________________
स्याद्वाद सिद्धि
अस्मादादिवदेवाऽस्य जातु नैवाशरीरता ॥ देहस्यानादिता स्यादेवस्यां च प्रमात्ययात्
- ६.१०, ११३ ॥
इन दोनों उद्धरणों का मिलान करनेसे ज्ञात होता है कि वादी सिंहका कथन जहाँ संक्षिप्त है वहाँ विद्यानन्द का कथन कुछ विस्तारयुक्त है। इसके अलावा, वादीभसिंहने प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धि में अनेकान्तके युगवदनेकान्त और क्रमानेकान्त ये दो भेद प्रदर्शित करके उनका एक एक स्वतन्त्र प्रकरण द्वारा विस्तारसे -
२४
न किया है । विद्यानन्द ने भी श्लोकवार्तिक ( पृ० ४३८) में अनेकान्तके इन दो भेदोंका उल्लेख किया है । इन बातोंसे लगता है कि शायद विद्यानन्दने वादीभसिंहका अनुसरण किया है। यदि यह कल्पना ठीक हो तो विद्यानन्दका समय वादीभसिं हकी उत्तरावधि समझना चाहिये । यदि ये दोनों विद्वान समकालीन हों तो भी एक दूसरेका प्रभाव एक दूसरेपर पड़ सकता है और एक दूसरेके कथन एवं उल्लेखका आदर एक दूसरा कर सकता है । विद्यानन्दका समय हमने अन्यत्र ' ई० ७७ से ८४० अनुमानित किया है ।
५. गद्यचिन्तामणि (पीठिका श्लोक ६) में वादीभसिंहने अपना गुरु पुष्पषेण आचार्यको बतलाया है और ये पुष्पषेण बे हो पुष्पषेण मालूम होते हैं जो अकलंकदेवके सधर्मा और 'शत्रुभयङ्कर' कृष्ण प्रथम ( ई० ७१६-७७२) के समकालीन कहे जाते हैं । और इसलिये वादीभसिंह भी कृष्ण प्रथमके समकालीन हैं।
अतः इन सब प्रमाणोंसे वादीभसिंहसूरिका अस्तित्व- समय
१ देखो, प्राप्तपरीक्षाको प्रस्तावना पृ० १३ |
२ देखो, डा० सालतोर कृत मिडियावस्त्र जैनिज्म पृ० ३६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org