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हिन्दो सारांश इस तरह परलोकी नित्य आत्माके सिद्ध होजानेपर स्वर्गनरकादिरूप परलोक भी सिद्ध हो जाता है। अत: चावाको को उनका निषेध करना तर्कयक्त नहीं है। इसलिये जो जव सुख चाहते हैं उन्हें उसके उपायभूत धर्मको अवश्य करना चाहिए, क्योंकि बिना कारण के कायर्या उत्पन्न नहीं होता' यह सर्वमान्य सिद्धान्त है और जिसे ग्रन्थके प्रारम्भमें ही हम ऊपर कह आये
२. फलभोक्तृत्वाभावसिद्धि बौद्ध आत्माको भतसंघातसे भिन्न तव मान कर भी उसे सर्वथा क्षणिक-अनित्य स्वीकार करते है, परन्तु वह युक्त नहीं है। क्योंकि आत्माको सर्वथा णिक मानने में न धम बनता है और न धर्मफल बनता है। स्पष्ट है कि उनके क्षणिकत्व सिद्धान्तानसार जो आत्मा धर्म करनेवाला है वह उसी समय नष्ट हो जाता है और ऐसी हालतमें वह स्वगोदि धमफलका भोक्ता नही हो सकता। और यह नियम हे कि 'कतो ही फलभोक्ता होता है, अन्य नहीं।'
बौद्ध-यद्यपि आत्मा, जो चित्तक्षणो के समुदायरूप है, क्षणिक है तथापि उसके कार्यकारणरूप सन्तानके होनेसे उसके धर्म और धमफल दोनों बन जाते हैं और इसलिये 'कर्ता ही फलभोक्ता होता है' यह नियम उपपन्न हो जाता है ?
जैन-अच्छा, तो यह बतलाइये कि कतोको फल प्राप्त होता है या नहीं ? यदि नहीं, तो फल का अभाव आपने भी स्वीकार कर लिया। यदि कहें कि प्राप्त होता है तो कांके नित्यपनेका प्रसंग आता है, क्योकि उसे फल प्राप्त करने तक ठहरना पड़ेगा। प्रसिद्ध है कि जो धर्म करता है उसे ही उसका फल
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