे,
गन्थे,
एस खलु
एस
एस
एस खलु
एस
एस खलु
एस
एस खलु
अंतिए इहमेगेसिं
'वा अंतिए' इहमेगेसिं
इहमेगेसि
मोहे
मोहे,
मोहे,
Page #287
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२५३ ]
नरके
प्रा. खलु मारे,
मारे,
शु. खलु
नरए ।
आ. खलु
णरए,
गड्डिए
खलु
णरए । १३५ इञ्चत्थं गढिए
निरए
रच्चत्थं गढिए
म. खलु
जे.
प्रा. लोके ।
शु. लोए ।
आ. लोए
जै. लोए ॥
म. लोए,
म.
मारे
मारे,
मारे.
म.
एस
एस
एस
एस
एस
१३६.
तसकायकम्मसमारंभेणं
प्रा. वऽनेकरूवे पाणे
शु. व 'णेगरूवे
पाणे
आ. अणेगरूवे पाणे
जै. वणेगरूवे पाणे
वऽणगरूवे
पाणे
खलु
खलु
खलु
खलु
खलु
प्रा. तसकायकम्मसमारम्भेण तसकायसत्थं समारम्भमाणे अन्ने
शु. तसकायकम्मसमारम्भेणं तसकायसत्थं
अन्ने
आ. तसकायसमारंभेण
तसकायसत्थं
अण्णे
जै. तसकाय-समारंभेणं
अण्णे
अण्णे
जमिणं
जमिणं
जमिणं
जमिणं
जमिणं
संस्करणों पाठों की तुलना
व्चत्थं गढिते
गढिए
val
विहिंसति ।
विहिंसइ
विहिंसति (५२)
विहिंसति ॥
विहिंसति ।
विरूवरूवे
सत्थेहि
विरूवरूव
सत्थेहिं
विरूवरूवा सत्थेहिं
विरूवरूवा
सत्थेहिं
विरूवरूदो
सत्थेहि
इन्चत्थं
: चत्थं
तसकाय सत्थं समारभमाणे
तसकायसत्थं
समारभमाणे
समार माणे
समारंभ भाणे
से
बेमि
से बेमि
सं बेमि
बेमि
बेमि
१३७. से
से
अप्पेगे
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--------------------------------------------------------------------------
________________
आचाराङ्ग
[२५४]
के. आर. चन्द्र
के
अप्पेगे
अंधमच्छे ॥ १३८. अप्पेगे पायमब्भे,
जै. अंधमब्भे, म. -
|
प्रा. -
-
-
जै. अप्पेगे पायमच्छे. ॥ १३९. ।
अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए ।
म
-
-
-
-
-
-
-
|
अप्पेके अच्चाए वधेन्ति, अप्पेके अजिनाए अप्पेगे अच्चाए हणन्ति, अप्पेगे अजिणाए
अप्पेगे अच्चाए हणंति, अप्पेगे अजिणाए १४०. से बेमि- अप्पेगे अच्चाए वहंति, अप्पेगे अजिणाए
- - अप्पेगे अच्चाए वधति, अप्पेगे अजिणाए
|
प्रा. वधेन्ति, अप्पेके मंसाए वधेन्ति, अप्पेके सोणिताए वधेन्ति शु. वहन्ति, अप्पेगे मंसाए वहन्ति, अप्पेगे सोणियाए वहन्ति, आ. वहंति, अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, जै. वहंति, अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, म. वधेति, अप्पेगे मंसाए वहेंति, अप्पेगे सोणिताए वधंति,
Page #289
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [ २५५] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. अप्पेके - हिदयाए वधेन्ति, - एवं पित्ताए शु. अप्पेगे एवं हिययाए - - - पित्ताए आ. - एवं हिययाए
पित्ताए जै. अप्पेगे - हिययाए वहंति, अप्पेगे - पित्ताए म. अप्पेगे हिययाए वहिति, - एवं पित्ताए
प्रा. - - वसाए शु. - - वसाए आ. - - वसाए जै. वहंति, अप्पेगे वसाए म. - - वसाए
- - पिच्छाए - - - - पिच्छाए - - - - पिच्छाए - - वहंति, अप्पेगे पिच्छाए वहंति, अप्पेगे - - पिच्छाए - -
-
-
# |
प्रा. पुच्छाए - - वालाए - - सिङ्गाए - शु. पुच्छाए - - वालाए - - सिङ्गाए - आ. पुच्छाए - - वालाए
सिंगाए - जै. पुच्छाए वहंति, अप्पेगे बालाए वहंति, अप्पेगे सिंगाए वहंति, म. पुच्छाए - - वालाए - - सिंगाए - प्रा. - विसाणाए - - दन्ताए - - शु. - विसाणाए - - दन्ताए - आ. - विसाणाए - - दंताए - जै. अप्पेगे विसाणाए वहंति, अप्पेगे दंताए वहंति, अप्पेगे म. - विसाणाए - - दंताए - -
Page #290
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________________
आचाराङ्ग
प्रा. दाढाए
शु. दाढाए
आ. दाढाए
जै. दाढाए
दाढाए
म.
प्रा.
शु.
आ.
जै. वहंति, अप्पेगे
म.
प्रा.
शु.
आ.
जै. अप्पेगे
म.
प्रा. अप्पेके
शु. अप्पेगे
आ. अप्पेगे
जै. अप्पेगे
अप्पेगे
म.
[ २५६ ]
नहाए
नहाए
णहाए
वहंति, अप्पेगे नहाए
नहाए
अट्टीए
अट्ठीए
अट्ठीए
अट्ठीए
अट्ठिए.
अत्थाए
अट्ठाए
अट्ठाए
अट्ठाए
अट्ठाए
हिंसिंसु मे
'हिंसिसु मे'
हिंसिसु मेत्ति
'हिंसिसु
मेत्ति
हिंसिसु
मे
wd
वहंति, अप्पेगे
अट्ठमिज्जाए
अट्ठि - मिञ्जाए
अट्ठिमिंजाए
वहंति, अप्पेगे, अट्ठिमिंजाए वहंति,
अट्ठिमिंजाए
T
त्ति
त्ति
वहंति, अप्पेगे
त्ति
अनत्थाए ।
अणट्ठाए;
अणद्वाए,
अट्ठा
अणट्ठाए,
वा वधेन्ति,
वा
वहन्ति,
वहंति
वहंति,
वा
'वा'
वा,
के. आर. चन्द्र
हारुणीए
हारुणी
हारुणीए
हारुणी
हारुणी
वहंति,
अप्पेके
अप्पेगे
अप्पेगे
अप्पेगे
अप्पेगे
Page #291
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
प्रा. हिंसन्ति मे त्ति
मे'
त्ति
मेत्ति
मेत्ति
शु. 'हिंसन्ति
आ. हिंसंति
जै. हिंसंति
हिंसंति
म.
प्रा. मे त्ति
शु. मे' त्ति
आ. मेत्ति
जै.
मेत्ति
म.
म.
I
म.
वा
वा
वा
वा
वा
―
णे
समारम्भमाणस्स इच्चेते
समारभमाणस्स इच्चेए
[ २५७ ]
वा
वा
वा
वा
वा
प्रा.
शु.
आ. समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा
जै. समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा
समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा
वन्ति ।
वहन्ति ।
वहंति (५३)
वहंति ॥
वधेंति
संस्करणों के पाठों की तुलना
वधेन्ति, अप्पेके हिंसिस्सन्ति
वहन्ति, अप्पेगे
'हिंसिस्सन्ति
वहंति अप्पेगे
हिंसिस्संति
वहंति अप्पेगे
हिंसिस्संति
अप्पेगे
हिंसिस्संति
प्रा.
शु.
एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स आ. एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स जै. १४२. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स
एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स
५३.
एत्थ
एत्थ
एत्थ
१४१. एत्थ
५३.
एत्थ
आरम्भा अपरिन्नाता
आरम्भा अपरित्राया
भवन्ति ।
भवन्ति,
अपरिण्णाया भवंति,
अपरिणाया
अपरिणाया
एत्थ सत्थं असमारम्भमाणस्स इच्चेते आरम्भा परिन्नाता भवन्ति ।
इच्चेए आरम्भा परिन्नाया भवन्ति ।
इच्चेते आरंभा
इच्चेते आरंभा
इच्चेते आरंभा
भवंति "I
भवंति ।
सत्थं
सत्थं
सत्यं
सत्थं
सत्थं
परिण्णाया भवन्ति,
परिण्णाया भवंति ॥
परिणाया भवंति ।
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________________
आचाराङ्ग
[ २५८]
के. आर. चन्द्र
.
.
के
प्रा. ५४. तं परिन्नाय मेधावी नेव सयं तसकायसत्थं शु. तं परिनाय मेहावी ने'व सयं तसकायसत्थं
तं परिण्णाय मेहावी व तसकायसत्थं जै. १४३. तं परिणाय मेहावी णेव सयं तसकाय-सत्थं म. ५४. तं परिण्णाय मेधावी णेव सयं तसकायसत्थं
.
.
| F
प्रा. समारम्भेज्जा, नेवऽन्नेहि तसकायसत्थं समारम्भावेज्जा, नेवऽन्ने शु. समारभेज्जा ने'व'नेहिं तसकायसत्थं समारम्भावेज्जा, ने'व'ने आ. समारंभेज्जा · णेवऽण्णेहिं तसकायसत्थं समारंभावेज्जा णेवऽण्णे जै. समारंभेज्जा, णेवण्णेहिं तसकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे . म. समारभेज्जा, णेवऽण्णेहिं तसकायसत्थं समारभावेज्जा, णेवऽण्णे
प्रा. तसकायसत्थं समारम्भन्ते समनुजानेज्जा । ५५. जस्सेते शु. तसकायसत्थं समारभन्ते समणुजाणेज्जा ।
जस्से'ए आ. तसकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते जै. तसकाय-सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा ॥ १४४. जस्सेते म. तसकायसत्थं समारभंते समणुजाणेज्जा । ५५. जस्सेते
--
हु हु
मुनी मुणी
प्रा. तसकायसत्थसमारम्भा परिनाता भवन्ति शु. तसकायसत्थसमारम्भा परिनाया भवन्ति आ. तसकायसमारंभा . परिण्णाया भवंति जै. तसकाय-सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति, म. तसकायसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति
से से से से से
խc)
मुणी
हु हु
मुणी मुणी
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [ २५९] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. परिन्नातकम्मे
त्ति बेमि । परिन्नाय-कम्मे
त्ति बेमि । आ. परिण्णायकम्मे (५४) तिबेमि । जै. परिण्णाय-कम्मे । -त्ति बेमि ।। म. परिण्णातकम्मे
त्ति बेमि ।
सत्तमे उद्देसगे प्रा. ५६. पभू - एजस्स दुगुञ्छनाए
आतङ्कदंसी शु. पहू य एजस्स दुगुञ्छणाए आयंक-दंसी
पहू - एजस्स दुगुंछणाए(५५) आयंकदंसी जै. १४५. 'पहू - एजस्स' दुगंछणाए ॥ १४६. आयंकदंसी म. ५६. पभू - एजस्स दुगुंछणाए
आतंकदंसी प्रा. अहितं ति नच्चा । जे अज्झत्थं जानति से बहिया शु. 'अहियं' ति नच्चा । जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया आ. अहिंयंति णच्चा, जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जै. अहियं ति नच्चा ॥ १४७. जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया म. अहियं ति णच्चा । जे अज्झत्थं जाणति से बहिया
प्रा. जानति, जे बहिया जानति से अज्झत्थं जानति । शु. जाणइ; जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ; आ. जाणइ, जे बहिया जाणइ से अज्झत्थं जाणइ, जै. जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ । म. जाणति, जे बहिया जाणति से अज्झत्थं जाणति ।
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#
आचाराङ्ग [ २६०]
के. आर. चन्द्र एतं तुलमन्नेसिं । इध सन्तिगता दविया
एयं तुलं अन्नेसिं । इह सन्ति-गया दविया आ. एयं तुलमन्नेसिं (५६) इह संतिगया दविया जै. १४८. एयं तुलमण्णेसिं ॥ १४९. इह संतिगया दविया,
एतं तुलमण्णेसिं । इह संतिगता दविया
प्रा. नावकडन्ति वीजितुं । ५७. लज्जमाना पुढो पास । शु. नावकडन्ति जीविउं । - लज्जमाणा पुढो पास । आ. णावकंखंति जीविउं (५७) लज्जमाणे पुढो पास जै. णावकंखंति वीजिउं ॥ १५०. लज्जमाणा पुढो पास ॥
णावकंखंति जीविउं । ५७. लज्जमाणा पुढो पास ।
|
'अनागारा मो' त्ति एके पवदमाना, जमिणं विरूवरूवेहि शु. "अणगारा मो" त्ति एगे पवयमाणा । जमिणं विरूवरूवेहिं आ. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहि जै. १५१. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा ॥१५२. जमिणं विरूवरूवेहि म. 'अणगारा मो' ति एगे पवदमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं
प्रा. सत्थेहि वाउकम्मसमारम्भेण वाउसत्थं समारम्भमाणे अन्ने शु. सत्थेहिं वाउकम्मसमारम्भेणं वाउसत्थं समारम्भमाणे अन्ने आ. सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे जै. सत्थेहिं वाउकम्म-समारंभेणं वाउ-सत्थं समारंभमाणे अण्णे म. सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारभमाणे अण्णे
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२६१] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. वऽनेकरूवे पाणे विहिंसति । ५८. तत्थ खलु भगवता शु. वणेगरूवे पाणे विहिंसइ- तत्थ खलु भगवया आ. अणेगरूवे पाणे विहिंसति ।
खलु भगवया जै. वणेगरूवे पाणे विहिंसति ॥ १५३. तत्थ खलु भगवया म. वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति । ५८. तत्थ खलु भगवता
तत्थ
प्रा. परिना पवेदिता- इमस्स चेव जीवितस्स शु. परिना पवेइया इमस्स चे'व जीवियस्स आ. परिण्णा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स जै. परिण्णा पवेड्या ॥ १५४. इमस्स चेव जीवियस्स, म. परिण्णा पवेदिता- इमस्स चेव जीवियस्स
प्रा. परिवन्दन-मानन-पूजनाए जाति-मरण-मोयनाए दुक्खपडिघातहेतुंशु. परिवन्दण-माणण-पूयणाए, जाइ–मरण-पोयणाए दुक्ख-पडिघाय-हेडंआ. परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं जै. परिवंदण–माणण-पूयणाए , जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं ।। म. परिवंदण-माणण-पूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतुं
प्रा. से सयमेव वाउसत्थं समारम्भति, अन्नेहि वा वाउसत्थं
से सयमेव वाउसत्थं समारम्भइ अन्नेहिं वा वाउसत्थं
से सयमेव वाउसत्थं समारभति अण्णेहिं वा वाउसत्थं जै. १५५. से सयमेव वाउ-सत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा वाउ-सत्थं म. से सयमेव वाउसत्थं समारभति, अण्णेहिं वा वाउसत्थं
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[२६२]
अन्न
वाउसत्थं वाउसत्थं
आचाराङ्ग प्रा. समारम्भावेति, अन्ने शु. समारम्भावेइ अन्ने आ. समारंभावेइ अण्णे जै. समारंभावेति, अण्णे म. समारभावेति, अण्णे
के. आर. चन्द्र समारम्भन्ते समारभन्ते समारंभंते समारंभंते समारभंते
वाउसत्थं
वाउ-सत्थं वाउसत्थं
वा
प्रा. समनुजानति । तं से शु. समणुजाणइ ; तं से आ. समणुजाणति, तं से जै. समणुजाणइ ॥ १५६. तं से म. समणुजाणति । तं से
अहिताए तं अहियाए तं अहियाए तं अहियाए तं अहियाए, तं
से अबोधीए । से अबोहीए । से अबोहीए, से अबोहीए । से अबोधीए ।
प्रा. ५९. से तं सम्बुज्झमाने आदानीयं समुट्ठाय सोच्चा शु. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए- सोच्चा आ. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्टाए सोच्चा जै. १५७. से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समट्ठाए ॥१५८. सोच्चा म. ५९. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोच्चा
- भगवतो अनगाराणं वा - इधमेकेसिं नातं खलु भगवओ. अणगाराणं वा अन्तिए इहमेगेसिं नायं
- भगवओ अणगाराणं - अंतिए इहमेगेसिं णायं जै. - भगवओ, अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भगवतो अणगाराणं
इहमेगेसिं णातं
|
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [ २६३] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. भवति- एस खलु गन्थे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, शु. भवइ : एस खलु गन्थे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, आ. भवति- एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे जै. भवइ- एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, म. भवति– एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे,
___ एस खलु नरके । इच्चत्थं गढिते लोके । शु. एस खलु नरए । इच्चत्थं गढिए लोए ।
एस खलु णिरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए एस खलु णिरए ।। १५९. इच्चत्थं गढिए लोए ॥ एस खलु णिरए । इच्चत्थं गढिए लोगे,
जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि वाउकम्मसमारम्भेण वाउसत्थं जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारम्भेणं वाउसत्थं
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं जै. १६०. जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्म-समारंभेणं वाउ-सत्थं म. जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं
म
|
|
प्रा. समारम्भमाणे अन्ने वऽनेकरूवे पाणे विहिंसति । शु. समारभमाणे अन्ने व'णेगरूवे पाणे विहिंसइआ. समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति (५८) जै. समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति ॥ १६१. म. समारभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति ।
से
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________________
आचाराङ्ग
प्रा.
शु.
आ.
जै. बेमि- अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे । १६२. अप्पेगे
म.
म.
प्रा.
शु.
आ.
जै. पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे || १६३. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे
प्रा.
शु.
आ.
न
बेमि- सन्ति सम्पातिमा पाणा आहच्च
से बेमि: सन्ति संपाइमा पाणा, आहच्च
से
बेमि संति संपाइमा
पाणा आहच्च
जै. उद्दवए । १६४. से
संपाइमा
पाणा, आहच्च
बेमि- संति बेमि- संति संपाइमा
६०. से
पाणा आहच्च
म.
T
म.
1
[ २६४ ]
प्रा. सम्पतन्ति य । फरिसं च
शु. सम्पयन्ति य । फरिसं च आ. संपयंति य फरिसं च
जै. संपयंति य ॥ फरिसं च
संपतंति य । फरिसं च
६०. से
के. आर. चन्द्र
खलु पुट्टा एके
खलु पुट्ठा एगे
खलु पुट्ठा एगे
खलु पुट्ट्ठा, एगे
खलु पुट्ठा एगे
सातमावज्जन्ति ।
संघायमावज्जन्ति;
संघायमावज्जंति,
संघायमावज्जंति ॥
संघायमावज्जंति ।
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [२६५] संस्करणों के पाठों की तुलना प्रा. जे तत्थ सङ्घातमावज्जन्ति ते तत्थ परियावज्जन्ति । जे तत्थ शु. जे तत्थ संघायमावज्जन्ति ते तत्थ परियाविज्जन्ति । जे तत्थ आ. जे तत्थ संघायमावज्जंति ते तत्थ परियावज्जंति, जे तत्थ जै. जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ परियावज्जंति, जे तत्थ म. जे तत्थ संघायमावज्जंति ते तत्थ परियाविज्जंति । जे तत्थ
सत्थं सत्थं
प्रा. परियावज्जन्ति ते तत्थ उद्दायन्ति । शु. परियाविज्जन्ति ते तत्थ उद्दायन्ति । आ. परियावज्जंति ते तत्थ उद्दायंति, जै. परियावज्जंति, ते तत्थ उद्दायति ॥ म. परियाविज्जंति ते तत्थ उद्दायति । .
