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आचाराङ्ग
[ १६६ ]
ण्ण
कण्ण (कर्ण)
[ परवर्ती काल की प्राकृत भाषाओं में ज्ञ, न्न और न्य के स्थान पर ण्ण पाया जाता है ।]
तालिकाओं में प्रस्तुत ध्वनि - परिवर्तन के विश्लेषण के अनुसार इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यजनों का लोप ६ प्रतिशत, घोषीकरण १० प्रतिशत और यथावत् स्थिति ८४ प्रतिशत हैं । मध्यवर्ती महाप्राण व्यंजनों का 'ह' कार में परिवर्तन ८ प्रतिशत, घोषीकरण १० प्रतिशत और यथावत् स्थिति ८१ प्रतिशत हैं । अल्पप्राण और महाप्राण व्यंजनों को मिलाने पर यथावत् स्थिति ८४.५ प्रतिशत, घोषीकरण १० प्रतिशत और लोप ५.५ प्रतिशत पाया जाता है । स्पष्ट है कि अर्धमागधी प्राचीन प्राकृत भाषा होने के कारण इसमें मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप उस मात्रा में नहीं मिलता है जितना परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत में मिलता है । अतः • अर्धमागधी प्राकृत भाषा के लिये ध्वनि परिवर्तन का प्रायः लोप का नियम उपयुक्त नहीं ठहरता है । इसके लिये तो कभी कभी लोप का नियम ही उचित प्रतीत होता है । घोषीकरण में क ग ( २ प्रतिशत), थ-ध (८३.५ प्रतिशत) और प-व (९४ प्रतिशत) के प्रयोग मिलते है । तद का इसमें कोई प्रयोग नहीं मिल रहा है परंतु स्वयं आचाराङ्ग (मजैवि.) के सूत्रनं ३३५ में उदु (ऋतु) के प्रयोग मिल रहे हैं और उसी सूत्र के पाद-टिप्पण में चूर्णी से 'उदुसु' पाठान्तर दिया गया है । हस्तप्रतों में त=द के प्रयोग यत्र तत्र मिलते हैं परंतु संपादकों ने ऐसे पाठ नहीं अपनाये । कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित प्राकृत व्याकरण के प्रभाव में आकर पूर्व काल में मध्यवर्ती त के स्थान पर द के जो प्रयोग थे उनमें वापिस त कर दिया गया होगा । दन्त्य न के बदले में ण का प्रयोग भी कभी कभी ही मिलता होगा, सर्वत्र दन्त्य न को मूर्धन्य ण में बदलने की प्रवृत्ति परवर्ती काल में प्रचलित हुई है इस तथ्य पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
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के. आर. चन्द्र
मात्र एक अध्याय के विश्लेषण से ध्वनि - परिवर्तन सम्बन्धी जो निष्कर्ष निकाला जा रहा है वह अन्तिम तो नहीं ही कहा जा सकता परंतु उससे अर्धमागधी जैसी प्राचीन प्राकृत भाषा की ध्वनि परिवर्तन सम्बन्धी झलक तो अवश्य मिल ही जाती है ।
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