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हिन्दी-सारांश फल यिलता है मुक्तचित्तको नहीं, तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि धर्मकर्ता संसारी वित्तको भी उसका फल नहीं मिल सकता। कारण, वह उसी समय नष्ट हो जाता है
और फल भोगनेवाला संसारी चित्त दूसरा ही होता है फिर भी यदि आप उसे फलभोक्ता मानते हैं तो मुक्त चित्तको भी उस. का फल भोक्ता कहिये, क्योंकि मुक्त और संसारो दोनो ही चित्त फलसे सर्वथा भिन्न तथा नाशकी अपेक्षासे परस्परमें कोई विशेषता नहीं रखते। यदि उनमें कोई विशेषता हो तो उसे बतलाना चाहिए।
बौद्ध-पूर्व और उत्तरवर्ती संसारी चित्त तणोंमें उपादानो. पादेयरूप विशेषता है जो संसारी और मुक्त चित्तों में नहीं है
और इसलिए उक्त दोष नहीं है ? __जैन-चित्तक्षण जब सर्वथा भिन्न और : तिसमय नाशशील हैं तो उनमें उगदानोपादयभाव बन हो नहीं मकता है। तथा निरन्यय होनेसे उनमें एक सन्तति भी असम्भव है। क्योंकि हम आपसे पूछते हैं कि वह सन्तांत क्या है ? मादृश्यरूप है या देश-काल सम्बन्धी अन्तरका न होना (नरन्तर्य, रूप है अथवा एक कायको करना रूप है ? पहला पक्ष तो ठोक नहीं है। कारण, निरंशवादमें सादृश्य सम्भव नहीं है-सभी क्षगा परस्पर विलक्षण और भिन्न भिन्न माने गये हैं। अन्यथा पिता और पुत्रमें भी ज्ञानरूपसे सादृश्य होनेसे एक सन्ततिके मानने का प्रसङ्ग आवेगा । दूसरा पक्ष भी युक्त नहीं है, क्योंकि बाद्धोंके यहां देश और काल कल्पित माने गये हैं और तब उनकी अपेक्षासे होनेवाला नैरन्तये भो कल्पित कहा जायगा, किंतु कल्पितसे कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है अन्यथा कल्पित भग्निसे दाह और मिथ्या सर्पदंशसे मरणरूप कार्य भी हो
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