एत्थ एत्थ
एत्थ १६५. एत्थ
एत्थ
सत्थं सत्थं सत्थं
समारम्भमाणस्स इच्चेते आरम्भा अपरिन्नाता भवन्ति । समारभमाणस्स इच्चेए आरम्भा अपरिनाया भवन्ति, समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति, समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति ।। समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिग्णाता भवंति ।
एत्थ सत्थं असमारम्भमाणस्स इच्चेते आरम्भा परिन्नाता भवन्ति । शु. . एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेए आरम्भा परिन्नाया भवन्ति । आ. एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति, जै. १६६. एत्थ सत्थं आसमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति ॥ म. एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवंति ।
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आचाराङ्ग [२६६]
के. आर. चन्द्र प्रा. ६१. तं परित्राय मेधावी नेव सयं. वाउसत्थं समारम्भेज्जा,
तं परिन्नाय मेहावी नेव सयं वाउसत्थं समारभेज्जा
तं परिण्णाय मेहावी व सयं वाउसत्थं समारंभेज्जा जै. १६७. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं वाउ-सत्थं समारंभेज्जा, म. ६१. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं वाउसत्थं समारभेज्जा,
ल
प्रा. नेवऽन्नेहि वाउसत्थं समारम्भावेज्जा नेवऽन्ने शु. ने'व'नेहिं वाउसत्थं समारम्भावेज्जा ने'व'ने आ. णेवऽण्णेहिं वाउसत्थं समारंभावेज्जा वऽण्णे जै. णेवण्णेहिं वाउ-सत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे म. वऽण्णेहिं वाउ-सत्थं समारभावेज्जा, णेवऽण्णे
वाउसत्थं वाउसत्थं वाउसत्थं वाउ-सत्थं वाउसत्थं
प्रा. समारम्भन्ते समनुजानेज्जा । जस्सेते वाउसत्थसमारम्भा शु. समारभन्ते समणुजाणेज्जा । जस्से'ए वाउसत्थसमारम्भा आ. समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते वाउसत्थसमारंभा जै. समारंभंते समणुजाणेज्जा ।। १६८. जस्सेते वाउ-सत्थ-समारंभा म. समारभंते समणुजाणेज्जा । जस्सेते वाउसत्थसमारंभा
प्रा. परिनाता भवन्ति से हु मुनी परिन्नातकम्मे शु. परित्राया भवन्ति से हु मुणी परित्राय-कम्मे आ. परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे(५९) जै. परिणाया भवंति, से हु मुणी परिण्णाय-कम्मे म. परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे
{c}
{c}
{c}
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________________
प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
प्रा.
त्ति बेमि ।
त्ति
शु.
बेमि ।
आ.
त्ति
बेमि
जै.
म.
प्रा.
शु.
आ.
जे
आयारे न
ज आयारे न
जे आयारेण
जै. १७०. जे आयारे न
जे आयारे ण
न
तिमि ॥
त्ति
म.
बेमि ।
प्रा.
छन्दोवनीता
शु.
छन्दोवणीया
आ.
छंदोवणीया
जै. १७२. छंदोवणीया
म.
छंदोवणीया
से
[ २६७ ]
224
६२. एत्थं
एत्थं
एत्थंपि
१६९. एत्थं
६२. एत्थं
पि
पि
पि
पि
संस्करणों के पाठों की तुलना
उवादीयामाना
उवाईयमाणा
उवादीयमाणा,
उवादीयमाणा ||
उवादीयमाणा,
जान
जाणे
जाणे
जाणे
जाण
रमन्ति ।
आरम्भमाणा विनयं वदन्ति ।
रमन्ति,
आरम्भमाणा विणयं वयन्ति;
रमंति,
आरंभमाणा
विणयं वयंति,
रमंति ॥ १७१. आरंभमाणा
विणयं वयंति ॥
रमंति
आरंभमाणा विणयं वयंति
प्रा. सङ्गं ।
से
वसुमं सव्वसमन्नागतपन्नाणेन
शु. संगं ।
से
वसुमं
सव्व - समन्नागय-पन्नाणेणं
आ. संगं (६०)
से
वसुमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं
जै. संगं' ॥१७४. से वसुमं सव्व - समन्नागय- पण्णाणेणं
म. संगं ।
वसुमं
सव्वसमण्णागतपण्णाणेणं
अज्झोववन्ना
अज्झोववन्ना
अज्झोववण्णा,
आरंभसत्ता
अज्झोववण्णा ।। १७३. 'आरंभसत्ता
अज्झोववण्णा
आरम्भसत्ता पकरेन्ति
आरम्भ - सत्ता पकरेन्ति
पकरंति
पकरेंति
आरंम्भसत्ता पकरेंति
अप्पाणेन
अप्पाणेणं
अप्पाणेणं
अप्पाणेणं
अप्पाणेणं
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________________
नो नो
आचाराङ्ग
[२६८] प्रा. अकरणिज्जं पावं कम्म
- शु. अकरणिज्जं पावं कम्मन्तं
- आ. अकरणिज्जं पावं कम्म जै. अकरणिज्जं पावं कम्मं ॥ १७५. तं म. अकरणिज्जं पावं कम्म
के. आर. चन्द्र अन्नेसिं । अन्नेसिं । अण्णेसिं, अण्णेसि ॥ अण्णेसिं ।
णो
|
आ..
तं
तं परिन्नाय मेधावी नेव सयं छज्जीवनिकायसत्थं शु. तं परिनाय मेहावी ने'व सयं छज्जीवनिकायसत्थं
परिण्णाय मेहावी णेव सयं छज्जीवनिकायसत्थं जै. १७६. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं छज्जीव-णिकाय-सत्थं म. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं छज्जीवणिकायसत्थं प्रा. समारम्भेज्जा नेवऽन्नेहि छज्जीवनिकायसत्थं समारम्भावेज्जा, शु. समारभेज्जा ने'वे'न्नेहिं छज्जीवनिकाय-सत्थं समारम्भावेज्जा आ. समारंभेज्जा णेवऽण्णेहिं छज्जीवनिकायसत्थं समारंभावेज्जा जै. समारंभेज्जा, णेवण्णेहिं छज्जीव-णिकाय-सत्थं समारंभावेज्जा, म. समारभेज्जा, णेवऽण्णेहिं छज्जीवणिकायसत्थं समारभावेज्जा,
प्रा. नेवऽन्ने छज्जीवनिकायसत्थं समारम्भन्ते समनुजानेज्जा । शु. ने वन्ने छज्जीवनिकाय-सत्थं समारभन्ते समणुजाणेज्जा । आ. णेवऽण्णे छज्जीवनिकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जै. णेवण्णे छज्जीवणिकाय-सत्थं समारंभंते म. णेवऽण्णे छज्जीवणिकायसत्थं समारभंते समणुजाणेज्जा ।
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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन [ २६९ ] प्रा. जस्सेते छज्जीवनिकायसत्थसमारम्भा शु. जस्सेए छज्जीवननिकाय - सत्थ- समारम्भा आ. जस्सेते छज्जीवनिकायसत्थसमारंभा
जै. जस्सेते छज्जीव- णिकाय - सत्थ-समारंभा म. जस्सेते छज्जीवणिकायसत्थसमारंभा
प्रा. मुनी
शु. मुणी
आ. मुणी
जै. मुणी म. मुणी
परिन्नातकम्मे
परिन्नाय -कम्मे
परिण्णायकम्मे (६१)
परिण्णा - कम्मे ।
परिणाय - कम्मे
त्ति
त्ति
तिमि ।
त्ति
त्ति
संस्करणों के पाठों की तुलना परित्राता भवन्ति से हु परित्राया भवन्ति से हु परिणाया भवंति से हु
परिण्णाया भवंति, से हु परिणाया भवंति से हु
बेमि ।
बेमि ।
बेमि ॥
बेमि ।
Page #304
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________________
Ayāramgasuttam edited by Prof. H. Jacobi, 1882 A.D.
Though late but fortunate to get a copy of the Ācārānga, Part I cdited by Prof. H. Jacobi' who cdited it on the basis of a palm Icaf MS. A of 1292 A.D. and a paper MS. B of 1442 A.D. He consulted a number of other MSS. (all of latcr date) but they did not differ much, therefore he did not think it advisabe to note down variants from them.? According to him MS. A at times retains original mcdial consonant whereas MS. B prefers a substitute. In his text medial consonant is retained provided both thc MSS. agrce and if one of them drops medial consonants then an italicised letter is used e.g. *vadati' is printed if both give this reading and if one of them has 'vayai' then ‘vadati' is printed. An italicised h indicates that one of thc MSS preserves the original aspiratc.
His text of the first chapter is reproduced here in its original form. It reveals that Prof. W. Schubring did not follow him verbatim and he dropped the medial consonants in consonance with the rules of Prakrit grammars composed at a very late age, i.c. almost 1000 years after the composition of the earliest and oldest parts of the Amg. canonicat works.
Jacobi's text has its own merits for us as it preserves archaic readings which arc in cnsonance with those of this linguistically reedited text and it authenticates the contention of Āgama Prabhākara Muni Sri Punyavijayaji that in the Amg. Prakrit mcdial consonants were not dropped so often as it is done in the case of Mahārāștri Prakrit.
The method of Prof. Jacobi is worth commenadable in the sense that he has donc grcat service in prescrving the archaic nature of Amg. at least by taking note of older forms wherever they were available in contrast to Prof. W.Schubring who avoided noting down such variants in the text of Ācārāṇga edited by him and that way one is at loss in discovering the real archaic nature of the language of ancient Jain canonical works.
1.
3.
Published by the Pali Text Society, London, 1882 A.D. See Preface, page, No. 4 of his Ayārāmgasuttam. The author of this book is very grateful to Prof. J.C. Wright, SOAS, London for his kind gesture to supply the Xerox of the text. See pp. XVIII - XXV of this edition.
4.
Page #305
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________________
ÂYÂRAMGASUTTAM.
PADHAME SUYAKKHAMDHE.
PARIAMAM AJJIIAYANAM.
BATTHAPARINNÂ.
Suyam me, dusam ! tena bhagavay& ovam akkhåyam: ibam egesima no sanna bhavati; ll lll tani jaba: puratthimdo va disko &gao aham amsi, dahiņão và dislo igao aham amai, paccatthimão vá disko agao abam amsi, uttarào và disão ágao abam amai, uddb&o và disko ågao abam amsi, ahedisko vâ igno abam amsi, annatario và disão vê aņudisão và ágao aham amai. evam egesim no pátom bhavati: 1|2|| atthi me Ay& gvardie, n'atthi me aye evardie, ka aham. doi, ke vå 12 io cue peccâ bhavissimi 13 se jam puņa jāņějjá sabasammudiyke paravågaraņeņam annesima v& amtie soccâ, tam jab&: puratthimào và disko &gao abam amsi jára 8 anna. jarlovå disão vá aņudisko và &gao aham amsi; evam egesim! natam bhavati: atthi mo dyå gvavaie, jo imao disão aņudisko aņukam carai, savvão disko, savvão aņudisão, so 'ham. 114|| se
loyavat 10 kmm với 1 kiriya vật: akarissan aham, 17 kärivissara 18 d'aham karao yâvi samaņunne bhavissâmi ; @yávamti" savvávamti logarpsi kammasamârambha parijaniyavvá bhavamti. || 5 aparinnayakammokbalu ayam purise, jo imao disko aņudiado và aņusamcarni, servo disão anudisão sheti, anegarávao joņio samdhei, virQvarave phase ya padiwyn veci. 16U tattha kbalu bhagavata parinna* paveiya : imanna o eva jiviyaksa parivarpdanamàņaņapayaņãe jái.16 22 maranamoyando dukkbaparigh@yahoum eyêvamti savvâVamtid' logampai 16 kammasamirambha parijamiyavvá bha? A atrim. ' A from a'i. Dlarg. B m. A'. • B sabasammale. A 09 A . Bovam dábipao và puratthimdo vê, ato. • B adds vi. 10 Alet " B kama. Bump. UB nrosum. 1 3 9. " A "vutai, Ajil.
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आचाराङ्ग vasti. jass' ste kammasamirambbe parinnaya bhavamti, Bahu muni parinnaya -kamme 17 tti 18 bemi. 11711111
padbamo uddesao. atto loe parijuņne' dussama bobe avijâņao, assim loe pavvahie 29 tattha tattha pucho para aturâ paritávěmti. ||1|| samti pana
pudło siya, lajjumāņā puụho plea; anagarà 'mo tti oge pavayamâna, jam iņaip virävarůvebiņa satthchip pudhavikamasamârumbbeņampudhavisattham samarambhamåņos anegarüve påņe vihimsai. 112| tattha khalu bhagavaya parinne' paveiya : imassa oleva jiviya sa parivamdaņamå nanapûyaņde jâimarañamoyanke$ dukkhaparigbåyaheum se sayam eva
pudhavisattbam amârambhati, annebim va samarambhävei, 31 anne va puạbavisattham samarambhamte i samaņujāņai. ||3||
tam se ahiyâe, tam abohie ; de tam sambujjhamane âyâniyam samutthae & socê khalu 10 bhagavao anagårânam (v& antio),' iham egesim nayam bhavati; esa kbalu gamthe, esa khalu mohe, esa khalu mare, esa khalu narae, icc atthama gadhie loe, jam iņam virðvarúvebim 13 satthehim 's pudhavikammasamârambheņam pudha visatthain samarambhamaņe anno anegarůvo pano vihiinsai. se bemi. 1/4!!
app ege aindham ! abbhe, app ege amdham" acche ; app ego påyam abbho, app ege påyam acche ; app ege guppham 14 33 abbhe, app ege guppham acche); 15 app ege jamgham
abbhe 2; app ege jäņum abbhe 2; app ege ûrum abbhe 2; app oge kadim abbhe 2; app ego nabbim 11 abbhe 2; app ege udaraig 16 abbhe 2; app 17 ege pithim abbhe 2; app ege påsam abbho 2; app ege uram abbhe 2; app ege hiyam abbho 2; app ego thaņam abbhe 2; app ege khamdham ubbho 2; app ege båbum abbhe 2; app ege hatthom abbho 2; app ego amgulim abbhe 2 ; app ego naham" abbbe 2; app ege givam abbhe 2; app ege haņum 18 abbhe 2; app ege huţbam 19 abbhe 2; app ege damtam abbhe 2; app ege jibbbain abbbo 2; app ege talum abbho 2; app oge galam 1 B kamini. "Ati.
"A ny, B na. A půso.• Bom. • A *bhe mâni. A jar. A siin, cf. 1. PA om; Baya. • B suo. '10 Bom. An. 12 A 081.18 A andhumi. 16 A gupphagam. B 2. " Buyo. A after the following phrasu.
18 Buam.
A hao.
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आचाराङ्ग
abbhe 2; app ege gamdam abbhe 2; app ege kaņņam' abbhe 2; app ege nåsam " abbhe 2; app ege acchim abbho 2; app ege bhamuham 20 abbhe 2; app cge nilâdam abbhe 2; app ege 34 sîsam abbbo 2; app ege sampumarao, app ege uddavao. ||5|| eitlia suttham samdrainbhamåņassa icc gte samarambha apariunaya' bhavamti. eutha & suttham asamdrambhamåņassa icc eto samdrumbhd parinnbyad bhavamti. tam parinnaya' mehêvî n" ova sayam puchavisattham samarambhéjja, n'l eva annehiņa pudhavisattham samarambhavějjà,anno pudhavi. sutthain suinūraiņbhainto na samunujančjja. jass' cto puthuvikammasamarambha parinnäy&' bhavamti, so hu muni parinnayakammetti 23 bemi. 116112!
biio uddesao. 80 bomi," jaba: anagare ujjukade niyâgu-padivanno: amd-36 yam kuvvamano viyâhie. ||1|| jàe suddhao nikkbumto, tâm eva aņupalijjâ viyahittu 5 visõttiyum (puvvasamjogain pâțbântaram] paņaya vîra maldvihiin logam ca âmão uhisumčcceakutobhayam se beni. ||2|| n8 eva sayum logurn abbhäikkhéjja, n8 eva attâņam abbhäikkhčjja; je loguin ubbhậikkhui, so attâņam abbhäikkhai; jo uttânamp ubbhàikkhai, so logaipublbâikkhui. ||311 lajjamânâ puậho påsa, añagâra 'mu tti ege o pavayamåņa, jam iņam virû varů- 42 vehiin satthehim udayakaminasamarambheņa udayasattham samârambhamâņa" anne 18 ancgarûve påņo vihimsamti. |14|| tattha khalu bhagavay& purinnâ 18 paveiyâ : imassa c' eva jîviyasal purivamdaņamâņaņapûyanae jâimaranamoyaqûo 13 dukkhaparigh@yah euin se suyam ova udayusutthan su madrainbhati, annehiin !va udayasattham samarambhậvoti, anne '' va udayasuttbam samirambhamte agmanujânati. 1.51) tam so ahiyao 13 se abohio se tain sambujjhomino etc. [all 43 down to : vihimsui. 80 bemi 2, 4: substitute only udaya for pudhavi]. 116|| samti pâņa udayanissiya jîvê aạogo, iham ca klalu bho añagarāņain udayam jiva viyåhiya. Buttham 20 Bohim. » Bitthum. " A adilo nova. 13 A ti.
B ulls so. "A oyu; pathântara nikůya = moksha (uiyûga - yajaa). cf. 2.! Aliya. B vijnhitta. Ayoo. Babhik
A pari,
cf. 8. ". A loyo 19 Aoko NAB 'no. cf. 2. a cf. 2.. Bom. all down to virûra.
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आचाराङ्ग
46 cettha aņuvii pisa pudho +5 sattbam paveiyam.' aduvâ
adinnadanam." kappai no! kappai no paum aduvaló vibhusde. pudbo satthehim viuttamti. Ittha vi tesim no8 nikaranae. ettha sattham samarambhamåņassa icc ee Arambha aparinnäyâ ' blavamti. Oltha satthiam asamdrambhamanassa ico es áram bbê parinday& ' bhavarpti. 1171 tarp purisdaya 19
mehåvi nå eva bayam udayasattham samaram bhčija, no ev' 49 annebim 1 udayasattham samarambhåvējjå etc. (all as in 2, 6 down to the end; substitute only udaya for pudhavi]. |18||311
taio uddesao.
