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स्याद्वादसिद्धि
तरह वह नित्यानित्यरूप सिद्ध होनेसे स्याद्वादकी ही सिद्धि करेगा -क्रूटस्थ नित्यकी नहीं ।
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अपि च, उसे कूटस्थ नित्य मानने पर उसके वक्तापन बनता भी नहीं है । क्योंकि उसको सिद्ध करनेवाला प्रत्यक्षादि कोई भी प्रमाण नहीं है | आगमको प्रमाण माननेपर अन्योन्याश्रय दोष होता है । स्पष्ट है कि जब वह सर्वज्ञ सिद्ध होजाय तो उसका उपदेशरूप आगम प्रमाण सिद्ध हो और जब आगम प्रमाण सिद्ध हो तब वह सर्वज्ञ सिद्ध हो ।
इसीतरह शरीर भी उसके नहीं बनता है ।
यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि वेदरूप आगम प्रमाण नहीं है क्योंकि उसमें परस्पर विरोधी अर्थों का कथन पाया जाता है । सभी वस्तुओं को उसमें सर्वथा भेदरूप अथवा सर्वथा अभेदरूप बतलाया गया है । इसीप्रकार प्राभाकर वेदवाक्यका अर्थ नियोग, भाट्ट भावना और वेदान्ती विधि करते हैं और ये तीनों परस्पर सर्वथा भिन्न हैं । ऐसी हालत में यह निश्चय नहीं होसकता कि अमुक अर्थ प्रमाण है और अमुक नहीं ।
अतः वेद भी निरुपाय एवं अशरीरी सर्वज्ञका साधक नहीं है और इसलिये नित्यैकान्त में सर्वज्ञका भी अभाव सुनिश्चित है ।
७. जगत्कन्तु त्वाभावसिद्धि
-किन्तु हां, सोपाय वीतराग एवं हितोपदेशी सर्वज्ञ होसकता है क्योंकि उसका साधक अनुमान विद्यमान है । वह अनुमान यह है
.....' कोई, पुरुष समस्त पदार्थोंका साक्षात्कर्ता है, क्योंकि ज्योतिषशास्त्रादिका उपदेश अन्यथा नहीं होसकता।' इस अनुमानसे सर्वज्ञकी सिद्धि होती है ।
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