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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
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प्रथम उद्देशक
सूत्रकृ. 2.2.694; 2.3.722; 2.4.747; पाठा. 2.1.638 (पृ. 121.14)
आउसे
सूत्रकृतांग की चूर्णि में सूत्रकृ. (2.6.51, पाटि. 4) से एक 'आउसे' पाठ उद्धृत किया गया है । यह मागधी का रूप है ओर प्राचीन भी । वैसे संबोधन के लिए 'आउसो' और 'आउसन्तो' पाठ ही मिलते हैं और जहाँ पर भी 'आउस' पाठ मिलता है उसके साथ 'तेण' या 'तेणं' शब्द भी मिलता है । सूत्रकृतांग के चूर्णिकार 'आउसे' को इस प्रकार समझाते हैं-'आउसे त्ति हे
आयुष्मन्तः' । इस (सूत्रकृ. पृ. 232) से स्पष्ट है कि 'आउसे' पाठ 'आउसो' का मागधी रूप है, उसी न्याय से 'आउसन्तो' का मागधी रूप 'आउसन्ते' होता है । अतः भाषिक दृष्टि से और आचारांग की भाषा की प्राचीनता को ध्यान में रखते हुए मूल पाठ इस प्रकार बनता है 'आउसन्ते णं' जिसमें 'णं' अव्यय है। संबोधन का प्रचलित रूप 'भंते' भी 'आउसन्ते' पाठ की ही पष्टि करता है । हस्तप्रतों की लेखन-पद्धति शब्द-विच्छेद रहित होने के कारण प्राचीन पाठ भुला दिया गया और उसके बदले में 'आउसंतेणं' और 'आउसं तेण' पाठ प्रचलित हो गये और फिर उनके कल्पनाके बल पर अर्थ समझाये जाने लगे। इस ‘आउसन्ते णं' पाठ में अप्रस्तुत अर्थ की कोई कल्पना करने की आवश्यकता नहीं रहती (विस्तृत चर्चा के लिए देखिए मेरा लेख 'अर्धमागधी भाषा में सम्बोधन का एक विस्मृत शब्द-प्रयोग 'आउसन्ते', श्रमण, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, 5, जुलाई-सितम्बर 1995) मजैवि.
3.
भगवया
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