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स्याद्वादसिद्धि
जैन- नहीं, क्योंकि अप्रमाणता की तरह प्रमाणों की प्रमाणत भी स्वतः नहीं होती, गुणादि सामग्रीसे वह होती है । इन्द्रियों निर्दोष - निर्मल होनेसे प्रत्यक्ष में, त्रिरूपतासहित हेतुसे अनुमान में और आप्तद्वारा कहा होनेसे आगम में प्रमाणता मानी गई और निर्मलता आदि ही 'पर' हैं, अतः प्रमाणताकी उत्पत्ति पर से सिद्ध है और ज्ञप्ति भी अनभ्यास दशामें परसे सिद्ध है । ह अभ्यास दशा में ज्ञप्ति स्वतः होती है । अतः परसे प्रमाणता सि हो जाने पर कोई भी प्रमाण स्वतः प्रमाण सिद्ध नहीं होता औ इसलिये वेद पौरुषेय है तथा वह सर्वज्ञका बाधक नहीं है ।
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१२. अभावप्रमाणदूषणसिद्धि
अभाव प्रमाण भी सर्वज्ञका बाधक नहीं है, क्योंकि भाव प्रमाणसे अतिरिक्त अभावप्रमाएकी प्रतीति नहीं होती । प्रकट कि 'यहां घड़ा नहीं है' इत्यादि जगह जो प्रभावज्ञान होता वह प्रत्यक्ष, स्मरण और अनुमान इन तीन ज्ञानोंसे भिन्न न है । 'यहां' यह प्रत्यक्ष है, 'घड़ा' यह पूर्व दृष्ट घड़ेका स्मरण और 'नहीं है' यह अनुपलब्धिजन्य अनुमान है। यहां और के ग्राह्य है नहीं जिसे श्रभावप्रमाण जाने । दूसरे, वस्तु भावाभाव त्मक है और भावको जाननेवाला भावप्रमाण ही उससे अभि अभावको भी जान लेता है, अतः उसको जानने के लिये अभा प्रमाणकी कल्पना निरर्थक है । अतएव वह भी सर्वज्ञका बाध नहीं है ।
१३. तर्कप्रामाण्यसिद्धि
सर्वज्ञका बाधक जब कोई प्रमाण सिद्ध न हो सका। मीमांसक एक अन्तिम शंका और उठाता है । वह कहता है : सर्वज्ञको सिद्ध करनेके लिये जो हेतु ऊपर दिया गया है उस अविनाभावका ज्ञान असंभव है; क्योंकि उसको ग्रहण कर
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