Bo bemi: n'eva sayam logam abbhåikkhějja, n'eva attanam abbháikkbčija : jo logam. abbhäikkhai, se attânaq abbhåikkhai; je attâņam abbhäikkhai, se logam abbhäikkhai.' ||1|| je dihalogasatthassa kheyanne, se asatthansa kheyanne; je aantthassa kheyapne, se dihalogasatthassa kheyunne. 2!!
virehim eyam abhibh ûya dittham sumjatehim saya 55 jasbim sayè appamattehiņ. je pamatte guņatth1,4 se daņdo
pavuccai. tam parinndya: inehavi: iyaņim no, jam aham puvvam akási pamdonam. |3|| lajjamávå pudho pása (all as
in 2,2-4 down to vihimsaí ti bomi, substitute only agaņi for 57 pudhavi]. ||4 and 511 samti pânâ pudhavinissiya tananiasiya
pattanissiya: katthanissiya 8 gomayanissiya kayavardnissiyan," Baqti sampâtimå påņa abacca sampayamvi, aganim ca khalu puțțba ege samghayam ávajjamti. je tattha samghayam ävajjarti, te tattha pariyávajjamti; je tattha pariyê vaijanti, to tattha uddayanti.7 8611 cttha satthamp samârambhami. paana ico ee arambha aparionày&bhavaqti; črtha sattham
asamararabhamåņassa ioo ee drambhd parinnaya bhavamti. 59 tarp parinnaya mehävi n'eva sayam [all as in 2, 6 down to the end. agani for pudhavi]. 117|14||
cauttho uddesao... tan' no karissami samuthâo: matta maimam abhayam 1 pâthântaram: puụho 'püanm pavolitam. A reti. A po, B no. *Baliava.
"A loyo. : Badds ti. ; cf. 2. '. • Borthie.. cf. 2.1. A ori". ? Bonti. Cod. "A om.
i B tam. • B 'aya.
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आचाराङ्ग
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vidittà. tam jo no karac, eso, 'varae ; ctthos 'varae, esa aņagăre tti payuccuti. 11111 je gune, se avatte ; je avatto, se gune. uđdlam gdham tiriyam påîņam påsamâņo růvàim påsati, suņamâne saddûim suneti.* 1211 uqaham adbam tiri- 68 yar påîņa mucchamine růvesu mucchati saddesu yavi.s esa loo viyâhie, éttha agutte añânâe puno puņo guņåske vamkasamåyåre matte agáram ? dvase. 1311
lajjamåņå pudho pása añagårå 'mě tti ege pavayamaņâ, jam iņam virůvarQvohim satthehim vanassaikammusamarambheņam vuņasbaisattham samârambhamåņo auno & aņegapåņe vihiņsati. ||4|| tattha kbalu ete. (all as in 2, 3, 4 70 down to vihim sati se bemi. vaņassui for pudhavi). 15 ||
imam pi jäidhammayam, oyam pi jâidhammayam; 10 imam pi vuddhidbammayam, eyam pi vuddhidhammayam; imam pi cittamatayamp, eyam pi cittamatayaņ; imam pi chippa mildi, ayam pi chinnam milli ; inom pi dhåragam, eyama pi aharagama; imam pi aņiccayam, (eyam pi aniccuyam; imam pi asasayam),” cyam pi asdsayam; imam pi cayávacaiyam, eyam pi cayávacuiyum ; imam pi vipariņamnadhamınayaın, oyain pi vipuriņamudhammayam. 116 11
éttha sattham samarambhamâņassa etc. (all as in 2, 6 73 down to the end. vaņasaai for pudhavi]. 17|1511
pumcamo uddesao.
se bemi. samt' ime taså påņa; tam jaha: amdaya, poyaya, jaräuya, rasa yâ, samseyayê, sammucchima," ubbhiya, ovaväiya. 78 esa samsåre tti puvu.ccati ||1|| mamdassa o aviyanao. nijjhaittà padilehitt& patteyam parinivviņam savvesim påņâņam, Bavvesim bhūyanam, savvesim jivåņum, savvesim sattâņam, asd yam aparinivvåņam mahabbhayam dukkham ti bemi tasanti påņa padiso disîsu ya. tattha tattha pudho pasa aura puriyàvemti.5 12 11 samti påņa pudho siyâ, lajjnmåņå puụho pasa anagårå mě tti ege pavayamåņa, jam iņam virûvarûvehim buttholim tasakayasamirambheņam tasakaya- 81 sattham samdrambhamaņe anne anegarůve påne vihimsati. ||3||
• Bitth. • Boni. * AB &vi. • B loge. * garam. cf. 2.1. A van or can. 10 B mm. "A om(-).
i Biyû. B iamdussüvi. A ass. Aucvr. o B amti.
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आचाराग
.
.
[all as in 2, 3, 4 down to vihimsati. se bemi. tasakåya for pudhavi]. 1411
app ege accie bañasti, app ege ajiņae vahamti, app ege 6 mamsão vahamti, app ege soņiyae vahamti, evam bidayâe pittão vasło picchâe pucchko valde siingão visiņão daintie
daļlde nahke nhůruņie atthio ațțhimimjke to atthae " 82 aṇatthår. app ege hiņaimsu me tti va, app ege himsamti mo? tti vå, app ege himsissamti mo? tti vâ vahamti. 11511
attha sattham samarambhamnassa icc ele arambhå etc. [all as in 2, 6 down to the end, tasakâys for pudhavi]. 16|16||
chatěho uddesao. 83 paha ejassa ' dugumchaņãe ? ayam kadaņsi: abiyam ti
nacca. je ajjhattham jâņai, se bahiya jåņai; je bahiya jåņai, se ajjhattham jâņai. ctum tulam annesim. samtigaya daviyâ nå''vakamkbamti jivitum. ||1|| lajjamaņa pudho pasu aņagårå mě tti oge pavayamâņâ, jam iņam virðvarů vehim Batthehim vêukammasamarambheņa vâusattham samarambha
måņà anno eņogarüves påņe vihimsamti 12 || etc. (all as in 88 2, 3, 4 down to vibimsati. se bemi. vdakaya for puậhavi]. 11311
sampti sampâimâ pâņå khacca sampayamti ya pharisam 8 ca khalu putthå ege samghayam avajjamti; je tattha samghayam dvajjamti, te tattha pariyûvajjamti; jo tattha pariyavajjamti, te tattha uddayamti. ||411
ettha sattham samarambhaunâņassa icc ete arambha etc. 89 [all as in 2, 6 down to the end. vậukâya for pudhavi.] 1151
ittham 10 pi jana yvådiyamânâ, je åyåre na^ ramamti; ärambhamaņ& viņayam vayamti chamdovaniya 1 ajjhovavanna 18 arambha sattå pakaremti samgam. Be vasu
mam savvasamannigayapannåņeņam's appâņeņam karanijjam 91 pâvam kammam tan'' no annesim. 116|| tam parinda ya'3 inchâ
vi n'eva sayam chajjivaniķiyasattham samarambhejjå etc. [all as in 2, 6 down to the end. chajjîvanikaya for pudhavi]. 117117||
sutlumo uddosud. puçhumam ajjhnyaņam.
satthapurinnä samatta. • Rovaup. Bom. • B hiyao. 1 io. 10 A sitthaniinjjhảo. 11 A om.
i púthâutaram : puhuyu egasit. A gil. B disam. A .) n. . Avan. • A per i corrvijjo. * B Sviji". Bitthu. 10 Ao'. A ".
12 viniyâ,
13 cl, %.
Boni.
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परिशिष्ट
भाषिक दृष्टि से आचारांग के
पुन: सम्पादन
और
अर्धमागधी भाषा की परिस्थापना के विषय में
अभिप्राय और समीक्षा से उद्धृत अंश
मूल
APPENDIX परिशिष्ट
Excerpts from the Reviews and Opinions
on the
Linguistically Re-editing of the Acaranga-sūtra
and
Restoration of the
Original Ardhamāgadhi Language
277
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278
आचाराङ्ग
अनुक्रमणिका CONTENTS
. आचाराङ्ग : प्रथम अध्ययन (भाषिक दृष्टि से पुनः सम्पादित)279 . प्राचीन अर्धमागधी की खोज में, १९९२
283
300
Restoration of the Original Language of Ardhamāgadhi Texts, 1994
. परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और
अर्धमागधी, १९९५
314
• विविध (Miscellaneous)
320
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परिशिष्ट
279
आचाराङ्ग प्रथम श्रुत-सकन्ध : प्रथम अध्ययन confera Efe À ya Hifa)
Ācārārga, Chapter I I have carefully perused your data (a fascicule of the first uddesaga of Sattha-Parinnā-Ācārāņga) given in the notes and the constituent-text. You have taken tremendous trouble in porting over every letter of the text. I hope your effort will inspire other scholars to come together for forming an institute for preparing a Critical Edititon of the Amg. Canon. Sangli, 15-5-93.
-Prof. G. V. Tagare
The restoration of the original Ardhamāgadhi of the Acárānga 1.1 attempted by Prof. K. R. Chandra is a memorable effort in the direction of the reconstruction of that language and should be extended to the entire portion of the book I as well as to other ancient āgamas of the Ardhamāgadhi canon. What we now expect from him is to cnunciate the concrete rules for the formulation of the Ardhamāgadhi language and work out its standard grammatical system. That will grcatly help others also to carry out further work on the phase II āgamas. Dr, Chandra deserves the compliments of the philologists, linguists, and the students of early Nirgrantha religion. The next problem to tackle with is the origin of the Ardhamāgadhi language recently claimed from the Sauraseni used in the Yāpaniya and lately in the Digambara surrogate agama works. Varanasi
-Prof. M. A. Dhaky 7-2-97
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280
आचाराङ्ग
आगमों की अर्धमागधी भाषा का मूल स्वरूप निर्धारण करने के लिए आप जो प्रयत्न कर रहे हैं, वह बहुत उपयोगी है । आगम की भाषा श्रुतधर मुनियों और आचार्यों के विहार-स्थल-परिवर्तन के साथ-साथ परिवर्तित होती रही है। इसलिए अर्धमागधी के प्राचीनतम स्वरूप को खोजना बहुत श्रम-साध्य कार्य है। प्राकृत व्याकरणों में अर्धमागधी के नियम बहुत स्वल्प हैं इलिए अर्धमागधी के स्वरूप का निर्धारण बहुत जटिल काम है फिर भी प्राचीन प्रति के आधार पर जो कुछ किया जा रहा है, उसका अपना महत्त्व है।
पाठ-निर्धारण के विषय में अन्य आगमों के संदर्भो पर ध्यान देना भी आवश्यक है। लाड
-आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ५-१२-९६
जैन अंग-आगम साहित्य भगवान् महावीर के उपदेशों के आधार पर अनेक साक्षात् शिष्यों अर्थात् गणधरों के द्वारा निर्मित हुआ और श्रुत-परम्परा से उनके शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा संरक्षित होता रहा, किन्तु स्मृति पर आधारित होने के कारण उसके भाषायी स्वरूप में कुछ परिवर्तन भी आया और कुछ स्खलनाएँ भी हुईं । कालान्तर में उन्हें संरक्षित करने हेतु जो वाचनाएँ हुईं, उनमें उन पर क्षेत्रीय प्राकृतों का प्रभाव आता गया । नवीं शती तक आगमों का जो पुनर्लेखन होता रहा उसमें मूल अर्धमागधी का काफी अंश बचा रहा किंतु क्रमश: लिपिकारों की असावधानी एवं क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव से उनमें महाराष्ट्री प्राकृत के शब्दरूपों का बाहुल्य हो गया । आज जो अर्धमागधी आगम उपलब्ध हैं उनके शब्दरूप महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित है । यद्यपि उनकी प्राचीन प्रतियों में आज भी अनेक मूल अर्धमागधी स्वरूप की झलक मिल जाती है। आज आगमों के प्रकाशित संस्करणों की तो यह स्थिति है कि उनमें एक ही पैराग्राफ में एक ही शब्द कहीं अपने अर्धमागधी स्वरूप में है तो कहीं महाराष्ट्री प्राकृत में । अतः आज यह आवश्यकता है कि आगमों के प्राचीन अर्धमागधी स्वरूप को उपलब्ध प्राचीन शब्द-रूपों के आधार पर पुनः
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281
परिशिष्ट संरक्षित किया जाय, ताकि आगमों में भगवान् महावीर की वाणी के मूल शब्दों को हम यथावत् सुरक्षित रख सकें । आगमों की भाषा के अर्धमागधी स्वरूप के संरक्षण के लिए प्रो.के.आर.चन्द्रा विगत ८-१० वर्षों से संशोधन कर रहे हैं। उन्होंने चूर्णिगत पाठों, प्राचीन हस्तप्रतों और उपलब्ध प्रकाशित संस्करणों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर आचारांगसूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध, प्रथम अध्ययन की मूल भाषा का पुनःस्थापन किया है। उनका यह प्रयत्न स्तुत्य है। यह एक सुनिश्चित लक्ष्य है कि आचारांग आज भी भगवान् महावीर के मूल वचनों को हमारे सामने प्रस्तुत करता है। पाश्चात्य विद्वान एकमत से यह मान रहे हैं कि यह ग्रंथ अपने वर्तमान स्वरूप में ई.स.पूर्व ३-४ शताब्दी की रचना है और इसकी रचना अर्धमागधी भाषा-क्षेत्र में हुई है। अतः इसकी भाषा में परवर्तीकाल में जो विकृतियाँ आ गई हैं उनका संशोधन आवश्यक है। हम प्रो. के. आर. चन्द्रा के अत्यन्त आभारी हैं कि उन्होंने इसके प्राचीन अर्धमागधी स्वरूप को पुनःस्थापित किया हैं । उनका यह प्रयत्न पूर्णतया प्रामाणिक है और आगम साहित्य के सम्पादन की दिशा में नये आयाम उद्घाटित करता है । विद्वानों के लिए यह न केवल प्रेरणास्वरूप है अपितु अनुमोदनीय और अनुकरणीय भी है । उन्होंने शब्द-रूपों के जो सांख्यकीय आँकडे प्रस्तुत किये हैं और विभिन्न संस्करणों के आधार पर जो तुलनात्मक विवरण दिया है वह उनके कार्य की प्रामाणिकता का सबसे बड़ा प्रमाण है।
आशा है कि ऐसे प्रयत्न निरन्तर होते रहेंगे और हमारे युवा-विद्वान इस दिशा में रुचि लेंगे। वाराणसी
-डो.सागरमल जैन १-२-९७
તમે ઘણો પરિશ્રમ કરો છો, ઘણી ગવેષણા કરો છો. આ મારો અભિપ્રાય છે. માંડલ (વિરમગામ), ગુજરાત
– જંબૂવિજય १०-१-८७
(જૈન આગમોના સંપાદક વિદ્ધદર્ય મુનિશ્રી)
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आचाराङ्ग
ભગવાન મહાવીરના ઉપદેશની ભાષા અર્ધમાગધી હતી એ હકીકત ભગવતીસૂત્ર જેવા આગમ ગ્રંથોના આંતરિક ઉલ્લેખો અને આચારાંગ, સૂત્રકૃતાંગ (બન્નેનાં પ્રથમ શ્રુત-સંધ), ઋષિભાષિત આદિ પ્રાચીન ગ્રંથોની ભાષાના અધ્યયન દ્વારા નિર્વિવાદ સિદ્ધ થાય છે. પરંતુ જ્યારે ઉપલબ્ધ આગમ ગ્રંથો (પ્રકાશિત અને હસ્તપ્રતસ્થ)માં નજર નાખીએ છીએ તો તેમાં ભાષાનું સ્વરૂપ એટલું બધું બદલાયેલું નજરે પડે છે કે આગમોના અભ્યાસી વિદેશી વિદ્વાનોએ આ ભાષાનું નામ જ જૈન મહારાષ્ટ્રી આપી દીધું !
આગમોનું અર્ધમાગધી કલેવર આખું બદલાઈને મહારાષ્ટ્રીમય બની ગયું હતું. આમ કેમ બન્યું ? તેનાં અનેક ઐતિહાસિક-સાંસ્કૃતિક કારણો છે. આ પ્રશ્ન ડૉ. કે. આર. ચન્દ્રને થયો તે દિવસથી તેઓ પ્રાચીન અર્ધમાગધીની ખોજમાં લાગી ગયા. દાયકા ઉપરાંતની તેમની આગમ-ગ્રંથોમાં અર્ધમાઘધીને શોધવાની પરિભ્રમણ-યાત્રાનો હું સાક્ષી છું. પ્રાચીન હસ્તપ્રતો, પ્રકાશિત આગમો, આગમિક ટીકાઓ, સમકાલીન શિલાલેખો, વ્યાકરણો અને અન્ય સાધનોના ખંતપૂર્વકના અધ્યયનના અંતે અને હજારો શબ્દોના ધ્વનિ-પરિવર્તનોવાળા પાઠોની કાળજીપૂર્વકની નોંધો અને ચકાસણી પછી તેમને આગમોમાં જ છુપાઈ રહેલા અર્ધમાગધીના અંશોની ઝાંખી થઈ, આ પ્રયત્નનું અંતિમ ફળ છે પ્રસ્તુત ગ્રંથ. આમાં તેમણે ભાષામાંના ધ્વનિ-પરિવર્તનને મુખ્યત્વે કેન્દ્રમાં રાખી આચારાંગ, પ્રથમ શ્રુતસ્કંધના પ્રથમ અધ્યયનનું નવસંસ્કરણ કર્યું છે.
282
પ્રાચીન આગમિક અર્ધમાગધીની ઇમારતનો નકશો તેમણે જાણે કે બનાવી લીધો છે. વિદ્વાનો પાસે મંજૂર પણ કરાવી લીધો છે. તેમાંથી એક ઓરડી અહીં નમૂના રૂપે તેમણે ચણી આપી છે.
- ડૉ. રમણીક શાહ
અમદાવાદ
૨-૪-૯૭
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परिशिष्ट
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१. प्राचीन अर्धमागधी की खोज में, 1992 (1. PRACINA ARDHAMAGADHI KI KHOJA MEN)
एक विशिष्ट प्रयत्न कई विद्वानों ने जैनागम-आचारांग का समय ई. स. पूर्व ३०० के आसपास रखा है किन्तु अब तक किसी विद्वान ने उस समय में लिखे गये अशोक के शिलालेखों की भाषा के साथ आचारांग की भाषा की तुलना नहीं की। किसी को यह विचार भी नहीं आया कि जब दोनों का लगभग एक ही समय था तब भाषा में इतना अन्तर क्यों ? दूसरी बात यह है कि भ. महावीर और भ. बुद्ध दोनों ने अपने उपदेश बिहार में दिये हैं तो उस प्रदेश की भाषा में ही दिये होंगे तब फिर जैनागम और पालि पिटक की भाषा में भी समानता क्यों नहीं?
