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स्याद्वार्दासद्धि मिलता है अन्यको नहीं। किंतु जब आप आत्माको निरन्वय क्षणिक मानते हैं तो उसके नाश होजानपर फल दूसरा चित्त ही भोगेगा, जो कर्ता ही है और तब 'कर्ताको ही फल प्राप्त होता है। यह कैसे सम्भव है ?
बौद्ध-जैसे पिताको कमाइका फल पुत्रको मिलता है और यह कहा जाता है कि पिताको फल मिला उसी तरह कतो आत्मा को भी फल प्राप्त हो जाता है ?
जैन-आपका यह केवल कहना मात्र है-उससे प्रयोजन कुछ भी सिद्ध नहीं होता। अन्यथा पत्रके भोजन कर लेनेसे पिताके भी भोजन कर लनेका प्रसंग आवेगा।
बौद्ध-व्यवहार अथवा संवृत्तिसे कतो फलभोक्ता बन जाता है, अतः उक्त दोष नहीं है ? . जैन हमारा प्रश्न है कि व्यवहार अथवा संवृत्तिसे आप. को क्या अर्थ विवक्षित है ? धमकतोको फल प्राप्त होता है, यह अथ विवक्षित है अथवा धर्भकर्ता को फल प्राप्त नहीं होता, यह अर्थ इष्ट हैं या धर्मकतोको कथीचत् फल प्राप्त होता है, यह अर्थ अभिप्रेत है। प्रथमके दो पक्षा में वही दूषण आते हैं जो ऊपर कहे जा चुके हैं और इस लिये ये दोनों पक्ष तो निर्दोष नहीं हैं। तासरा पक्ष भी बौद्धोंके लिये इष्ट नहीं हो सकता, क्योकि उससे उनके क्षणिक सिद्धान्तको हानि होती है
और स्याद्वादमतका प्रसङ्ग आता है। __दूसरे, यदि संवृत्तिसे धर्मकर्ता फलभोक्ता हो तो संसार अवस्थामें जिस चित्तने धर्म किया था उसे मुक्त अवस्थामें भी संवत्तिसे उसका फलभोक्ता मानना पड़ेगा। यदि कहा जाय कि जिस संसारी चित्र.ने धर्म किया था उस संसारी चित्तको हो
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