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स्याद्वादसिद्धि
जाने चाहिए किन्तु वे नहीं होते । एक कार्यको करनारूप सन्तति भी नहीं बनती; क्योंकि क्षणिकवाद में उस प्रकारका ज्ञान ही सम्भव नहीं है । यदि कहा जाय कि एक्ववासनासे उक्त ज्ञान हो सकता है अर्थात् जहां 'सोऽहं' - 'हो मैं हूं' इस प्रकारका ज्ञान होता है वहीं उपादानोपादेयरून सन्तति मानी गई है और उक्त ज्ञान एकत्ववासनासे होता है, तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें अन्योन्याश्रय नामका दोष आता है । वह इस प्रकार है- जब एकत्वज्ञान सिद्ध हो तब एकत्ववासना बने और जब एकत्ववासना बन जाय तब एकत्वज्ञान सिद्ध हो। और इस तरह दोनों ही असिद्ध रहते हैं। केवल कार्यकारणरूपतासे सन्तति मानना भी उचित नहीं है, अन्यथा बुद्ध और संसारियों में भी एक सन्तानका प्रसङ्ग आवेगा, क्योंकि उन में कार्यकारणभाव है - वे बुद्धके द्वारा जाने जाते हैं और यह नियम है कि जा कारण नहीं होता वह ज्ञानका विषय भी नही होता - अर्थात् जाना नहीं जाता । तात्पर्य यह कि कारण ही ज्ञानका विषय होता है और संसारो बुद्ध के विषय होनेसे वे कारण हैं तथा बुद्धचित्त उनका कार्य है अतः उनमें भी एक सन्ततिका प्रसंग आता है ।
अतः आत्मा को सर्वथा क्षणिक और निरन्वय माग्नेपर धर्म तथा धर्मफल दोनों हा नहीं बनते, किंतु उसे कथंचित् क्षणिक और अन्वयी स्वीकार करनेसे वे दानों बन जाते हैं । 'जो मैं वाल्यावस्था में था वही उस अवस्थाको छोड़कर अब मैं युवा हूं ।' ऐना प्रत्यभिज्ञान नामका निर्वाध ज्ञान होता है और जिससे आत्मा कथंचित नित्य तथा अनित्य प्रतीत होता है और प्रतोतिके अनुसार वस्तुकी व्यवस्था है ।
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