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પ્રશસ્તિ : લેખો તથા કાવ્ય
[२७४] यावन्नन्दनमृरिवाचकवरः संविद्यमानः क्षिती
____तावन्नैव मया क्षितौ विहरणे त्वासा द्यते योग्यता । इत्येवं परिचिन्त्य चेतसि कृतं लजास्पदं भावयन
मन्येऽहं गगने बृहस्पतिरहो नित्यं मुधा भ्राम्यति ॥७॥ यन्नाम्नस्स्मरणं मुदा महिचराँस्तूर्ण सदा विष्टपे
स्वादृश्यं परिपूर्णतां गमयति स्पर्शस्य वार्ता च का ? स्वल्पैव क्षमता न दर्शन विधौ स्वप्नेऽपि संभाव्यते
इत्थं स्पर्शमणिर्विचार्य रभसाल्लोकेऽश्मतामागतः ॥८॥
प्रशस्तिः
इत्येवं रचिता सीता सुललिता भक्त्या स्तुतिनन्दिनी ।
___ स्फीतार्था परिशीलिता च विबुधैर्माङ्गल्यनिःस्यन्दिनी । भव्यानामिइ बाञ्छितार्थ शिवदा भूयात् सदा श्रीमतां ।
पादाब्जस्य परागरञ्जितमना वाञ्छामि "वाचस्पतिः” ॥१॥
स्व. आचार्य विजयनन्दनसूरिजी ।
लेखक-श्री रिषभदासजी रांका भगवान महावीर के शासन की यह विशेषता रही है कि, उनका श्रमणवर्ग आचार तथा त्यागमे निष्ठा रखकर शासन तथा धर्म की सेवा को अपनी साधना का अंग मानता है; अपरिग्रही रहकर पदयात्रा द्वारा जनता में धर्म के संस्कार निर्माण करने का प्रयत्न करता है । जैनधर्म की विशिष्टता यह रही है कि, भगवान महावीर के बाद उनकी परंपरा को और उपदेशों को जन जन तक पहुंचाने का काम महान आचार्यों ने सतत चालू रखा है। इन आचार्यों की परंपरा में शासनसम्राट विजयनेमिमूरिजीका स्थान विशिष्ट रहा है, जिन्होंने तीर्थ रक्षा के काम में महत्वपूर्ण योगदान दिया । उस परंपरा में उनके शिष्य विजयोदयसरिजी और उनके शिष्य आचार्य नन्दनमूरिजी के कार्य भी तीर्थसेवा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण रहे हैं ।
__ आण दजी कल्याणजी की पेढी तथा सेठ कस्तूरभाई ने जो जीर्णोद्धार के महत्त्वपूर्ण कार्य किए, उसमे आचार्य विजयोदयमूरिजी और नन्दनसूरिजीका सहयोग महत्त्वपूर्ण रहा है। राणकपुर, आबु तथा शत्रुजय में जो भी जीर्णोद्धार के कार्य हुए, उसमें शासनसम्राट आचार्य विजयनेमिसरिजी तथा उनके शिष्य-प्रशिष्यों का सहयोग प्राप्त न होता तो यह कार्य विधिपूर्वक होने में बडी कठनाई होती; हमारे प्राचीन शिल्प को यथावत् रखकर उसका भव्य दर्शन करानेका काम जो लाखों रूपया खर्च कर सेठ आणदजी कल्याणजी की पेढी तथा सेठ कस्तूरभाई कर सके वह नहीं हो पाता ।
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