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स्याद्वासिद्धि
और अन्यथानुपपत्ति ही हेतुकी गमकतामें प्रयोजक है, पक्षधर्मत्वादि नहीं । कृत्तिकोदय हे तुमें पक्षधर्मत्व नहीं है किन्तु अन्यथानुपपत्ति है, अतः उसे गमक स्वीकार किया गया है। और तत्पुत्रत्वादि हेतुमें पक्षधर्मात्मादि तीनों हैं, पर अन्यथानुपपत्ति नहीं है और इसलिये उसे गमक स्वीकार नहीं किया गया है। ___ अतएव हेतु, साध्य, स्मरण, प्रत्यभिज्ञा आदि चित्तक्षणों में एक पनेके बिना नहीं बन सकते हैं, इसलिये वस्तुमें क्रमसे अनेकान्त भी सहानेकान्तकी तरह सुस्थित होता है ।
___५. भाक्त त्वाभावसिद्धि वस्तुको सर्वथा नित्य मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उस हालतमें आत्माके कर्तृत्व और भोक्त त्व दोनों नहीं बन सकते हैं। कर्तृत्व माननेपर भोक्त त्व और भोक्तत्व माननेपर कर्तृत्वके अभावका प्रसंग आता है; क्योंकि ये दोनों धर्म आत्मामें एक साथ नहीं होते-- क्रमसे होते हैं और क्रमसे उन्हें स्वीकार करने पर वस्तु नित्य नहीं रहती । कारण, कतृत्वको छोड़कर भोक्तृत्व और भोक्तृत्वको त्यागकर कतृत्व होता है और ये दोनों ही आत्मासे अभिन्न होते हैं । यदि उन्हें भिन्न मानें तो 'वे आत्माके हैं अन्यके नहीं यह व्यवहार उपपन्न नहीं हो सकता । यदि कहा जाय कि उनका आत्माके साथ समवाय सम्बन्ध है और इसलिये 'वे आत्माके हैं, अन्यके नहीं' यह व्यपदेश हो जाता है तो यह कहना योग्य नहीं है; क्योंकि उक्त समवाय प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे प्रतीत नहीं होता । यदि प्रत्यक्षसे प्रतीत होता तो उसमें विवाद ही नहीं होता, किन्तु विवाद देखा जाता है।
योग-आगमसे समवाय सिद्ध है, अतः उक्त दोष नहीं है ? जैन-नहीं, जिस आगमसे वह सिद्ध है उसकी प्रमाणता
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