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हिन्दी-सारांश
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ही पक्षों में आकाश तथा खरविपाणकी तरह कारणापेक्षा सम्भव नहीं है ।
यदि कहें कि पहले असत् और पीछे सत् कार्य हमारे यहाँ माना गया है तो आपका क्षणिकत्व सिद्धान्त नहीं रहता; क्योंकि वस्तुके पहले और पीछे विद्यमान रहने पर ही वे दोनों ( सत्व और असत्व) वस्तुके बनते हैं । किन्तु स्याद्वादी जैनों के यहां यह दोष नहीं है, कारण वे कार्यको व्यक्ति (विशेष) रूपसे असत् और सामान्यरूपसे सत दोनों रूप स्वीकार करते हैं और इस स्वीकारसे उनके किसी भी सिद्धान्तका घात नहीं होता । अतः इससे भी वस्तु नानाधर्मालक सिद्ध है ।
बौद्धोंने जो चित्रज्ञान स्वीकार किया है उसे उन्होंने नानात्मक मानते हुए कार्यकारणतादि अनेकधर्मात्मक प्रतिपादन किया है । इसके सिवाय, उन्होंने रूपादिको भी नानाशक्त्यात्मक बतलाया है । एक रूपक्षण अपने उत्तरव रूपक्षण में उपादान तथा रसादिक्षण में सहकारी होता है और इस तरह एक ही रूपादि क्षण में उपादानत्व और सहकृत्व दोनों शक्तियां उनके द्वारा मानी गई हैं।
उनमें कथंचिद् भी साध्य, साधन और
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यदि रूपादि क्षण सर्वथा भिन्न हों, अभेद - एकपना न हो तो संतान, सादृश्य उनकी क्रिया ये एक भी नहीं बन सकते हैं । न ही स्मरण, प्रत्यभिज्ञा आदि बन सकते हैं । अतः क्षणों की अपेक्षा अनेकान्त और अन्वयी रूपकी अपेक्षा एकान्त दोनों वस्तुमें सिद्ध हैं । एक ही हेतु अपने साध्यकी अपेक्षा गमक और इतरकी अपेक्षा अगमक दोनों रूप देखा जाता है। वास्तव में यदि वस्तु एकानेकात्मक न हो तो स्मरणादि असम्भव हैं । अतः स्मरणादि अन्यथानुपपत्तिके बलसे वस्तु अनेकान्तात्मक प्रसिद्ध होती है
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