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प्राकथन
बार चेतावनी दी कि 'समय गोयम मा पपादए'-गौतम ! इस प्रात्ममन्दिरकी प्राणप्रतिष्ठामें क्षणमात्र भी प्रमाद न कर। प्राचारकी परम्पराका मुख्य पाया तत्वज्ञान
इस तरह जब तक बुनियादी बातोंका तत्त्वज्ञान न हो तो केवल सदाचार और नैतिकताका उपदेश सुनने में सुन्दर लगता है पर वह बुद्धि, तर्क, जिज्ञासा, मीमांसा, समीक्षा और समालोचना की तृप्ति नहीं कर सकता। जब तक संघके ये मानस विकल्प नहीं हटेंगे तब तक वे बौद्धिक हीनता मानस दीनताके तामस भावोंसे त्राण नहीं पा सकते और चित्तमें यथार्थ निवैर वृत्तिका उदय नहीं कर सकते। जिस आत्माके यह सब होना है यदि उसके ही स्वरूपका भान न हो तो मात्र अनुपयोगिताका सामयिक समाधान शिष्यों के मुंहको बन्द नहीं रख सकता। आखिर मालंक्यपुत्तने बुद्धको साफ साफ कह दिया कि आप यदि नहीं जानते तो साफ साफ क्यों नहीं कहते कि मैं नहीं जानता-मुझे नहीं मालूम।
- जिन प्रश्नोंको बुद्धने अव्याकृत रखा उनका महावीरने अनेकान्त दृष्टिसे स्याद्वाद भाषामें निरूपण किया । उनने आत्माको द्रव्यदृष्टिसे शाश्वत, पर्यायदृष्टिसे अशाश्वत बताया । यदि आत्मा कूटस्थ, नित्य, सदा अपरिवर्तनशील माना जाता है तो पुण्य-पाप सब व्यर्थ हो जाते हैं क्योंकि उनका असर आत्मापर तो पड़ेगा नहीं। यदि आत्मा क्षण-विनश्वर और धाराविहीन, निःसन्तान, सर्वथा नवोत्पाद वाला है तो भी कृत कर्मकी निष्फलता होती है, परलोक नहीं बनता। अतः द्रव्य-दृष्टिसे
. देखो प्रो० दलसुख मालवणि या लिखित जनतर्कवार्तिककी प्रस्तावना ।
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