इन्हीं प्रश्नों को लेकर डो. के. ऋषभचन्द्र ने सर्व प्रथम अशोक के लेख, पालि पिटक और जैनागम-आचारांग की भाषा का अभ्यास करने का प्रयत्न किया है। मै साक्षी हूँ कि इसके लिए उन्होंने अपने अभ्यास की सामग्री लगभग ७५ हजार कार्डों में एकत्र की है। आचारांग के साथ साथ सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, सुत्तनिपात और अशोक के शिलालेखों के शब्दों के संस्कृत रूपान्तर के साथ कार्ड तैयार करवाये है । इसी सामग्री का प्रस्तुत ग्रन्थ "प्राचीन अर्धमागधी की खोज में" में उपयोग किया गया है। उन्होंने इस समस्या के समाधान के लिए जो लेख लिखे उन्हीं का संग्रह प्रस्तुत ग्रंथ में है।
प्रस्तुत ग्रन्थ एक छोटी सी पुस्तिका ही है परन्तु उसके पीछे डो. चन्द्र का कई वर्षों का प्रयत्न है-यह हमें भूलना नहीं चाहिए । जैनागमों के संशोधन की प्रक्रिया शताधिक वर्षों से चल रही है किन्तु उस प्रक्रिया को एक नयो दिशा यह पुस्तिका दे रही है यह यहाँ ध्यान देने की बात है और इसके लिए विद्वज्जगत् डो. चन्द्र का आभारी रहेगा इसमें कोई संशय नहीं है।
विशेष रूप से भगवान् महावीर ने जिस भाषा में उपदेश दिया वह अर्धमागधी मानी जाती है तो उसका भूल स्वरूप क्या हो सकता है यह डो. चन्द्र के संशोधन का विषय है। इसीलिए उन्होंने प्रकाशित जैन आगमों के पाठों की परंपरा का परीक्षण किया है और दिखाने का प्रयत्न किया है कि भाषा के मूल
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आचाराङ्ग स्वरूप को बिना जाने ही जो प्रकाशन हुआ है या किया गया है अन्यथा एक ही पेरा में एक ही शब्द के जो विविध रूप मिलते हैं वह संभव नहीं था । उन्होंने प्रयत्न किया है कि प्राचीन अर्धमागधी का क्या और कैसा स्वरूप हो सकता है उसे प्रस्थापित किया जाय । आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण का भी नयी दृष्टि से किया गया अध्ययन प्रस्तुत ग्रन्थ में मिलेगा ।
'क्षेत्रज्ञ' शब्द के उदाहरण के तौर पर विविध प्राकृत रूपों को लेकर तथा आचारांग के उपोद्घातरूप प्रथम वाक्य को लेकर जो चर्चा भाषा की दृष्टि से की गयी है वह यह दिखाने के लिए है कि जो अभी तक मुद्रण हुआ है वह भाषा विज्ञान की दृष्टि से कितना अधूरा है।
डो. चन्द्र का यह सर्व प्रथम प्रयत्न प्रशंसा के योग्य है । इतना ही नहीं किन्तु जैनागम के संपादन की प्रक्रिया को नयी दिशा का बोध देने वाला भी है
और जो आगम-संपादन में रस ले रहे हैं वे सभी डो. चन्द्र के आभारी रहेंगे। अहमदाबाद ११-१२-१९९१
-पं. दलसुख मालवणिया
In Search of the Original Ardhamāgadhi
The collection of Prof. K. R. Chandra's studies "प्राचीन अर्धमागधी की खोज में" aims at ascertaining the linguistic characteristics of the original language of the Svetāmbara Jain canonical texts or what is isually referred to as the Ardhamnāgadhi canon. Chandra points out, through a detailed comparison of the canonical texts as edited by various modern scholars, the disagreement and diversity of ihe criteria of selecting the various readings. le as made quite obvious the conscqucnt linguistic heterogeneity that creates problems for making out the real character of the language of the Ardhamāgadhi canon. Secondly, he has sought to point out with the help of the Eastern Asokan and Pali language that inspite of the considerably changed character (under the impact of the standard Mahārāștri Prakrit) of the language of the canonical texts during the long period of transmission certain old readings have been preserved that reveal some of the phonological, morphological and lexical traits of the
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original Ardhamāgadhi, and hence in setting up the text they should be preferred over other modernized readings. In support of his contention Chandra has presented some typical case-studies. He has also examined the treatment accorded to Ardhamāgadhi by Hemacandra in the Prakrit section of the latter's grammar. Thus these studies put forth a strong and convincing plea for restoring the original character of the language of the Ardhamāgadhi canonical texts (some sections and portions of which probably go back to the pre-Asokan period) so far as it is possible on the basis of all the available relevant texual data. Ahmedabad
- Prof. H. C. Bhayani 11-12-91
This treatise, Prācin Ardha-Măgadhi ki khoj.mem, 'In Search of the Original Ardha-Māgadhi' written in Hindi by K.R. Chandra, is one of the finest specimens of research on Ardha-Māgadhi (=Amg.). The author is to be congratulated for taking pains in doing such a productive research work. The main purpose of the author is to find out the original features of Amg. in which the canonical literature of the Svetāmbaras was written.
The book has eight chapters, and a detailed content where each point of the text discussed is indicated. It has a short bibliography as well. But it does not liave any word-index.
We are grateful to the author for presenting such a thoughtprovoking research work. The arguments put forward by the author for finding out the original features of Amg. are praiseworthy. In the debris of different readings, Dr. Chandra, intending to find out the criginal Amg., has compared the Prakrit forms with the Asokan inscriptions and Pali canons, and in his opinion, what corresponds with these two languages must be regarded as the original old readings of the Svetāmbara canons. He further adds that during the long period of transmission, lots of original readings have undergone changes, sometimes beyond recognition at the hands of the copyists, and, as a result, we have these confused readings of the Agama texts. While accepting his arguinents, it can also be added
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that sometimes lack of editorial discipline and grammatical insight may be responsible for these divergent readings. Throughout his book Dr. Chandra has put forth a strong argument and a convincing plea for tracing the original readings of the text. He has neither discarded any readings, nor has accepted any one, but has presented all the readings before the scholarly world to apply their power of judgment to select any one for the original Amg. In some cases he has also suggested the older readings of the canonical texts. The present treatise will contribute a lot to the field of Prakrit textual criticism (for which see the article by S.R.Banerjee in 'Jain Journal', Vol. XXII, No.3, 1988, pp. 87-97). Dr Chandra has discussed at great length various readings of the Śvetāmbara Jaina canonical texts as edited by modern scholars. He points out quite clearly the diversity and disagreement of the readings which baffle all our attempts to find out the original character of the Amg. language. He has compared the different readings of the same word; e.g. in the Acarängasūtra-the readings cgadā vs cgatā, ṇassati vs nāsati, etaṁ vs eyam are found indiscriminately. In his opinion, there must be some forms which are earlier than the rest. Dr Chandra has also said that grammatically they are not wrong, but these readings puzzle the scholars to trace the original readings of the text. In the Acaranga-sutra as edited by Schubring, Agamodaya, Jain Vishva Bharati and MJV, different forms of the same word have been accepted, e.g., logāvāi (Schub.), loyāvādi (Agamo.), logāvāi (JVB) and logāvādi (MJV). It is to be remembered that the change of k into g in Amg. is, of course, very common in the Svetambara canonical texts, but they are limited to a group of words; and hence all the k's are not changed into g's and in that case there will be no existence of k at all in Amg. texts. Similar is the case with the elision of intervocalic d. The loss of intervocalic single consonantal sounds is a tricky problem in Prakrit, and Amg. in particular. No norm is established in this regard, except the prescription of the Prakrit grammarians. Editors of Prakrit texts fly into fancy in accepting or rejecting the readings accordingly. However, the points raised by Dr. Chandra is commendable.
In search of the original Amg. Dr. Chandra has raised seve
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ral points in his book. In the first chapter (pp. 1-34) he deals with different readings relating to the loss of non-conjunct intervocalic consonants found in different cditions of the samc texts. Out of many, only a few examples can be cited : ctar-eyaṁ, logan-loyam, bahuga-bahuya, bhagavatā-bhagavayā, paveditā-pavciyā, udaramuyaram, cute-cuc vs cuto-cuo, adhe-ahe, thibhi-thihi, and so on. In fact, one of the greatest difficultics in Prakrit in gcncral, is the condition for the loss of intervocalic k. g, c. j, t, d, p. y, v (Hc. I. 177) which are generally elided in the intervocalic position. But where these sounds are to be elided is not casy to ascertain from the prescription of the Prakrit grammarians, Hemacandra has suggested by saying--yatra śruti-sukham utpadvate sa tatra kāryaḥ (vrtti under 1.231); but this is merely an indication of how to look at the problem. My feeling is that all these sounds in an intervocalic position are to be elided in principle, otherwise the rule of Prakrit will be useless. So the readings where the clision of these sounds are found are to be accepted, but in case t is changed to d as in Sauraseni (where intervocalic d is retained), then, of course, that d is not clided. If that principle is followed, then we can avoid confusions of rcadings. The passage like suyan mc ausam or sudam or sutam me ausam are puzzling. In fact sudam is a Saurascni influence.
With regard to the changes between dh and h, dh is to be regarded as older than h, because dh is preserved in Vcdic, c.g.. Vedic idha > classical ina. This retention of dh is preserved in Sauraseni and in some Asokan Prakrits, c.g., idha na kimci jiva, ctc. So also adha, it!ha>aha (Mahā.). That is why in the history of OIA. there has always been an interchange between dh and h; c.g., āghata and ähäta, dhita and hita, grbhati and urhnāti. This is supported by Hemacandra's sülra-kha-ghi-tha-dha-bhām (1.180) where intervocalic kh, gh, th, dh and bli become h in Maharastri. But dh is retained in Sauraseni and th also becomes dh in the same dialect. So the readings, with gh, dh, etc. in Amg. seems to have been carelessly done.
In chapter II (pp. 35-52) Dr. Chandra discusses some forms of some words which seem to him to be confusing. He citoy examples of some words which have several forms, such as, ātman has attā, ātā, āya and appă, and the endings of locative singular are found in -anisi, -ssim. -imi, -mhi (1) and so on. In chapter III (pp.53-67)
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the author points out the antiquity and the place of the origin of the Agama texts through the analysis of the language. In the next two chapters IV and V Dr. Chandra's main focussing line is on the. characteristic features of Amg. In this connection, he has cited the views of Hemacandra (pp.68-79) and has also suggested some principles to be adopted for the Amg. language (pp. 80-84). One complete chapter (VI, pp. 85-93) is devoted to the various Prakrit forms of one Sanskrit word kṣetrajña, and this shows how the Agama texts are inundated with several forms of the same word. In chapters VII and VIII Dr Chandra has discussed the question of stylistic presentation of some sentences (pp. 94-99) and finally the conclusion (pp.100-106) of his thesis is synoptically adumbrated.
One of the most interesting points of his treatise is the discussion on the formation of past tenses in Amg. (p.44f). In his opinion the forms like akāsi, ahesi, akarissam., ahaṁsu, abhaviṁsu, himsimsu and so on are the oldest features of the Agama texts. These are,in fact, the remnants of some of the aorist forms crept into the canonical text, and hence the oldest. Pischel in his Grammatik der Prakrit Sprachen (§§ 516, 517) has given some forms which arc the remnants of Vedic Sanskrit imperfect (§ 515), perfect (§ 518) and pluperfect (§ 519). Otherwise the entire systems of Sanskrit past tenses (imperfect, perfect and aorist) are lost in Prakrit, and are replaced by the past participial forms ta and tavat, of which again the latter form is extremely rare.
In judging the older forms of Prakrit what is wanted is to trace whether the forms in any way are connected with the other Sanskrit forms or not. Sometimes the older Vedic forms are preserved in Prakrit without realising that these Prakrit forms have come down to us through some rare Vedic occurrences. For example, the Prakrit words, naim and maim (ana ṇāim nañarthe / maim marthe// He. II 190-1) are the remnants of Vedic nakim and mākim (RV. VI. 54. 7). In a similar way, we have Vedic mäkiḥ Greek me-ti's (unti's) meaning 'no one', 'none' 'never' and nakiḥ=Gk. ti's (tts), Latin quis Av cis also meaning 'no one', 'nothing' which arc supposed to be very old even in Vedic. Just as we have kim, so also we have Vedic kiḥ (eg, ayam yo hotā kiruḥ saḥ, RV. X. 52,3)
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from which the Prakrit forms kissa and kisa have come down to us, though this form does not occur in classical Sanskrit.
In short, it can be said that this small book shows Dr. Chandra's insight into the problem and records here the amount of indefatigable labour and sincerity he has given in finding out the material from the printed texts. This idea is welcome, and I personally feel that this should be a standard book of research for tracing the original Amg. I think that every student of Prakrit must have this book by the side of his study-table.
I, therefore, heartily commend Dr. Chandra's inspiring and excellent study to the learned readers throughout the world. Jain Journal, Calcutta, April, '92 Satya Ranjan Banerjee
This trail-blazing work on reconstitution of original ArdhaMāgadhi (AMG) canon is based on years of careful and painstaking research.
Religious-minded Svetāmbara Jain community donated munificent grants for the publication of their secred Canons. It may be due to the manuscripts material (Critical apparatus) available to the editor, and/or his insufficient grounding in textual criticism or textconstitution or a deliberate attempt at simplification of the text (as noted by Muni Punyavijayaji in his edition of the Kalpa Sotra) that we find confusing readings in editions of the Canon.
With duc respect to the editors of the following editions, I give an example of the AMG formations of the Sk. word as found in different editions : (See pp. 85-93) from the book under review)
(1) E (W.Schubring) (2) A (9times) and ceva (7 times ) in the Āgamodaya
Samiti Ed. (3) 4 (1) and creva (15) in Jain Vishva Bhārati Ed.
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( 4 ) खेयण्ण ( 2 ), खेतण्ण ( 6 ), खेत्तण्ण ( 8 ) in Mahāvīra Jaina Vidyalaya Ed.
The variants of this word in the Mahāvira Jaina Vidyalaya Ed. are as follows: खित्तण्ण, खेदन्न, खेदण्ण, खेयन्त्र, खेअन
This confusing variety is not limited to forms of words only but even to sentences. For example (pp. 94-98 of the book under review) the very first sentence of the Acārānga-sūtra (which is found at the beginning of other works) is seen as follows:
(१) सुयं मे आउ ! तेणं भगवया एवमक्खायं... ācārānga-sutra *(२) सुतं मे आउसंतेणं भगवता एवमक्खांत... Sutrakrtanga sutra
Finding such a chaotic state of the sacred Agama, Dr. Chandra became "haunted" with the idea of restitution of the original texts. He published a number of papers in order to invite the attention of scholars to this linguistically anamolous state of the sacred texts.
The present book is a collection of some of his papers on this subject. In the first chapter Dr. Chandra illustrates the linguistic anamoly in the published editions of the Canon.
In the second chapter, Dr. Chandra discusses what he regards as the main features of old AMG. Common features in Pali and AMG may indicate some of the characteristics of the language of ancient Magadha and/or Kosala. We can accept case-terminations like Instr. Pl. - bhi, Dat. Sg. -aya, Loc. Sg. -ssim or the derivatives from Vedic forms as old AMG. This whole chapter deserves careful study.
Although I do not agree with the date assigned to the Pataliputra Vacanã, I accept that it was the first Vācanā. (Dr. Chandra assigns 4th Cent. B.C. vide p.67, Footnote I, according to Max Mullar's "Sheet anchor of Ancient Indian Chronology", on the basis * On fresh evidence the word-form 33
had to be bifurcated as 3
(33 as the Magadhi vocative form and the vi as indedinable for emphasis) See my article to this effect in the 'Śramaņa', Varanasi (Hindi), July-Septr, 1995, pp. 66-69 - Editor
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of Brahmanical Mahāpurăņas, Candragupta Maurya was coronated in 1530 B.C. which I follow). But that does not affect the historicity of the first Vācană at Patalipūtra. I, however, doubt whether the AMG Canon was settled in that Vācanā or whether some time later but before Māthuri Vācanā. We come across references to the Vācanã at Mathurā. I wish to know if there are references to Pātaliputra Vācanā in the Canon. The same is the case with the Pāli Canon. Although Mahā Kassapa took the lead to collect the Buddha Vacana in the 1st Sangiti at Rājagrha, scholars do not believe that the present Pali canon is the same as in the first Sangiti at Rājagsha.
Apart from this, Dr. Chandra deserves our thanks for collecting linguistically interesting and important material in this chapter. There is no doubt that AMG was an East Indian language, though its name is rather enigmatic. Geographically it is supposed to belong to a “Half of Magadha”. But which Half ?' And what language was spoken in the other half of Magadha ? Linguistically AMG does not share the differentia of Māgadhi viz. the change of Sk. Ș, Ś, S to Ś and uniform change of Sk. R to L, Hemacandra rightly calls it ARŞA. Pāli and AMG are like the Sindhu and the Brahmaputrā. They rise from the Mānasa Lake, but flow in different directions. The samc had happened in the case of Pāli and AMG. They belonged to practically the same region. But Pali was fortunate to get royal support and was preserved better. When it came to be fixed at the time of king Kaniska in Kashmir, its linguistic form remained more ancient. The history of Pali does not mention or reflect the effect of the great famine in the reign of Candragupta Maurya. Jain sages depending on public support had to migrate and those sages who remained behind retained with difficulty their Canon. The influence of Mahārāstri on AMG is duc to the westward migration of the Magadhan sages. Pali also did not retain its pristinc purity as the influence of Paiśāci on it shows. Hence the acceptance of Pali for ascertaining old AMG needs some caution. I write this for young scholars. Dr. Chandra has correctly traced the old AMG form for Kșetrajña. His attempt to trace oid AMG on the basis of available material in chapter eight is
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worth careful study.
Dr. Chandra has taken enormous trouble for this guide to the next generation. Generations of scholars will remain indebted to him for this beacon of linguistic research.
I take this opportunity to palce before the scholarly world the need of a critical edition of the AMG Canon. The present editions as amply demonstrated by Dr. Chandra, are not that satisfactory. Fortunately Gujarat and Rajasthan have a good tradition of preserving ancient MSS. There are eminent scholars and Ācāryas who can competently bring out such a reliable critical edition of the canon. Formation of such a Research Institute will be the real fruit of the labour of persons like Dr. Chandra. The Trustees of Seth Kasturbhai Lalbhai Trust deserve the thanks of the scholarly world for their donation of a publication grant to this valuable work.
'तुलसी प्रज्ञा', लाडन, सितम्बर, १९९२
- Prof. G. V. Tagare
The language of the Svetāmbara Jain Canons is called Ardhamāgadhi. The total number of texts is 45 or 46. Somc of thcsc, as the Āyaraṁga, the Süyagadaṁga and the Uttarajjhayaņaare very old and their tradition may go back to the first recension of the Agamas at Pataliputra in c. 3 rd century B. C. if not earlier. Others, such as the Nandi may be ascribed to the period of the last recension at Valabhi in c. 5th century A. D., it being authored by Devardhi himself, the chief of the Valabhi Vācanā. So onc may conclude that compilation of the Āgamas was spread over at least a period of seven to eight hundred years.
The Magadha empire of the 6th-5th century B. C. being the main field of Lord Mahāvira's and his ganadharas' activities, it may be assumed that the Āgamas were formulated in Māgadhi or the eastern dialect of that period, which later, for certain reasons, was given the appellation of Ardhamāgadhi. This too may be conceded that in the first recension at Pāțaliputra the original language was
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preserved. But It cannot be vouched that the texts preserved and also. produced after the Păţaliputra Vācană conformed to the original standards and did not undergo any phonetical or morphological variation in the Valabhi Vācanã when such variations are evidenced in Easter, Western and North-Western versions of the Asokan inscriptions.
Further, the language of the Āgamas, and for that matter of the Prakrits in general, not being standardized, phonetical and morphological changess (or developments) in the language continued with the change of time and place, and it can't be ruled out that the scribes took the liberty of substituting the prevalent forms in their texts.
So, when, in 12th century A.D., Hemacandra viewed the Agamas from a grammatical point of view, he was struck with variations. He called the language Arsa (sacred or archaic) and pronounced that here all the rules had alternatives (sarve vidhayo vikalpyante).
