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आचाराङ्ग [११]
के. आर. चन्द्र 2. ज्ञ = न रखा गया है, जैसे कि शुबिंग महोदय की पद्धति रही है । प्रारंभ
में इसके लिए नकार रखा गया है। 3. न्य, न्न = न्न अपनाया गया है। 4. सजातीय व्यंजनों के साथ संयुक्त रूप में प्रयुक्त अनुनासिक व्यंजनों को . यथावत् रखा गया है जो एक प्राचीन पद्धति है ।।
5. अन्य प्राचीन आगम ग्रंथो में जो कोई शब्द अपने मूल रूप में (यानि ध्वनि
विकार रहित) मध्यवर्ती अल्पप्राण और महाप्राण सहित कहीं पर भी उपलब्ध हो रहा हो तो उस रूप को या उसके घोष रूप को प्राथमिकता दी गयी है। मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजन के लोप और मध्यवर्ती महाप्राण के स्थान पर हकार से सामान्यतः दूर ही रहा गया है ।
6. 'यथा' और 'तथा' के लिए 'अधा', और 'तधा' को प्राथमिकता दी गयी है। 7. कहीं-कहीं पर पालि भाषा के अनुरूप प्राचीन रूप मिलता हो तो उसे
तिलांजलि नहीं दी गयी है। 8. प. प्र. ए. व. के विभक्ति प्रत्यय -ए; नप. प्र. द्वि. ब. व. के -नि, त. ए.
व. के --एन और -ता, पं. ए. व. के -तो, तृ. ब. व. के -हि और स. ब. व. के -सु को (क्रमशः -ओ, - इं,-एणं एवं -आ, -ओ, -हिं और -सुं
के बदले में) प्राथमिकता दी गयी है। 9. पद्यांश शुब्रिग महोदय के आचारांग के संस्करण के अनुसार रखे गये हैं । 10. म.जै.वि. के आचारांग में स्वीकृत जिस पाठ को इस संस्करण में बदला गया
है उसके समर्थन में नीचे पाद-टिप्पण में आचारांग में दिये गये पाठ या उसमें ही अन्य स्थल पर या अन्य आगम ग्रंथों में आनेवाले पाठ या उनके पादटिप्पण में प्राचीन ग्रंथों से उद्धृत पाठ दिये गये हैं। नीचे पाद-टिप्पण में म.जै.वि. का पाठ भी दिया गया है।
इसके अतिरिक्त आचारांग के अन्य संस्कारणों के ऐसे पाठ भी नीचे पादटिप्पण में दिये गये हैं [जैसे - म.जै.वि. (महावीर जैन विद्यालय), शु. (शुब्रिग), आगमो. (आगमोदय समिति) और जै.वि.भा. (जैन विश्व भारती)]
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