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प्रथम अध्ययन का पुनः सम्पादन
प्रस्तावना
[१०] सर्वथा कमी है । यह भी हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण के प्रतिकूल ही है ।
ला. द. भा. सं. विद्या मंदिर, अहमदाबाद के अनुभवी एवं विद्वान् लिपिशास्त्री श्री लक्ष्मणभाई भोजक के अनुसार प्राचीन काल की लिपि में दन्त्य नकार '1' इस प्रकार लिखा जाता था और मूर्धन्य णकार 'I' इस प्रकार लिखा जाता था । परन्तु लगभग चौथी शताब्दी अर्थात् गुप्त काल से अक्षरों के ऊपर शिरोरेखा लगायी जाने लगी तब नकार पर भी शिरोरेखा लगायी जाने लगी और तब नकार '1' पर शिरोरेखा 'I' आ जाने से नकार और णकार एक समान हो गये । अतः यह भी एक प्रबल कारण है कि तबसे भ्रान्ति के कारण प्राकृत में नकार के बदले में णकार का प्रचलन बढ़ता गया हो । प्राचीन शिलालेखों के प्रामाण्य के अनुसार पूर्वी भारत की प्राचीन प्राकृत भाषाओं में दन्त्य नकार की जगह पर मूर्धन्य णकार का प्रयोग उपयुक्त नहीं लगता है, अतः इस संस्करण में मध्यवर्ती नकार का प्रयोग यथावत् रखा गया है जो प्राचीनता का द्योतक है । सर्वत्र णकार में बदला जाना महाराष्ट्री प्राकृत का लक्षण है ( न कि अर्धमागधी प्राकृत का) जो दक्षिण एवं पश्चिम भारत की विशिष्टता रही
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ताड़पत्र की प्रतियों में 'अधा, तथा, इध' जैसे प्राचीन पाठ मिलते हुए भी उनकी जगह पर मुनि श्री जम्बूविजयी ने 'जहा, तहा, इह' जैसे पाठ स्वीकार किये हैं (देखिए आचारांग (मजैवि.) की भूमिका, पृ. 44 ) जो अर्धमागधी भाषा के पाठ नहीं हैं परंतु महाराष्ट्री प्राकृत के पाठ हैं ।
अर्धमागधी प्राकृत भाषा का मूल स्वरूप परिस्थापित करने के इस प्रयत्न में प्रस्तुत संपादन में जो सिद्धान्त अपनाये गये हैं वे इस प्रकार हैं-
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1. प्रारंभिक मूल दन्त्य नकार को मूर्धन्य णकार में नहीं बदला है । शुब्रिंग महोदय के संस्करण में भी मूल नकार यथावत् रखा गया है ।
5.
6.
आगमों की हस्तप्रतों और चूर्णी जैसे ग्रंथों में मध्यवर्ती नकार के प्रयोग मिलते हैं । देखिए मेरी पुस्तक 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और
अर्धमागधी', 1995 में नकार विषयक अध्याय नं. 7 और 8.
इसके लिए प्रस्तावना में प्रारंभ में बतलाये गये मेरे तीनों ग्रंथों को पढ़ना अनिवार्य है ।
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