In the title under review Dr. Chandra suggests ways and means to reduce variations in the readings of the Ardhamāgadhi texts, specially the older ones. He postulates that Lord Mahavira and Lord Buddha, being contemporary and their activities centering in the same region, must have preached in a common language which might have been the Māgadhi of that time. So Pāli and Ardhamāgadhi, both coming from the same source, should have similar phonetical and morphological features. Again, the Pāțaliputra Vācanā of the Ardhamāgadhi canons being close to emperor Asoka in point of time and place, the former cannot but have common linguistic features with the eastern edicts of emperor Aśoka extant at Dhauli, Jaugadh and Kālasi. Further, the phonetic changes in MIA reached the stage of total elision of the medial consonants k, g, c, j, t, d gradually. The process started with softerning of the surds to the sonants and the latter remaining unchanged. Similarly, the voiceless and the voiced aspirates kh, gh, th, dh, ph, bh, before being reduced to pure aspiration (h), underwent the stage of the voiceless being voiced and the latter remaining unchanged. This process is confirmed by a comparative view of phonetic changes taking place in Pāli, Asokan inscriptions,
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आचाराङ्ग Sauraseniana Mahārāștri. Dr. Chandra has stratified a number ofverbal and nominal suffixes too, on the basis of their usages. On the strength of the above he argues that in editing the Ardhamāgadhi texts, at least the older ones, the older forms, wherever found (as textual readings or variants) should be preferred. With this point in view, he has also given a sample ofediting in the seventh chapter of his book and has laid down the principles to be followed in this regard in the eighth and final chapter of his book.
All along the author has been meticulous and painstaking. He deserves careful attention of all scholars working in the field of editing texts in the Ardhamāgadhi or any other old Prakrit.
The language is simple, lucid and pleasant. But phrases like Sudharmāsvāmi pharmāte haim (page 94) and 'bhāṣākiya svarūpa' (page 106) may jar on a puritanical reader. Printing is good and correct except a few lapses of proof-correction such as 'punarāvalokana' for 'punaravalokana'(onpage 90)andwrong folio heading onpages81 and 83.
BORI, LXXVI (1995), 1996 PUNE.
-R. P. Poddar
संस्कृत और प्राकृत के पाणिनिकल्प अपने कालोत्तर महावैयाकरण आचार्य हेमचन्द्र ने व्याकरण ग्रंथ 'सिद्धहेमशब्दानुशासनम्' के प्रारंभ (अध्याय ८, पाद १, सूत्र ३) में ही लिखा है कि 'आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते' अर्थात् ऋषि-प्रोक्त होने के कारण प्राकृत भाषा में सभी विधियों का विकल्पन यानी प्रयोग-वैविध्य के स्वातन्त्र्य का अवकाश रहता है। इसीलिए अर्धमागधी प्राकृत ही क्यों, महाराष्ट्री
और शौरसेनी प्राकृतों में भी प्रयोगों की विविधता और विचित्रता सहज ही परिलक्षित होती है।
संस्कृत भाषा के समानान्तर प्रवाहित होती हुई प्राकृत भाषा चूंकि लोकजीवन के बीच से गुजरने वाली भाषा रही है, इसीलिए इसमें विभिन्न प्रदेशों की लोकभाषाओं की प्रवृत्तियों और प्रकृतियों का समावेश होने से प्रयोग बाहुल्य अस्वाभाविक नहीं है। विशेषतः प्राचीन काल के शिलालेख, जिनमें अशोक के लेख अतिशय महाघ हैं, प्राय: जन-जीवन में सम्यग् ज्ञान और सम्यक्
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चारित्र के उन्नयन निमित्त उत्कीर्ण कराये जाते थे, इसीलिए उनमें लोक व्यवहार के उपयुक्त भाषिक प्रयोगों के प्रति अधिक आग्रह रहता था, इसलिए भी तद्विषयक प्राकृतों में प्रायोगिक विविधता का सहज समावेश हुआ । कदाचित् इन तत्त्वों को ही लक्ष्य करके आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा कि 'आर्षं प्राकृतं बहुलं भवति', ८१- ३, जो हो भाषाओं के प्रयोग-वैविध्य और प्रयोग - वैचित्र्य का साग्रह अध्ययन और अनुशीलन भाषा - शास्त्रियों के लिए पुराकाल से ही एक रोचक प्रसंग रहा है। आन्तरिक (हार्दिक ) प्रसन्नता की बात है कि प्राकृत के मर्मज्ञ मनीषि डॉ. के. आर. चन्द्रा ने जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी के प्रयोग-वैविध्य की गहराई में खोज-बीन करने के अपने सारस्वत संकल्प को क्रियान्वित करने का अतिशय सफल और प्राकृत भाषा के शोध- अधीतियों के लिए सहज अनुकरणीय विषिष्ट प्रयत्न किया है। अवश्य ही डो. चन्द्रा का इस कृति के माध्यम से प्राचीन अर्धमागधी के शोधगर्भ अध्ययन - अन्वेषण के क्षेत्र में किया गया यह भाषिक पदनिक्षेप डो. पिशेल के एतद्विषयक अध्ययन को आगे बढ़ानेवाला तो है ही, तथा अपने आप में क्रोशशिलात्मक और ऐतिहासिक महत्त्व भी रखता है । भाषा - व्यसनी विद्वान् डो. चन्द्रा की अपनी सार्थक संज्ञा से समन्वेत यह नातिबृहत् कृति 'प्राचीन अर्धमागधी की खोज में' के संदर्भ में लिखे गये शोधपूर्ण नातिदीर्घ आठ लेखों का यह महत्त्वपूर्ण संकलन है, जिसमें उनका मूल लक्ष्य प्रायः अशोक के शिलालेखों की भाषा के साथ 'आचारांग' की भाषा के तुलनात्मक अध्ययन तक केन्द्रित है और इस सन्दर्भ में उन्होंने अशोक के शिलालेख, पालि पिटक तथा जैन आगम आचारांग की भाषाओं का समेकित और व्यतिरेकी दोनों प्रकार से अनुशीलन करने की वैदुष्यपूर्ण और आशंसनीय चेष्टा की है।
इस कृति में यथासंकलित लेखों के सटीक शीर्षकों से उनमें प्रतिपादित विषयों का प्रतिपाद्य विषय स्वतः स्पष्ट है। इस क्रम में डो. चन्द्रने अर्धमागधी के तद्धितीय और कृदन्तीय दोनों प्रकार के शब्दों का व्यापक पाठालोचन किया है। और पाठालोचन के प्रसंग में उन्होंने भाषा विज्ञान के प्रायः सभी आयामों का उपयोग करते हुए उन पर सूक्ष्मक्षिकापूर्वक विचार किया है । इस भाषिक विवेचन के निमित्त उन्होंने जैन विश्वभारती, लाडनूं, आगमोदय समिति, महेसाणा, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, तथा एम. ए. महेण्डले, जे. शार्पेण्टियर, डो. वाल्थेर शुब्रिंग, आदि द्वारा स्वीकृत
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पाठ-भेदों को विवेच्य के आधार के रूप में स्वीकार किया है ।
अवश्य ही कृतविद्य भाषाशास्त्री डो. चन्द्रा ने अपने स्वीकृत शोधश्रम के प्रति पूरी ईमानदारी से काम किया है और इस क्रम में जैन आगमोंआचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, व्यारव्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, कल्पसूत्र, उपासकदशा, औपपातिकसूत्र, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि तथा पालि आगमों (त्रिपिटक) सुत्तनिपात आदि के गहन अध्ययन का विस्मयकारी परिचय दिया है । इसके अतिरिक्त शोधश्रमी लेखक ने अपने भाषिक अध्ययन के उपजीव्य के रूप में शिलालेखों को ततोऽधिक मूल्य दिया है। इसके लिए उन्होंने अशोक के शिलालेखों को मुख्यता दी है और प्रत्यासत्तिवश शाहबाजगढी, मानसेहरा, धौली, जौगड, कालसी, गिरनार आदि शिलालेखों का भी यथोचित परिशीलन किया है । परन्तु अवश्य ही इस संदर्भ में यथाप्रत्यक खारवेल और हाथीगुंफा के शिलालेखों का अध्ययन अपेक्षित रह गया है ।
आचाराङ्ग
कुल मिलाकर अधीती लेखक डो. चन्द्रा की यह कृति प्राचीन अर्धमागधी के पाठालोचन के क्षेत्र में सर्वथा नवीन निक्षेप के रूप में स्वीकृत होगी, ऐसा मेरा विश्वास है । साथ ही यह आशा है कि प्रज्ञावान् लेखक महोदय अपने इस लघुतर प्रशंसनीय प्रयास को बृहत्तर रूप देने के लिए अपनी स्वीकृत सारस्वत यात्रा को अविराम बनाये रखेंगे - " अयभारम्भः शुभाय भवतु " । भाषा - विज्ञान जैसे जटिल और तकनीकी विषय से सम्बद्ध इस कृति के मुद्रण की स्वच्छता और शुद्धता साधुवाद के योग्य है । पर लेखक द्वारा किया गया 'भाषाकीय' शब्द का प्रयोग अपाणिनीय है । इसकी जगह 'भाषिक' शब्द का प्रयोग साधु होता ।
अन्त में इस कृति की भूमिका में— एक विशिष्ट प्रयत्न - - के महाप्रज्ञ लेखक, प्राकृत जैन - 3 - शास्त्र के शलाकापुरुष पं. दलसुख मालवणियाजी के साथ में भी समस्वर हूँ कि डो. चन्द्रा का यह सर्व प्रथम भाषिक अध्ययन का प्रयत्न प्रशंसा के योग्य तो है ही, जैन आगमों के सम्पादन की प्रक्रिया को नई दिशा और नवीन बोध देने वाला भी है। निश्चय ही, जो लोग आगमों के पाठानुशीलन और सम्पादन में अभिरुचि रखते हैं वे डो. चन्द्रा के आभारी रहेंगे ।
पटना, 14-7-92
- डो. श्रीरंजनसूरिदेव
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परिशिष्ट
297 જે પ્રકારના અધ્યયન-સંશોધનની ઘણા સમયથી રાહ જોવાતી હતી તેનો શુભ આરંભ આ લઘુપુસ્તકમાં થયો છે.
જેના કેટલાક અંશોનો રચનાકાળ ઈ.સ.પૂર્વે ૩૦૦ની આસપાસ માનવામાં આવે છે, તે શ્વેતાંબર જૈન આગમોની ભાષાને “અર્ધમાગધી’ એવું નામ અપાયું છે. આજે ઉપલબ્ધ સંસ્કરણોમાં “મહારાષ્ટ્રી પ્રાકૃત'ના પ્રયોગો થોકબંધ મળે છે. એમ લાગે છે કે વચ્ચેના સેંકડો વર્ષોના ગાળામાં, સંભવતઃ લહિયાઓ તથા અભ્યાસીઓના હાથે, મૂળ ભાષામાં ગજબનું પરિવર્તન થઈ ગયું છે! આથી ઉપલબ્ધ હસ્તપ્રતોમાંનાં સર્વ પાઠાંતરોની સૂચિ બનાવી તેની મદદથી આગમોની ભાષામાંથી પ્રાચીન અને અર્વાચીન (અર્થાત્ “મહારાષ્ટ્રી પ્રાકૃત'ના) અંશો અલગ પાડીને આર્ષ “અર્ધમાગધી'નું મૂળ સ્વરૂપ પ્રકટ કરવું એ અત્યન્ત આવશ્યક છે.
ડૉ.ચન્દ્રએ પહેલી જ વાર પ્રાચીનતમ જૈનાગમ “આચારાંગસૂત્ર' તથા પાલિ પિટક અને અશોકના શિલાલેખોની ભાષાનો તુલનાત્મક અભ્યાસ કર્યો. તેમણે જોયું કે “આચારાંગસૂત્ર'ની મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની આવૃત્તિમાં હસ્તપ્રતો તેમ જ ચૂર્ણમાંથી પુષ્કળ પાઠાંતરો આપ્યાં છે. બીજી બાજુ શુબ્રિગના સંસ્કરણમાં તો મહારાણી પ્રાકૃત'ના ધ્વનિ-પરિવર્તનવિષયક નિયમોનું જ જાણે અક્ષરશ: પાલન કરાયું છે અને પાઠાંતરો પણ જૂજ આપ્યાં છે. તેમણે આનંદ અને આશ્ચર્ય સાથે નોંધ્યું કે “ઈસિભાસિયાઈ' (ઋષિભાષિતાનિ) ના શુબિંગના જ સંસ્કરણમાં આર્ય પ્રયોગો સારા પ્રમાણમાં સચવાયા છે ! - અને અહીંથી જ ડૉ. ચન્દ્રના સંશોધનનો પ્રારંભ થયો.
લબ્ધપ્રતિષ્ઠ અને ઊંડા અભ્યાસી પં. દલસુખભાઈ માલવણિયા જણાવે છે તેમ, શતાધિક વર્ષોથી ચાલી રહેલ જૈનાગમોના સંશોધનની પ્રક્રિયાને આ પુસ્તિકા નવી જ દિશા આપે છે. તે લેખકના વર્ષોની મથામણના ફળસ્વરૂપ છે. “આચારાંગસૂત્ર'ની મુખ્ય આવૃત્તિઓનો અભ્યાસ કરી તેની સાથે તેના સમકાલીન એવા પિટક તથા અશોકના શિલાલેખોની ભાષાની તુલના કરી મૂળ “અર્ધમાગધી’ ભાષાનાં લક્ષણો તારવવાનો તેમનો આ અતીપ્રશસ્ય પ્રયત્ન એક નવી જ પહેલ છે.
પુસ્તકના પ્રથમ અધ્યાયમાં પ્રાચીન ગ્રંથોમાંથી નમૂના લઈ ભાષાનો વિશ્લેષ્ણાત્મક અભ્યાસ કરી લેખક એવા નિષ્કર્ષ પર આવ્યા છે કે “અર્ધમાગધીનું મહારાષ્ટ્રીકરણ જ થઈ ગયું છે. અને તેથી નવા સંસ્કરણમાં હસ્તપ્રતો તથા ચૂર્ણાઓમાં મળતા પ્રાચીન પાઠોને સ્વીકારી લેવા જોઈએ.
બીજા અધ્યાયમાં એવું દર્શાવ્યું છે કે “મહારાષ્ટ્રી તેમ જ “શૌરસેની કરતાં અર્ધમાગધી પ્રાચીન ભાષા છે અને કેટલીક રીતે તે પાલિ ભાષા સાથે સામ્ય ધરાવે
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છે.
આગમગ્રંથો, પાલિ ‘સુત્તનિપાત’ અને અશોકના શિલાલેખોના પ્રયોગોની તુલના પરથી ત્રીજા અધ્યાયમાં એવું પ્રતિપાદિત કરાયું છે કે ‘અર્ધમાગધી'ના પ્રાચીન ગ્રંથો અશોકથી યે જૂના હોવા સંભવ છે અને તેમની રચના મૂળે પૂર્વભારતમાં જ થઈ હતી.
आचाराङ्ग
પછીનો અધ્યાય આચાર્ય હેમચંદ્રના પ્રાકૃત વ્યાકરણનું નવી દૃષ્ટિએ કરાયેલું અધ્યયન રજૂ કરે છે. આ મહાન વૈયાકરણ પોતાના ધર્મના આગમોની ભાષા અર્ધમાગધીનું કોઈ વ્યાકરણ આપતા જ નથી તે એક આશ્ચર્યની વાત છે. માત્ર કેટલેક સ્થળે પોતાની ‘વૃત્તિ’માં આ ભાષાની થોડીક લાક્ષણિકતાઓ ‘આર્ષ’ શબ્દ યોજીને નિર્દેશી છે.
પાંચમાં અધ્યાયમાં લેખકે આ ભાષાની ૩૭ લાક્ષણિકતાઓ ચર્ચા છે. આગમગ્રંથોના સંપાદનમાં આ લાક્ષણિકતાઓનું જ્ઞાન ખૂબ ઉપયોગી થાય તેમ છે. આ રીતે જોતાં સ્પષ્ટ થાય છે કે પાલિ તેમ જ અશોકના પૂર્વીય શિલાલેખોની ભાષા સાથે સામ્ય ધરાવતી મૂળ ‘અંર્ધમાગધી’ સંસ્કૃતની વધારે નજીક છે.
‘ક્ષેત્રજ્ઞ’ શબ્દના અર્ધમાગધી રૂપ વિષેની સરસ ચર્ચાને એક આખો અધ્યાય ફાળવ્યો છે. વિવિધ આવૃત્તિઓમાં આવતાં આ સંસ્કૃત શબ્દનાં કુલ નવ પ્રાકૃત રૂપોનું મુદ્દાસર વિવેચન અહીં કર્યું છે. ‘ક્ષેત્રજ્ઞ' શબ્દનાં નિવિષયક ‘પ્રાકૃત રૂપાંતરો’ ‘àત્તટઞ', ‘àત્તન્ન’, ‘શ્વેતસ્ર’, ‘હેન્ન’ અને ‘ઘેયા' નું ઐતિહાસિક દૃષ્ટિએ સુંદર વિશ્લેષણ અહીં કરેલું છે. આ સઘળી ચર્ચામાંથી એ સ્પષ્ટ થાય છે કે મૂળ અર્ધમાગધી રૂપ ‘વ્રુત્તત્ર' જ હતું.
પછીના અધ્યાયમમાં ‘આચારાંગસૂત્ર’ ના ઉપોદ્ઘાતના વાક્ય ‘સુર્ય મે આનસં તેળ (પાઠાંતર તેળ) ભાવયા વમસ્વાયં...'ની શબ્દયોજનાની વિશદ છણાવટ કરી છે.
અંતિમ અધ્યાયમાંના સંક્ષિપ્ત વિવેચન પરથી સમજાય છે કે જુદા જુદા સંપાદકોએ, ઐતિહાસિક વિકાસ, સમય, ક્ષેત્ર અને ઉપદેશકની વાણીના સ્વરૂપને ધ્યાનમાં લીધા વિના જ, પોતપોતાની ભાષાકીય સિદ્ધાન્તોની માન્યતા મુજબ જ તથા, જે સમયની દૃષ્ટિએ ઐતિહાસિક છે જ નહિ અને અર્ધમાગધી ભાષાની વિશેષતાઓને સ્પષ્ટ કરતા જ નથી, તેવા પ્રાકૃત વ્યાકરણકારોના નિયમોના પ્રભાવમાં આવીને, જુદા જુદા પાઠો સ્વીકાર્યા છે. આનું મુખ્ય કારણ એ છે કે આપણને કોઈ વૈયાકરણ પાસેથી અર્ધમાગધી ભાષાનું વ્યાકરણ સ્પષ્ટતયા પ્રાપ્ત થયું જ નથી ! પરિણામે પ્રાચીનતમ આગમ ‘આચારાંગસૂત્ર'માં યે ભાષાની ખીચડી થઈ ગઈ છે !
