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ચૂર્ણિકાર મહારાજ સામે જે કેટલાક પાઠો હતા તે આજની ટીકા વાંચનારને નવા જ લાગે તેવા છે (પૃષ્ઠ ૪). २. प्रतिमोभा श०६ प्रयोगानी भिन्नता (पृष्ठ ५-७)
सायीन प्राकृतभा “क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्" (સિદ્ધહેમ, ૮-૧-૧૭૭) આ નિયમનું અનુસરણ જેવું જોવામાં આવે છે તેવું भने तेटj प्राचीन मानतुं तेम४ "ख-घ-थ-ध-भाम् (सिद्धडेभ. ८૧-૧૮૭) વગેરે નિયમોને પણ એટલું સ્થાન ન હતું. આ કારણસર પ્રાચીન
चूर्णिकार महाराज के सामने जो कितने ही पाठ थे वे आज की टीका पढनेवाले को नये ही प्रतीत होंगे-ऐसे पाठ हैं। २. प्रतियों में शब्द-प्रयोग की विभिन्नता
अर्वाचीन (यानी परवर्ती काल की महाराष्ट्री) प्राकृत भाषा में (मध्यवर्ती व्यंजन) "क-ग--च-ज-त-द-प-य-व" के लोप के नियम का अनुसरण जिस प्रकार से देखने को मिलता है वैसा और उस प्रमाण में प्राचीन काल में नहीं था। उसी प्रकार (मध्यवर्ती महाप्राण व्यंजन) "ख-घ-थ-ध-भ" (को 'ह'कार में बदलने के) वगैरह नियमों (सिद्धहेम. ८-१-१७७ और १८७) को भी इतना स्थान प्राप्त नही था। इस कारण से प्राचीन प्राकृत और अर्वाचीन प्राकृत में
The readers of the commentaries that are before us today would find the texual readings therein quite different from those that were before the cūrņikāras, i.e. the Prakrit commentators (of the bygone centuries).
2. Disparity in the use of words (phonological) in the manuscripts.
The frequency that we find in the dropping off of medial consonants- k, g, c, j, t, d, p, y, v-in the younger Prakrit and the loss of the element of occlusion (i.e. the change of aspirates into 'h') from “kh, gh, th, dh, bh” (as per Hema. 8.1.177 and 187), these rules were not applicable to that extent in the older Prakrit (i.e. Ardhamågadhi). On account of that one
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