________________
स्याद्वादसिद्धि
१०. वेदपौरुषेयत्वसिद्धि मीमांसक-ज्योतिषशास्त्रादिका उपदेश अपौरुषेय वेदसे संभव है, अतः उसके लिये सर्वज्ञ स्वीकार करना उचित नहीं है ? __ जैन-नहीं, क्योंकि वेद पद वाक्यादिरूप होनेसे पौरुषेय है, जैसे भारत श्रादि शास्त्र। - मीमांसक-वेदमें जो वर्ण हैं वे नित्य हैं, अतः उनके समूहरूप पद और पदोंके समूहरूप वाक्य नित्य होनेसे उनका समूहरूप वेद भी नित्य है-वह पौरुषेय नहीं है ?
जैन-नहीं, क्योंकि वर्ण भिन्न-भिन्न देशों और कालोंमें मिन्नभिन्न पाये जाते हैं, इसलिये वे अनित्य हैं। दूसरे, ओठ, तालु आदिके प्रयत्नपूर्वक वे होते हैं और जो प्रयत्नपूर्वक होता है वह अनित्य माना गया है । जैसे घटादिक ।
मीमांसक-प्रदीपादिकी तरह वर्णों की ओठ, तालु आदिवो द्वारा अभिव्यक्ति होती है-उत्पत्ति नहीं। दूसरे, 'यह वहीं गकारादि है" ऐसी प्रसिद्ध प्रत्यभिज्ञा होनेसे वर्ण नित्य हैं ?
जैन-नहीं; ओठ, तालु आदि वर्गों के व्यंजक नहीं हैं वे उन कारक है। जैसे दण्डादिक घटादिके कारक है। अन्यथा घटादि भी नित्य होजायेंगे। क्योंकि हम भी कह सकते हैं कि दण्डादिक घटादि के व्यंजक हैं कारक नहीं । दूसरे, 'वहो मैं हूँ' इस प्रत्यभिज्ञासे एक आत्माकी भी सिद्धिका प्रसंग आवेगा। यदि इसे भ्रान्त कहा जाय तो उक्त प्रत्यभिज्ञा भी भ्रान्त क्यों नहीं कही जा सकती है|
मीमांसक-आप वोंको पुद्गलका परिणाम मानते हैं किन जड पुद्गलपरमाणुओंका सम्बन्ध स्वयं नहीं होसकता। इस ' सिवाय, वे एक श्रोताके कानमें प्रविष्ट होजानेपर उसी समर
अन्यके द्वारा सुने, नहीं जा सकेंगे ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org