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શુબિંગ આદિ લબ્ધપ્રતિષ્ઠ વિદ્વાનોની બેદરકારી સામે અવાજ ઉઠાવનાર ડૉ. ચંદ્ર આદર્શ સંશોધક તરીકે ઊપસી આવે છે અને સર્વથા પ્રોત્સાહના અધિકારી બને છે. તેમણે અહીં રજૂ કરેલું અધ્યયન-સંશોધન આગમોની હસ્તપ્રતોને આધારે અર્ધમાગધી ભાષાનું અસલ સ્વરૂપ પુનઃ પ્રસ્થાપિત કરીને તદનુસાર શ્વેતાંબર જૈન આગમોનું નવું સંસ્કરણ પ્રકટ કરવાની આવશ્યકતા પ્રતિપાદિત કરે છે તથા તે દિશામાં નવું જ માર્ગદર્શન પુરું પાડે છે. આ તો માત્ર પ્રથમ પગલું જ છે. આ દિશામાં તેમનું સંશોધન અબાધિત રીતે ચાલુ જ રહે તેવી અભિલાષા અને શ્રદ્ધા રાખીએ.
આ પ્રકારે સાચા પ્રાધ્યાપકનો આદર્શ પુરો પાડનારા ડૉ. કે. ઋષભચંદ્રને આપણે હાર્દિક અભિનંદન તો આપવાં જ જોઈએ; પણ આ નવી પહેલ માટે આપણે તેમના આભારી પણ બન્યા છીએ. સ્વાધ્યાય', વડોદરા
– પ્રો. જયન્ત પ્રે. ઠાકર (એપ્રિલ-ઓગસ્ટ, ૧૯૯૦) ૧૯૯૩
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2. Restoration of the Original Language of Ardhamāgadhi Texts, 1994
( २. रेस्टोरेशन ऑफ द ओरिजनल लैंग्वेज ओफ अर्धमागधी टेक्स्ट्स, १९९४)
FOREWORD
Dr. K.R.Chandra's remarkable investigations in the direction of determining the 'Original' linguistic character of the Jain Ardhamāgadhi Agamic texts are well-known through his writings published so far. The present effort serves to provide some concrete basis to the views he has advanced in this subject. He has selected a number of words from the older stratum of the Ardhamāgadhi texts and has presented a systematic and statistical study of their all available variants in the printed editions. These can be well taken as typical case-studies. The study demonstrates that stray, isolated archaic word-forms preserved in MSS. are suggestive pointers that can give us a glimpse of the original language of the texts. We can not evaluate a particular variant reading and select it as genuine or reject it as later without taking into consideration the development of Middle Ino-Aryan onwards from the Aśokan dialects and without paying attention to the fact of gradual 'Saurasenization' first and 'Mahārāṣtrization' in later of the Agamic Ardhamāgadhi.
If the findings of Dr. Chandra's present few case-studies are acceptable, they quite obviously necessitate a systematic effort to scan all the available variant readings of all Agamic texts for spoting archaic and consequently genuine readings, As a 'follow-up work' we would require to re-edit some of the texts or therir parts. Of course, the metrical criteria also shall have to be taken into consideration for the re-editing of metrical texts, as is evident from the studies of L. Alsdorf and others.
I congratulate Dr. Chandra for his untiring critical work in this crucial area of Jain studies.
Ahmedabad
-Prof. H. C. Bhayani
26-1-94
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301 An Appreciation The Jain Canonical Texts, specially the oldest among them, namely the Ācārānga I, the Satrakrtānga I, Rşibhāṣitāni, etc. were composed in Ardhamāgadhi, however, they were subjected to more and more influences of the later Mahārāștri during the long course of their transmission, both oral and written.
Dr. K.R. Chandra demonstrates now, through an examination of the variants recorded in older palm-leaf and younger paper Mss. of ten words and proves that the genuine Ardhamāgadhi forms can still be detected amongst the variants.
Dr. K. R. Chandra is to be congratulated for his successful attempts in this field and we wish him many more demonsrations in future. His study should be further resulted in linguistically re-editing of the oldest Ardhamăgadhi canonical texts. Ahmedabad
-Pt. D. D. Malvania 26-1-1994
I have perused the prepublication copy of Dr. K.R.Chandra's Restoration of the Original Language of Ardhamăgadhi Texts' which deals with the various readings of the Acārānga-sútra, part-I as edited by different scholars with different manuscripts found in their respective footnotes. This is a true piece of research work and Dr. Chandra is to be congratulated for this treatise which shows his brilliant scholarship and meticulous care. In making a general estimate of Dr. Chandra's achievement as an editor, one feels the difficulty of avoiding superlatives; and I believe, the superlatives are amply justified in this particular case. What is most important is the fact that he has thoroughly ransacked the different readings of the text and has tried his best to find out the original readings of the Ardhamāgadhi texts. To find out the oldest readings of the canonical texts of the Svetāmbara is a Herculean task and requires a penetrating scientific outlook with a good background of linguistic insight. One is very much puzzled when one secs various readings like jahā vs jadhā, or ahā vs adhā so also tahā vs tadhā, but not ahā vs adhā for Sanskrit tathā. It needs a historical or psychologi
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आचाराङ्ग
cal approach to guess why this type of reading does not occur. In a similar way we also see ege vs eke, but not ee. We can imagine several stages for the development of Prakrit. It is true 'indeed that we must take into account the Inscriptional Prakrits and Pali in this respect, but they should not be taken as the only guidelines for the older specimens of Ardhamāgadhi. Sometimes Ardhamāgadhi shows greater affinity with old Persian than with classical Sanskrit, e.g. a great many pronominal forms of ima MIA, masc, imo, neut. imam, Ang. imesim and so on. So also Māgadhi gen. with -āha as in puliśāha
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परिशिष्ट
teristics of the language of this canonical work should be of an archaic nature in comparison with that of later Ardhamāgadhi and other Prakrit works. But it is not so as it has continuously undergone changes willingly or unwillingly at the hands of preachers and copyists even after the canon was put to writing...as the tradition goes the emphasis was on the meaning and not on the medium."
Compounding this problem was regional mobility, as Jains from the north-east region of the sub-continent moved westward, the original oral and written transmissions of the Agamic Ardhamāgadhi tradition were impacted by such Ashokan dialects as Śauraseni and more consequentially by Mahārāṣṭri Prakrit. This would eventually lead to a jungle of variant textual readings with no uniformity of language.
303
As Dr. Chandra states, "in the absence of any earlier grammatical treatise it could not be possible to protect the original form of Ardhamāgadhi. Secondly, works on Prakrit grammar are of late origin having a time gap (with the Ardhamagadhi) of one thousand to seventeen hundred years (i.e. of Vararuci, Canda and Hemacandra). These grammatical treatises do not help us in deciding the original form of Ardhamāgadhi for editing those canonical works which are comparatively regarded as the earliest compositions".
It is his contention, however, that with a thorough comparison of all extant Agamic Ardhamagadhi palm-leaf and paper manuscripts with the linguistic, stylistic and content based features of the Ashokan and Pali dialects, it is possible to extract the rudimentary Ardhamagadhi-content and context. In a mammoth undertaking, "Restoration of the Original Language of Ardhamāgadhi Texts" is the first step of what will hopefully be an ongoing project a comprehensive explication of the entire Agamic collection.
For the sutdy Dr. Chandra has selected ten words and, using a statistical methodology, compiled a textual database of all the known variants contained within the available manuscripts and compared them to the older stratum of the Ardhamāgadhi texts. As the
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framework of his methodology he chose to:
* List the variant forms in the published text and its MSS. * List the Sutra-numbers of each variant of a word.
*
List the frequency of each variant in MSS.
List the total number of each variant in all the MSS. * List the similar older forms from other older Ardhamāgadhi
texts.
*
*
Compile a comparative list for final analysis.
Using this model as a typical case-study, Dr. Chandra concludes that this type of analysis demonstrates that isolated archaic word-forms preserved in manuscripts are suggestive pointers that can give us a glimpse of the original language of the texts.
आचाराङ्ग
In conclusion, when one takes into account Dr. Banerjee's observations that inscriptional Prakrits and Pāli should not be the only primary external language-models, and keeps in mind that the develoment of Ardhamāgadhi sometimes shows a greater affinity with old Persian rather than classical Sanskrit, one can view the text as an integral first step in the linguistic re-editing of the oldest Ardhamāgadhi canonical texts.
Jinamanjari, April, 1996 Mississauga, Ontario
Canada
-Mikal Austin Radford
Dr. K.R. Chandra is a renowned scholar and a true researcher in the field of Texual Criticism of Prakrit language. I had the privilege of writing a review on his earlier book entitled ' uca व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी' which has been published in last issue of Śramaņa.
Dr. Chandra's erudition and critical insight make him a keen observer of the linguistic peculiarities of Jaina canons. His main effort in this book is to find out and ascertain the original form of the Ardhamăgadhi, the language of the sacred Jaina canons, as
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परिशिष्ट
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there are many variants found in different editions, recensions and manuscripts.
At the outset it appears to me a futile exercise on the part of the author so far as the sanctity of Jaina canons is concered because unlike Vedic texts the Jaina canons do not attach much importance to the 'word'. They are only concerned with the 'true meaning' as is often said :
__ अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं ।
How does it matter whether it is अत्ता or आया or आता for 34/7. What matters is that the reader should know the sense of 31641. The variants do not change the meaning and consequently the sanctity of the sacred text remains as it is whereas in the field of Vedas the 'word' has the supreme role to play, because the Veda is word-dominated (276-GET) sacred text. Not only the word even the accent is equally important. Even the slight shifting of the accent inadvertently will change the meaning of the word. This is the reason that even today the Vedic text is found intact even after a long long period of five thousand years.
The position of the sacred Jaina texts is different. Had it been like that of the Vedas there would not have been the problem of variants faced by the learned author today.:.
But inspite of what has been said above the effort on the part of the author is wonderful and as such highly commendable. In order to satisfy the curiosity and a long standing need of the lovers of Jaina literature and maintain the editorial discipline, the direction shown by Dr. Chandra is an eye-opener. The curiosity of all of us is there to reach as near as possible to the saying of the Lord Tirtharikara if not the exact words which he uttered with his lotus like mouth.
This wonderful book under review comprises two sections. Section I contains the case-study of the variants of a few Ardhamāgadhi words from the Ācārānga Pt. I. The author has restricted his study to the following words :
Ten, en, tafany, anal, 14:, tab, 12914, 31941fcah,
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आचाराङ्ग
Biquifah, mich, wild, and I
Each word has been showr in the tables with its numerous variants as found in different printed editions of palm-leaf manuscripts and paper manuscripts. Seven tables have been displayed in this section. Section II contains the study of the variants from Ācārānga, Satraktānga, Rşibhāsitāni, Uttarādhyayana, Dasavaikālika Satra, Cornis and Samskrta commentaries.
It is a critical and comparative study of the variants based on the sound principles of linguistics. The variants as given above have been selected from the text of the Ācārārga Pt. I (MJV. edition, 1977) and compared with that of texual readings available in the various manuscripts (palm-leaf & paper manuscripts). After analysing the old Ardhamāgadhi forms of Saṁskṛta 7911 and 77911 the author concludes his findings as follows :
The study of variants of these two words reveals that with the passage of time and the evolutionary trend of the Prākşta younger and new forms like jahā and tahā became popular and they replaced the old forms like 37 and 71. The same is the case with other forms also.
That there is definitely a linguistic system working all through in the development of Ardhamāgadhi is strikingly revealed in the table No. 1 where the learned author has painstakingly shown numerous variants of यथा and तथा. The word यथा has variants जहा, TETT, 3761 and 37871 whercas the word 781 has TET, ETT, TĖ, mbi but never अहा or अधा or अहं.
By showing the direction towards the real Ardhamāgadhi form in the sacred Jaina canon and thereby satisfying our curiosity of knowing and going near to the scared and unpolluted language of the Lord Tirtharkara Prof. Chandra has done great service to the lovers of Prākta in general and the devotees of scared Jaina texts in particular. To solve the problem what he has posed is an uphill task and requires a team of scholars like him because one single scholar will not be able to complete the whole work.
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May God bless the author (Prof. Chandra) with hundred years life and make him instrumental in leading a team of scholars to bring out the most authentic editions of Acaranga and Sutrakṛtānga, etc.
'श्रमण', अप्रैल-जून, १९९६
Dear Professor Chandra,
I have received your book 'Restoration of the Original Language of Ardhamāgadhi Texts' and have had the pleasure of appreciating your single-minded scholarly quest. Your study of variants of a few Ardhamāgadhi words from the Acārānga and some of the words from old Ardhamāgadhi texts will go a long way in resolving difficult issues of linguistics and in achieving greater editorial coherence and textual understanding of canonical literature. The praise showered on your work by Pt. Dalsukhbhai Malvaniya and Prof. Bhayani is eloquent testimony of its high quality. I send you my hearty congratulations and good wishes.
London W. B. 7-10-95
-Prof. S. C. Pande
Yours Sincerely L. M. Singhvi
(High Commissioner for India)
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आचाराङ्ग
Professor J. C. Wright
SOAS 10-10-95
School of Oriental and African Studies
University of London Dear Dr. Chandra,
Thank you very much for directing to me a cop of your "Restoration... This is certainly most instructive and I am glad it is now more widely available. It is a sad situation, however, that you find yourself unable to verify the readings from photographs.
As to comment, I would venture the opinion that subsequent editors ought not to have ignored Jacobis's useful procedure for representing the oldest available readings, i.e. italics to indicate inconsistency (nātam bhavati, etc.). Schubring failed to profit from Jacobi's insights and mistakes, and MJV from Schubring's, so far as I can see. In the present state of knowledge it seems very important to distinguish between readings found in various sorts of verse and those in prose, does it not ? You have made me realize that I simply do not know why Jacobi and Schubring rejected ekesim and annesim readings : this does not help me in trying to decide whether they were wrong or right to do so.
I suppose one ought to insist on the idea that a distinction is necessary between the MJV procedure, which may be on the right lines when editing commentaries, and the Jacobi procedure for registering basic readings. Again, my thanks for your letter and for the book.
Yours Sincerely
J. C. Wright
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परिशिष्ट
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It is a very thorough, highly methodical and well-documented work whcih doubtless will involve admiration from all students of Nirgranthology including the linguists and philologists working in India and abroad. Varanasi
-Dr. M. A. Dhaky 18-7-95
American Inst. of Indian Studies
Your work shows how important is the study of variants in any critical study of texts. Variants are not only important for linguistic study but also for the age of Mss., sometimes for the predilections of copyists. My hearty congratulations for this serious work. Nagarjunanagar
- Prof. N. H. Santani 3-8-95
Nagarjuna Buddha University
This study is a land-mark in the field of phonology and morphology of the oriental linguistics..., it shows his depth in the study. This a micro-study. Sirohi
- Prof. Sohanlal Patni. 30-8-95
Dr. Chandra deserves compliments for his recent crucial study of great importance undertaken to trace the original character of the Ardhamāgadhi language by carrying out painstaking research from a linguistic point of view.
I hope that this study will serve as a path-finder and as a pace-setter for similar future reasearches in the subject.
- Dr. Vilas S. Sagave
Kolhapur 17-9-95
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आचाराङ्ग आप अर्धमागधी भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन करने वाले धौरेय भाषाशास्त्रियों में पांक्तेय हैं। आपके इस पुंखानुपुंख भाषिक अनुशीलन से अर्धमागधी की भाषिक विवेचना के क्षेत्र में नवीन वातायन उद्घाटित हुआ है ।......आशा है आपकी यह भाषिक कृति भाषा-विज्ञान की शोधयात्रा में ऐतिहासिक क्रोशशिला सिद्ध होगी। पटना
- डॉ. रंजनसूरिदेव २०-७-९५
- आपने बहुत श्रम किया है और प्राकृत भाषा के प्राचीन स्वरूप तथा अर्धमागधी ग्रन्थों की सही सम्पादन पद्धति को एक नयी दिशा प्रदान की
डो. प्रेमसुमन जैन
उदयपुर २४-७-९५
प्राकृत के क्षेत्र में आपका यह योगदान निश्चित ही विशेष स्मरणीय रहेगा। इस दिशा में आपके द्वारा सुझाये गये मानदण्ड बड़े ही उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। नागपुर
- डो. भागचंद चैन १४-९-९५
आगम ग्रन्थों के सम्पादन के क्षेत्र में आपका यह प्रयास निश्चय ही अनुसन्धान के नये आयामों का विस्तार कर रहा है। सुंगेरी (करनाटक)
- डॉ. दामोदर शास्त्री 21-9-95
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आगमों का सम्पादन एक जटिल प्रक्रिया है । सम्पादन के सही मानदण्डों को अपनाकर किये जाने वाले सम्पादन कार्यों को रूढिवादी लोग 'आगमों में फेरबदल' जैसे फतवे देकर न केवल हतोत्साहित करते हैं, अपितु आगम-ग्रन्थों के मूलस्वरूप का निर्धारण ही नहीं करने देते हैं । व्याकरण आदि शास्त्रों के सहयोग एवं सूक्ष्म किंतु विशद अध्ययन के बिना यह कार्य कदापि संभव नहीं है । इस दिशा में गंभीर अध्ययन का परिचायक एक अति महत्त्वपूर्ण कार्य उक्त पुस्तक के रूप में सामने आया है, जो कि विज्ञजनों में नितान्त स्पृहणीय एवं अनुकरणीय आदर्श है ।
प्राचीन भारतीय साहित्य-सम्पदा के वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक अध्ययन, सम्पादन एवं पाठ-1 - निर्धारण के लिए प्रत्येक प्राचीन भाषा का इस विधि से अध्ययन अपेक्षित है, तथा यह पुस्तक इस दिशा में कार्य करने के इच्छुक विद्वानों के लिए अच्छा मोडल बन सकती है ।
परिश्रमी एवं मेधावी विद्ववर्य डो. के. आर. चन्द्रा का यह प्रयास अभिनंदनीय है ।
'प्राकृत विद्या' नयी दिल्ली, जुलाई - सितम्बर, १९९५ - सम्पादक
डो. के. आर. चन्द्रा प्राकृत भाषा के विशिष्ट विद्वान् हैं। उन्होंने आगमों में प्रयुक्त अर्द्धमागधी के प्राचीन रूपों का निर्धारण करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाया है । सन् १९९२ में उन्होंने 'प्राचीन अर्धमागधी की खोज में' पुस्तक लिखकर इस कार्य को एक दिशा दी तथा अब Restoration of the Original Language of Ardhamāgadhi Texts पुस्तक प्रकाशित कर उन्होंने अपने कार्य को बलवत्तर रूप में पुष्ट किया है। आज अर्द्धमागधी भाषा में जो आगम उपलब्ध हैं उनमें अनेक शब्दों के पाठ-भेद दिखाई देते हैं । अर्द्धमागधी का प्राचीन रूप कौनसा है, इसे निर्धारित करने का प्रयत्न डो. चन्द्रा से पूर्व किसी अन्य विद्वान् ने नहीं किया । डो. चन्द्रा ने इस पुस्तक के प्रथम खण्ड में महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित आचारांग सूत्र में दिए गए पाण्डुलिपि - पाठ - भेदों को ही आधार बनाया है तथा इस खण्ड में उन्होंने यथा, तथा, प्रवेदितम्, एकदा, एक:, एके, एकेषाम, औपपादिक / औपपातिक, लोकम्, लोके एवं क्षेत्रज्ञ
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आचाराङ्ग शब्दों के विभिन्न प्राकृत पाठों का विश्लेषण किया है। द्वितीय-खण्ड में उन्होंने आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं विभिन्न चूर्णियों व टीकाओं में प्राप्त कुछ शब्दों का पाठ-भेद प्रस्तुत कर उनका भी प्राचीनता की दृष्टि से विश्लेषण किया है।
आगम-पाठ-संशोधकों, सम्पादकों एवं प्राकृत-भाषा-जिज्ञासुओं के लिए पुस्तक अतीव उपयोगी है। 'जिनवाणी', जयपुर, अगस्त, १९९५
- સંપા. થર્વવંદ્ર ન
' જૈન આગમોની મૂળ અર્ધમાગધી ભાષાના પુનઃપ્રસ્થાપન માટેનો આ એક અત્યન્ત પ્રશંસનીય પ્રયત્ન છે. પ્રાચીનતમ આગમ મનાતા “આચારાંગસૂત્ર”ના પ્રથમ ભાગમાંથી છૂટાછવાયા દશ શબ્દો લઈને તેનાં પાઠાન્તરોનો એક અભ્યાસ અહીં રજૂ કરવામાં આવ્યો છે. આ માટે અનેક કોષ્ટકો દ્વારા સુન્દર પૃથક્કરણ કરેલું છે. આ પૃથ્થકરણના અધ્યયન ઉપરથી ફલિત થાય છે કે જાણે મૂળ અર્ધમાગધી ભાષાનું પ્રથમ શૌરસેની પ્રાકૃત અને પછી મહારાષ્ટ્રી પ્રાકૃતમાં રૂપાન્તર જ થઈ ગયું છે! આ માટે અનેક કારણો જવાબદાર હોઈ શકે: એક તો સમય વીતતાં થઈ ગયેલ સ્વાભાવિક પરિવર્તનો, બીજું પૂર્વ ભારતમાંથી પશ્ચિમ ભારતમાં સ્થાળાન્તર, ત્રીજું લહિયાઓ તથા વાચકોની નિષ્કાળજી અને ચોથું તે તે સમયના સમાજને સરળતાથી સમજાય તે માટેના સહેતુક પ્રયત્નો. આમાં અન્ય ચાર પ્રકાશિત પ્રાચીન આગમોમાંના સમાન શબ્દરૂપો સાથે તુલના પણ કરેલી છે – જેથી કેટલાં જૂનાં રૂપો ઉપલબ્ધ થઈ શકે છે તેનો ખ્યાલ આવે.
