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________________ प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन । [८] प्रस्तावना की दृष्टि से और आगे बढ़ाने का यह प्रयत्न है । अर्थात् भ. महावीर की जो मूल वाणी थी उस तक पहुंचने का यह एक और प्रयत्न है । इससे यह भी नहीं मान लेना चाहिए कि यह नया संस्करण पूर्णतः अपरिवर्तनीय है। नयी नयी सामग्री और प्रमाण मिलने पर जैसे जैसे नये नये संस्करण तैयार किये जाते हैं उसी परंपरा से और भी नया संस्करण भविष्य में बन सकता है, इस तथ्य को भूलना नहीं चाहिए। इस संस्करण को तैयार करने में आचारांग के म.जै.वि. के संस्करण को मूल आदर्श प्रत के रूपमें रखा गया है । इसका कारण यह है कि यही एक ऐसा संस्करण है जिसमें (मुनि श्री पुण्यविजयजी ने अनेक ताड़पत्रों और कागज़ की प्रतियों से जो पाठान्तर लिये थे उन्हीं के अनुसार) अनेक प्रतियों से पाठान्तर दिये गये हैं जबकि अन्य संस्करणों में इतनी प्रतियों का उपयोग नहीं हुआ है। आचारांग . के इस संस्करण को ध्यान से पढने पर ऐसी प्रतीति हई कि अभी भी पाठों के संशोधन की पर्याप्त आवश्यकता है क्योंकि इस संस्करण में अभी भी भाषा के दो या तीन स्तर दिखते हैं, सर्वत्र भाषिक प्राचीनता नहीं है । उदाहरणार्थ :लोक, लोग लोय; अत्ता, आता, आया; णरग, णिरय, निरय; पाय, पाद; कोध, कोह; मेधावी, मेहावी; अन्नतर, अण्णतर, अण्णयर; आगतो, आगओ; भगवता, भगवया; अन्नतरीतो, अन्नतरीओ; दिसातो, दिसाओ; कप्पति, कप्पड़, इत्यादि । कभी कभी समस्या उत्पन्न हो जाती है कि हस्तप्रतों या प्रकाशित संस्करणों में से कौनसा पाठ (विभिन्न पाठान्तरों के कारण) उपयुक्त माना जाय । आचारांग के उपोद्घात के वाक्य के पाठों को ही लीजिए । सूत्रकृतांग में (2. 2. 694) पाठ इस प्रकार है - 'सुतं मे आउसंतेणं भगवता एवमक्खातं' जबकि आचारांगसूत्र जो सूत्रकृतांग से प्राचीन माना जाता है उसमें पाठ इस प्रकार मिलता है - 'सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं' । स्पष्ट है कि कौनसा पाठ भाषिक दृष्टि से प्राचीन है और कौन सा परवर्ती काल का बदला हुआ पाठ है । हालाँ कि — हमारे ख्याल से 'आउसंते णं' पाठ होना चाहिए।' 3. इस संबंध में विस्तृत चर्चा के लिए देखिए, 'श्रमण', जुलाई - सितम्बर, 1995 (पा.वि. __ शोध संस्थान, वाराणसी, 5) में प्रकाशित मेरा लेख-अर्धमागधी भाषा में सम्बोधन का एक विस्मृत शब्द-प्रयोग 'आउसन्ते' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001438
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages364
LanguagePrakrit, Gujarati, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Research
File Size14 MB
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