________________
हिन्दी-सारांश जैन-नहीं, क्योंकि अन्योन्याश्रय दोष आता है । बुद्धयादि अब अमुक्तसमवेत सिद्ध होजायें तब वे अमुक्त-प्रभव सिद्ध हों और उनके अमुक्तप्रभव सिद्ध होनेपर वे अमुक्त-समवेत सिद्ध हों। अतः समवायसे आत्मा तथा बुद्धयादिमें अभेदादि माननेमें उक्त दूषण आते हैं। और ऐसी दशामें वस्तुको सर्वथा नित्य माननेपर धर्मकतोके फलका अभाव सुनिश्चित है।
६. सर्वज्ञाभावसिद्धि नित्यैकान्तका प्रणेता-उपदेशक भी सर्वज्ञ नहीं है ; क्योंकि वह समीचीन अर्थका कथन करनेवाला नहीं है। दूसरी बात यह है कि वह सरागी भी है। अतः हमारी तरह दूसरोंको भी उसकी उपासना करना योग्य नहीं है।
सोचनेकी बात है कि जिसने अविचारपूर्वक स्त्री आदिका अपहरण करनेवाला तथा उसका नाश करनेवाला दोनों बनाये वह अपनी तथा दूसरोंकी अन्योंसे कैसे रक्षा कर सकता है ?
साथ ही जो उपद्रव एवं झगड़े कराता है वह विचारक तथा सर्वज्ञ नहीं हो सकता। यह कहना युक्त नहीं कि वह उपद्रवरहित है, क्योंकि ईश्वरके कोपादि देखा जाता है। ___अतः यदि ईश्वरको आप इन सब उपद्रवोंसे दूर वीतराग एवं सर्वज्ञ मानें तो उसीको उपास्य भी स्वीकार करना चाहिये, अन्य दूसरेको नहीं । रत्नका पारखी काचका उपासक नहीं होता। __ यह वीतराग-सर्वज्ञ ईश्वर भी निरुपाय नहीं है। अन्यथा वह न वक्ता बन सकता है और न सशरीरी । उसे वक्ता माननेपर वह सदा वक्ता रहेगा-श्रवक्ता कभी नहीं बन सकेगा। ___ यदि कहा जाय कि वह वक्ता और अवक्ता दोनों है, क्योंकि वह परिणामी है तो यह कहना भी ठीक नहीं है। कारण, इस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org