આ તો એક નમૂનારૂપ આધ્યયન છે. આ જ રીતે સર્વે હસ્તપ્રતોને આધારે પ્રાચીન આગમોમાં આવતા સર્વે પ્રાચીન પ્રયોગોનો તુલનાત્મક અભ્યાસ કરાય તો સમ્પાદકોને પ્રાચીન અર્ધમાગધી શબ્દો પુષ્કળ મળી રહે અને એ રીતે આગમોની નવી આવૃત્તિમાં મૂળ ભાષા પુનઃપ્રસ્થાપિત થઈ શકે. આવા કેટલાક શબ્દોની સૂચિ પણ લેખકે આપી છે. હસ્તપ્રતોમાં તેમજ મુદ્રિત આગમોના પાઠમાં પણ જે પ્રાચીન પ્રયોગો મળે છે તે આ કાર્ય માટે દિશાસૂચન કરે છે. અને આવા કારણે જ ડૉ.ચન્દ્રને આ દિશામાં પહેલ કરવાની પ્રેરણા મળેલી.
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परिशिष्ट મૂળ રૂપો જોતાં સ્પષ્ટ થાય છે કે અસલ અર્ધમાગધી ભાષા સંસ્કૃત તેમજ પાલિની અત્યન્ત નજીક છે જેથી ‘ત' નો “ર” કે “નો' એવા ફેરફારો ત્યારે નહોતા થતા તેમ સમજાય છે.
ડો. ચન્દ્ર સાચી દિશામાં પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે અને તેમણે રજૂ કરેલા નમૂનારૂપ અભ્યાસ ઉપરતી સ્પષ્ટ થાય છે કે આ અત્યન્ત આવશ્યક પણ છે. તેમની સૂક્ષ્મક્ષિકા અને આવશ્યક કાર્યમાંની પહેલ માટે તેઓ ખૂબ જ અભિનંદનને પાત્ર છે, ધન્યવાદને પાત્ર છે, અને આવા મજ્જન દ્વારા પ્રાચીન આગમોના અધ્યેતાઓ ઉપર તેમના દ્વારા મોટો ઉપકાર થયો છે એમ કહેવામાં અતિશયોક્તિ નથી. આ નવી દષ્ટિએ બધાં આગમોની સમીક્ષિત આવૃત્તિ (Critical Edition) તૈયાર કરાય એ જરૂરી છે. આ માટે તેઓ “આચારાંગસૂત્ર”થી પ્રારમ્ભ કરવા ધારે છે. આવું ભગીરથ કાર્ય કોઈ સંસ્થા જ કરી શકે, અનેક વ્યક્તિઓનું જૂથ મંડે તો જ સફળ થાય. આ માટે ડો. ચન્દ્ર સર્વ દિશાએથી પ્રોત્સાહનના અધિકારી છે, જેન આચાર્યવર્યો તરફથી પણ તેમને પૂરતું પ્રોત્સાહન પ્રાપ્ત થાય તેવી શ્રદ્ધા રાખીએ. જો તેમ થશે તો આ મહત્ત્વપૂર્ણ ક્ષેત્રમાં ક્રાન્તિ થઈ ગણાશે. વડોદરા
પ્રો. જયન્ત પ્રે. ઠાકર ૧૨-૧-૯૭
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आचाराङ्ग
परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी, १९९५ (3. Paramparāgata Prāksta Vyākaraṇa ki Samikṣā aur Ardhamāgadhi, 1995)
Directions of Rehabilitating Ardhamāgadhi
Dr. Chandra has advanced in the book enough evidence to show that the original language of the Svetāmbara Āgamas has suffered numerous alterations under the impact of later influential literary Sauraseni especially literary Mahārāştri. Prakrit. Some glimpses of a number of original features of Ardhamāgadhi, we can get from a few earlier Canonical texts and from some preserved archaic variant readings. Chandra ends with a plea to accept those readings as genuine original features and revise the relevent text portions of edited Āgamic works on that basis.
One of the weighty implications of Chandra's finding is quite evidently the fact that they explode the contentions of those critics of the Ardhamāgadhi Canon according to whom the whole of the latter is unauthentic and secondary. Chandra's present investigations supplement and corroborate what other scholars and himself have found from the linguistic, formal, stylistic, and content-based features that are shared by the Asokan and Pāli on the one hand and Canonical Ardhamāgadhi on the other.
Dr. Chandra's work necessitates revising prevalent view about the original Ardhamāgadhi and invites fresh efforts to determine its real linguistic character.
-Dr. H. C. Bhayani
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The traditional works of Prakrit grammar are styled on the traditional Sanskrit grammars structured according to the Pāņinian system or many others up to Hemacandra. They are in the form of sūtras in Sanskrit with a commentary which explains and supplements the sütras by illustrations and technical discussions wherever necessary. As has been observed by Nitti-Dolci, Māhārāştri grammarians and the rest of other Prakrit grammarians wrote in Sanskrit; among them there were some, like Hemacandra and Kramādīśvara, who conceived Prakrit grammar as an appendix of Sanskrit grammar. There existed in Sanskrit for every system of grammar a dhātupātha in which the verbs were collected together in a section. The Prakrit grammarians were of the opinion that students would refer to them and be able to construct different types of Prakrit verbal forms, in analogy with nouns. The Prakrit grammarians did not take into account the verbs, at the time of framing the rules on the phonetic correspondences. Consequently they have expounded the alterations that the affixes have undergone without troubling their mind about the form of the verbal themes. They thought of filling up the lacunae by insertion as examples certain verbal themes of Prakrit, either in the section on conjugation or in the small supplementary list of dhātvādeśas rather as a collection of samples, than an cxposition of the whole. We can haridy say anything about grammars of the Jaina-dialects. Without a grammar, probably these dialects had been employed the most and had spread far and wide in India. Since the Prakrits of the Jaina canonical and noncanonical texts offered strong similarities with Māhārāstrī, they preferred to use the grammars of Māhārāstri by adopting it more or less according to their needs. It is due to this circumstance that Hemacandra who embarked upon teaching the diverse dialects of his religion dressed his materials about the frame-works of the sūtras of Vararuci on classical Māhārāştri. However, it so happened that a grammarian, while copying out merely inserts in his expositions certain facts taken from the languages of the texts that are of particular interest to him : the remarks on Arsa or Ardhamăgdhi that Hemacandra had made in his commentary is the result of this attitude.
Modern linguists like Sukumar Sen has noted that the Prakrit speeches, recognised by the old grammarians, that occur in Sanskrit dramas and in poems do not come in the direct line of development of
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Indo-Aryan. The Prakrits are almost entirely based on artificial generalisation of the second phase of Middle-Indo-Aryan and stand in the same relation to the latter proper as classical Sanskrit stands to Vedic.
The author of our presents book, Dr. K. R. Chandra, has taken a clue from both these scholars and many more too, and endeavoured to tread a new path of a syncretic viewpoint of describing the language objectively and tried to examine how far the rules of the traditional grammars apply to Prakrits in general and Ardhmāgadhi in particular. Taking his clues form old word-forms preserved in the palm-leaf manuscripts, the readings whereof are recorded in some of the critical editions of Agamas and cūrņis of Jainism, and also from the fact that Mahavira who preached in Ardhamāgdhi was almost a contemporary of Buddha from chronological point of view, and not far removed in distance in point of geographical region of the sojourn for preaching, and from his logical inference that Pāli, the mother tongue of Buddha could not be far removed from Mahāvira's original mother tongue, Ardhmägdhi, Dr. Chandra has embarked upon the task of discovering genuine original features of the text-portions of edited Agamic works. His comparative study of traditional grammars is ultimately targeted at finding the original features of the language in which Mahāvira actually preached. It is to this end that he has discussed his subject in fifteen chapters and beginning with Bharatamuni and the genesis of the Prakrit tongue in general, and then deliberating on the changes of initial and medial consonants, vowels, he has tried to discover two forms of the Ardhmãgadhi, one ancient and other of medieval ages, and has proposed or suggested lines on which the sofar-critically-edited Jaina Agamic texts are now required to be reedited. Although his views on the 'yoni' of Prakrit are hardly convincing, his discovery has far-reaching implications, which are likely to be instrumental in raising new controversies inspite of their basically sound academic foundation. Dr. Chanda deserves our sympathy for embarking on a highly sensitive project, and also our encomiums for the academic courage he has exhibited in propounding his new discovery.
Ahmedabad.
Dr. N. M. Kansara
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परिशिष्ट
इस ग्रंथ में प्राकृत भाषा के व्याकरण संबंधी नियमों का ऊहापोहपूर्वक प्रतिपादन किया गया है, वैदुष्यपूर्ण मीमांसा की है। विद्वान् लेखक ने प्राकृत व्याकरण की उन सभी सूक्ष्म समस्याओं पर गम्भीरता से विवेचना की है जो प्रायः प्राकृत भाषा प्रेमियों के समक्ष उपस्थित रहती हैं। सभी विषयों का विशद प्रतिपादन लेखक के गम्भीर एवं व्यापक अध्ययन तथा विस्तृत अनुभव का परिचायक है । समस्याओं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझ कर उनके निराकरण का प्रयास किया गया है। अनेक मौलिक तथ्यों को उजागर किया गया है। लेखक की भाषा-वैज्ञानिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि और नवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा समग्र ग्रन्थ में प्रतिबिम्बित है । लेखक का निवेदन है कि प्राचीन पाठ को मूल पाठमानकर उसे प्राथमिकता दी जाय जिससे मूल प्राचीन अर्धमागधी का संरक्षण हो सके।
पुस्तक को समग्र रूप में पढ़कर यही धारणा बनती है कि यह प्राकृत के अध्ययन के क्षेत्र में नयी दिशा का उन्मीलन करने वाली है। यह ग्रन्थ लेखक की नितान्त शोधवृत्ति तथा भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि का परिचायक है । प्राकृत भाषा में रुचि रखने वालों के लिए तथा विशेषरूप से आगमों पर शोध करने वाले विद्वज्जनों के लिए अवश्य पठनीय है, संग्रहणीय है। ऐसा विश्वास होता है कि इसे पढ़कर उनकी अनेक भ्रान्त धारणाओं का निराकरण होगा । श्रमण, जन-मार्च, १९९६
-प्रो. सुरेशचन्द्र पाण्डे
आपकी “परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी" नामक पुस्तक भी आपकी पूर्व-प्रकाशित पुस्तकों के अनुरूप गवेषणात्मक और उपलब्ध भाषात्मक प्रयोगों पर आधारित है। इस पुस्तक द्वारा आपने प्राकृत व्याकरण के क्षेत्र में समीक्षात्मक और ऐतिहासिक अध्ययन को गति दी है। उपलब्ध प्राकृत व्याकरण के ग्रन्थों की अपनी सीमाएँ हैं । उनकी सामग्री/ विधानों का सूझ-बुझ के साथ ही उपयोग किया जाना चाहिए, यह आपकी इस पुस्तक ने प्रमाणित किया है।
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आचाराङ्ग इस पुस्तक में कालानुक्रम से दिये गये कतिपय शब्दों के प्रयोगों ने प्राचीन प्राकृत ग्रंथों के सम्पादन को भी एक दिशा दी है। इससे यह बौद्धिक निष्कर्ष भी निकलता है कि कोई भी प्राकृत कुछ निश्चित बंधे-बंधाये नियमों के सहारे नहीं समझी जा सकती । इसके लिए सभी प्राकृतों के अन्तः- सम्बन्धों को समझना भी जरूरी है। इसे आपने अर्धमागधी के स्वरूप की कुछ विशेषताओं द्वारा समझाया भी है। पाण्डुलिपियों के प्रयोगों के महत्त्व को भी पुस्तक में रेखांकित किया है। इस तरह का सत्प्रयत्न शौरसेनी प्राकृत के प्राचीन सिद्धान्त-ग्रन्थों की भाषा के क्षेत्र में भी होना चाहिए। आपका यह प्रेरणास्पद सारस्वत पुरुषार्थ अभिनंदनीय है। उदयपुर
-डॉ. प्रेमसुमन जैन ર૫-૨-૧૭
સંશોધનનું અતિસુંદર પુસ્તક. પ્રારંભમાં લેખકે સંસ્કૃત અને પ્રાકૃત ભાષાઓના પરસ્પર સંબંધને ઉદાહરણો તથા ઉદ્ધરણો આપી વિશદ રીતે સમજાવ્યો છે. આમાં “પ્રકૃતિ” અને “યોનિ” શબ્દોનો જે અર્થ કર્યો છે તે પ્રતિતિકર લાગતો નથી. પરંતુ તે પછીનું જે મુદ્દાસર વિવેચન છે તે સઘળું દાદ માગી લે એવું છે. ઉપલબ્ધ પ્રાચીન સાહિત્ય તેમજ શિલાલેખોમાં મળતા ભાષાનાં સ્વરૂપની દૃષ્ટિએ અહીં પરંપરાગત પ્રાકૃત વ્યાકરણના કેટલાક નિયમોની સમીક્ષા કરી અર્ધમાગધી ભાષાની વિશેષતાઓ દર્શાવવાનો પ્રબળ અને પ્રશસ્ય પ્રયત્ન કર્યો છે. વિશેષાવશ્યકભાષ્યની એક પ્રાચીન તાડપત્રીય હસ્તપ્રત જેસલમેરના ભંડારમાંથી પ્રાપ્ત થઈ તેમાંના પાઠોના અભ્યાસે લેખકને આ નવી દિશા સુઝાડી.
વ્યાકરણના આ નિયમોની ચર્ચામાં વિવિધ લબ્ધપ્રતિષ્ઠિત વિદ્વાનોનાં મન્તવ્યો રજૂ કરી સરસ વિશ્લેષણ કર્યું છે. વળી આગમો આદિમાંથી થોકબંધ ઉદાહરણો આપ્યાં છે. અર્ધમાગધીનું તો વ્યાકરણ જ રચાયું નથી; આચાર્ય હેમચન્દ્ર પણ તેને “આર્ષ' કહી અટકી ગયા છે. વ્યાકરણના નિયમો પછીની પ્રાકૃત ભાષાઓ માટે ઘડાયા છે. આથી અઘોષ વ્યંજનોનું ઘોષીકરણ, મધ્યે આવતાં વ્યંજનનો લોપ તથા ન નો ણ થવો વગેરે માટેના નિયમો પ્રાચીન અર્ધમાગધીને લાગુ પાડવા ઉચિત નથી. અર્ધમાગધી આગમોના સર્વ સંપાદકોએ વ્યાકરણના નિયમોને લક્ષમાં લઈને સંપાદન કર્યું હોવાથી ભાષામાં ખૂબ પરિવર્તન આવી ગયું છે. આ રીતે મહારાણી પ્રાકૃતનાં રૂપો સારા પ્રમાણમાં ઘૂસી
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આ માટે એક રોચક ઉદાહરણ જોઈએ. પ્રાચીન કાળમાં આ રીતે લખાતો, અને “1” આમ લખાતો. ભેદ સ્પષ્ટ હતો. ગુપ્તકાળના પ્રારંભે દેવનાગરીના બધા અક્ષરો ઉપર શિરોરેખાની પ્રથા થઈ આથી નના સ્વરૂપનો જ થવા લાગ્યો. ઉચ્ચારણમાં પણ નો વિશેષ થવા લાગ્યો. પરિણામે રનો જ થાય એવો નિયમ ઘડાયો. આ મહારાષ્ટ્રીય પ્રાકૃતનો નિયમ પૂર્વભારતમાં પાંગરેલી પ્રાચીન અર્ધમાગધીને લગાડવો એ ક્યાંનો ન્યાય ?
