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हिन्दी-सारांश
३. युगपदनेकान्तसिद्धि
एक साथ तथा क्रमसे वस्तु अनेकसात्मक है, क्योंकि सन्तान आदिका व्यवहार उसके बिना नहीं होसकता । प्रकट है कि बौद्ध जिस एक चित्तको कार्यकारणरूप मानते हैं और उसमें एक सन्ततिका व्यवहार करते हैं वह यदि पूर्वोत्तर क्षणोंकी अपेक्षा नानात्मक न हो तो न तो एक चित्त कार्य एवं कारण दोनोंरूप हो सकता है और न उसमें सन्ततिका व्यवहार ही बन सकता है ।
बौद्ध - बात यह है कि एक चित्तमें जो कार्यकारणादिका भेद माना गया है वह व्यावृत्तिद्वारा, जिसे अपोह अथवा अन्यापोह. कहते हैं, कल्पित है वास्तविक नहीं ?
जैन उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि व्यावृत्ति अवस्तुरूप होनेसे उसके द्वारा भेदकल्पना सम्भव नहीं है । दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्षादिसे उक्त व्यावृत्ति सिद्ध भी नहीं होती, क्योंकि वह अवस्तु है और प्रत्यक्षादिकी वस्तुमें ही प्रवृत्ति होती है ।
बौद्ध - ठीक है कि प्रत्यक्षसे व्यावृत्ति सिद्ध नहीं होती पर वह अनुमानसे अवश्य सिद्ध होती है और इसलिये वस्तुमें व्यावृत्ति - कल्पित ही धर्मभेद है ?
जैन - नहीं, अनुमानसे व्यावृत्तिकी सिद्धि माननेमें अन्योन्याश्रय नामका दोष आता है । वह इस तरहसे है —-व्यावृत्ति जब सिद्ध हो तो उससे अनुमान सम्पादक साध्यादि धर्मभेद सिद्ध हो और जब साध्यादि धर्मभेद सिद्ध हो तब व्यावृत्ति सिद्ध हो । अतः अनुमानसे भी व्यावृत्तिकी सिद्धि सम्भव नहीं है । ऐसी स्थिति में उसके द्वारा धर्मभेदको कल्पित बतलाना असंगत है ।
बौद्ध - विकल्प व्यावृत्तिग्राहक है, अतः उक्त दोष नहीं है ?
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