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हिन्दा-सारांश अनमानविशेष भी निर्वाध सम्भव है। जैसे हमारे सद्भावसे पितामह (बाबा)आदिका अनुमान' निर्वाध माना जाता है। ____ इस तरह अनुमानके प्रमाण सिद्ध हो जानेपर उसके द्वारा धर्म और अधर्म सिद्ध होजाते हैं, क्योंकि कार्य कर्ताकी अपेक्षा लेकर ही होता है- उसकी पपेक्षा लिये बिना वह उत्पन्न नहीं होता और तभी वे धर्माधर्म सुख-दुःखादिके जनक होते हैं । अतः अर्थापत्तिरूप अनुमान प्रमाणसे हम सिद्ध करते हैं कि-'धर्मादिका कर्ता जीव है, क्योंकि सुवादि अन्यथा नहीं हो सकत ।। प्रकट है कि जीवमें धर्मादि से सुखादि होते हैं, अत: वह उनका कर्ता है, था और आगे भी होगा और इस तरह परलोकी नित्य आत्मा (जीव) सिद्ध होता है।
जीवकी सिद्धि एक दुसरे अनमानसे भो होती है और जो निम्न प्रकार है:_ 'जीव पृथिवी आदि पंच भूतोंसे भिन्न तत्त्व है, क्योंकि वह सत् होता हुआ चैतन्यस्वरूप है और अहेतुक (नित्य) है। ___ आत्माको चैतन्यस्वरूप मानने में चार्वाकों को भी विवाद नहीं है, क्योंकि उन्होंने भी भूतसंहतिसे उत्पन्न विशिष्ट कार्य को ज्ञानरूप माना है। किंतु ज्ञान भूतसंहतिरूप शरीरका कार्या नहीं है, क्योंकि स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे वह शरारका कार्य प्रतीत नहीं होता। प्रकट है कि जिस इन्द्रियप्रत्यक्षसे मिट्टी आदिका प्रहण होता है उसी इन्द्रियप्रत्यक्षसे उसके घटादिक विकाररूप कार्योंका भी ग्रहण होता है और इसलिये घटादिक मिट्टी आदि के कार्य माने जाते हैं। परन्तु यह बात शरीर और ज्ञान में नहीं
'हमारे पितामह, प्रपितामह आदि थे, क्योंकि हमारा सद्भाव | अन्यथा नहीं हो सकता था।"
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