દૈવયોગે હસ્તપ્રતોમાં સારા પ્રમાણમાં પ્રાચીન રૂપો મળે છે. એવું પણ દૃષ્ટિગોચર થાય છે કે ચૂર્ણિ-ટીકાઓમાં જૂનાં રૂપો મળે છે અને જૂના મૂળ ગ્રંથોમાં નવાં રૂપો વધ્યાં છે. ડૉ. ચન્દ્રને વિશેષાવશ્યકભાષ્યની જેસલમેરની તાડપત્રીય પ્રતના નિરીક્ષણમાંથી પ્રેરણા મળી અને તેમણે મૂળ અર્ધમાગધી પ્રયોગોની શોધમાં સંશોધન આદર્યું. તેમનું આ સંશોધનનું ઊંડાણ પ્રશંસાપાત્ર છે. આમાંથી પ્રતીત થાય છે કે મૂળ ભાષામાં ધ્વન્યાત્મક દષ્ટિએ બહુ પરિવર્તન થઈ ગયું છે. એમના આ અભ્યાસનો નિષ્કર્ષ એવો છે કે :
પ્રાચીન ગ્રંથોની ભાષા પ્રાચીન જ હોવી જોઈએ. સમયાન્તરે થયેલા વિકાર છોડી દેવા જોઈએ. પ્રમાણમાં અર્વાચીન એવી ચૂર્ણિ-ટીકાઓમાં આવતાં પ્રાચીન રૂપો આગમોમાં સ્વીકારવા જોઈએ. વળી હસ્તપ્રત-વિજ્ઞાનનો એ નિયમ છે કે ગ્રન્થોની પ્રતો જેમ વધારે ને વધારે લખાતી જાય તેમ ભાષા-પ્રયોગોમાં અધિક પરિવર્તન આવતું જાય અને તેથી જ પ્રાચીન ગ્રન્થોની સમીક્ષિત આવૃત્તિ (critical edition) થવી જોઈએ. આથી ડૉ. ચન્દ્ર જણાવે છે કે અર્થની સંવાદિતા જળવાતી હોય તો પ્રાચીન શબ્દ-રૂપો અપનાવવા જોઈએ અને એ રીતે આ નવી દૃષ્ટિએ બધાં આગમોની નવી આવૃત્તિઓ થવી જોઈએ. અવલોકનકાર તેમના આ નિષ્કર્ષ સાથે સંપૂર્ણ રીતે સહમત થાય છે અને તેનું તો એવું સૂચન છે - દઢતાપૂર્વકનું સૂચન છે કે ભારતીય પાઠ-સમીક્ષા (Indian Textual Criticism)ના માન્ય નિયમો અનુસાર આ અત્યન્ત મહત્ત્વના પ્રાચીન ગ્રન્થોની નવી આવૃત્તિ જ નહિ પણ સમીક્ષિત આવૃત્તિ (Critical Edition) કરવી ખૂબ જરૂરી છે. - ડૉ.ચન્દ્રની દૃષ્ટિ આપણી પ્રશંસા માગીલે છે એટલું જ નહિ, પણ તે માટે આપણે તેમના આભારી છીએ. તેમના આ પ્રયત્નોમાં તેમને સર્વે દિશાએથી પ્રોત્સાહન મળવું જોઈએ અને જૈન ધર્મનાપૂજ્ય આચાર્યોએ પણ રૂઢિચુસ્તતા ન રાખતાં સંપ્રદાયના હિતમાં જઆવકારવી જોઈએ, આવા સંશોધનધારાડૉ.ચન્દ્રએ ભારતીય સંસ્કૃતિની અનુપમ સેવા બજાવી છે અને તેઓ આ ઉત્તમ પ્રવૃત્તિમાં સતત રત રહે તેવી અભિલાષા છે. વડોદરા
--પ્રો.જયંત પ્રે. ઠાકર ૧૨-૧-૯૭
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आचाराङ्ग
विविध Miscellaneous
Dear Prof. Dr. Chandra,
Received with thanks the off-print of your article on editing old Amg. texts in 'Nirgrantha', Vol. 1, 1995, S.C.E.R.Centre, Ahmedabad.
The next generation shall thank you for the great undertaking you are pursuing. SANGLI
-Prof G.V. Tagare 16-10-96
"विशेषावश्यकभाष्य" को पाण्डुलिपि पर जो भाषा-शास्त्रीय चिन्तन आपने प्रस्तुत किया है वह महत्त्वपूर्ण है। इससे पाठ शुद्ध करने में सहयोग मिलेगा।
हमारी दृष्टि में इसके साथ अर्थ को मुख्य आधार मानकर पाठ-शुद्धि का प्रयत्न और होना चाहिए । केवल भाषा-शास्त्रीय दृष्टिकोण पाठ-शुद्धि के लिए अधूरा रहेगा । आपने जो परिश्रम किया है वह स्तुत्य है। लाडनूं ४ नवेम्बर '९६
-आचार्य श्री महाप्रज्ञजी
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परिशिष्ट
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आपके द्वारा प्रेषित 'विशेषावश्यकभाष्य' की एक प्रति में प्राप्य प्राचीन पाठों के आधार पर अर्धमागधी के मूल पाठ की विवेचना से संदर्भित आलेख की अनुमुद्रित प्रति प्राप्त हुई । आपने अर्धमागधी के भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन और पाठानुशीलन के क्षेत्र में डो. ए. एन. उपाध्ये द्वारा प्रवर्तित परम्परा को ततोऽधिक विकसिन करने का ऐतिहासिक और क्रोशशिलात्मक कार्य किया है। इससे आपने प्राकृत वाङ्मय के अध्येता भाषाशास्त्रियों में पांक्तेयता आयत्त की है । मेरा भूरिशः साधुवाद स्वीकार करें ।
पटना १-११-९६
Dear Professor Chandra,
Thank you very much for your article on "Editing of ancient Ardhamāgadhi texts in view of the text of (the) Viseṣāvasyakabhāṣya" and for Poddar's review of your Hindi book. Alsdrof became more aware of the problem you are dealing with at the thesis of his student Oetjens. Thus your argument may be correct and the treatment of ancient texts by Indian scholars more careful from the linguistical point of view. There can be found differences in Prakrit orthography in Western editions, too. We are, however, globally confronted with progressing cultural disinterest as a consequence of democracy. Interest in Jainism and Prakrit Studies is dwindling in this country and it won't be much better in india, I believe, though manuscripts and books are much nearer. Therefore, as a Western editor of Amg. and Pkt., I follow the rules of the Prakrit grammarians for practical reasons.
Please keep in contact with me.
With best wishes
Heidelberg, Germany
12-12-96
- प्रो. श्रीरंजनसूरिदेव
sincerely yours
- Prof. W. B. Bollee
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आचाराङ्ग FACULTY OF ASIAN STUDIES, ASIAN HISTORY CENTRE
14 April 1997 CANBERRA ACT 0200 AUSTRALIA Dear Prakrit Jain Vidya Vikas Fund,
The exact nature of the original language of the Jaina texts is without doubt an important question for all those who have a scholarly interest in Jaina religion and literature. The plan to hold a seminar on this topic is a very welcome one and it is to be hoped that the important papers presented therein will be published to allow for the dissemination of information to a wide audience. I have no hesitation in wishing the proceedings every suc
cess.
Sincerely Royce Wiles
Scotland,
U.K.
16/4/97 Dear Professor Chandra,
Thank you for your letter advising me about the forthcoming seminar on the “Original Language of the Jain Canonical Texts”.
It is very gratifying to learn that such an academic function has been organised and that so many distinguished scholars arc participating in it. As you will know, sixty or so years ago Heinrich Lüders saw the desirability of describing thc linguistic stratum underlying the Pāli scriptures. The fragmentary results of this research appeared in his Beobachtungen über die Sprache des buddhistischen Urkanons and Buddhist philology has continued to benefit from his insights. Unfortunately, with the exception of Alsdorf, no wester rescarcher has attempted to consider the question of the original language of the Jain scriptures, so that it is very much to the credit of Indian scholars that they are beginning to ad
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परिशिष्ट
dress this subject in a critical and concerted manner. The first valuable results of this line of investigation are familiar to me from your Präcin Ardhamägadhi ki Khoj Mem and I would hope that the seminar leads to the emergence and dissemination of further knowledge about this fascinating subject. Only by challenging longheld presuppositions will scholarship on ancient texts be advanced. My best wishes for a successful and fruitful seminar.
Yours sincerely Jayendra Soni
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Yours sincerely, Paul Dundas
Senior Leturer in Sanskrit University of Edinburgh, England.
Dear Dr. Chandra,
It is with great pleasure that I read your announcement of the release of the Acāranga, prathama adhyayana, linguistically re-edited by you. Every scholar in the field of Jainism will welcome this enormous undertaking under your able hands and will very quickly realize the value of such a publication. Your work will undoubtedly be a major contribution as a basis for further research in the Jaina canonical studies.
With all good wishes for other such projects,
Marburg, Germany 22 April 1997
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आचाराङ्ग
To : The Seminar Organizers, Jināgamõ ki Mülabhāṣā par Vidvatsamgosthi, c/o Prakrit Jain Vidya Vikas Fund, 375 Saraswati Nagar, Ahmedabad.
SOAS, LONDON
20-4-97
Thank you for informing me of the seminar on the Original Language of the Jain Canonical Texts that is scheduled to take place shortly in Ahmedabad. Yor are to be congratulated on the selection and range of topics, and on the timing of the conference at this important juncture in Jain Studies.
My colleagues and I hope that, by subsequent publication of the proceedings, it will encourage and facilitate more widespread study, publication, and discussion of the primary manuscript sources. We would also wish to convey our congratulations to Dr. K. R. Chandra on the appearance of his stimulating re-appraisal of the linguistic form of the text of Acārārga.
J. C. Wright Professor of Sanskrit in the Univ. of London
School of Oriental and African Studies
6, Huttles Green, Shepreth,
Royston, Herts,
28/5/97 Dear Dr Chandra,
Thank you for your letter of 15/5/97. I am delighted to hear that the Seminar on the subject of The Original Language of the Jain Canonical Texts was so successful
I was interested to hear the outcome of your deliberations. Tinink it is very likely that Ardha-māgadhi was the original language of the Jināgama or, since the language of the original Jināgama was presumably earlier than the Ardha-māgadhi we possess now, perhaps we should call it Old Ardha-māgadhi. I believe that this
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परिशिष्ट
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language was affected by the Mahārāștri Prakrit after Jainism had spread to Mahārāstra, and I would agree that the Sauraseni Agamic works are relatively later.
If there are any plans to publish the proceedings of the Seminar I should be very glad to receive a copy. With best wishes,
Yours sincerely. K. R. Norman
South Asia Dept., SOAS, University of London, Thornhaugh St., Russell Sq., London.
28/5/97 Thank yor for sending me a copy of your report on the outcome of the "Original language” Seminar.
Of course I remain most interested in the progress of your re-appraisal of the testimony of Ācārārga MSS for the language of Amg. texts, and hopeful that you can publish more of the information gleaned. Would that someone might be inspired to produce facsimile reproductions of the principal MSS, in emulation of the Satapitaka Series. That is something that ought to be demanded at every conference, before the MSS disintegrate entirely.
Your findings seem to confirm that a return to the method of Jacobi's 1882 edition of Ācārārga would be appropriate, in case of variation, he gave in italics the most antique-looking reading that happened to be available (e.g......nātam bhavati... ovavāiye....), even although, on his own showing, such readings can always be put down to an instinct to clarify the meaning. Thus he rightly could take note of effects like 1.2 māyā me pită me and 1.6 mātaram piyaram. But I do not believe that it is safe to refer to this (as he did) as a ‘retention of - t- : one is presumably less likely to find a -t- in a purely Prakrit form like bhāyā. With pariņņā, and with the same sort of effect in hiraņņeņam suvanneņam elsewhere (ZDMG 1880), his policy was to archaize with parinnā and suvaņņeņam.
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आचाराङ्ग I take the opportunity to congratulate you on your explanation of locative -ammi, which seems to solve one of the most perplexing problems of all. It goes well with the texts' failure to distinguish between 0- and u-, and with Bühler's suggestion that graphic confusion between n and ņ was involved : that wculd seem to justify Jacobi in his willingness to emend u-, n- and în (irrespective of the actual readings, as I understand him).
Schubring's identification of two groups within the Ācārānga MSS, and of separate strata of verse and prose material, seems to hint that critical editing is possible (though he did not make the attempt, and It would be a thankless task without access to facsimiles of the MSS).
With all good wishes,
- J. C. Wright
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परिशिष्ट ' जैन आगमों के संपादकों एवं भाषा-संशोधक विद्वानों
के द्वारा कार्यान्वित करने योग्य एक उत्तम सुझाव (A Superb Proposal worth Execution by Research Scholars of
Linguistics and Editors of Jain Canonical Works)
artly
Date 26.2.1997 Dear Dr. Chandra,
I acknowledge with thanks the receipt of the appreciative remarks of cminent scholars about your pioneering work in restoration of Ur-AMG (Ardhamāgadhi) of the Āgamas.
As you know it both in my private letters to you and in research journals, I have expressed my appreciation of your pathfinding to Ur-AMG. Due to geographical distance between us and my prc-occupation with Sanskrit Mahāpurāṇas, I could not collaborate with you directly.
In fact yours is an Epoch-making Project worth undertaking by some Research Institute, preferably an institute for the restoration of Ur-AMG and not by frail old individual scholars like us.
I think you and like-minded scholars likc Dr.Malvnia should try or move the leaders of the community for founding such an Institute at Ahmedabad which is a suitable place from many points of vicw such as availability of MSS material, co-operation of competent scholars and last but the most important factor the liberal munificence of your community.
Kindly write to me about your academic activities for though I am 86, I still take interest in such research. With kind regards and thanks,
Yours sincerely,
G. V. Tagarc
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Publications of the author (K. R. Chandra), Published by Prakrit Jain Vidya Vikas Fund, Ahmedabad-15
आचारांग, प्रथम अध्ययन (भाषिक दृष्टि से पुनः सम्पादन), १९९७. परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी, १९९५ ।। Restoration of the Original Language of Ardhamāgadhi Canonical
Texts, 1994 ४. प्राचीन अर्धमागधी की खोज में, १९९१-९२
Jain Philosophy and Religion, 1996 प्राकृत-हिन्दी कोश (पाइयसद्दमहण्णवो का किञ्चित् परिवर्तित रूप), १९८७
गम्मयासुंदरो कहा, हिन्दी अनुवाद के साथ (सह-अनुवादक), १९८९ ८. गरतीय भाषाओं के विकास और साहित्य की उमृद्धि में श्रमणों का महत्त्वपूर्ण
योगदान, १९७९ ९. जैन आगम साहित्य (सेमिनार ओन जैन केनोनिकल लिटरेचर, १९८६), १९९२ Published by L.D. Institute of Indology, Ahmedabad-380 009 १०. Proceedings of the Seminar on Prakrit Studies (1973), 1978 ११. Prakrit Proper Names Dictionary, Vol. I, (Co-editor), 1970 २९. Prakrit Proper Names Dictionary, Vol. II, (Co-editor), 1972 १३. प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण एवं उनमें प्राक्-संस्कृत तत्व, प्राकृत
विद्यामंडल, अहमदाबाद, १९८२ १४. A Critical- Study. of Patimacariyam of Viinalasuri (Part I, Compara
tive Study of the Rama Story and other stories, Part II, Literary and Cultural Study), Research Instt. of Prakrit, Jainology and Ahimsā Vaishali, 1970 Literary Evaluation of Paümacariyam, Jain Cultural Research So
ciety; Varanasi, 1966 १६. 3hagwan Mahāvir : Prophet of Tolerance, Jain Mission Society,
Madras, 1975 १७. मुणिचंद-कहाणय, मूलकथा, गुजराती अनुक्द, तुलनात्मक एवं आलोचनात्मक
अध्ययन, प्रथम संस्करण, जयभारत प्रकाशन, १९७३, द्वितीय संस्करण, १९७७. अभयक्खाणय, मूलकथा, गुजराती अनुवाद, तुलनात्मक एवं आलोचनात्मक अध्ययन, सरस्वती प्रकाशन, अहमदाबाद, १९७५
प्राकृत गद्य-पद्य-संग्रह, कक्षा, ११, १९७६ २०. पालि गद्य-पद्य-संग्रह, कक्षा, ११, १९७६ २१. प्राकृत गद्य-पद्य-संग्रह, कक्षा, १२, १९७७
सह-संपादक, गुजरात राज्य स्कूल टेक्स्ट बोर्ड, अहमदाबाद . For purchase of Books No. 1 to 5, 8 to 9 and 13 place your orders . with the Prakrit Text Society, Clo. L.D. Institute of Indology, Ahmedabad380 009 and for books No. 6 to 7 and 15 with Parshwanath Vidyapeeth, I.T.I. Road, Varanasi-221005
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ABOUT THE AUTHOR Dr. K. R (Rishabh). CHANDRA, M.A.,Ph.D. Formerly Reader & Head of the Dept. of Prakrit and Pali, School of Languages, Gujarat University, Ahmedabad Born : 28-6-31, Palri-M., Sirohi, Rajasthan. M.A. Pali-Prakrit (Nagpur University, 1954) Ph.D. Prakrit & Jainology (Vaishali, 1962) Lecturer Nagpur Mahavidyalay, Nagpur. Senior Research Officer, L. D. Institute of Indology, Ahmedabad. Reader & Ph.D. Guide, Gujarat Uni. Ahmedabad. Author, Compiler and Editor of 20 Books. Contributed more than 100 Research papers & articles. Presented papers in 40 Conferences and Seminars. Organised two Seminars (1973 & 1986) UGC. aided. Recipient of Muni Shri Punyavijayaji Prize & All India Prakrit Conference Award and Hemacandrācārya Navama Janmaśatābdi Gold Medal. Hon. Secretary of Prakrit Jain Vidya Vikas Fund. Outstanding Works authored, compiled and edited : - Literary Evaluation of Paumacariyam, 1966 - A Critical Study of Paumacariyam by Vimalasuri,
1970 - Co-compiler of Prakrit Proper Names Dictionary,
Part I & II, 1970 & 1972. - Bhagwan Mahavir. Prophet of Tolerance, 1975 - Proceedings of the Seminar (1973) on Prakrit Studies,
1978 - Restoration of the Original Language of
Ardhamāgadhi Texts, 1994 - Jain Philosophy and Religion, 1996 - प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण एवं उनमें प्राक्-संस्कृत तत्त्व,
१९८२ - प्राकृत हिन्दी कोश (पाइय-सह-महण्णवो की किंचित् परिवर्तित आवृत्ति,
१९८७ - नम्मयासुंदरी कहा, हिन्दी अनुवाद सहित, १९८९ - प्राचीन अर्धमागधी की खोज में, १९९१-९२ - # 31TH HIFT (Seminar on Jaina Āgama, 1986), 1992 - परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी, १९९५ - आचाराङ्ग, प्रथम श्रुत-स्कंध, प्रथम अध्ययन (भासिक द्रष्टि से पुनः F967), PPPLE
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________________ अर्धमागधी का मूल स्वरूप निर्णीत करने का स्तुत्य प्रयास भगवान महावीर ने अपना उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिया था। डॉ.चन्द्रा जो अर्धमागधी की खोज में व्यस्त है, उन्होंने आचारांग के प्रथम अध्ययन को अर्धमागधी में रूपान्तरित करने का जो प्रयत्न किया है वह प्रशंशनीय है। डॉ. चन्द्रा ने जो किया है वह वे ही कर सकते हैं क्योंकि उनका ध्यान वर्षों से इस ओर है कि वास्तविक दृष्टि से अर्धमागधी का क्या स्वरूप हो। यह कार्य सरल नहीं है। आचारांग को लेकर उन्होंने जो कार्य किया है वह अपूर्व है और इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। अहमदाबाद -पं. दलसुख मालवणिया A CONSTANT CONTINUOUS LAUDABLE EFFORT I agree with you whole heartedly and express my admiration at the labour you have taken to go into the statistical evidence for your conclusions. You merit greatest praise for your work and the assumption that the oldest Ardhamagadhi retained the old IndoAryan stops. You will have also to consider the retention of nasal n (न) (dental), and the dental cluster nn (न), PUNE -Prof. A.M.Ghatage A New Direction in Jaina Canonical Research This present latest attempt aims at applying his resultant concept and principles of restoration to one small part of the Ardhamagadbi texts viz., the first chapter of the Acaranga which scholars have accepted as the earliest text. Dr Chandra's present work succeeds substantiated as it is by evidence based on comparative documentation and assessment of all available texual data, in giving as a glimpse of some phonological and morphological fcatures of the original Agamic Ardhamagadhi. Let us earnestly hope this important research work is further taken up by other students of Amg. canon for which Dr. Chandra has given the lead and has demonstrated the method. Ahmedabad - Prof. H. C. Bhayani .